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इन्ही दिनों हिन्दुस्तानी का एक नया दोस्त बना था। संजय - एक कम्पनी में मैनेजर था, 'अल-हमरा' इलाके में ही रहता था। उसकी पत्नी अपर्णा और बेटी चयनिका। तीनों बिना किसी द्वन्द्व के जेद्दाह में जी रहे थे। अपर्णा से अक्सर उसकी बहस हो जाया करती थी, 'मैं कहता हूँ जो मुस्लिम नहीं है वह बुर्का या आबाया क्यों पहने?" अपर्णा हँसते हुए सहज तरीके से हिन्दुस्तानी को समझाती रहती थी, "देखो भैया, हम आबाया नहीं पहनेंगे तो हमें लगता है सड़क पर सब हमें ही घूर रहे हैं। हम सड़क पर अलग ही दिखाई देते हैं। जब सभी औरतें बुर्का पहने होती हैं तो हम भी अपनेआपको आबाया में ढका हुआ महसूस करते हैं। नहीं तो लगता है पूरे कपड़े पहने बिना ही घर से निकल आए।"

हिन्दुस्तानी फिर हैरान! हिन्दुस्तानी नारी में कितनी सहनशक्ति है। फिर यहाँ तो अमरीकन और अंग्रेज़ औरतें भी आबाया पहनती हैं। क्या अमरीका और इंग्लैंड में भी यह नारियाँ बुर्का पहन लेतीं? अगर वहाँ की सरकारें भी आदेश लागू कर दें कि स्त्रियों को बुर्का पहनना ज़रूरी है, तो क्या यही स्त्रियाँ विद्रोह नहीं कर बैठेंगी? तो क्या इन्हें भी पैसे का ही लालच है?
हिन्दुस्तानी तो अपने देश में भी सिगरेट या शराब नहीं पीता था। इसलिए जेद्दाह में भी उसे कोई विशेष कठिनाई नहीं होती थी। पूजा वह घर पर भी नहीं करता था। इसकी कमी महसूस करने का तो अर्थ ही नहीं था। अब उसने कार भी ख़रीद ली थी। इसलिए उसे आने-जाने में भी दिक्कत नहीं होती थी। पेट्रोल तो लगभग मुफ़्त ही था। दस-बारह रियाल में तो टैंक पूरा भरवा लो। एक रात हिन्दुस्तानी संजय के घर ही खाना खा रहा था। रात को खाना खा चुकने के बाद संजय बोला, "चलो हुक्का पीने चलते हैं।"
"यह हुक्का पीने चलते हैं का क्या मतलब भाई? अगर हुक्का पीना ही है तो भरो हुक्का और पी डालो।"
"नहीं मेरे गोबर गणेश, आज तुम्हें दिखाते हैं कि रात को बारह बजे भी जेद्दाह में आदमी-औरतें इकट्ठे बैठकर हुक्के का मज़ा कैसे लेते हैं।"

हिन्दुस्तानी हैरान! उसके देश में कभी हुक्के की कद्र रही होगी जब राज-रजवाड़े हुआ करते थे। आज तो हुक्का पिछड़ेपन का प्रतीक बनकर रह गया है।
चल पड़ा हिन्दुस्तानी। जीवन में पहली बार सार्वजनिक 'हुक्का पान स्थान' देखने के लिए। खुली छत के नीचे, ढेरों पौधों के बीच, मुगल़ाई शानो-शौकत के हुक्के। किसी में कलकत्ते का तम्बाकू था तो किसी में बहरीन का। कोई पाकिस्तान से ताल्लुक रखता है तो कोई चीन से। जीवन में पहली बार शीशे का बना हुक्का देखा। सारा माहौल देखकर लग रहा था जैसे हुक्का उत्सव चल रहा हो। धीमी-धीमी आँच में हुक्के का तम्बाकू सुलग रहा था।

कुछ यों ही सुलग रहा था सवाल उसके अपने देश में। एक धर्म उसे अल्लाह का घर कह रहा था तो दूसरा उसे भगवान का जन्मस्थान। हिन्दुस्तानी को ये समझ नहीं आ रहा था कि इसमें दिक्कत कहाँ है। अगर भगवान वहाँ जन्मे हैं तो वह भगवान का घर ही तो होगा। दोनों धर्म के लोग उसे भगवान का घर मानकर भी लड़ते जा रहे हैं। क्या ऐसा कोई तरीका नहीं हो सकता की दोनों धर्मों के लोग एक ही स्थान पर आराधना कर लें। इसमें इतनी उत्तेजित होने जैसी स्थिति क्यों है? क़ुछ कुरुक्षेत्र जैसी स्थिति बनती जा रही थी। कोई किसी के लिए एक इंच ज़मीन भी छोड़ने को भी तैयार नहीं। इतनी दूर हिन्दुस्तान में सुलग रहे सवाल की गरमी जेद्दाह जैसे दूर-दराज शहर में भी महसूस की जा सकती थी।

