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मैं अखबार को बगल में दबा कर तेज कदमों से ठीक ओवर ब्रिज के नीचे जाकर खड़ा हो गया।
मैंने प्लेटफार्म पर निगाह डाली, सामने के प्लेटफार्म पर भीड़ कम थी। जबकि इतनी देर में इस प्लेटफार्म पर भीड़ बढ़ गई थी। मैं सोचने लगा प्लेटफार्म पर आने वाले, जाने वाले, छोड़ने और लेने वाले लोगों के साथ लगेज के अतिरिक्त अपनी-अपनी कहानियाँ भी होती हैं। उसी तरह उनके कंधों पर लटकी और लदी-फदी। वे भी यात्रा करती रहती हैं। उनके साथ। जैसे कि कंधे पर लटका हुआ झोला हुआ करता है। कभी-कभी जब वो थक जाते होंगे तो कहानियों के लगेज को खोलते होंगे, जिसमें न जाने कितनी उदासियाँ या प्रसन्नताएँ भरी होती होंगी। मैंने सोचा यह कैसी विडम्बना है कि स्टेशन अकेला भी करता है और अपरिचित भी करता है। और कभी-कभी तो हजारों का साथ उपलब्ध कराते हुए भी अकेला करता है। स्टेशन की यह कैसी हरकत है कि वह कहीं जिंदगी में आता है तो कहीं जिंदगी से दूर जाता भी है। लोग पता नहीं किन दुखों के साथ उतरते हैं या किन खुशियों के साथ चढ़ते हैं।

तभी मैंने दूर लोहे की ठण्डी बैंच पर अपने सामान को छाती से चिपकाएँ एक अधेड़ आदमी को बैठे देखा।

वह बदहवासी में चारों ओर तेजी से अपनी गरदन घुमा कर देख रहा था। फिर कुछ देर बाद उसी तरह अपने सामान को छाती से चिपकाएँ वह झटके से खड़ा हो गया और बैंच के पास से गुजरते आदमियों से कुछ पूछने लगा। शायद उसे उसके प्रश्न का कोई वाजिब उत्तर नहीं मिला था। इसलिए अब उसकी मुद्रा जिरह करते आदमी सी हो गई थी। हो सकता हो, मैंने अनुमान लगाया कि वह कोई ठीक-सी जानकारी हासिल करना चाहता होगा और सामने वाला उसे टालने के मूड में होगा। अंत में वह आदमी, जिससे सवाल पूछा जा रहा था। झुंझला उठा था। और झिड़क कर उसे छोड़ आगे बढ़ गया।

वह शख्स, जो बदहवास सा लग रहा था। फिर से अकेला रह गया था।
उसने आसपास बैचेनी से गरदन घुमाई और बैंच पर उसी जगह फिर से बैठ गया।
अब तक मैंने अपनी बदहवासी पर काफी कुछ नियंत्रण पा लिया था। फिर भी भीतर एक धुक-धुकी बनी हुई थी। अशुभ और अघट की। बावजूद इसके मुझमें उस आदमी की बदहवासी की वजहों में जाने क्यों रूचि लेने की इच्छा हुई। लोहे की बैंच ज्यादा दूर नहीं थी। मैं तेज कदमों से बढ़ा और बैंच के दूसरे छोर पर जा कर बैठ गया। हम दोनों के दरम्यान बीच बैंच पर सेना के सिपाहियों के बक्से रखे हुए थे। वे दूर खड़े चाय पी रहे थे। मैंने बैग को इत्मीनान से बैंच पर रख दिया और हाथ सीधा करने लगा। मैंने फिर उसकी तरफ देखा। उसके कंधों में अजीब सी जुम्बिश हुई। उसने गहरी साँस लेते हुए सर उठाया। इतनी दूर से भी मैंने यह जान लिया था कि उसकी आँखों में नमी है। वह नम आँखों से स्टेशन की छत से टँगे बंद पंखों पर बैठे जंगली कबूतरों को देख रहा है। जब भी वह आँखें घुमाता तो यह साफ-साफ दिखाई देता कि उसकी सफेद आँखों के हिस्से पर लाल डोरों के जाल है। लेकिन वे किसी नशेखोर की आँखों की तरह नहीं जान पड़ती थी। जैसे लाल डोरों की इबारत में किसी बदहवास जीवन की उलझी कहानी लिखी हुई हैं।

