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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


रोज कमला मेरे लिये जगह घेर कर रखती और रोज़ हम दोनो उसके पास बैठते थे। दशहरे की दस दिन की छुट्टियाँ होती थी, सो समाप्त हो गई। किन्तु इन दस दिनों में मेरी और कमला की दोस्ती पक्की हो गई। हम दोनों साथ-साथ चलते। वह मुझसे तीन चार साल बड़ी थी। उसने अपनी आयु चौदह साल की बताई थी।

बरेली में भी रामलीला होती तो थी, पर कहाँ किस जगह... हमें नहीं पता। वहाँ तो लड़कियाँ घर से निकलने की बात सोच भी नहीं सकतीं थीं। जाएँ भी तो किसी के साथ। और इतनी भीड़ में घुसने की बात? ऐसी भीड़ में तो कोई बड़ा भी हमें नहीं ले जाता। बरेली में तो हमारे ऊपर इतनी पाबन्दी थी, कि हम लोग स्कूल के अलावा कभी घर के फाटक तक नहीं जा सकते थे। दस साल के पूरे हो चुके थे न। पर नैनीताल में हमारे ऊपर इतनी पाबन्दियाँ नहीं थी। पापा तो वैसे ही बड़े आज़ाद ख़्यालों के थे। किन्तु बरेली में घर की मर्यादा को तोड़ना पसन्द नहीं करते थे। न बरेली में घर
वालों का विरोध ही करते थे। ख़ैर...

उन्नीस सौ इकतालीस हो चुका था। द्वितीय विश्वयुद्ध ज़ोरों पर था। हालाँकि हमारा हिन्दुस्तान युद्ध में स्वयं शामिल नहीं था, किन्तु अंग्रेज़ों की गु़लामी बड़ी महँगी पड़ रही थी। मन से न भी हो, तो भी तन से धन से लोग लुट रहे थे। रोज़ सैकड़ों लोग दूर दराज़ गाँवों से आकर लड़ाई में भर्ती हो रहे थे। अधिकतर लोगों को तो मालूम भी नहीं था, कि लड़ाई होती कैसी है। पहाड़ों पर दूर दूर न जाने कितने गाँव बसे थे, जिनके यहाँ मोटर गाड़ी तक नहीं जाती थी। वे लोग न जाने कितने पहाड़ चढ़ उतर कर उस जगह पहुँचते थे, जहाँ से मोटर गाड़ी पकड़नी होती थी।

हमारे घर का एक नौकर सत्य प्रकाश छुट्टी ले कर गाँव गया था। माँ ने उसे कुछ इनाम के साथ उसका पूरा वेतन देकर कहा, ‘अपने बाप के हाथ में रखना ख़ुश हो जाएगा’ जब लौटा तो रो रहा था। कहने लगा मेरे बाप ने अपना सिर पीट लिया, ‘इन कागद के टुकड़ों का मैं क्या करूँ? अरे एक सेर लूण (नमक) ही ले आता, तो एक महीने की सब्जी ही बन जाती।’ उसका गाँव कई पर्वतों के बीच में तराई में था। वहाँ के लोगों ने रेल गाड़ी तो क्या कभी मोटर गाड़ी भी नहीं देखी थी। एक सेर नमक तक के लिये मीलों चढ़ना उतरना पड़ता था।

महँगाई आसमान छू रही थी। इसी कारण उस साल पापा का आफ़िस हमेशा की तरह जाड़ों में बरेली नहीं जाने वाला था। विश्वयुद्ध के कारण अंग्रेज़ सरकार उतना ख़र्च करने में असमर्थ थी।
मैं छठी कक्षा में आ चुकी थी। और पापा चाहते थे कि मैं पिछले साल की तरह बरेली जाकर फिर से उनकी गंगा बुआ के साथ मुहल्ला भूड़ में रहूँ। मैं काँप गई। फिर से मुझ पर हमले होंगे, फिर से मेरी डाँट पड़ेगी, कि बहुत लड़ती है।
माँ पापा से पूरे साल अलग रहने की बात सुन कर मैं रोने लगी थी। ‘‘मैं पूरे साल भर के लिये बरेली नहीं जाऊँगी।’’ मैं यहीं पढूँगी।
पापा परेशान, यहाँ कहाँ पढ़ोगी? स्कूल नैनीताल के दूसरे छोर पर है। वहाँ पहाड़ी चढ़ कर जाना पड़ता है। कैसे जाओगी इतनी दूर? बहुत थक जाओगी।’’
‘‘वैसे ही जाऊँगी, जैसे और लड़कियाँ जाती हैं। मैंने दाई के साथ बहुत सी लड़कियों को स्कूल जाते देखा है।’’

