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बॉर्डर से पहले पड़ने वाले आखिरी कस्‍बे को पार करते-करते अंधेरा छाने लगा। आगे बार्डर तक बिलकुल ग्रामीण अंचल था और खस्‍ताहाल सड़क थी। सड़क के दोनों ओर गाँवों में सन्‍नाटा था। फिर भी वे उत्‍तर प्रदेश की सीमा थी, यह विचार एक रोशनी की तरह उनके साथ था। वे कस्‍बे से कोई आठ-दस किलोमीटर आगे आ गए। अचानक बस घरघरा कर रुक गई। यात्रियों में खुसर-पुसर होने लगी। किसी ने कड़ककर कंडक्‍टर से पूछा - 'क्‍या बात है भाई? बस क्‍यों रोक दी?' बस का चालक दल आपस में बातें करता रहा। पता चला, पेट्रोल खत्‍म हो गया है। सर्वेश्‍वर राय ने घड़ी में समय देखा - आठ बजने वाले थे। यात्रियों में आपस में पूछताछ चल रही थी। पिछले कस्‍बे में ही उत्‍तर प्रदेश का आखिरी पेट्रोल पंप था। वहाँ नाके पर मजिस्‍ट्रेट चेकिंग चल रही थी। ठसम-ठस सवारियाँ भर लेने के एवज में चालान कट रहे थे। चालक दल उससे बच कर बस को बाई-पास से लाया था, इसलिए पेट्रोल नहीं लिया जा सका। अनुमान था कि रिजर्व में बॉर्डर तक तो पहुँच ही जाएगी। बॉर्डर अभी लगभग आठ किलोमीटर आगे था। तभी उधर से एक लॉरी आई। कंडक्‍टर एक खाली पीपा लेकर लॉरी पर सवार हो गया। दूसरी बस से पेट्रोल लेकर लौटने में उसे घंटा भर लग सकता है। यात्री बस में से बाहर आ गए और गोल बना-बना कर सड़क पर बैठ गए। आधे घंटे यूँ ही बीत गए। तभी कस्‍बे की तरफ से एक मिनीबस आती दिखाई दी। यात्री गोल तोड़कर उठ खड़े हुए। स्थिति को भाँप कर मिनीबस का कंडक्‍टर गेट पर खड़े होकर आवाजें लगाने लगा - 'आठ रुपए सवारी .... आठ रुपए सवारी ...' वह स्थिति का चारगुना फायदा उठाना चाहता था। कुछ यात्री उसमें चले गए। सर्वेश्‍वर राय ने भी उस मिनीबस को गनीमत समझा। नौ बजते-बजते वे बॉर्डर पहुँच गए। यात्री उतर कर शीघ्रता से अगल-बगल के गाँवों की राह लगे जो चंद कदमों के फासले पर थे।

गाँवों के जीवन में यह खा-पीकर सो जाने वाला समय था। आगे बिहार का बीहड़ था और सर्वेश्‍वर राय को उसमें जाना था। साधन कोई नहीं। बस होती तो कोई घंटे भर में गाँव पहुँच जाते। तेज रफ्तार चलें तो दो-ढाई घंटों में पैदल भी पहुँच सकते हैं। बॉर्डर पर चंद गुमटियाँ चाय-नाश्‍ते की हैं, जो लगभग बंद हो चुकी थीं। एक दुकानवाला दुकान की आखिरी झाड़ू-बुहारी कर चारपाई लगाने की जुगत में था। सर्वेश्‍वर राय ने उससे आगे जाने के साधन के बारे में जायजा लेना चाहा। गाँव का नाम बताया। दुकानवाला हैरत से उन्‍हें देखने लगा। बोला - 'परदेशी हैं भैया? कहाँ इस बेला में जाने की बात कर रहे हैं? हम तो कहेंगे, हनुमान जी का नाम लेकर यहीं विश्राम कीजिए, सबेरे की बस से निकल जाइएगा।' सर्वेश्‍वर राय ने आग्रह किया - 'जाना जरूरी है, अगर किसी से एक सा‍यकिल मिल सकती तो मैं सुबह वापस भिजवा देता।' दुकानवाला घबराया, तेजी से सिर हिला कर बोला - 'इस वक्‍त सायकिल? जो भी हो, तो कोई क्‍यों आपको देकर इल्‍जाम सिर पर लेगा? हमारी मानें भैया, कैसा भी जरूरी हो इस वक्‍त जाने लायक नहीं है।' वे थोड़ा विचलित हुए। लेकिन अब यहाँ तक आकर रुक जाने में कोई तुक नहीं था। उनके और बच्‍चों के बीच अब सिर्फ एक निरीह साधनहीनता का फासला था। अचानक शौर्य की एक तेज प्रकाश किरण उनके हृदय में फूटने लगी। बिजली की तरह एक विचार उनके मन में आया। उन्‍होंने उस बूढ़े से पूछा - 'बॉर्डर पुलिस का कैम्‍प किधर है? मैं उनसे बात करता हूँ।' बूढ़े ने गुमटी से बाहर आ कर रास्‍ता दिखाया - 'ये पूरब - उत्‍तर का कोना पकड़ लीजिए। पाँच-सात मिनट में गुमटी मिलेगी। वही है।'

