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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से तरुण भटनागर की कहानी— देश तिब्बत राजधानी ल्हासा


जब तक मैंने वहाँ के बाशिंदों को नहीं देखा था, पहले-पहल वह गाँव ठेठ ही लगा। यह बात थी उन्नीस सौ अस्सी की। वह गाँव इतना ठेठ लगा था, कि लगता है वह आज भी जस का तस है। रुका हुआ और अ-बदला।

त्तीसगढ में वह समुद्र तल से सबसे अधिक ऊँचाई पर बसी जगह है।
वहाँ के रहवासी हमारे यहाँ के नहीं जाने जाते हैं। उन लोगों को देखकर उस गाँव का ठेठपन चुकने लगता है और उसकी जगह अजीब सा बेगानापन घिर आता है। लंबे बीते समय ने यह जतलाया कि चपटी खोपडी वाले ये लोग दूसरों से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि वे अलग दिखते है। ........और यह भी कि इस गाँव में बीते पचास सालों में और उस दिन जब मैं वहाँ गया था, बीत चुके छब्बीस सालों में, उन्होंने यह मानने की भरसक कोशिश की है, कि यह जमीन, यह आकाश, यह जंगल, दूर तक फैले हरे घास के मैदान, लोग, जानवर.......सब उनके ही तो हैं। वे आज भी एक झूठा ढाँढस खुद को देते हैं, पर जैसे वे हमेशा जानते रहेंगे, कि उनके लिए सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। झूठ के जंग खाए फौलादी दरवाजे से बंद। अपनेपन का झू
ठ। जो कोई रास्ता नहीं सुझाता, बस बेहद अबूझ तरीके से उन लोगों को चहकाए रखता है।
मैनपाट। छत्तीसगढ के सरगुजा जिले का एक गाँव। समुद्र तल से लगभग पांच हजार फिट ऊपर। पूरे छत्तीसगढ में इससे ऊपर कोई और गाँव नहीं है।

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