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मंजूषा ने प्रभाष की आँखों में सीधे झाँका जैसे उसके प्रश्न का अभिप्राय समझना चाह रही हो। एक पल ठहर कर बोली, "मयंक या ईशा में से कोई भी मेरे साथ रहना चाहे, रह सकता है।"
"अगर कोई नहीं रहना चाहे तो?" प्रभाष ने एकदम से प्रश्न किया।
वह एक पल के लिए ठिठकी, फिर बेफिक्र भाव से बोली, "तो उनकी मर्ज़ी। वैसे भी ज़िंदगी से एतबार मुझे कभी का उठ गया है। इसके बारे में ज़्यादा नहीं सोचती।"

प्रभाष को छोड़ मंजूषा तुरंत ही अन्य अतिथियों से बात करने लगी। वह विशेष मूड में थी। पार्टी का रंगीला माहौल, आवेशमय नज़ारा व़ह एअर इंडिया की मैनेजर, चारों ओर मंडराता जनसमूह, देशी, विदेशी दोनों प्रभाष का प्रसंग बेहद बेज़ार लग रहा था।
जब-जब प्रभाष उसके सूने घर में आता, घर में छाई एक गहरी निस्तब्धता देख हमेशा पूछा करता, "तुम्हें अपना अकेलापन नहीं कचोटता?"
मंजूषा हमेशा एक फीकी हँसी हँस कर उसके प्रश्न को टाल जाती, लेकिन उस दिन न जाने क्यों मन के भाव जुबान पर आ गए। उदास स्वर में बोली, "कभी-कभी ही नहीं, यह अकेलापन अक्सर कचोट जाता है। लेकिन क्या किया जा सकता है? ज़िंदगी जैसी मिलती है, वैसी ही तो जीनी पड़ती है।"
"इसे बदला भी तो जा सकता है," प्रभाष फटाक से बोला।
"बदलना इतना सरल नहीं। ज़िंदगी इतनी बड़ी नहीं होती कि इसमें बहुत अधिक फेर-बदल किए जाए," मंजूषा मायूसी से बोली। सहसा उसकी आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे। प्रभाष के सामने वह अपने आँसू ढुलका कर कमज़ोर नहीं बनना चाहती थी।
"एक मिनट," कह कर वह किचन में आ गई। वहाँ इलैक्ट्रिक स्टोव पर चढ़ी सब्ज़ी को व्यर्थ ही चलाने लगी।
आँसुओं से तरबतर अपनी आँखों को उसने पोंछा। ''नहीं मुझे कमज़ोर नहीं बनना'', वह मन ही मन बोली। अपनी सारी मायूसी उसने झटकी। एक दृढ़ता अपने मन में उत्पन्न की व एक साहस के साथ वापस ड्राइंगरूम में प्रभाष के सम्मुख आ गई।
थोड़े तल्ख व थोड़े बुंलद स्वर में उसने उससे पूछा, "तुम मेरी छोड़ो अपनी बोलो। तुम्हें नहीं अखरता अपना अकेलापन?"
"अखरता है।"
"तो कुछ सोचा है तुमने अपने लिए?"
"मैंने. . .'' वह मुस्कुराया। उस पर दृष्टि गड़ाते हुए बोला, "यदि मुझे कोई अच्छा साथी मिल जाए तो मैं शादी के बंधन में फिर से बँधना चाहूँगा।"
मंजूषा प्रत्यक्ष में तो खामोश रही, लेकिन मन ही मन बुदबुदाने लगी, "तुम्हारी ये मुग्धकारी मुस्कान, यह सरस स्निग्ध दृष्टि मेरे मन में अजीब से उद्वेग उत्पन्न कर देती है। बीस वर्षो का मेरा लंबा संयम डगमगाने लगता है। कैसे कहूँ कि मेरे लिए यह अहसास कितना मधुर कि तुम मुझे चाहते हो। तुम्हारी यह चाहत मेरी ज़िंदगी की कितनी बड़ी आवश्यकता बनती जा रही है "
''कौन सी बात है तुममें ऐसी? इतने अच्छे तुम मुझे क्यों लगते हो?'' रिकॉर्ड प्लेयर पर बजती गुलाम अली की ग़ज़ल मन में और भी हलचल मचाने लगी।