सर्वेश्‍वर राय थोड़ी देर चले ही थे कि पीछे से एक मोटर सायकिल आती दिखी। उन्‍हें आशा बँधी। लिफ्ट के लिए इशारा किया। उनसे दूर से ही उन पर तेज ताड़ती हुई नज़र डाली और रफ्तार बढ़ा कर सर्र से निकल गया। वे हैरान रह गए।

गुमटी के पास सुनसान था। उन्‍होंने नजदीक पहुँच कर आवाज दी - 'यहाँ ड्यूटी पर कौन है?' सुनकर एक व्‍यक्ति बनियान और लुंगी पहने बाहर आया। सर्वेश्‍वर राय की ओर सावधान भाँपती सी नजर डालते हुए बोला - 'सुस्‍वागतम, आया जाय।' उन्‍होंने पूछा - 'आप ही यहाँ इंचार्ज हैं?' उसने उन्‍हें अंदर आने का इशारा किया, बोला - 'इंचार्ज भी मिल जाएँगे, आएँ, पहले बैठा जाए।' फिर किसी को चाय के लिए आवाज दी। बगल की गुमटी से रायफल और टॉर्च लिए दो जवान बाहर निकले। एक आकर वहाँ खड़ा हो गया और दूसरा आदेश पालन के लिए दूसरी ओर चला गया जिधर शायद कोई दुकान थी। अंदर दो-तीन लकड़ी की कुर्सियाँ पड़ी थीं। एक पर खाकी कमीज और लुंगी में गोर से एक व्‍यक्ति बैठे हुए थे। उन्‍हें लगा, शायद यही इन्‍चार्ज हैं। सर्वेश्‍वर राय ने अपने गाँव का नाम पता बताकर परिचय दिया। परिचय पत्र हमेशा कमीज की जेब में रखने की आदत थी, उसे निकाल कर दिखाया, कहा - 'चाय की तकलीफ न करें। इस समय कोई साधन नहीं है, न मिलने की उम्‍मीद है, अत: मुझे पैदल ही प्रस्‍‍थान करना होगा। मेरा फ़र्ज था आपको रिपोर्ट कर दूँ।' इन्‍चार्ज उठ कर खड़े हो गए। उनकी ओर एक कुर्सी खींच कर बोले - 'जरा भी चिंता न किया जाए, हुजूर। हम लोग किसलिए हैं? आपको सुरक्षित आपके गाँव पहुँचाया जाएगा। चाय पिया जाय।' चाय आ गई थी और दोने में बर्फी के टुकड़े। उनकी चिंता यथावत बनी हुई थी, बोले - 'साधन तो कोई है नहीं, मुझे पैदल जी निकलना पड़ेगा। जितना रुकूँगा उतनी ही देर होगी।' इन्‍चार्ज के सहयोगी ने पीछे दीवाल से लगी मोटर सा‍यकिल की ओर इंगित कर कहा - 'यह देख रहे हैं?' सर्वेश्‍वर राय ने कहा - 'जी हाँ, मोटर सा‍यकिल है।' वे हिसाब लगाकर बोले - 'कोई बारह किलोमीटर आपका गाँव है। और कोई साधन न हुआ तो इस फटफटिया से आपको छोड़कर आएँगे। एक लीटर तेल की तो बात है। लिया जाए।' उन्‍होंने आश्‍वस्‍त करते हुए बर्फी का दोना आगे बढ़ाया। सर्वेश्‍वर राय ने एक टुकड़ा उठाया, चखा। सोंधे गुड़ में पगे खोये का शुशबूदार जायका नथनों में भर गया। चाय की चुस्‍की ली।

