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"...क्या फिर दिखे थे वह लोग ?"
"हाँ... वह हत्यारे...ऊपर से नीचे तक सफ़ेद आकृतियाँ..."
"कुछ कहा ?"
"नहीं, कुछ कहते नहीं वह लोग, सिर्फ भय देते हैं...एक बे आवाज़ डर..."
"और जे भी दिखे क्या...?"
अरुणा के इस सवाल पर दमयंती कसमसा उठी...
"कहाँ दिखते हैं जतिन...? जाने के बाद एक बार भी नहीं दिखे...बस उनकी आवाज़ सुनाई देती है, अँधेरे में सनी लिथड़ी मन को चीरती हुई आवाज़..."
"क्या कहते हैं ?"
"वही, जो जाने के पहले कहते थे... हारना मत। हत्यारों को जीतने मत देना... वह अगर मुझे मार भी दें तो तुम आगे बढ़ कर कमान सम्हाल लेना। हम अब तक अपने बेटे के लिए ही जिए हैं, तुम ......"
"क्या तुम ?, उसके आगे..."
"उसके आगे क्या...हर बार जतिन के बोलने के दौरान एक कोलाहल उमड़ पड़ता है, जैसे आकाश चीरती हुई शंख ध्वनि, हज़ार नगाड़ों की तेज़ आवाज़, बादलों की भयानक गडगडाहट ...फिर उसके बाद कुछ सुन पाना कठिन हो जाता है और उभर आती हैं वह सफ़ेद आकृतियाँ... हठात एक स्तब्धता छ जाती है और भय..."
दमयंती कहते कहते चुप हो गई। अरुणा भी चुप रह गई। एक मौन पसर आया है उन दोनों बहनों के बीच।
आज जतिन को गए बयालीसवां दिन शुरू हो रहा है। उन्हें मौत सड़क पर से उठा कर ले गई। बहाना कुछ भी हो सकता है।
ट्रैफिक...
सड़क पार करते हुए जतिन की भयभीत मनःस्थिति...
जतिन के भय के विविध रंगों में सफ़ेद आकृतियाँ...
कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है कि सफ़ेद आकृतियों ने चौतीस वर्षीय दमयंती को सफ़ेद साड़ी में लपेट दिया है। लेकिन दमयंती जानती है क्योंकि जतिन जानता था।

अरुणा कुछ नहीं जानती।

वह चालीस दिनों से अपनी बड़ी बहन के साथ है। जानने की कोशिश में है लेकिन बस इतना जान पाई है कि कुछ सफ़ेद आकृतियाँ हैं जो दमयंती को दिन रात चौंका कर डरा देती हैं। उसके ऊपर भय इतना भारी है कि भीतर का शोक उभर कर अपनी जगह नहीं बना पा रहा है। अरुणा कोशिश में है कि दमयंती कुछ ऐसा कहे जो उसे विह्वल करे और उसके भीतर से रोना फूट पड़े। वह पल अभी अरुणा को दूर दिखता है। अभी तो दमयंती बस एक पत्थर का टुकड़ा है।

अँधेरी रात के बीच एक खामोशी पसरी हुई है।

तभी, बेहद उथली नींद में कसमसा कर जतिन की माँ करवट बदलती है... वह आँगन में, ऊपर दमयंती के कमरे से गिरे हुए उजाले के टुकड़े को देखती है, अरुणा की खाली चारपाई को देखती है और सिसकने लगती है। जतिन का बेटा उसके पास सोया हुआ है। माँ चादर खींच कर उसे ढक देती है ताकि उसकी हलचल से बच्चा जग न जाय। तमाम कोशिशों के बावज़ूद माँ की सिसकन तेज़ होती जाती है। और अंततः आँगन में पड़े रौशनी के टुकड़े की राह पकड़ दमयंती के कमरे तक पहुँच जाती है।

"अम्मा का फिर रोना शुरू हो गया है..." अरुणा कहती है।

दमयंती चुप है।

"तुम भी रोओ न दीदी, अम्मा के रोने में हिस्सा बाँट करो, नहीं तो उसका रोना कैसे चुकेगा...? बताओ।

दमयंती सिर घुमा कर अपनी नज़र अरुणा के चेहरे पर टिका देती है।

"अरुणा, मौत के अपना काम कर गुजरने के ठीक बाद, अगले ही पल, अगले ही घंटे, अगले ही दिन से वह घटना अतीत होने लगती है। मौत तो एक गहरा शोक छोड़ कर चली जाती है, लेकिन एक एक पल, एक एक घंटा, एक एक दिन उस शोक का रंग और आकर बदलता जाता है। शोक का कारण बदलता जाता है। जैसे सूरज के चढ़ने ढलने के साथ पेड़ की परछाईं अपना कद अपनी जगह बदलती है, उसी तरह समय के साथ शोक भी अपना कद और वज़न कभी एक सा नहीं रखता।

