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झुग्गी वाले ने सिर हिलाकर नकार दिया।
"वो तो देवता है भाऊ। मंदर-शिवाला बनवा कर उन की मूरत रखवा लो वहाँ। मनौती माँग लो। पूरी कर देंगे। लेकिन इलेक्शन का परपंच नहीं उठाएँगे वो।"

कंडक्टर ने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और दम साध लिया, गर्दन पीछे मोड़कर हीरा मंडी की बस्ती को देर तक देखता रहा, फिर मुँह से आहिस्ता-आहिस्ता अंदर रोका हुआ धुआँ छोड़ने लगा जैसे किसी मंदर शिवाले में धूप जलाता हो।
"तुम्हारी घरवाली तो यहीं की है। उसे सब पता है।" झुग्गी वाले ने कहा।
"मेरी घरवाली तो परबतिया वालों के गीत गाया करती है। हमारी शादी में उन्होंने रेशम सोना और पूरे सवा सौ नकदी में दिया था।"
कंडक्टर अब बीड़ी फेंक कर चाय सुड़क रहा था।
"बड़े दिलवाले हैं भाऊ। पूरी बस्ती के दु:ख सुख में खुले हाथ खरचते हैं।" झुग्गी वाला अपने माथे से हाथ लगाकर सीस नवा रहा था।" दाजू कुँअर और दिद्दा कुँअरानी ने तो आधी बस्ती को पलते बढ़ते देखा है, लेकिन देई कुँअरानी की बात न पूछो। ब्याह के आए अभी सवा साल भी नहीं हुआ। सनाबर की पढ़ी लिखी है। परबतिया क्या आई यहीं की हो ली।
"तुमने तो देखा होगा? मैं तो जब घरवाली के साथ डोक देने गया तो मायके जा रखी थी।" कंडक्टर ने चाय का आख़री घूँट सुड़क कर पूछा।
"पिछले हफ़्ते बेटा हुआ है वहीं मायके जाकर। लौटने वाली हैं। अगले महीने अन्नप्राशन होगा। बड़ी रौनक रहेगी। नूरपुर से दिद्दा कुरानी और टिक्का साब भी आएँगे। तब देख लेना।" झुग्गी वाले की मूँछों में अब एक हल्की-सी मुस्कराहट थी जैसे कोई मीठी याद मन में उभर आई हो।
"क्या याद आ गया मालिको! ज़रा हमें भी बता दो। हम भी खुश हो लेंगे।" बस के ड्राइवर ने अपनी पंजाबी मूछों से चाय पोंछते हुए बातचीत में दखल दिया।
"लेकिन ज़रा जल्दी बताना। वरना सवारियाँ बस लेकर भाग जाएँगी।"
"आपके जैसी बस कौन चलाएगा ड्राइवर जी। एक कसोरा चाय और पी लो। डलहौजी कहाँ भागी जाती है।"
झुग्गी वाला बात लंबी करना चाह रहा था।
"पता नहीं क्यों लोग डलहौजी को देखने आते हैं।" ड्राइवर ने एक पुराने अख़बार के बने लिफ़ाफ़े में झुग्गी वाले से गरम भुनी मूँगफली डालने को कहा और बोला,
"मेरा बेटा चंडीगढ़ कॉलिज में पढ़ता है। पिछले साल मेरे कहने पर साथ आ गया था। कहने लगा 'पापा जी, यह है आपकी पहाड़ी की रानी। बिलकुल डल और लाउजी है। न इसकी ठंडी सड़क ठंडी है, न गरम सड़क गरम।"
ड्राइवर को अपने जानी जान होने की अहमियत का पूरा अहसास था।

बस में बैठी सवारियाँ अब खिड़कियों से झाँक कर हाथ से इशारे करती हुई ड्राइवर और कंडक्टर को वापस आने के लिए इसरार कर रही थी।
झुग्गी वाले को लगा कि उसकी बात बीच में ही न रह जाए। जल्दी से बोला,
"मैं बता रहा था कि दाजू कुँवर बेटे के जनम से बड़े खुश हैं। पिछले सत्तर बरस में पहली बार परबतिया वालों की नई नसल बेटे से शुरू हुई है। दाजू कुँअर खुद भी दिद्दा कुँवरानी से बारह बरस बाद पैदा हुए थे।"