उसने फिर एक लम्बी साँस ली और बैंच से अपनी पीठ टिका दी। फिर आँखें बंद कर ली। जैसे खुली आँखों से बाहर देखे गये कबूतरों के बारे में अंदर लौट कर कोई चिंतन कर रहा है। हो सकता है उन कबूतरों के बारे में सोच रहा हो या बाज के उन पंजों के बारे में याद कर रहा हो, जो एक झपट्टे के साथ कबूतर की गर्दन में धँस जाते है।

मैंने घड़ी देखी। गाड़ी जाने में दस मिनट शेष रह गये थे। भीड़ सघन होने लगी थी। गाड़ी में चढ़ने के लिए यात्रियों ने सामान के साथ आगे बढ़ कर 'पोजिशन' ले ली थी।

मैं बैंच से उठा और प्लेटफार्म के अगले हिस्से में आ गया ताकि गाड़ी के आते ही बोगी में लगे हाथ दाखिल हो सकूं। मैंने देखा रेल की पटरियाँ एक दूसरे के समांतर दूर तक चली गई थीं। और कहीं किसी गाड़ी के आने के नामोंनिशान नहीं लग रहे थे। प्लेटफार्म पर लगे भोंगे में आने वाली गाड़ी के बारे में एक स्त्री-स्वर सूचना दिये जा रहा था, जिसका कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। पटरियाँ समानांतर और सीधी थी कि वे प्लेटफार्म से दूर निकल कर लगभग क्षितिज में धंसती सी जान पड़ती थी।

मैं धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ ओवर ब्रिज के नीचे आ कर खड़ा हो गया। गर्दन मोड़ कर पीछे देखा, वह शख्स जो कुछ देर पहले अपना सामान छाती से चिपकाएँ आँख मूँद कर बैंच पर बैठा हुआ था, अब वह खड़ा हो गया था। मैं एकटक उसे देखने लगा। इसी बीच उसकी नजरें मेरी नजरों से टकरा गई। जाने ऐसा क्या हुआ कि नजरें मिलते ही बिजली की गति से वह चलता हुआ, मेरे पास आकर ठिठक गया, फिर आँखों में आँखें डाले हुए, चुपचाप देखता रहा। बाद इसके उसने बेसाख्ता एक सवाल दाग दिया। 'सुनिए, मुझे आकाश लोक जाना है। उसके लिए ट्रेन किस प्लेटफार्म से जाती है।` उसका सवाल तीखा और अप्रत्याशित था कि उसने मुझे लगभग डरा दिया। क्षण भर के लिए तो मुझे कुछ नहीं सूझा।

'कोई ट्रेन आकाशलोक नहीं जाती।' मैंने विरक्ति के साथ कहा।
'लेकिन, जरा देखिये तो! ये पटरियाँ तो ठीक उसी तरफ जाकर क्षितिज में घुस गयी है।' वह जिरह पर उतरने के निकट आ गया था। मैंने गरदन मोड़कर पटरियों को देखा-वाकई, पटरियाँ अपने अंतिम से धूमिल होते छोर पर आकाश में धँसती-सी जान पड़ती थी। कुछ देर मैं वहीं देखता रहा। क्षितिज ऐसा लग रहा था, जैसे जमीन से आकाश टिक गया है और वहाँ से अथाह समुद्र शुरू होने वाला। मुझे लगा जैसे धड़धड़ाती कोई ट्रेन तेज गति से इन पटरियों पर दौड़ती हुई समुद्र में गिर जायेगी। कल्पना भयावह थी। मैंने उधर से निगाह हटा ली। लेकिन, वह अभी भी मेरी ही तरफ ताक रहा था। जैसे उसे अभी भी आकाश की ओर जाने वाली गाड़ी की मुकम्मल जानकारी मिलने की उम्मीद हो।

