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बेटे ने एक लोहे की आराम- कुर्सी खरीद दी थी, जो खिड़की के पास रखी होती थी। जिस पर बैठे-बैठे वे लोगों को आते-जाते देखते अपना पूरा दिन काट देते थे। लोगों की आवाजाही से जुड़कर अपने स्थिर हो जाने को किसी हद तक वे भूल जाते थे। वे एक सीधे-सादे उच्च विचार वाले व्यक्ति थे और दुनिया को बेहतर बनाने का ख़्वाब देखने वाले प्राइमरी स्कूल के शिक्षक थे। बेटे सुरेश पर भी उनके विचारों का प्रभाव पड़ा था और वह तो बचपन से ही कविताएँ भी लिखने लगा था। बेटे की कविताओं को पढ़ना उन्हें अच्छा लगता था और उन्हें यह संतोष होता था कि उनमें से कुछ बातें उनके विचारों का काव्यानुवाद है। बोध के स्तर पर उनका बेटा सचमुच उनका वारिस है।

उनकी मौत आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही हुई थी। इसलिए सुरेश को वह कुर्सी विशेष प्रिय थी। बीस साल पुराने टेबुल के सामने इस लगभग नई आरामकुर्सी पर अधलेटे बैठ कर कविता लिखता था। कुर्सी उसने बड़ी मुश्किल से किश्तों में ख़रीदी थी। पिता की बीमारी के चलते उसकी आर्थिक स्थिति खराब थी ही क्रिया-कर्म के चक्कर में और बिगड़ गई और नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि बिजली का बिल अदा न कर पाने के कारण उसकी लाइन काट दी गई..और लालटेन और दीये की रोशनी से उसके परिवार को काम चलाना पड़ रहा था।

अर्थाभाव के कारण सुरेश की पत्नी निर्मला का स्वभाव किसी हद तक चिड़चिड़ा हो गया था। हर बात पर लड़ने-भिड़ने को आमादा रहती। घर का कामकाज भी वह ठीक से नहीं करती थी। वह एक सम्पन्न घर की लड़की थी और कालेज के दिनों में वह सुरेश की कविताओं पर इस कदर फिदा थी कि उससे विवाह करने के लिए अपने घरवालों के सामने अड़ गई थी जिसके कारण उन्होंने कुछ अप्रसन्नता के साथ भारी मन से इस पर सहमति दे दी थी।
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उस दिन सुरेश अपनी खटारी साइकिल पर थका-माँदा घर लौटा था। आते ही रोज की तरह स्नान किया क्योंकि जूट मिल में मशीनों के चलने से पटसन का गर्दा उड़ता रहता है और उसमें उस केमिकल के तत्व भी शामिल रहते हैं जिसका छिड़काव पटसन को संरक्षित करने के लिए उस पर किया जाता है। चाँपाकल से पानी निकालकर स्नान करने के बाद वह खाने के लिए बैठा तो पाया कि आज रोटी कुछ अधिक बेस्वाद और जली-जली सी थी। सब्ज़ी में मिर्च और नमक भी रोज की तुलना में अधिक लगा। वह चुपचाप खाता रहा। एकाध बार पहले वह इस मामले में मुँह खोल चुका है, जिस पर पत्नी के मन की भड़ास बाहर निकलने लगी थी। उसने अपने जी को समझा लिया था कि यह पत्नी की निराशा और कड़ुवाहटों की अभिव्यक्ति है। हालात बदलेंगे तो सब ठीक हो जाएगा। हालाँकि कमी उसमें भी थी। उसे आजकल रोटी पिछले दिन की तुलना में अधिक बेस्वाद, सब्ज़ी अधिक तीखी और दाल अधिक खारी लगती थी। शायद उसके आस्वाद को भी विपन्नता ने डस लिया है।