स्मृतियाँ, मौत के ठीक पहले से जुड़ा वर्त्तमान और भविष्य का विस्तार, शोक लहर की डोर तो दर असल इन्हीं के हाथ होती है। अम्मा का शोक भी इसी विस्तार के बीच, अब इन बयालीस दिनों में कहीं ठहरा हुआ होगा......। लेकिन मेरे भीतर तो भय है अरुणा, एक विकल करता आक्रोश जो अपने आप में एक भारी शिला बन गया है। वह मरने के दिन तक जतिन के कन्धों पर था, अब मेरे कन्धों पर है। मेरे हिस्से में शोक का विलास कहाँ है अरुणा...? सब कुछ उन सफ़ेद आकृतियों ने छीन लिया है मुझसे। मेरा पति छीन लिया है और मेरे लिए शोक परिधि का दरवाज़ा भी बंद कर दिया है।
माँ को रोने दो... वह मेरे बदले भी रो ले। वह माँ है और सिर्फ माँ ही इतना बड़ा शोक निर्भय हो कर सह सकती है..."

अरुणा दमयंती का चेहरा देख रही है... एकटक।
अपने रहते इन चालीस दिनों में दमयंती से इतने सारे शब्द अरुणा ने पहली बार एक साथ सुने हैं... नहीं तो बस, दिन हो या रात, केवल यही,

"... अभी अभी फिर वही सफ़ेद...।"
" हत्यारे..."
" ... "
इन बयालीस दिनों में पहली बार दमयंती के मुंह से जतिन का नाम निकला है, लेकिन आँसू नहीं निकले। आँखें तो पहले से ही पथराई हुई थीं।

अरुणा ने उठ कर दमयंती की पीठ पर अपना हाथ रख दिया...
"दीदी, सब बताओ...क्या हुआ था... जे के भीतर भय कहाँ से आया था...?"
"भय वहीँ से आया था अरुणा, जहाँ जतिन के भीतर यह हौसला आया था कि वह अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर कुछ अच्छा बना ले जाएँगे... जहाँ जतिन काम के दस ग्यारह घंटे गुजारते थे..."
"कैसे...?"
"वहाँ कुछ जान लिया था जतिन ने, जो जान लेना उन सफ़ेद आकृतियों के लिए खतरनाक था।, और उनको इस बात का पता लग गया था... "
"फिर ?"
"फिर क्या... गहरा दबाव, आतंक। हालांकि, जतिन का उस जानकारी को किसी के खिलाफ इस्तेमाल करने का कोई इरादा नहीं था। यह जतिन की प्रकृति में ही नहीं था, वर्ना तनाव सह पाने का अपना तंत्र भी होता उनके पास। लेकिन उस जानकारी के नतीजे से परेशान जरूर थे जतिन..."
" हूँ..."
अरुणा की 'हूँ' में उसके भीतर की व्यग्रता छलक आई थी।
"चौबीस घंटे जतिन पर नज़र रखी जाती थी...उसकी मेज़ खाली करा ली गई थी। टेलीफोन हटा लिया गया था। मरने के तीन दिन पहले जतिन को शक हुआ था कि उसकी कॉफी उसे उनींदी सी तन्द्रा में ले जाने वाली होती है। उसके एक दिन बाद एक चपरासी के हाथ उसकी मेज़ पर रखा पानी का गिलास जतिन के मोबाईल पर उलट गया था। इस तरह उनके एक दिन पहले उसका मोबाईल मरा..."

अरुणा को यह सारी बातें बुरी तरह हिला गईं थीं लेकिन उन्हें बताते समय दमयंती कहीं तरल नहीं हुई। वह शिला थी, शिला बनी रही।

कुछ देर हवा में सिर्फ चुप्पी तैरती रही।

तभी दमयंती ने चीख कर कहा,
" ये जतिन कभी मुझे नज़र क्यों नहीं आते...? डरते हैं कि मैं उनके सामने बहुत से सवाल रख दूँगी। आखिर वह क्या राज़ था जिसका उजागार हो जाना इतना खतरनाक था उन सब के लिए... उसमें जतिन खुद शामिल नहीं थे तो वह भीतर से मजबूत क्यों नहीं थे...?
लेकिन वह तो बस एक आवाज़ बन कर आते हैं मेरे पास, और पीछे पीछे आता है उसे ढँकता शंखनाद... एक दिन मैंने तो इतना कहा था कि यह नौकरी ही छोड़ दो, तो चुप हो गए थे, वह इस बात से भी डर गए थे जैसे..."
कुछ पल ठहर कर अरुणा ने अपना अगला सवाल सामने रखा...
"... और यह ओंकार जी कौन हैं। ?"
दमयंती के चेहरे पर एक लहर आ कर गुज़र गई।
"यहीं पास में एक स्कूल में हेड मास्टर हैं। बुज़ुर्ग हैं, लेकिन चेतन हैं। जतिन का सिर्फ उन्हीं से बोलना बात करना होता था। इसे चाहे दोस्ती कह लो या तिनके का सहारा।

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