इतने सालों से पापा नैनीताल शहर के अन्दर ही घर लेते थे। किन्तु उस साल उन्होंने अपने एक दूर के रिश्तेदार के साथ मिल कर वह बड़ा सा घर ले लिया था ‘मिल हाउस’’ किन्हीं शाह साहब का था। सस्ता मिल गया था। नैनीताल में मोटरबस घुसते ही सरकारी क्वाटर दिखाई पड़ते थे। वहाँ से एकदम नीचे था वह ‘मिल हाउस’। सामने से एक सड़क सिपाहीधारा को जाती थी। जहाँ सेना के सिपाही रहते भी थे, और बंदूक चलाने की प्रैक्टिस भी करते थे। उनको रंगरूट कहते थे। यह षब्द ‘रिक्र्यूट’ का हिन्दीकरण था। कभी कभी आधी रात में किसी आदमी के ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ आती, ‘हुकमदार।’ पता लगा कि जो भी आदमी पहरे पर होता था, उसे चिल्लाना पड़ता था, ‘हू कम्स देयर’’ जिसका हो गया ‘हूकमदार’ और रोज़ ढेरों सिपाही मार्चिंग करते हुये हमारे घर के सामने से निकलते थे। एक और षब्द ‘पिलंटियों’
भी उन दिनो बहुत अधिक प्रचलित था। वह अंग्रेज़ी शब्द ‘प्लैन्टी’ का हिन्दीकरण था।

उस दिन से कमला के साथ मेरी दोस्ती हो गई थी। अब स्कूल जाते पर हम दानों बराबर साथ रहते थे। और दुनिया भर की गप्पें लड़ाते जाते थे। असली बात यह है कि हमारी दुनिया बहुत छोटी थी, आज के जैसी बड़ी विशाल नहीं थी। हमारी दुनिया में तो हिटलर और विश्वयुद्ध भी नहीं था। स्कूल जाना जैसे एक पिकनिक पर जाना होता था। घूमते घामते मटरगश्ती करते चलते थे, तो दाई गुस्सा करती। उसके हाथ में किसी पेड़ की एक पतली सी टहनी रहती थी।
और हमारी ओर से ज़रा सी भी गड़बड़ हो तो छड़ी से मारती थी, यह बात और है कि उसकी मार खाकर हम लोग रोने के बजाय हँसते हुये, भागने लगते थे।

मिल हाउस से निकल कर, पूरा तल्लीताल पार करके फिर हम झील के किनारे किनारे ऊपर वाली सड़क पर चलते थे। नीचे भी एक पतली सी कच्ची सड़क थी, जिस पर अग्रेज लोग घोड़े दौड़ाते थे। ऊपर वाली पक्की सड़क पर घोड़े दौड़ाने की अनुमति उन लोगों को नहीं थी। उसके बाद मल्लीताल का बाज़ार पार कर एक पहाड़ी पर चढ़ कर हमारा स्कूल ‘गवर्नमेन्ट गर्ल्स हाई स्कूल’ आता था। स्कूल एक बंगले में था। जिसमें कई कमरे थे। दसवीं कक्षा में केवल एक लड़की
जिन्हें हम लोग ‘चेलि दी’ कहते थे। आठवीं नवीं में भी दो चार लड़कियों से अधिक नहीं थीं।