लालटेन की मंद रोशनी में खाने के बाद वह चुपचाप उठा और अपनी टेबिल के आगे आरामकुर्सी पर बैठ गया जिस पर उसके पिता बैठा करते थे। कुर्सी पर बैठने के बाद उसे थोड़ी राहत मिलती थी और लगता था कि वह आराम नहीं कर रहा है बल्क़ि अपनी तकलीफ़ों से निकालने का रास्ता बना रहा है। वह अपने बच्चों के लिए बेहतर कपड़े खरीदने और पत्नी के लिए ज़ेवर गढ़ाने का प्रयत्न कर रहा है। जैसे कुर्सी पर बैठकर अपनी साइकिल को एक दिन कार में बदल देगा और इस चूते मकान को आलीशान बँगले में। यह रास्ता उसे मिलता अपनी कविताओं से। वह देर रात तक कुर्सी पर बैठकर सोचता और इन्तज़ार करता अच्छी भावनाओं और कल्पनाओं के आने का, जो अनायास ही किसी और दुनिया से चली आतीं और वह उन्हें शब्दों में व्यक्त कर देता। एक अच्छी खुशनुमा कविता लिखने के बाद वह कई दिन तक रोमांचित रहता और उसे लगता कि उसका जीवन अब भी जीने लायक बचा हुआ है। वह अब भी अपनी और बाहर की दुनिया को खूबसूरत बनाने में जुटा हुआ है। एक अच्छी कविता लिखने के बाद उसे संतोष होता कि उसने दुनिया को कुछ दिया है। बच्चों और पत्नी के प्रति भी अपने कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वाह किया है, भले ही शब्दों में। कभी-कभार वह अपनी कविताएँ पत्नी और बच्चों को सुनाता जिस पर वे हँसते और कहते-'लिखने भर से हमारी विपदाएँ दूर नहीं हो जाएँगी।'

रोज की तरह सुरेश इस दिन भी देर तक वह जागता रहा और दुनिया की खुशहाली के सपने देखता रहा और जो खयाल आए उन्हें पन्नों पर लिखता रहा। उसका शरीर रोमांचित और मन पुलकित था... क्या अच्छे खयाल आए हैं। वाह!! उसने ख़ुद की तारीफ़ की और कब वह कुर्सी पर ही सो गया पता ही नहीं चला। टेबुल पर जलती हुई डिबरी तेल खत्म होने के बाद बुझ गई। बाकी परिवार पहले ही सो चुका था।

सुबह पड़ोसी के मुर्गे की बाँग सुनकर उसकी नींद खुली। उसने आँखें खोली लेकिन प्रकाश के कारण उसकी आँखें चुँधिया गयीं। खिड़की से सूर्य की किरणें सीधे मुँह पर आ रही थीं। उसे अब याद आया- अरे वह तो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सो गया था। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। उसने टेबुल पर देखा वह कागज पड़ा हुआ था जिस पर उसने अपनी जि़न्दगी की संभवत: सबसे बेहतरीन कविता लिखी थी। क्षण-भर को वह कुर्सी पर बैठे-बैठे सोने की वजह से लगभग अकड़ गए शरीर की व्यथा को भूल गया। कविता को उसने मेज की दराज में रखा और एकाएक उसकी निगाह कुर्सी पर गई। वह चौंक गया। सूर्य का प्रकाश कुर्सी पर पड़ रहा था और कुर्सी ऐसे चमक रही थी जैसे वह सोने की हो। उसने मन ही मन कहा- 'वाह प्रकाश भी क्या चीज है! नीले रंग की मामूली लोहे की कुर्सी भी सोने की कुर्सी जैसी लगने लगती है।' उसने ठाना वह प्रकाश पर एक पूरी काव्य-शृंखला ही लिखेगा। उसने खिड़की बंद की और प्रात:कर्म से निवृत्त होने चला गया।
लौटकर जब वह अपने कमरे में आया तो उसने पाया कि उसकी कुर्सी परिवार के अन्य सदस्यों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। कमरे की खिड़की खुली हुई थी किन्तु सूर्य की किरणें हालाँकि अब कुर्सी पर नहीं पड़ रही थीं फिर भी कुर्सी सुनहरे रंग की दिखाई दे रही थी।