प्रभाष ने उसकी ठहरी ज़िंदगी में ऐसी हलचल मचा दी थी कि वह हैरान थी अपनी मनस्थिति से इ़स पकी उम्र में भी मन वही हुंकार भर सकता है, तन में वही कसक जाग सकती है, मस्तिष्क वही सतरंगी सपने बुन सकता है। ठीक ही कहा है कहने वालों ने कि दिल कभी बूढ़ा नहीं होता, वह तो इंसान की समझ व सोच बूढ़ी हो जाती है। प्रभाष के वह इतने क़रीब आती जा रही है इ़सका कारण प्रभाष का निरीह, सरल व उदार व्यक्तित्व है या फिर उसके अपने अकेलेपन का बोध? मुंबई में जब थी तो अकेलेपन के बोध से इतना त्रस्त नहीं रहती थी। वहाँ बच्चे थे, माँ थी, मित्र व संबंधी थे। ऑफ़िस का अपना भरापूरा स्टाफ था। यहाँ परदेश में सिर्फ़ निस्संग निर्जनता है, कोई भी अपना समीप नहीं। एअर इंडिया का स्टाफ भी यहाँ इतना छोटा कि उसे मिला कर सिर्फ़ चार ही लोग। अगर प्रभाष नहीं होता तो यहाँ समय बिताना कितना मुश्किल हो जाता, ओह।

वक्त यों ही गुज़रता गया। डेनमार्क आवास के उन दोनो के ही दो वर्ष पूर्ण हो गए। इस दरमियान उनकी मित्रता और घनिष्ठ हुई। एक-दूसरे से अनुबंधता और गहरी हुई। मुंबई वापस लौटने में एक वर्ष का समय और शेष था। दोनों एक-दूसरे का हाथ थाम कर प्रण करते कि मुंबई वापस लौट कर भी अपनी मित्रता बनाए रखेंगे।
फिर एक दिन प्रभाष ने सीधे, सधे व स्पष्ट शब्दों में उसके सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रख दिया। मंजूषा को मालूम था कि यह प्रस्ताव प्रभाष की तरफ़ से अवश्य व शीघ्र ही मिलेगा, फिर भी वह बेहद सकुचा गई - एक तरुणी की तरह। स्थिति अजीब-सी हो गई। ज़िंदगी की यह डगर केवल अपने विषय में सोचने की कहाँ रह गई थी? वह अपने सभी भावों पर काबू रखते हुए थोड़े असमंजस स्वर में बोली, "यह मुझे मुमकिन-सा नहीं लगता है।"
"क्यों? क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं?" प्रभाष ने बुझे स्वर में पूछा।
"नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं," वह प्रभाष के होंठों पर अपना हाथ रखते हुए बोली। "तुम मुझे बेहद पसंद हो। पसंद ही नहीं बल्कि तुमसे मुझे अगाध प्रेम है," कहते-कहते मंजूषा का स्वर कंपकंपा गया।
"तुम्हारे प्रेम का आभास मुझे जीने का हौसला देता है। मंजू, बस हाँ कह दो, कुछ न सोचो," प्रभाष भावुकता में बोला।
मंजूषा संयत स्वर में बोली, "यह समय, ये परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि पसंद, नापसंद, इच्छा, अनिच्छाओं के दायरों से परे हट कर बातों का विश्लेषण करना पड़ता है। मैं अपनी शादी की क्या सोचूँ, यह समय तो मेरी बेटी की शादी के विषय में सोचने का है।"
प्रभाष मुस्कुराया। उसका हाथ थामते हुए दिलासे भरे स्वर में बोला, "ईशा की भी शादी होगी। हम दोनों मिल कर करेगें उसकी शादी।"
उसे निरूत्तर देख वह गंभीर भाव से बोला, "मंजू, मैं जानता हूँ कि अकेले रहना क्या होता है? इतने वर्षो तक हम दोनों ने ही एकाकी जीवन जीया है। अब यदि हमें अपनी ज़िंदगी को सुधारने का मौका मिल रहा है तो हम पीछे क्यों हटे? चलो हम शादी करके अपने रिश्तों को एक नया आयाम दें।"
"मैं अभी कुछ नहीं कह सकती हूँ।" मंजूषा अपना हाथ छुड़ाते हुए घबड़ाए स्वर में बोली। "मुझे पहले अपने बच्चों से पूछना पड़ेगा। यदि वो ''न'' कहे, अगर उन्हें ज़रा-सी भी आपत्ति हो तो हमारा विवाह नहीं हो सकेगा। मैंने बड़ी मुश्किलों से अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया है। मेरे जीवन का सबसे बड़ा आनंद व संतोष यही है कि मेरे बच्चों का जीवन सँवरा हुआ है। इस ढलती उमर में कुछ ऐसा करके मैं अपने बच्चों के सँवरे जीवन को तहस नहस नहीं करना चाहती।"