और फिर उसी गर्मी का एक तेज़ भभका दिसम्बर की एक सर्द शाम में उसने महसूस किया। लगभग चार सौ साल पुराना एक ढाँचा चरमराकर मलबेका ढेर बन गया था। हिन्दुस्तानी पहली बार डर गया। उसे लगा जैसे जेद्दाह में हर मुस्लिम की आँखें उसे ही घूर रही हैं। उसे ही उस ढाँचे के गिरनेका गुनहगार ठहराया जा रहा है। परेशान तो संजय भी था। उसका डिश एँटेना तो दुबई, इंगलैंड, पाकिस्तान, बांगलादेश और भारत में जलते हुए मन्दिर भी दिखा रहा था। जेद्दाह में रह रहे हिन्दुओं में एक विचित्र-सी दहशत घर करती जा रही थी। संजय के पिता बँटवारे के भुक्तभोगी थे। उसे अपने पिता की कही हुई एक-एक बात याद आ रही थी।

अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। आज हिन्दुस्तानी को भी डिश एँटेना शैतान का अवतार लग रहा था। क्यों कि वो बिना रुके अयोध्या के समाचार दिए जा रहा था। कई हिन्दुओं के इकामा रद्द कर दिए गए थे। उनके पासपोर्ट पर लाल रंग की 'एग्ज़िट वीज़ा' की मोहर लगाकर उन्हें वापस भेजा जाने लगा। संजय ने हिन्दुस्तानी को आदेश दे दिया, "तुम अकेले घर से बाहर कभी नहीं जाओगे। कुछ दिनों के लिए हमारे घर रह जाओ। घर से दफ़्तर मैं तुम्हें स्वयं छोड़कर आऊँगा। बनेमलिक के इलाके में भूलकर भी मत जाना।"

औरतों के माथों से बिन्दियाँ गायब होने लगीं। बिन्दी ही तो उन्हें अन्य औरतों से अलग कर देती थी। और इसी तरह उनकी बेइज्ज़ती का कारण भी बन जाती थी।

एक शाम तो हिन्दुस्तानी का यह पक्का विश्वास हो गया कि अयोध्या के हादसे का उत्तरदायी वह स्वयं है, संजय है, अपर्णा है और उनकी पाँच वर्ष की बेटी चयनिका है। चयनिका के स्कूल में उसका बायकॉट कर दिया गया। उसे बताया गया कि अयोध्या की मस्जिद उसने तोड़ी है, इसलिए क्लास के और बच्चे उससे बात नहीं करेंगे। रोती हुई सूजी आँखें लेकर शाम को चयनिका ने संजय से पूछ ही तो लिया, "पापा, आपने मस्जिद क्यों तोड़ी? क्लास में मेरे से कोई बात भी नहीं करता।" हिन्दुस्तानी को लगा जैसे उसके शरीर का एक-एक हिस्सा चरमराकर मलबे का ढेर बनता जा रहा है।

गर्मी अभी भी बरकरार थी। पर माहौल में थोड़ा-सा ठहराव आने लगा था। हिन्दुस्तानी का भी दम घुटने लगा था। उसे भी ताज़ी हवा की आवश्यकता थी। एक दिन शाम को दफ़्तर से निकलकर सीधा कॉरबिश की ओर निकल गया। पार्किंग लॉट में गाड़ी खड़ी की। उसने अभी थोड़ी ख़रीददारी ही की थी कि मगरिब की आज़ान हो गई। हिन्दुस्तानी ने सोचा, चलो यह सामान जाकर गाड़ी में रख लेता हूँ, बाकी ख़रीददारी नमाज़ के बाद कर लूँगा। उसने सामान जाकर गाड़ी की डिकी में रख दिया। वापस वह सूख़ की ओर चला दिया। लाऊडस्पीकर पर अरबी में कुरान शरीफ़ की आयतें सुनाई दे रही थीं।