'क्या आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते ? या आपके पास उत्तर ही नहीं है।' उसने सवाल ऐसी आवाज में पूछा जैसे वह पहले ही क्षण झूम कर मेरा गरेबान पकड़ लेगा। मैंने उत्तर देने के बजाय वहाँ से हट जाने की सोची, लेकिन वहाँ से हटने का अर्थ गाड़ी में चढ़ने से चूक जाना होगा।

नतीजतन, अन्य मनस्क-सी मुद्रा बनाकर मैं दूर देखने लगा। 'देखिये, मैंने सवाल आपसे ही किया था। मुझे लगा कि आप ही वही वाजिब शख्स हैं, जो मुझे पुख्ता उत्तर दे सकते हैं। उसकी टिप्पणी पर मैंने उसकी तरफ देखा। आँखों में एक दारूण कातरता और आवा में पीड़ाग्रस्त याचना ऐसी, जैसे कभी-कभी कैंसर का कोई रोगी पूछता होगा, अपनी डॉक्टर से सवाल कि क्या कैंसर की कोई दवाई नहीं है ? मैं भीतर तक एक अव्यक्त-सी करूणा से भर उठा।

मैं चुपचाप हतप्रभ सा उसे एकटक देखता ही रहा।
कुछ पल ऐसे ही एक दूसरे की आँखों में आँखें डाल कर देखते हुए बीत गये फिर वह अचानक मुड़ा, बिजली की गति से। और उसने आकर ठेठ मेरे कंधे पर अपना सर रख दिया। अभी तक तो वह जैसे-तैसे चुप था, लेकिन अब वह बुरी तरह रोने लगा था। बे आवाज रूदन। फूट-फूट कर।

मैं सकपका गया। मैं उससे कुछ कहता लेकिन भीगता हुआ कंधा, उसकी आँच जैसे वाणी के कई-कई रूपों और अर्थों में मेरे भीतर उतर रही थी। वह रोता रहा फिर उसने अपना एक हाथ मेरे दूसरे कंधे पर रख दिया। उसने अपना सर उठाया। मुझे देखा। फिर स्टेशन की हवाओं में सर घुमाया जैसे कोई बड़ा बोझ उतर गया हो। वह हल्का और सुकून भरा दिखने लगा। मैंने पहली बार बहुत गौर से उसे देखा। उसके बाल घुंघराले, नाक लम्बी और रंग गेहुँआ था। मूँछ की हल्की सी रेखा। आँखों में नमी का बवंडर था। मैंने उससे कहा, 'तुम्हें, मैं पहचानता नहीं हूँ। और न ही तुम मुझे पहचानते हो। ये अचानक मेरे कंधे पर अपना सर रख कर इस तरह क्यों रोने लगे ? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आखिर बात क्या है ?

वह अब काफी सहज हो गया था। हालांकि, कुछ लोग हमें कनखियों से देख रहे थे।
स्टेशन का यही फायदा है कोई भी भ्रम बन सकता है। मसलन स्टेशन पर खड़े देखने वाले लोग हमें भाई-भाई समझ रहे होंगे। जो विदा देने आया है। जाते वक्त कदाचित् उसका दिल भर आया। उसने मुझे प्यार से देखा और थोड़ा और पास आ गया। फिर बोला 'मैं आपको नहीं जानता और ना ही आप मुझे जानते हैं। हम दोनों ने शायद पहली बार एक दूसरे को देखा है। फिर भी पता नहीं क्यों, आपके चेहरे, आँखों से लगा कि मेरे अंदर जो भी है। जो घुमड़ रहा है, उसके बरसने के लिए यही एक वाजिब कंधा हो सकता है। देखिये रोने के लिए विश्वसनीय कंधा और आत्मीयता की कुनकुनी आँच से भरा हाथ पीठ पर महसूस हो तो दर्द में झरते आँसुओं की सार्थकता हो जाती है।