प्रभाष कुछ नहीं बोला, बस एकदम से खामोश हो गया। मंजूषा ने उसके चेहरे के गंभीर भावों को क्षण भर के लिए ताका, पूछने लगी, "तुम इतने सीरियस क्यों हो गए हो?"
"कुछ नहीं, बस सोच रहा हूँ कि इन गोरी औरतों की तुलना में हमारे देश की माताएँ अपने बच्चों के प्रति कितनी समर्पित रहती हैं। वो अपने घर व बच्चों के लिए अपनी ज़िंदगी तक दाँव पर लगा लेती है।"
"इसी वजह से संभवत: हमारी संस्कृति अभी जीवित बची है," मंजूषा बोली।
"मगर मंजूषा, संस्कृति को बचाए रखना केवल औरतों की ही ज़िम्मेदारी नहीं है। हमारे देश में औरतों ने काफ़ी लंबे समय तक बहुत कुछ सह लिया है। अब परिवर्तन आने चाहिए। तुम्हें मुझसे शादी करने के लिए किसी की अनुमति की ज़रूरत नहीं, न अपनी माँ की और न ही अपने बच्चों की।"
"क्यों तुम अपने राहुल की मर्ज़ी के बगैर कर सकोगे मुझसे शादी?" मंजूषा ने प्रश्न किया।

उसके प्रश्न पर प्रभाष भी अचकचा गया, कोई जवाब नहीं दे सका।
वो दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे, मगर अपने बच्चों को एक-दूसरे से ज़्यादा प्यार करते थे।
दोनों ने ही यह तय किया कि वह दोनों अपने-अपने बच्चों से पूछेगें। यदि उन्होंने सहमति दी तो विवाह सूत्र में बँध कर एक हो जाएँगे।
प्रभाष ने तो फ़ोन पर ही अपने बेटे राहुल से सीधे-सीधे पूछ लिया। राहुल से फ़ोन पर हुई बातचीत का पूरा ब्यौरा उसने मंजूषा को बताया - "मंजू, पहले तो राहुल मेरी शादी की बात सुन कर थोड़ा हतप्रभ हुआ। पापा, आपकी शादी, हैरत से बोला। लेकिन फिर खुशी से चहक गया। और जब मैंने उसे यह बताया कि वह और कोई नहीं बल्कि मंजूषा त्रिवेदी है, तो वह बहुत खुश हो गया। कहने लगा, पापा तुरंत शादी कर लो। मंजूषा आंटी बहुत अच्छी हैं, और सुंदर भी।"
मंजूषा के होठों पर दबी हँसी बिखर गई। नज़रों के सामने राहुल की छवि सहज ही उभर आई। पिछली गर्मियों में जब मयंक व ईशा इंडिया से उसके पास डेनमार्क आए थे, तब प्रभाष ने राहुल को भी बुलवा लिया था। वो सभी बार-बार एक साथ इकठ्ठा होते, कभी एक-दूसरे के घरों में या फिर कभी किसी बाग, बाज़ार या कोई पर्यटन स्थल पर।