इस बीच इन्‍चार्ज के इशारे पर दोनों जवान रायफल कंधों से लटकाए हाथों में जलती टार्चें ले कर बीच सड़क खड़े हो गए। थोड़ी देर में एक स्‍कूटर गुजरा। दो सवारियाँ थीं, उन्‍हें जाने दिया। एक मारुति वैन आई। उन्‍होंने टार्च का सिगनल देकर रोका। ड्राइवर से कुछ बातें की। इन्‍चार्ज सर्वेश्‍वर राय के पास आकर बोले - 'आपके गाँव के पड़ोस की गाड़ी है। साथ में चले जाएँ। उनको घर तक छोड़ने के लिए कह दिया गया है।' वे उनको धन्‍यवाद देकर उस वैन में आ गए। वैन में चार लोग थे। दो उतर कर पीछे चले गए। ड्राइवर गाड़ी का मालिक था। उसने बगल में जगह बनाई। दूसरा व्‍यक्ति खिड़की से लगा बैठा रहा। उनके बैठते ही गाड़ी चल पड़ी। पाँच-सात मिनटों तक कोई कुछ नहीं बोला। सर्वेश्‍वर राय ने बातचीत शुरू की। पूछा - 'इतनी रात को कैसे लौट रहे हैं?' वे बोले - 'सुबह खेतों पर काम लगाना है। खाद लेकर लौटते में देरी हो गई है।' उन्‍होंने भी अपने देर से लौटने की तफसील बताई। प्रसंगवश मोटर सायकिल वाले व्‍यक्ति का उल्‍लेख किया, जो हाथ देने पर भी उनके लिए नहीं रुका था। वैन के चालक ने गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी, बोला - 'हम भी नहीं रुकते, अगर दरोगा जी न रोकते। आपको शायद कुछ मालूम नहीं। यहाँ इस बेला में किसी को हाथ दीजिएगा तो वे बिलकुल न रुकेगा। अभी परसों दो गाडि़याँ लुट चुकी हैं इसी मोड़ पर। .. ..' साथ के व्‍यक्ति ने टॉर्च की रोशनी के साथ-साथ सड़क के दोनों किनारों पर खोजती हुई नजर दौड़ाई। गाड़ीवाले का सचेत पाँव एक्‍सीलेटर पर बना रहा।

चाँदनी की दूधिया रोशनी में लम्‍हे, गाँव और खेत पीछे भागते रहे। काफी वक्‍त यूँ ही बीत गया। अब गाड़ीवाले के गाँव का मोड़ सामने था। यह गाँव आस-पास बई गाँवों में जाने वाले कच्‍चे रास्‍तों का जंक्‍शन है। इसमें अब कहीं-कहीं से एक कस्‍बे की शक्‍ल निकलने लगी है। कुछ चाय और पान की गुमटियाँ, कुछ ताजी सब्‍जी की दुकानें सड़क के दोनों ओर हैं जो इस वक्‍त बंद थीं। एक-दो आवारा कुत्‍ते इधर-उधर फिर रहे थे। यहाँ से सर्वेश्‍वर राय का गाँव बस दो-ढाई किलोमीटर था। चालक ने गाड़ी रोकी और सर्वेश्‍वर राय से मुखातिब हो कर बोला - 'आपको गाँव तक छोड़ देते, लेकिन अभी जा कर खाद की कूरियाँ लगवानी हैं। वैसे भी आपका गाँव सामने है और आपका ही इलाका है।' सर्वेश्‍वर राय ने उतर कर गाड़ीवाले का धन्‍यवाद किया, बोले - 'आपको पहले ही देर हो चुकी है। अब सामने मेरा गाँव है। मुझे कोई दिक्‍कत नहीं होगी। मैं चला जाऊँगा।' गाड़ी दाहिनी ओर मुड़ी और गाँव में ओझल हो गई।