उन दिनों हम लोग, स्कूल आने से पहले सुबह नौ बजे खाना खाकर ही आते थे। उस दिन पता नहीं क्या हुआ था कि मैं ढंग से खाना नहीं खा पाई थी। खाने की छुट्टी थी। और मैं स्कूल के चबूतरे पर उदास बैठी थी। भूख के कारण मेरी हालत ख़राब हो रही थी।
पता नहीं किधर से कमला आकर मेरे पास बैठ गई -’’भूखी हो ?’’
’’नहीं तो।’’ मैंने कहा।
’’झूठ बोल रही हो? क्यों?’’ वह मुस्कराई।
मैं चुप रही। उसने एक चवन्नी मेरे हाथ पर रखी ’’जाओ कुछ ख़रीद लो, और देखो थोड़ा मत ख़रीदना।’’
कमला के कहने से, दो पत्ते मटर आलू की चाट खरीद लाई। एक पत्ता उसे दिया तो नहीं लिया ’’मैं नहीं खाऊँगी, मुझे भूख नहीं लगी हैं।’’
इतनी सारी चाट मैं अकेले कैसे खा सकूँगी? मैंने कहा भी किन्तु वह उठ कर चली गई ’’आराम से सब खा लोगी।’’ बचे हुये पैसे मैंने उसके हाथ में ठूँस दिय थे।
कमला मेरा ध्यान ऐसे रखती, जैसे मेरी बड़ी बहन हो।

वह अक्सर मेरे घर आ जाती थी। माँ भी उसे बड़ा पसन्द करती थीं। कमला ने अपने पिता का नाम पन्नालाल बताया था। कि वे एम.एस-सी. पास हैं और कोई बिज़नेस करते हैं। एक दिन जब मैंने उससे पूछा -’’कि इतने सारे पैसे... ? दो-दो चार-चार रूपये उसके पास कहाँ से आते हैं? तो कहने लगी कि हमारे घर में एक छोटी सी संदूकची रहती है। उसमें रूपये पैसे भरे रहते हैं जब जी चाहता है, तो ले आती हूँ। मेरी समझ में उसकी बात कभी नहीं आती थीं। मेरे घर में
तो हम एक पैसा भी माँ के दिये बिना, अथवा माँगे बिना नहीं पा सकते थे।

हमारी कक्षा में भी एक कमला थीं। बहुत ही सुन्दर और गोरी थी। उसे हम लोग कमली पुकारते थे। कमली मेरे घर से और आगे रहती थी। उसी माल रोड पर और आगे जाकर थोड़ा नीचे उतर कर उसकी काटेज थी। बाहर तरह-तरह के फूल लगे थे। घर क्या था स्वर्ग का टुकड़ा था। हम लोग सब साथ-साथ घर लौटते थे। मैं अपने रास्ते सिपाही धारा की सड़क की तरफ नीचे उतर
जाती थी। वह सीधे मालरोड पर ही बढ़ कर अपने घर चली जाती थी। और कमला आगे पगडंडियों से नीचे की ओर उतर जाती थी। एक दिन मैं स्कूल नहीं गई थी। दूसरे दिन पता लगा कि हमारी टीचर ने किसी विशय में कुछ नोट्स दिये थे। मैंने कमली से उसकी कॉपी माँगी कि नोट्स उतार कर दूसरे दिन दे दूंगी। उसने कॉपी दे दी और कहा-’’कल सुबह ही मेरे घर पहुँचा देना। मुझे काम करना है।’’ दूसरे दिन रविवार था। कमली ने अपना घर समझा दिया था।

दूसरे दिन, रविवार को जब मैं माँ से पूछकर जाने लगी तो पापा ने मेरे हाथ से कॉपी लेकर देखी और मुझसे बोले ’’देखो इस लड़की का काम कितनी सफ़ाई से है। देखो यहाँ पर ये शब्द ग़लत लिखा है तो एक हल्की सी लाइन से काट दिया। मालूम भी नहीं पड़ता। एक तुम हो जो काटने में इतनी लाइनें बनाती हो कि कॉपी पर फोड़े फुंसी से नज़र आते हैं। सीखो, कुछ अपनी इस सहेली से।’’