बस में बैठी सवारियों में से कइयों के सिर अब खिड़कियों से बाहर निकल आए थे। एक दो ने तो चिल्लाना भी शुरू कर दिया था। बस की ओर रुख करते हुए कंडक्टर और ड्राइवर ने झुग्गी वाले की तरफ़ जल्दी से एक-एक चवन्नी फेंकी। कंडक्टर ड्राइवर के साथ चलते-चलते अचानक रुक गया। एहतयातन इधर उधर नज़र डालता ज़रा धीमी आवाज़ में बोला,
"मेरी घरवाली ने सुन लिया तो दो दिन रोटी नहीं पकाएगी और एक हफ़्ता पास नहीं आएगी। पर मैंने तो सुना है कि परबतिया वालों के पुरखे भी कभी नूरपुर वालों जैसे महल हवेली में रहते थे। होली के हुडदंग में उनके बड़े कुँअर ने एक कुँवारी को दिन दहाड़े परदे के पीछे खींच कर ख़राब कर दिया। देवी अंबा की शरण में थी वो पहाड़न। दाग लगे कपड़े पहने-पहने ही ब्यास में कूद गई। तब से देवी का शाप लग गया। अब न परबतिया वालों के यहाँ कोई दरवाज़े खिड़की पर परदा टाँगता है न घर के अंदर किसी पहाड़न को काम के लिए बुलाता है।"

ड्राइवर ने सुना और दोनों हाथों से कान पकड़े।
"ओ जी परबतिया वाले याँ ऐश कीती ते त्वानूं की? ते जे कदी मौका लग्गा ता तुसां वी ऐश कर लई ते सानूं की। साडा कम्म ते सवारियाँ नूं सई सलामत ठिकाने पौंचान दा ऐ। साडी बस विच बैठी किस्से पहाड़न नू कोई विंगी अक्ख वेख वी ल्ये तो सौंह वाह गुर दी, जबड़ा खिच्च के हत्थ विच फडा देयाँगे।"

हिमाचल के पचासों रजवाड़ों, ठकुराइयों और रहुनों में सिर्फ़ हीरा मंडी वाले ही अपनी परबतिया को किला, कोठी या कोट नहीं कहते थे। दस बारह ऊपर नीचे साथ-साथ जुड़े छोटे-बड़े कमरे दालानों का जमघटा थी परबतिया। न आगे पीछे कोई संतरी पहरेदार, न आस पास कोई खाई चारदिवारी। दूर से देखो तो समंदरी तट की रेती को घुटनों पाँवों से रौंध कर हाथों से बनाया गुड्डे गुडि्डयों का बड़ा-सा घर। अंदर जाओ तो पथरीली माटी रंग की दीवारों पर यहाँ वहाँ सिंदूरी और मेंहदी रँगे फूल पत्तों की बेलों का हाथों से खींचा ताना बाना। नीचे वाले कमरों के दरवाज़ों पर सुनहली महीन सुतली के चिकें। न फ़र्श पर भारी कालीन, न ही छतों पर झूमर-कंदील। हर खिड़की के बेपरदा चौखट में मौसम के साथ बदलती तस्वीरों जैसी खुरमानी, आडू, लीची और बादाम के पेड़ों की शोख, सुस्तानी, जीती-जागती हलचल। पिछले साठ बरस में परबतिया को एक बार भी तो कलई सफ़ेदी की ज़रूरत न पड़ी थी। फिर भी कहीं से सठियाई नहीं थी वो। तिशकती धूप, घुमड़ती बदली, बरसते सावन, ठिठुरते ओलों और सर्राती हवा के साथ-साथ खिलवाड़ करती परबतिया को टूटने बिखरने का वक्त ही न मिला हो जैसे।