उसने भीतर के बोझ के हल्के होने की तरह गरदन घुमाई। हवाओं में उसके घुँघराले बाल लहराये। वह एकाएक पलटा और भीड़ में गुम होने ही वाला था कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। ट्रेन अभी आयी नहीं थी। भीड़ काफी बढ़ गई थी। मैंने उससे कहा, 'जब तुमने मुझे इतना अपना समझा है तो बताओ कि तुम्हारे साथ हुआ क्या है ? उसके चेहरे की हड़बड़ी जैसे थम गई, पलकों में नमीं का बवंडर फिर उठने लगा। उसका चेहरा किसी सवाल में बदल गया।

उसने आँखों में आँखें डाल कर कहा 'आप त्रासदी का अर्थ जानते हैं ? नहीं न ! त्रासदी का अर्थ होता है, उन अपराधों के लिए सजा पाना, जो आपने किये ही नहीं।' उसकी आवाज का तारत्व ऊँचा और गाढ़ा हो गया था।

'अरे, येल्लो, मेरी ट्रेन तो आ गयी। उसकी सीटी सुनाई दे रही है। वह सामने के प्लेटफार्म पर है। मैं चलता हूँ, वर्ना छूट जायेगी`। उसने बेसाख्ता कहा और अपने झोले को कसकर छाती से चिपकाया और भागता हुआ सा ओव्हर ब्रिज की सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।

मैंने चौंक कर सामने के प्लेटफार्म की तरफ देखा वह तो बिलकुल खाली-खाली-सा ही था और हवा में रेल की कहीं किसी तरह की सीटी नहीं सुनाई दे रही थी। पता नहीं उसने कौन-सी ट्रेन की सीटी कहाँ से सुन ली थी!

सीटी की आवाज लगभग तीन चार मिनट गुजर जाने के बाद आयी। मेरे वाले प्लेटफार्म पर सामानों के साथ यात्री चौकन्ने हो गये। कुलियों ने सामान कंधों पर चढ़ा लिया, क्योंकि यहाँ पर ट्रेन का स्टॉप केवल एक मिनट भर का था। मैंने भी कंधे पर लटके अपने बैग की बदि्दयाँ कसकर पकड़ लीं। भीतर से पूरी तरह तैयार कर लिया खुद को की ट्रेन के रूकते ही धड़ाक से उछलकर डिब्बे के दरवाजे में घुस जाऊँगा।

ट्रेन धड़धड़ाती प्लेटफार्म में प्रवेश कर रही थी- एक के बाद एक डिब्बे आँखों के सामने से गुजरते जा रहे थे। फिर ट्रेन में ब्रेक लगे। प्लेटफार्म पर शोर बढ़ गया। जनरल की बोगी ओव्हर ब्रिज के ठीक नीचे नहीं रूकी, बल्कि कुछ दूर जाकर रूकी। मैंने अपना बैग ठीक से पकड़ा और भागा तथा कुछ क्षण में ट्रेन में चढ़ने वाली भीड़ का हिस्सा बन गया।

भीड़, भीड़ नहीं कोई लौह दीवार थी। कुलियों ने दरवाजे को लगभग घेर लिया था और वे अपने निर्धारित यात्रियों को तथा उनका सामान चढ़ाने में भिड़ गये थे। केवल एक मिनट रूकने वाली ट्रेन किसी मोर्चे में बदल गई थी। जैसे वह डिब्बे का दरवाजा नहीं, बल्कि बंकर हो। तभी वे सैनिक जो कुछ देर पहले चाय पी रहे थे, दौड़ कर अपने बक्सों के साथ आ गये और उन्होंने कुलियों की कतार को ध्वस्त किया और अपना सामान चढ़ाने लगे। एक मिनट का वक्त भाप बनकर उड़ गया। ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ने की सूचना देने के लिए गगनभेदी सीटी मारी और डिब्बों ने गति पकड़ ली।