पापा ठीक ही कह रहे थे। उसकी कॉपी में किसी भी पृष्ठ पर काटपीट के चिह्न अलग से नहीं चमकते थे। इतनी सफ़ाई की लिखाई तो माँ की चिट्ठियों में भी नहीं होती है। जब माँ अपनी चिट्ठी में कोई लाइन अथवा शब्द काटतीं तो इतनी बार काटतीं कि समझ ही नहीं आता कि वहाँ क्या लिखा है। फिर... तब माँ ने बताया कि ’’पत्र लिखते समय जब ग़लती से कोई ऐसी बात लिख जाए, जिसके लिये हम नहीं चाहते कि कोई भी पढ़ पाये तो ऐसे में कई-कई बार काटते हैं किन्तु स्कूल की कॉपी तो तुम्हारी टीचर देखती हैं वे हल्का सा कटा हुआ देखेंगी तो वह पढ़ेंगी ही नहीं।’’

मैं अकेली ही कमली के घर उसकी कॉपी लौटाने गई थी। घर बाहर से जितना सुन्दर था अन्दर से उससे भी अधिक सुन्दर था। किन्तु अब अधिक कुछ याद नहीं... याद रखने योग्य ऐसा कुछ था भी नहीं।

किन्तु फिर भी कमली का घर मैं नहीं भूली। क्या था वहाँ ऐसा? जैसे ही मैं उसके घर से चलकर ऊपर सड़क की ओर आई, तो लगा जैसे सड़क के पार पहाड़ी पर एक मोटा सा, बहुत बड़ा पीला कालीन बिछा है। इतना विशाल कालीन, वह भी पहाड़ के ऊपर? मंत्रमुग्ध सी देखती रहीं। वह दो-चार क्षण का प्यारा सा भ्रम मेरे मन-मस्तिश्क पर छा गया। वे फूल थे। हजारों लाखों, चंचल हवा में झूमते हुये फूल। कमली मेरे साथ ऊपर आ गई थी। वह भी देख रही थी मेरा दीवानापन।
’’कितने सुन्दर फूल हैं, हैं न?’’ मैंने कहा।
’’अरे ये तो जंगली फूल हैं। ऐसे ही उग आते हैं।’’ वह हँस दी।
’’ऊपर चलती हो? इस पहाड़ी पर चढ़ेंगे।’’ मैंने उत्सुक हो पूछा था।
’’चलो’’ और हम दोनो उस पहाड़ी पर एक पतली सी पंगडंडी का रास्ता खोजते हुये ऊपर पहुँच गए। वह कोई सपाट ज़मीन नहीं थी वह पहाड़ के ढलान पर बहुत ऊपर तक उगे फूल थे। पाँच छह पतली पतली पंखड़ियों वाले बसंती और हल्दी के बीच के रंग के। मेरा मन एक अद्भुत आनन्द से नाच रहा था।
हम लोग देख रहे थे, पीले फूलों के बीच पौधों की हरी हरी पत्तियाँ तथा डंडियाँ भी बीच बीच में झाँक रही थीं। ध्यान से देखने पर तो हर जगह अलग-अलग डिज़ायन दिखाई पड़ते थे।
मेरा मन हुआ थोड़े से फूल तोड़ कर घर ले जाऊँ। मैं फूल तोड़ने को झुकी ही थी कि एक आदमी सड़क से चिल्लाया ’’ऐ, मुन्नी! ये फूल मत तोड़ो’’
’’क्यों, क्या तुम्हारे हैं? तुम इनके माली हो?’’
वह हँसा, मैं माली नहीं हूँ पर तुम तोड़ कर ले जाओगी, तुम्हारे घर पहुँचते-पहुँचते ये मुर्झाने लगेगे और तुम इन्हें फेंक दोगी। इससे तो इन्हें वहीं रहने दो। अपनी पूरी जिन्दगी तो जी लेंगे।’’
सुन कर अजीब सा लगा ‘क्या फूलों की भी ज़िन्दगी होती है? पर मैंने फिर फूल नहीं तोड़े। स्कूल में पढ़ा तो था, कि पेड़ पौधे साँस लेते हैं। अगर साँस लेते हैं, तो ज़रूर इनकी ज़िन्दगी भी होगी ही।