हिन्दुस्तानी अभी कुछ कदम ही चला था कि धार्मिक पुलिस का एक ठुल्ला उसके पास आया और कड़ककर उसका इकामा माँगा। हिन्दुस्तानी बुरी तरह से घबरा गया। उसने जेब से इकामा निकाला और मुत्तव्वे के हवाले कर दिया। इकामा का रंग देखते ही मुत्तव्वे के चेहरे का रंग बदला और साथ ही साथ हिन्दुस्तानी का चेहरा सफ़ेद हो गया। मुत्तव्वे ने उसे पुलिस की गाड़ी में बैठने को कहा। हिन्दुस्तानी उसे समझाता रहा कि उसकी कार पार्किंग लॉट में खड़ी है और उसमें उसका सामान रखा है। अपना ड्राइविंग लाइसेंस और कार की चाबी दिखा-दिखाकर समझा रहा था कि उसे कार तक जाने दिया जाए। किन्तु उसके इकामा का रंग हरा नहीं था। या फिर सारा जेद्दाह ही बने मलिक बन गया था। किसी को कहीं से भी धार्मिक पुलिस गिरफ़्तार कर सकती थी।

हिन्दुस्तानी की कार 'पार्किंग लॉट' में खड़ी रही। सामान उसकी कार में पड़ा था। सामन उसके घर में भी पड़ा था-सामान, जो उसने पैसे जोड-जोड़ कर ख़रीदा था। आज वह उसी 'डिपोर्टी कैम्प' में खड़ा था, जिसे बाहर से देखकर उसके शरीर में झुरझुरी आ गई थी। संजय और अपर्णा परेशान थे। वे दोनों हिन्दुस्तानी को खोज रहे थे। आखिर कहाँ गया? हिन्दुस्तानी के दफ़्तर फ़ोन किया गया, सभी दोस्तों से पूछा गया, हस्पतालों से पूछताछ की गई। उत्तर में केवल एक दीवार ही दिखाई दे रही थी।

तीन-चार दिन के बाद हिन्दुस्तानी को एक फ़्लाइट में बैठा दिया गया। उसके पासपोर्ट पर 'एग्ज़िट' की लाल मोहर लगा दी गई यानि कि अब वह कभी भी जेद्दाह वापस नहीं आ सकता था। विमान में और भी बहुत से लोग थे जिन्हें उसी की तरह 'एग्ज़िट' कर दिया गया था। सबके चहेरों पर एक-से ही भाव थे।

अपने देश वापस पहुँच कर हिन्दुस्तानी के मन में एक इच्छा जागी। "चलो वो जगह देखकर तो आए जिसने उसके जीवन को चौपट कर दिया!" पिता के चेहरे पर जो भाव थे उनमें वह साफ पढ़ रहा था, "मैं ना कहता था, तुम्हारे तरीक़े ग़लत हैं। तुम कभी सफल नहीं हो पाओगे।"

हिन्दुस्तानी अयोध्या की ओर चल दिया। गाड़ी में ही उसे कुछ एक राजनीतिक कार्यकर्ता मिल गए। किसी ने उसका नाम पूछा। उसने अपने पुराने अन्दाज़ में जवाब दिया, "आय.एम.हिन्दुस्तानी।" कार्यकर्ता की बाँछें खिल गईं। "साहिब हम यही तो कहते हैं। हम पहले हिन्दू हैं - हिन्दुस्तानी, बाद में कुछ और। भारतीय तो हमें कई मिले पर हिन्दुस्तानी आप पहले मिले हैं। हमारी सभ्यता, हमारा कल्चर, हमारा इतिहास..." हिन्दुस्तानी का सिर चकराने लगा। आज एक बार फिर उसे अपने नाम से साम्प्रदायिकता की बू आने लगी थी।

अयोध्या के मलबे के सामने खड़ा था हिन्दुस्तानी। उसकी नौकरी की नींव इस पुरानी बिल्डिंग से कहीं अधिक कमज़ोर थी। एक ही झटके में उसकी नौकरी हवा में उड़ गई थी। सारे माहौल को देखकर हिन्दुस्तानी को महसूस हुआ कि केवल एक ढाँचा नहीं चरमाराया, बल्कि उसके साथ बहुत कुछ चरमरा गया है, लोगों का विश्वास, प्यार, भाईचारा, समाज की नींव, सब चरमरा गया है।

हिन्दुस्तानी आँखों में सारी चरमराहट भरे वापस चल पड़ा। एकाएक शोर मच गया-"बम्बई में बम्ब फटे हैं, सैंकड़ों मारे गए।"
हिन्दुस्तानी ने आकाश की ओर देखा और उसके मुँह से निकला, "यह क्या हो रहा है भगवान?" उसके शरीर ने झुरझुरी ली। यह उसके मुँह से क्या निकल गया?

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1 जून 2004

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