अपनी ग्रैज्यूएट ब्याहता को पहली बार परबतिया लाते हुए दाजू कुँअर कुछ हिचके ज़रूर थे, लेकिन इसलिए नहीं कि वो उनसे ज़्यादा पढ़ी लिखी थी। डाक्टरी पास नहीं की तो क्या हुआ, तीन साल मेडिकल कॉलेज ऑफ़ पटियाला में काटे थे उन्होंने। एक आध साल आराम करने के बाद रूढ़की के इंजीनियरींग कॉलेज में भी दाखिला लिया था। वहाँ दो साल कैसे पंख लगाकर उड़ गए। यह तो तभी पता चला जब प्रिंसिपल साब ने बुलाकर बड़े अदब से कहा कि उनकी रिआया की बड़ी ख्व़ाहिश है अपने लाडले कुँवर को फिर से देखने की वरना बड़े कुँअर के देहांत से वो अनाथ हो गए हैं।

कॉलेज के ज़माने की मौज मस्ती से दाजू कुँवर का जिस्म पहले कुछ भर गया और फिर ज़रा फैलने लगा। रही सही कसर पूरी कर दी उनकी पहली ससुराल वालों ने। नाहन की एक अच्छी ख़ासी ठकुराई में पैदा हुई थी उनकी पत्नी गौरा देवी। तीज त्यौहार मनाने की शौक़ीन थी और गाहे बगाहे मायके से मीठा पकवान पहुँच जाता था उनके पास। डलहौजी जाने वाली बसों के ड्राइवर हँस-हँस कर उनके लिए भेजे गए सौदा-सुल्फ़ के टोकरे सहेज कर लाते थे और परबतिया तक पहुँचाने में अपना मान समझते थे। वैसे भी आए दिन नाहन वालों का न्यौता लेकर कोई न कोई आ ही जाता था। पाँच बरस में कम से कम पंद्रह बार गौरा देवी अपने पति कुँवर दलीप पाल को साथ लेकर नाहन गई होंगी। वहाँ जितने दिन रहती, नौकर नौकरानियों से हाथ पाँव बाँधे जी-हजूरी करवातीं, अपनी कम और घर के दामाद की ज़्यादा। शाम ढले जश्न होते और दिन में कभी कड़ी धूप निकले तो गले में लटकी दो-दो चोटियाँ हिलाती नाहन इस्टेट के अगले लॉन में बैठकर बचपन की सहेलियों से गप्प मारतीं। ऐसी ही एक भरी दुपहरी में घर से धूप खाने अकेली ही निकली और लौट कर नहीं आई। एक हफ़्ते बाद रेणुका झील ने उनका शरीर किनारे के साथ लगा दिया। नाहन वालों का परबतिया से ऐसा बैर हुआ कि कभी रियासती मामलों में सरकार ने किसी बैठक के लिए दोनों घरानों को बुला लिया तो मेज़ के आसपास लगी कुरसियों की तरतीब बदलनी पड़ी। अल्फाबैट के मुताबिक बैठाते तो नाहन के "पवार" और परबतिया के "पाल" साथ-साथ जुड़े रहते और शायद एक दूसरे को ज़हर आलूदा नज़रों से घूरने के अलावा किसी एजैंडा पर बात ही न कर पाते।

कुँअर दलीप पाल को दाजू कुँअर बनाया दिद्दा कुँवरानी ने। पूरे चार बरस लगे थे इस काम को परवान चढ़ाने में। एक तो हीरा मंडी की ठकुराई को रजवाड़ा मानने वालों की वैसे ही कमी हो गई थी। सन १९६६ में हिमाचल प्रदेश क्या बना, पहाड़ी रजवाडों की जमातें बना दी गईं। छोटी-बड़ी रियासतों के रुतबे दौलत के जो ऊँच-नीच पेड़ों पहाड़ों से घिरी नई पुरानी रिहायशों से ढँके थे, अब सरकारी मुआवज़ों ने बेपर्दा कर दिए थे, ऊपर से परबतिया और नाहन वालों के लिए दिए का चोखा ब्योरा। पहाड़ की अफ़वाहें उठती ज़रा देर से हैं लेकिन उनकी गूँज जल्दी नहीं ख़त्म होती!