और हम दोनो नीचे उतर आए। बार-बार पीछे मुड़कर देखती रही। आज पूरे अड़सठ साल पश्चात वे फूल, वह लहराता क़ालीन वहाँ हो या नहीं, किन्तु मेरे अन्तस्तल में तो एक अद्भुत आनन्द की अनुभूति करा ही जाता है। और मुझे उन नन्हें फूलों की स्मृति जैसे पागल करने लगती है। विलियम वर्डसवर्थ की कविता ’डैफ़ोडिल्स‘ याद आती है। मैं शर्त बद सकती हूँ कि मेरी स्मृति, मेरी वह आनन्दानुभूति ,विलियम वर्डसवर्थ की डैफ़ोडिल्स की अनुभूति से कहीं अधिक प्यारी कहीं अधिक सुन्दर और आकर्षक है। मन का एक टुकड़ा वहीं छोड़ आई हूँ न मैं। वे डैफ़ाडिल्स नहीं थे, वे मेरे फूल थे। और मेरे फूल सबसे सुन्दर।

एक दिन हम लोग स्कूल में थे। हमें याद नहीं कि वह इकतालीस का कौन सा महीना था। खाने की छुट्टी हो चुकी थी। पाँचवाँ अथवा छठा पीरियड था। कि हम लोगों की छुट्टी कर दी गई। और कहा गया कि हम लोग रास्तें में कहीं रुकें नहीं, किसी रिश्तेदार के या सहेली के घर न जाएँ। बस सीधे घर जाएँ और दो तीन दिन की छुट्टियाँ। पहले तो हम सब परेशान। वैसे तो स्कूल की छुट्टी का सदा ही स्वागत होता था, किन्तु ऐसे अचानक? हो क्या गया?

पता लगा टिड्डी दल आ रहा है। पहले सोचा गया था कि नैनीताल नहीं आयेगा, रास्ता बदल लेगा पर... अब पर वर नहीं, सीधे घर जाओ। बड़ी हैरानी हुई। टिड्डे झींगुर मेंढक ये चीज़े तो हमेशा ही देखते हैं। हमारे स्कूल वाले टिड्डी से डरते हैं? डरते हैं तो डरें, हमें क्या ? अपन की तो छुट्टी।
उस दिन भी दाई के हाथ में संटी थी, बार बार चिल्लाती, ‘‘अरी... जल्दी चलो, मस्ती छोड़ो हमें भी तो घर जाना है।’’
हम तो स्कूल से बहुत दूर रहते थे। घर के करीब पहुँच नहीं पाये थे कि आकाश में अँधेरा छा गया। बाज़ार बंद हो चुका था। खोंचे वाले तक ग़ायब हो चुके थे। दाई बड़बड़ा रही थी। और जैसे आकाश से सैकड़ो टिड्डियाँ टपकने लगीं। घबड़ा कर हमने दौड़ लगा दी। दाई का क्या हाल हुआ होगा, हमें नहीं मालूम।

हमें क्या पता था, कि टिड्डियाँ ऐसे हमला करती हैं। मैंने कमला से कहा भी कि तुम मेरे घर ही आ जाओ। ‘‘नहीं माँ घबड़ायेगी’’ कहती हुई वह तेज़ी से भाग गई।

घर पहुँचे तो देखा दरवाज़े खिड़कियाँ सभी बन्द थे। किन्तु माँ एक पतली संद से झाँक रही थीं। जैसे ही मैं दरवाज़े पर पहुँची कि मुझे अन्दर खींच, दरवाजा बन्द कर दिया। पापा घर आ चुके थे। टड्डी होती तो बड़ी छोटी सी। कोई यों ही मार दे। वैसे मारे भी कोई क्यों? उन्हें भी जीने का हक़ होता है। पर टिड्डी दल, जैसे कोई फौज़ आ जाए और हमला बोल दे। जिस खेत पर बैठ जाए वह पूरा खेत मिनटों में साफ़, जिस पेड़ पर बैठ जाएँ वह पेड़ पूरा पत्तियाँ विहीन हो जाए। काग़ज कपड़ा कुछ भी तो नहीं छोड़तीं। वे हज़ारों लाखों टिड्डियाँ नहीं, करोंड़ो अरबों टिड्डियाँ थीं जो घने बादलों की भांति समूचे नैनीताल पर छा गई थीं... वे क्या गिनी जा सकती थीं ? मुझे याद नहीं कि कितने दिन बाद और किस प्रकार हम लोगों को सूचना मिली कि अब स्कूल जाना है। फिर मुसीबत शुरू।