बेटे बबलू ने तपाक से पूछा-'आप यह सुनहरे रंग की वार्निश कहाँ से ले आए? मेरे लिए भी ला दीजिए न ! मैं अपनी साइकिल पर लगाऊँगा। उसका रंग जगह-जगह से उतर गया है।'
निर्मला-'मैं भी कहूँ कि रात भर ये कर क्या रहे हैं? मेरी तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए मैं गुस्से से यह देखने नहीं आई कि ये रात भर कुर्सी पर वार्निश लगाने में जुटे हुए हैं। अरे, ऐसा ही शौक था तो छुट्टी के दिन करते। रात भर जागने की क्या जरूरत थी? पर मेरी बात सुनता कौन है?'
सुरेश-'बंद करो तुम लोग अपनी बकवास! मैं बबलू की कारस्तानियों से तंग आ गया हूँ। यदि उसे अपनी साइकिल पर वार्निश लगाने की इच्छा है तो लगाए मैं क्यों मना करूँगा ? पर उसे कुर्सी पर वार्निश लगा कर देखने की क्या जरूरत थी। वह जानता नहीं है.. इस कुर्सी से मेरे बाबूजी की भी यादें जुड़ी हैं। कितनी परेशानियों से यह कुर्सी मैंने उनके लिए खरीदी थी। उसका रूप-रंग बदल कर रख दिया इस कम्बख़्त ने। देखने से अब लगता ही नहीं कि यह वही आरामकुर्सी है। इस पट्ठे ने वार्निश को साइकिल पर लगाने से पहले कुर्सी पर लगाकर देखा। तुम लोग जान लो कि मैं इस घटना से बहुत दुखी हूँ। बबलू से मुझे आज तक कभी कोई शिकायत नहीं रही है पर आज उसने जो किया है उससे मेरा दिल टूट गया है। ..और अगर गलती कर भी दी तो मान लेने में क्या हर्ज़ है? मैं रात में डिबरी की मंद रोशनी में कुर्सी पर लगी वार्निश देख नहीं पाया और उसी पर बैठा रहा सारी रात। मान लो वार्निश ठीक से सूखी न होती तो मेरा पायजामा-कुर्ता भी खराब होता कि नहीं?'
बड़बड़ाते हुए किंचित क्रोध के साथ सुरेश दूसरे कमरे में चला गया। और थोड़ी देर में तैयार होकर काम पर। पिता की डाँट सुनकर बबलू की आँखों से आँसू बहने लगे थे। वह देर तक सिसकता रहा।
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सुरेश रात को काम से लौटा तो अनमना सा था। वह बबलू को डाँटकर गया था शायद इसलिए। पहली बार उसने बबलू से इतना रूखा व्यवहार किया था... लेकिन कुछ देर बाद उसका अफसोस हैरत में बदल गया। बबलू ने रात में अपनी बात दोहराई कि उसने कुर्सी पर वार्निश नहीं लगाई है। उसने आरामकुर्सी को छुआ तक नहीं है। और ना ही घर के किसी अन्य सदस्य ने। कुर्सी पर न तो पानी गिरा था और ना ही उसे धूप में बाहर निकाला गया था।

काफी सोच-विचार के बाद सुरेश इस नतीज़े पर पहुँचा कि यह कुर्सी के रंग के बदलाव का मामला है। कुर्सी पर अच्छा रंग नहीं लगाया गया था, जो अब छूट कर अजीब सा हो गया है। अगला दिन रविवार था। सुरेश कुर्सी दुकान पर गया और उसने दुकान वाले को खरी-खोटी सुना दी। दुकानदार को उलाहने दिये कि उसने कुर्सी के मामले में उसे ठग दिया है। अभी तीन महीने पहले ही वह कुर्सी ले गया था और इतनी जल्दी उसका रंग उतर गया। दुकानदार अपनी गलती मानने को तैयार नहीं था। उसका कहना था कि कई ग्राहकों ने वह आरामकुर्सी खरीदी है और किसी की भी ऐसी शिकायत नहीं मिली। स्वयं अपने घर में भी वह ऐसी कुर्सी इस्तेमाल करता है पर आठ महीने में उसका रंग जस का तस है। कुर्सी वाले ने आरोप लगाया-'ऐसा है सुरेश बाबू। पिता के लिए कुर्सी खरीदने जब आए थे तो आपके पास पूरे पैसे नहीं थे फिर भी मैंने आपको खाली हाथ नहीं लौटाया था। आपने कहा था कि बाक़ी अगले महीने दे जाऊँगा। साढ़े छह हजार रुपयों में से तीन ही डाउन पेमेंट किया था और दूसरे महीने तीन और दे गए थे और पाँच सौ रुपए अभी आप पर और निकलते हैं। वे रुपए डकार कर बैठे हैं और उन्हें देने के बदले रंग उतरने की शिकायत लेकर चले आए। नेकी कर दरिया में डाल। चलिए निकालिए पाँच सौ रुपए।'