गौरा देवी की खाली जगह भरने के लिए जब कोई अर्ज़ी न आई तो दिद्दा कुँवरानी घबरा गई। एकलौता भाई कब तक अकेला रहेगा? उन्होंने इधर उधर नज़र दौड़ाना शुरू किया। सनावर में गर्ल्स कॉलेज के सालाना जलसे में पहाड़ी नरगिस जैसी नाज़ुक, गोरी, पीली-सी पड़ती मनसा दिखाई दी उन्हें। एक से ज़्यादा इनाम मिले थे उसे। स्कॉलरशिप होल्डर थी, कसौली के एक स्कूलमास्टर की चार बेटियों में सब से बड़ी। बात करती तो ऐसे कि किसी मुश्किल किताब को हिज्जे बनाकर पढ़ती हों। नूरपुर की कुँवरानी के हाथ से तीन बार एक ही जलसे में इनाम लेने वाली मनसा को परबतिया के दुहाजू कुँवर की देवी कुँअरानी बनने में एक महीना भी नहीं लगा। दाजू कुँवर के पुरखों पर लगे शाप को तोड़ने में पाँच एक महीने लग गए। और शाप टूटा भी तो कहाँ जाकर?

परबतिया से बड़ी दूर जालंधर छावनी और जालंधर शहर के बीच एक पुराने बँगले में जिसकी हर खिड़की पर दोहरे परदे थे, बहुत ऊँची छत वाला हॉल था। आस पास तरतीब वार बने आठ खुले बड़े कमरों को आपस में मिलाता लंबा गलियारा था। खाने, सोने, मेहमान नवाज़ी और गप्पशप्प की बैठकों के लिए अपना खास़ मुकाम था। दीवारों पर फ्रेम जड़ी परिवार वालों और फौजी अफ़सरों की तस्वीरे थीं। बँगले के चारों तरफ़ रेलिंग वाला बरामदा, बरामदे को घेरे हरी घास और मौसमी फूलों वाले गमलों से सजा लॉन और लॉन की हरियाली को सड़क से छिपाती काँधे-काँधे ऊँची ईटों की जालीदार बाऊंडरी वॉल जिसमें सिर्फ़ एक ही बड़ा-सा फाटक।

बँगले के मालिक रिटायर्ड कर्नल कपूर बाहर लॉन में खड़े माली को हिदायतें दे रहे थे कि घास में कोई टूटा हुआ काँच या पत्थर का टुकड़ा नहीं रहना चाहिए। धमा चौकड़ी मचाते नंगे पाँवों में चुभा तो खामख़ाह रंग में भंग हो जाएगा। बँगले के हाल में मिसेज़ कपूर रात को ठहरने वाले मेहमानों के लिए तौलियों, चादरों और सिरहानों का बंदोबस्त करने में लगी थीं। बाहरी फाटक के सामने पड़ते ड्राइंगरूम में सोफ़े पर सिर टिकाए और सामने वाली मेज़ पर रखी टेलीफ़ोन डायरी के पन्ने उल्टाते इंदु और तेज बारी-बारी से फ़ोन पर दोस्तों को दावत देने में लगे थे।

शादी के बाद कर्नल कपूर की बेटी इंदु और उसके पति कैप्टेन तेज वोहरा की पहली होली मनाने में एक ही दिन बाकी था। कर्नल साहिब की विधवा चाची करमदेवी के ढले बदन और उभरी झुर्रियों में एक नई ताज़गी आ गई थी। एक तजरबाकार कमांडर की तरह हर तरफ़ पैनी नज़र रखकर वह ताबड़तोड़ हुक्म जारी करने में लगी थी।

"सुन वे खसमाँ नू खान्या!" उन्होंने साईकल बँगले के बरामदे से टिकाते हुए गवाले को देख कर चिंघाडा।
"सानू कल पंज किलो दूध सवेरे ही दे जाई। पनीर बनाना ऐ। ते ख़बरदार जे दुध विच पानी मिलाया। पनीर बनदेयाँ ही दूध दा दूध ते पानी दा पानी पता लग जाएगा।"

साइकिल टिकाने में झुका हुआ कद्दावर गवाला सीधा तन कर खड़ा हुआ तो पास खड़ी चाची करमदेई उसकी पीठ को थपथपी देकर पोपली हँसी हँस दी।