मैं चढ़ने की जद्दोजहद में शर्ट की बटन तुड़वा कर प्लेटफार्म पर ही छूट गया था। विदाई देने वालों के हाथ हिल रहे थे।

मैंने ट्रेन के कूच करने की दिशा में देखा, वहाँ भी कुछ लोग ट्रेन में चढ़ने से रह गये थे और अपनी असफलता की उदासी में मुँहबाये झुँझलाते हुए जाती हुई ट्रेन को देख रहे थे। मैं कुछ पल उधर ही एक हारे हुए आदमी की व्यथा से भरा देखता रहा और मुड़ कर देख तो पाया कि ओव्हर ब्रिज के नीचे एक छोटी-सी भीड़ थी। शायद डिब्बे में चढ़ने की कोशिश में कोई गिर पड़ा था।

मैं रेल्वे के ओव्हर ब्रिज के नीचे जमा भीड़ के करीब से गुजरा। प्लेटफार्म पर गश्त करती पुलिस के दो जवान भी भीड़ में दिखायी दे रहे थे। जो ऊँची-ऊँची आवाजों में गिरे हुए आदमी को घेर कर खड़ी भीड़ को हड़का रहे थे।

मैंने भीड़ में निकट जाकर अपनी मुण्डी डालकर अंदर देखा। वहाँ एक आदमी औंधा पड़ा हुआ था।
'सर ये ओव्हरब्रिज से कूदा है। शायद ट्रेन के सामने कूदना चाहता था।` भीड़ में किसी ने कहा। पुलिसवाले ने औंधे पड़े आदमी के पेण्ट की पीछे की जेब से दिखाई दे रहे बटुए को निकाला।

शायद, वह तहकीकात करना चाहता था। बटुए में से कुछ मुड़े तुड़े नोट निकले, जिन्हें उसने वापस बटुए में खोंस दिया। फिर बटुए की दूसरी तरफ की चैन खोली। उसमें से एक परिचय पत्र निकल आया। चमकीला सा था। नीले रंग का, जिसमें सफेद हर्फों में विवरण दर्ज था। पुलिसवाले ने परिचय पत्र की इबारत पढ़ना शुरू की। नाम सत्यदेव दुबे पिता हरिश्चन्द्र दुबे। जन्म तारीख १२.१२.१९६५। कनिष्ठ अधिकारी....।

मेरे कानों को आर-पार करती हुई ट्रेन की सीटी बजने लगी। आँखें मुँदने लगी। आगे मुझे कुछ भी सुनायी नहीं दे रहा था। कहीं दूर डूबती आवाज में किसी औरत की चीखती आवाज सुनाई देने लगी 'नहीं, यह दुर्घटना नहीं है - उन लोगों ने दिनदहाड़े उनकी हत्या कर दी है। उन्हें मार दिया गया है। वे कई-कई दिनों से उन्हें मारने में लगे थे।

मैंने एक लम्बी-साँस ली और उस छोटी-सी भीड़ से लगभग छिटक कर बाहर निकल आया। दूर आते हुए मैंने एक बार मुड़ कर प्लेटफार्म की तरफ देखा। वहाँ लटक रहा धारदार पंखुड़ियों वाला पंखा तेजी से घूम रहा था और पंखे को लटकाये रखने वाली रॉड पर एक कबूतर बहुत ही असुविधाजनक ढंग से तिरछा हो कर बैठा हुआ था। मुझे लगा कि जैसे ही वह रॉड छोड़कर उड़ने के लिए पंख फैलायेगा, तेजी से घूमते पंखे की पंखुड़ियों से टकरा कर प्लेटफार्म पर लहू-लुहान होता हुआ आ गिरेगा।

कबूतरों के पास से कहाँ बरामद होते हैं परिचय पत्र। बस उनकी गुटर-गूँ ही होती है, उनका परिचय पत्र। मुझे लगा, मेरे पैर थक गये हैं और मेरे लिए मेरे झोले का वजन उठा पाना भी मुश्किल हो रहा है।

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१७ जनवरी २०११

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