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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से मीरा सीकरी की कहानी— सच्चो सच


उसने सोचा, घंटी बजाने की क्या जरूरत है?...छत पर ही तो लोहड़ी जलाई होगी...वह सीधा ऊपर छत पर ही पहुँच जाती है—सबको वहीं तो होना चाहिए...पन्द्रह दिनों से वह यहाँ आना-आना कर रही थी...पर अब, जबकि कल-परसों तक उन्हें पाकिस्तान लौट जाना है—वह अपने को रोक नहीं सकी थी। उसने सोचा, वह मिलेगी तो जरूर, देखेगी तो सही कि शान्ति बहनजी कैसी दिखती हैं अब? दिखने शब्द से उसे अपने पर ही हँसी आ गई। पचास की तो वह खुद होने को आई—वह तो उससे दस-बारह साल बड़ी होंगी। इस उम्र में क्या दिखना—हाँ, मिलना कहे तो बात समझ में आती है।

चौतल्ले की छत पर वह पहुँच गई, पर उसकी साँस बुरी तरह फूल रही थी। छत पर म्यूजिक लगा हुआ था। घर के बच्चे और शायद उनके दोस्त-यार झूमझाम रहे थे। बीचोंबीच तसले में आग जल रही थी...कोई कुर्सी हो तो बैठ जाए वह। उसे लगा, उसे बुरी तरह से चक्कर आ रहा है। वह बिना किसी की परवाह किये आखिरी सीढ़ी पर ही बैठ गई। किसी बच्चे ने उसे धम्म से बैठते देख गोलू को
कहा होगा, तो गोलू उसके पास आकर पूछ रहा था, ''क्या हुआ, मौसी?''

''कुछ नहीं, दो घूँट पानी पिला दे, बेटा!'' पानी पीकर वह अपने को नियन्त्रित कर चुकी थी, हँफनी रुक गई थी।

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