स्कूल गए तो टिड्डी दल के हमले का परिणाम ऑंखों के सामने था। सड़कों पर जगह-जगह मरी हुई टिड्डियाँ पड़ी थीं। पेड़ उजाड़ वीरान लग रहे थे और हज़ारों लाखों टिड्डिया झील पर छाई थीं, मरी या जिन्दा पता नहीं। उन टिड़िडयों को खाने के कारण ढेरों मछलियाँ भी मर गई थीं। और मज़ेदार बात यह थी कि बीसियों लड़के बड़े-बड़े झोलों में टिड्डियाँ बटोर रहे थे। पता लगा कि वे लोग टिड्डियाँ खाते हैं। मछलियाँ भी जो खींच पाते पकड़ रहे थे। झील में उतरना खतरनाक था। क्यों कि झील में कुछ सोते थे जो आदमी को खींच कर ले जाते थे। टिड्डी दल आया और तबाही के निशान छोड़ गया।

जो थोड़ी जिन्दा थीं। या जिन्होंने आगे का सफ़र मुल्तवी कर दिया था। वे अक्सर चलते-फिरते लोगों के कपड़ों में घुस जाती थीं। अच्छा नज़ारा रहता। डांस ड्रामा, समझिये उस दिन लोग अक्सर सड़कों पर ब्रेक डांस करते चल रहे थे।

हमारी छमाही परीक्षा के पश्चात् फिर हमारी जाड़ो की छुट्टियाँ होने वाली थीं। भयंकर सर्दी थी। दो-दो स्वेटर पहनते तो भी सर्दी न जाती। उत्तर भारत में तो सर्दी के मौसम में भी खूब पानी बरसता है। और सर्दी को कई गुना बढ़ा देता है। और हम लोग उस भयंकर सर्दी में स्कूल जाते, हँसते... खेलते मुँह से इंजन की तरह धुआँ छोड़ते छुक-छुक। सच बात तो यह है कि बच्चों के लिये तो हर मौसम दोस्त होता है चाहे कड़कती ठिठुरती सर्दी हो, चाहे चिलचिलाती धूप हो, चाहे तालियाँ बजाती बरसात हो... चाहे धड़धड़ पड़पड़ ओले हों। सारे मौसम बच्चों के साथ अठखेलियाँ करते ही आते हैं। और बच्चे बाहें पसार उन सारे मौसमों का स्वागत करते हैं। यह तो बड़े लोग होते हैं, जो सदा झींकते रहते हैं। उन्हें तो कोई भी मौसम पसन्द ही नहीं आता है।

एक दिन हम लोग स्कूल जा रहे थे। पानी बरस रहा था सो बरसाती तो पहने ही थे। अचानक ओले गिरने लगे। ओले तो बहुत देखे थे किन्तु इतने छोटे नहीं। जैसे चने मटर के दाने हों। कुछ तो उससे भी छोटे। शरीर पर ओलों की मार नहीं पड़ रही थी ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कोई फूलों से मार रहा हो। दाई ने तेज चलने को कहा। किन्तु क्या बरसाती पहन कर कोई तेज़ चल सकता है? किसी प्रकार हम लोग स्कूल पहुँच ही गए और सीधे कक्षा में। बाहर ओले गिर रहे थे और हमें खिड़की से सारा दृश्य दिखाई पड़ रहा था। पानी बरसने की आवाज़ ऐसी सुनाई पड़ रही थी जैसे बहुत सारे नन्हें बच्चे एक साथ तालियाँ बजा रहे हो।