पानी के जहाज़ से नार्वे का तीन दिनों का टूर भी उन सभी ने साथ लिया था। मयंक व राहुल को उन दोनों की घनिष्ठता से कुछ फ़र्क नहीं पड़ा था। दोनों लड़के अपने में ही मस्त समुद्री जलयात्रा का पूरा-पूरा लुत्फ़ उठा रहे थे। शिप की खिड़कियों से, या फिर डेक पर जाकर प्राकृतिक नज़ारा देखते, हरी-भरी पहाड़ियों के बीच समुद्र की संकड़ी खाड़ी से गुज़रता जहाज़, जहाज़ के अंदर अलमस्त मादक वातावरण का भी उन्होंने पूरा लुत्फ़ उठाया, भव्य रेस्टोरेंट, भरा-खुला बाज़ार, डिस्को डांस, पब शो, यूरोपियन खेल मगर ईशा को इन सबसे कुछ सरोकार नहीं था। वह इन सबसे विलग गुमसुम बैठी थी। जब तब उसकी निर्बाध दृष्टि मंजूषा व प्रभाष पर टिक जाती, जैसे उन दोनों के बीच की अंतरंगता को वह आत्मसात करना चाहती हो। उन दोनों को लेकर वह सशंकित थी। शून्य में कहीं खोई कुछ न कुछ सोचती ही जा रही थी।

डेनमार्क वापस आकर वह मंजूषा से प्रभाष के विषय में तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगी। आप कब से उन्हें जानती हो? आप दोनों क्या हमेशा ही ऐसे साथ घूमते हो? प्रभाष अंकल क्या रोज आपके पास आते हैं? प्रभाष अंकल की वजह से आपको यहाँ अकेलापन नहीं लगता होगा? मंजूषा को अपनी बेटी से एक ज़बरदस्त हिचक-सी हो गई।
प्रभाष मंजूषा का हाथ खींचते हुए बोला, "यह तुम किस सोच में डूब गई? चलो, हम चल कर शादी कर लेते है। मेरे बेटे ने इजाज़त दे दी है।"
"पर अभी मुझे अपने बच्चों से इजाज़त नहीं मिली है," मंजूषा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली।
मंजूषा को अब अपने बच्चों से इजाज़त मिल गई थी। वह अतीत की दुनिया से बाहर निकली। अपनी आँखों को मला। सामने दीवार पर टँगी घड़ी में समय देखा- शाम के चार बज रहे थे। ''ओह सोफे पर बैठे-बैठे पूरे दो घंटे हो गए,'' वह बुदबुदाई। मगर वह एक मीठे अहसास से भरी थी। ज़िंदगी एकदम से बदली हुई लग रही थी। उठकर उसने सबसे पहले प्रभाष को फ़ोन किया। खुश होते हुए बोली, "मेरे दोनों बच्चों के जवाब आ गए हैं और जवाब ''हाँ में हैं।"
"सच. . ." प्रभाष ने किलकारी-सी भरी। चहकते हुए बोला, "मैं तुमसे कह रहा था न, मंजू अ़ब वह पुराना समय नहीं रहा, जब दूसरी शादी वगैरह की बातें शर्मनाक समझी जाए। बच्चे भी आजकल के समझदार हो गए हैं, और बड़े-बूढ़े भी समाज के इस बदलाव को सहर्ष स्वीकारने लगे हैं। आख़िर सदी बदल गई है।"
मंजूषा खुशी से ओतपोत होते हुए सिर्फ़ बोल पाई, "हाँ, प्रभाष, तुम सही कह रहे हो। ईशा लिख रही है कि मेरी माँ भी हमारी शादी की बात से बहुत खुश है।"
"अच्छा शादी कब व कहाँ करेंगे?"
मंजूषा कुछ सोचते हुए बोली, "शादी तो हम अपने देश, अपने शहर मुंबई में ही करेंगे। और कब का हिसाब ऐसा है कि अगले महीने मैं ऑफ़िस के काम से हफ़्ते भर के लिए मुंबई जा रही हूँ। आ जाओ तुम भी अगर शादी करनी है तो।"
प्रभाष चुहल करते हुए बोला, "शादी तो ज़रूर करनी है पर हालात ऐसे हैं कि अभी मेरा ऑफ़िस मुझे इंडिया जाने का टिकट देने वाला नहीं, और मेरी जेब इतना महँगा टिकट उठाने की हालत में नहीं। अगर हाँ, एअर इंडिया की मैनेजर हवाई जहाज़ के टिकटों में कुछ विशेष कटौदी कर दे तो मैं शादी के लिए इंडिया जाने की सोच सकता हूँ।"