सुरेश ने पासा उल्टा पड़ता देख चुपचाप लौटने में ही भलाई समझी। कहा-'मैं आपका बकाया चुकता कर देता। पैसे मारने की नीयत कभी नहीं रही लेकिन अब कुर्सी का रंग उतर गया तो वह पाँच सौ रुपए नहीं दूँगा। उस रुपए से कुर्सी की रंगाई फिर करानी होगी।'
दुकानदार- 'तो ऐसा क्यों नहीं कहते कि पैसे छुड़वाने हैं..फिर सीधे कहिए रंग छूटने की शिकायत मत करिए। लाइए ढाई सौ रुपए दीजिए और हिसाब साफ समझिये।'
सुरेश ने ढाई सौ रुपए अदा किये और अपना सा मुँह लेकर लौट आया। जब दुकानदार अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं था तो वह क्या करता। उतने तो सोचा था कि यदि वह अपनी गलती मान लेगा तो हो सकता है कि कुर्सी की मुफ्त में फिर रंगाई करा दे।
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सुरेश के लिए कुर्सी का रंग बदलना रहस्य बना हुआ था। उसे दुकानदार की बात में कुछ-कुछ सच्चाई लगी। उसने गौर से देखा कहीं भी पुराने नीले रंग का अता-पता नहीं था। कुर्सी इस तरह से सुनहरे रंग से रंगी हुई लग रही थी कि किसी और रंग का नामोनिशान तक न था। और वह हल्की सी रोशनी में भी ऐसी दमक उठती थी कि क्या कहने। बाहरी लोगों के सवालों से बचने के लिए कुर्सी पर चादर रख दी गई।
इस बीच निर्मला के छोटे भाई धनंजय का काफी अरसे बाद आना हुआ। अब तक सुरेश ड्यूटी से लौटा नहीं था।
कहने को तो धनंजय पड़ोसी शहर में ही रहता था लेकिन बहन के गरीब घर में ब्याहे जाने से खफ़ा-खफ़ा सा रहता था। औपचारिक तौर पर कभी-कभी आना होता था। वह भी दस -पाँच मिनट के लिए। वह किसी काम से गुजर रहा था तो बहन की याद आई तो चला आया। उसकी आलीशान कार दरवाज़े के बाहर खड़ी थी। निर्मला ने उसे बैठने के लिए वही आरामकुर्सी दी। हालाँकि अब भी उस पर चादर पड़ी हुई थी। निर्मला चाय बनाने गई थी इसी बीच धनंजय किसी काम से कुर्सी से उठा कि चादर कु्र्सी पर से गिर गई।

चादर हटते ही कुर्सी की सुनहरी आभा देख वह दंग रह गया। वह देर तक कुर्सी को चारों ओर से देखता रहा। तब तक निर्मला चाय लेकर आई। उसने धनंजय से कहा- 'अरे खड़े क्यों हो बैठो न।'
धनंजय-'मेरी इतनी बड़ी औकात नहीं है कि मैं इस कुर्सी पर बैठूँ। लाओ कुछ और दो। कोई स्टूल बेंच कुछ भी।'
निर्मला-'क्यों कुर्सी में क्या बुराई है। इसका रंग तुम्हारे कपड़ों में नहीं लगेगा। एकदम सूखा है। फिर भी चाहो तो चादर डाल लो।'
धनंजय नहीं माना तो निर्मला दूसरे कमरे से स्टूल ले आई। धनंजय ने चाय पीते हुए कहा-'जीजा जी सचमुच कवि के कवि रह गए। अरे वे चाहते तो तुम्हारी और तुम्हारे बच्चों की ज़िन्दगी आराम से कटती मगर उनमें व्यवहारिकता की कमी है।'
निर्मला- 'जाने तो। वे बेचारे क्या करें। अब इस उम्र में उन्हें दूसरी नौकरी मिलने से रही। गरीब पिता के बेटे हैं।'
धनंजय- 'भगवान करे ऐसी गरीबी सबको मिले। विरासत में सोने की आरामकुर्सी मिली हुई तो इसका मतलब यह तो नहीं होता कि कोई उसे बचाने में ही लगा रहे और जीवन कष्ट में व्यतीत करे।'
निर्मला- 'मैं तुम्हारी बात नहीं समझ पा रही हूँ।'
धनंजय- 'सीधी सी बात है। जिसके पास सोने की आरामकुर्सी हो उसे गरीबी की ज़िन्दगी बसर करने की क्या जरूरत है? कम से कम जीवन के लिए जरूरी चीज़े तो होनी चाहिए। इस कुर्सी को बेचने से ही तुम लोगों की ज़िन्दगी बदल जाएगी।'
निर्मला-'ये कुर्सी..।' और वह ठठाकर हँस पड़ी तुम भी धनंजय गजब करते हो। अरे यह सोने की नहीं लोहे की कुर्सी है। इसके रंग पर मत जाओ।'
धनंजय-'दीदी अब मुझे बनाने की कोशिश मत करो। तुम्हें पता नहीं है तुम्हारा यह भाई देश की प्रमुख आभूषणों की दुकान का प्रमुख डिज़ाइनर है। मैं एक नजर देखकर ही सोने की असलियत भाँप जाता हूँ। यह सोना है एकदम खरा सोना।'

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