खाने की छुट्टी में हम सब बाहर भागे।
‘अरे! यह क्या? इतनी देर में यह क्या हो गया?’ जैसे आकाश से बर्फ़ के वस्त्र पहने ढेर सी परियाँ उतर आई हों। या वे हँसनियाँ हों...  जो झूम-झूम कर नाच रही हों। कह रही हों ‘‘आओ हमारे साथ नाचो गाओ, मैं बरांडे से नीचे खुले मैदान में उतर आई थी। पानी बरसना बन्द हो चुका था।

हमारे स्कूल के सपाट मैदान के पश्चात पहाड़ की उतराई थी। बच्चे गिरे, गिराएँ नहीं सो पूरे में सात आठ फीट ऊँची मोटी जाली लगा रखी थी। जाली से दिखाई पड़तीं थीं, तरह तरह के फूलों की क्यारियाँ तथा सुन्दर-सुन्दर पेड़ पौधे। पहाड़ों पर तो खेत क्यारियाँ सभी सीढ़ियोंदार होते हैं। हमारे स्कूल के मैदान में तो बच्चे खेलते थे, तो ऊपर फूलों की क्यारियाँ बहुत कम थीं।

दीवानी सी मैं भागी जाली की ओर, पूरे मैदान में जैसे ओलों का बिस्तर बिछा था। और हर वृक्ष की डालियों पर, पत्तियों पर ओले, नन्हे-नन्हे ओले आराम से बैठे झूले का आनन्द उठा रहे थे। बड़े, बड़े रंग, बिरंगे फूल, एक ही फूल में दस-दस रंग, ऊपर से वे श्वेत हिम परियाँ उन पर जैसे नृत्य कर रही थीं, यहाँ तक कि उतनी पतली जाली पर भी तो जगह जगह ओले छिपा छिपौअल का खेल खेल रहे थे।

‘‘यह क्या बर्फ़ है?’’ ‘नही’’’ किसी ने कहा, ‘‘यह सिर्फ ओले हैं। बर्फ ऐसी नहीं, कुछ अलग होती है।’’ कुछ भी हो मुझे तो हर पत्ती, हर फूल नाचता गाता दिख रहा था। मुझे दिशा, दिशा से एक अद्भुत संगीत सुनाई पड़ रहा था और मेरा मन झूम, झूम कर नाच रहा था, गा रहा था। ‘नाचो... नाचो प्यारे मन के मोर।’ और मैं सचमुच गुनगाने लगी थी।
पीछे से कमला ने कंधे पर हाथ धर कर कहा था, ’छुट्टी हो गई, घर नहीं चलोगी?’
’’छुट्टी? अभी तो खाने की छुट्टी है। अभी घर कैसे ?’’
’’नहीं आज जल्दी छुट्टी कर दी है घर चलो।’’

उस समय पहली बार मुझे घर जाना अच्छा नहीं लगा था। शायद कक्षा में जाना भी अच्छा नहीं लगता। मैं तो वहीं खड़ी रहना चाहती थी। मेरे घर में न फूल थे, न मैदान। घर पहुँचूँगी और माँ थोड़े से दूध में एक चम्मच ब्रांडी मिला कर पिलाएँगी और ओढ़ा कर लिटाल देंगी, कहीं सर्दी जुकाम न हो जाए। कहीं सर्दी से बुखार न आ जाए, पीछे मुड़ी तो देखा स्कूल की पूरी ढलवा छत भी ओलों से सफेद हो गयी थी। वाह! दुनिया ऐसी भी होती है क्या? इतनी सुन्दर, इतनी प्यारी... ।?

हमारी छमाही परीक्षा समाप्त होने को आ गई थी। हम लोगों को अब जाड़ों की छुट्टी में बरेली जाना था। इतनी भयंकर सर्दी में सभी के बीमार पड़ने की आशंका थी। सबसे छोटा राम तो पूरे दो साल का भी नहीं था। मैं ही केवल साढ़े दस साल की थी। सुधा और कीर्ति दोनों मुझसे छोटी, सो अबकी पापा और लच्छी को नैनीताल छोड़ हम लोग बरेली आ गए।

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सामायिक प्रकाशन, देहली द्वारा प्रकाशित 'क्या कहूँ ?...क्या न कहूँ?' से

२२ अक्तूबर २०१२

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