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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
सुरेश उनियाल की लघुकथा विदाई


वह एक बहुत बड़ा शहर था, जिसे मैं छोड़ रहा था। वहाँ मेरे दोस्तों की संख्या बहुत ज़्यादा थी। अक्सर मेरी शामें खाली नहीं गुज़रती थीं।

स्टेशन पर मैं गाड़ी छूटने से लगभग आधा घंटा पहले पहुँच गया था। मुझे पूरा विश्वास था कि मेरे कई दोस्त स्टेशन पर मुझे विदाई देने पहुँचे हुए होंगे, पर गाड़ी छुटने में सिर्फ़ दस मिनट रह गए थे और कोई भी स्टेशन नहीं पहुँचा था। चाय की तलब हो रही थी। अब तक तो सिर्फ़ इसीलिए दबाता आ रहा था कि दोस्तों के आने पर उनके साथ पीऊँगा, लेकिन अब दोस्तों के आने की उम्मीद कम हो गई थी, इसलिए चाय के लिए बाहर स्टाल पर आ गया।

चाय पीकर कप रखा तो कोहनी पर किसी के स्पर्श से चौंका।
दस ग्यारह साल की, गड्ढे में धँसी एक जोड़ी आँखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं, ''कुछ खाने को दे दे न बाबू, सुबह से भूखा हूँ...'' चाहता तो उसे इग्नोर करके अपने कूपे में जा सकता था, पर ऐसा कर न सका और स्टाल वाले को पंद्रह पैसे देकर उसे एक पाव रोटी दिलवा दी।

दोस्तों का स्टेशन पर न आना काफी खल रहा था। मन कुछ अजीब-सा हो गया था, भारी-भारी और तल्ख।
ट्रेन के खिसकने तक किसी न किसी के आने की उम्मीद अंदर के किसी कोने में बची ही रही। खिसकते-खिसकते ट्रेन प्लेटफार्म पार कर गई। सामने सींखचों के ऊपर बैठा एक लड़का हाथ हिला रहा था।

अजीब बात थी। वह मेरी ओर देखकर हाथ हिला रहा था। दिमाग पर ज़ोर दिया। अरे! यह तो वही लड़का था, जिसे मैंने स्टेशन पर पाव रोटी दिलवाई थी। वह बड़े आराम से बैठा एक हाथ से रोटी खा रहा था और दूसरा मेरी ओर हिला रहा था।

मुझे लगा, वह एक लड़का नहीं, पूरा शहर मुझे विदाई दे रहा है। मैंने अपना हाथ खिड़की से बाहर निकाला और उसकी ओर ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा, हिलाता रहा। कूपे में बैठे लोग अजीब-सी नज़रों से मुझे घूर रहे थे।

२० जुलाई २००९

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