गवाले ने एक हाथ से अपना माथा पीटने जैसी हरकत की और मसनवी गुस्सा दिखाकर कहा,
"अम्माजी, दस साल हो गए नें, मन्नू ऐस बँगले विच आँदे आ। जे मैं कदी दूध विच पानी मिलान वाला हूँदा ते तुहाड़ी सेहत ऐहो जइ न होंदी। पर फेर वी, तुसी फिक्र न करो। जे मैं दूध विच पानी दावां, ते जनानी दा जूठा खावां।"

बरामदे से कमरे में लौटती चाची करमदेई की नज़र अब गोलमटोल गोरी महराजन तारो पर पड़ गई जो आउट हाऊस से दो लकड़ियाँ और कोयलों का तसला लिए रसोई की तरफ़ लँगड़ाती हुई जा रही थी।

"सुन नी डेढ़ टाँग वालिए! कल दे दिन दीया लकड़ियाँ ते कोला तू अज इकट्ठा कर के रसोई विच किसे बालटी दे थल्ले रक्ख दे। नई ते सवेरे लोकी चा मंगन गे ते तूं दुपहर दे खाने तक बनाएँगी।"
"अम्मा जी। शामो कह गई ए कि फ़िनाईल ख़त्म हो गया ऐ।" तारो ने चाची करमदेई का ध्यान फेरना चाहा।
"ओस सिर मुन्नी शामों नू ते मैं अज्ज वेखया ई नई। तन्नू दिहसे ते कहीं कि अपनी धी कल्लो प्रकाशो नू मना करे। रेडिओ दे गाने सुनन वास्ते इंदु ने कमरे दी बारी नाल लग्गी रह दी ऐ हमेशा।" चाची करमदेई ने अपने ठिंगने नाक की चौड़ी नसों से उल्टी साँस लेते हुए कहा। इससे पहले कि फिर वह बरामदा छोड़ अंदर कमरों की तरफ़ मुड़ती कि डाकिया फाटक खोलता हुआ दिखाई दे गया।

"फाटक बंद कर दे करमाँवालया," वह ज़रा नरम आवाज़ में बोली और फिर मुँह ही मुँह में बुदबुदाई, "आप ते आएगा पर अपने पिच्छे-पिच्छे अवारा कुत्ते बिल्लियाँ दी जंज वी लै आवेगा।"

बिहारी डाकिए ने अपने हाथ में पकड़े ख़तों के पुलिंदे को ध्यान से देखा। कर्नल साहिब के नाम पर पाँच ख़त थे। उनमें एक पर सरकारी मुहर थी, पेंशन वाले इस लिफ़ाफ़े को वह बखूबी पहचानता था। एक और लिफ़ाफ़ा बुक पोस्ट की मुहर लगवाए ग्रीटिंग कार्ड से भारी था। त्यौहार वाले दिन खुश ख़बरी के ख़त देने से बखशीश ज़्यादा मिलती है, ऐसा कई साल से चला आ रहा था। डाकिया बिरादरी के अनलिखे कोड के मुताबिक बिहारी ने दो ख़त वापस थैले में डाल दिए ताकि 'होली मुबारक' कह के खुद कर्नल साहिब के हाथ में दे सके।

डाकिये से ख़त लेकर वापस बरामदे में आती हुई चाची करमदेई बड़बड़ा रही थी।

"लगदाए अज्ज मैं रसोई तक्क पहुँचना ई नई। ओ मरन जोगा केहर वी हाली तक सबजी लै के वापस नई आया।"
कर्नल साहब का पुराना बेयरा केहर सिंह अब शोफर, चौकीदार और बावर्ची हो गया था। साइकल से टँगे दो सब्ज़ी के थैले बरामदे में रख कर बोला,
"अम्माजी, मैं इंदु बीबी ते तेज साब नू बस अड्डे छड्ड के स्टेशन पहुँचना ऐ। मेजर साब ते कमला मेमसाब दी गड्डी साढ़े बारह वजे आँदी ऐ। वापसी ते बस अड्डे तो इंदु बीवी दी सेंहली नूं लैके घर पहुँचदया डेढ़ दो वज जानगे।"

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