सर्वेश्‍वर राय ने घड़ी देखी, इस वक्‍त रात के दस बज रहे थे। चाँदनी अपनी पूरी शोभा में थी। सड़क के दोनों ओर पीपल और इमली के घने पेड़ थे, जिनकी ओट में दाहिनी तरफ से एक बुलेट मोटर सायकिल भद-भद करती हुई आई और सड़क की दाहिनी कगार पर खड़ी हो गई। इंजन को चालू रखे हुए ही सवार ने उतर कर सीट को थोड़ा दुरुस्‍त किया और वापस बैठ गया। सर्वेश्‍वर को लगा, वह शायद उनके गाँव की तरफ से ही जानेवाला है। आवाज देने की कोशिश की - 'भाई साहब ...', उसने शायद सुना नहीं, गियर बदला, एक्‍सीलेटर दिया और चला गया। उसी समय बाईं तरफ की ढलान से हाथ में लोटा लिए हुए एक व्‍यक्ति चुस्‍त कदमों से नजदीक आया। सर्वेश्‍वर राय से दरियाफ्त कर, कि वे बगल के गाँव में जा रहे हैं, चेहरे पर एक व्‍यंगभरी मुस्‍कान लाकर बोला - 'भाई साहब कह कर किसको आवाज दे रहे थे?' उन्‍होंने कहा - 'जो अभी मोटर सायकिल से गए ...', लोटेवाले ने पूछा - 'उन्‍हें जानते हैं?' उन्‍होंने नकार में सिर हिलाया। उसने छिपे स्‍वरों में डाँट पिलाई - 'पाँव दबाकर चुपचाप निकल जाइए। रास्‍ता में बोलारी मत कीजिए किसी से।' सहसा सर्वेश्‍वर राय को ख्‍याल आया कि मोटर सायकिल वाले ने खूब पी रखी थी और गाड़ी की सीट पर अपनी जाँघों के नीचे वह जिस चीज को दुरुस्‍त कर रहा था वह एक दुनाली बंदूक थी। उन्‍होंने तेजी से रास्‍ता पकड़ा।

वे इस रास्‍ते को खूब पहचानते हैं। बचपन का बहुत ही प्‍यारा हिस्‍सा इससे होते हुए गुजरा है। बाईं ढलान से चंद कदमों के फासले पर वह रहा कस्‍बे का स्‍कूल जहाँ वे अपने गाँव से चलकर पढ़ने आया करते थे। ये गया इमली का झुरमुट। वो आया नहर का पुल। बस अब सामने था उनका गाँव। सड़क से लगी बँसवार, पान की गुमटी, गाँव की पगडंडी, और ये उनका घर .. तीस-पैंतीस मिनट बचपन की मीठी स्‍मृतियों से सराबोर कब बीत गया, पता ही न चला। दो-तीन बार द्वार खटखटाने पर सुशांत ने छत पर आकर उन्‍हें पहचाना, पुकार कर घबराहट से कहा - 'चाचा, इतनी अबेर? अकेले?' उन्‍होंने कहा - 'हाँ, देर हो गई। पापा सामान लेकर कल आएँगे।' बाईं ओर शिवजतन कहाँर की मड़ई में दो लोग सोए हुए थे, चौंक कर उठ बैठे, बातें करने लगे। दाहिनी तरफ पोखर से लगे मकान की छत से निझावन सिंह की आवाज आई - 'क्‍या है, शिवजतन? उधर सब ठीक तो है?' बच्‍चे सर्वेश्‍वर राय की प्रतीक्षा में सोए नहीं थे। घर का दरवाजा खोलकर दौड़े आए। उन्‍होंने उन्‍हें अंक में समेट लिया। पोखर की तरफ देखकर आवाज दी - 'मैं हूँ काका। यहाँ सब ठीक है। पत्‍नी आँगन में रुआँसी खड़ी थी। सर्वेश्‍वर राय पास जा कर उनकी पीठ थपथपा कर बोले - 'सब ठीक है भई, बस कल भाई आ जाएँ तो लौट चलते हैं।'

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७ मार्च २०११

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