मुंबई के उपनगर बांद्रा की अदालत में रजिस्ट्रार के सम्मुख मंजूषा व प्रभाष अपने-अपने बच्चों के साथ खड़े हुए। मयंक के हाथों में मिठाई का डिब्बा, ईशा के हाथों में दोनों के लिए एक-दूसरे को पहनाने के लिए सोने की अंगूठियाँ, और राहुल के हाथों में जुही व गुलाब के पुष्प हार। तीनों बच्चे उनकी शादी के गवाह बने। उन दोनों के हस्ताक्षर के बाद रजिस्ट्रार ने उन तीनों के हस्ताक्षर भी लिए, पूछने लगा, "तीनों गवाहों से आप दोनों का संबंध? क्या ये आपके मित्र। । ।" वह उन्हें टटोलती नज़रों से देखने लगा।
"ये हमारे बच्चे हैं," प्रभाष ने जवाब दिया।
रजिस्ट्रार व वहाँ खड़े अदालत के अन्य कर्मचारी अविश्वसनीय दृष्टि से उन्हें घूरने लगे।
मंजूषा भीगे स्वर में बोली, "ये तीनों वास्तव में हमारे बच्चे हैं।"
"यह हमारी माँ हैं," मयंक व ईशा सहसा मंजूषा के कंधे पर एक साथ हाथ रख कर एक स्वर में बोले।
"और यह मेरे पापा हैं," राहुल आगे बढ़कर प्रभाष के कंधे पर अपना हाथ रखता हुआ बोला।
रजिस्ट्रार आश्चर्य से मुस्कुराते हुए बोला, "ऐसा भी होता है। । ।" और गवाहों के सिग्नेचरों के नीचे बने ''संबंध कॉलम'' में लिखने लगा - ''पुत्र'' ''पुत्र'' ''पुत्री''।
"अब आप दोनों एक दूसरे को अंगूठियाँ पहनाइए," ईशा उनकी ओर अंगूठियाँ बढ़ाते हुए बोली।

राहुल उनकी तरफ़ पुष्प हारों को बढ़ाने लगा। मयंक सभी को मिठाई खिलाने लगा। इतने में बाहर बरामदे से एक फ़ोटोग्राफ़र, जिसका इंतज़ाम मयंक ने पहले से ही किया हुआ था, अंदर आया और दोनों की फ़ोटो क्लिक कर दी। वहाँ उपस्थित सभी लोग ठठाकर हँस पड़े। और इस तरह मंजूषा की ज़िंदगी बदल गई एक बार फिर।

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९ जून २००५

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