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मोहित ने अब न सिर्फ़ आँखें बंद कर ली थीं, अपितु रेशमा की गोदी में सर रखकर पसर भी चुका था वह। रेशमी साड़ी की सरसराहट बादलों से कम रोमाँचक नहीं थी, और आँचल से उठती वह रात की महक एक नशे–सी अभी भी उसके आसपास ही थी, महक जो मन के किसी चोर कोने को उद्वेलित तो कर रही थी परंतु बाँध नहीं पा रही थी उसे। "सर दबा दूँ" – शरमाती सकुचाती पत्नी ने धड़कते दिल से माथे को सहलाया और पति की बेचैनी को पढ़ते हुए बेहद प्यार के साथ पूछा। समझ नहीं पा रही थी रेशमा कि कैसे दोनों के बीच पसरी इस ठंडी चुप्पी को तोड़े?

मोहित ने जवाब दिए बगैर ही, कुहनियों के नीचे से चोर नज़र देखा और घूमकर सो गया। कितने गहरे रंग के कपड़े पहनती है... और उफ् यह माँग– कितनी लंबी और लाल भरती है, मानो ऐसा न करे तो बगल से ही कोई उठा ले जाएगा, अभी और तुरंत। अब न तो कोई बात सुनने का मन था उसका और ना ही जवाब देने का। यही नहीं, तुरंत ही, मन ही मन उसने रेशमा की तुलना स्पंदन से कर डाली और निष्कर्ष पर भी पहुँच गया– नहीं, कोई तुलना नहीं दोनों में, कहाँ वो सुर्ख रसीले होठों पर रंभा–सी चपल मुस्कान और कहाँ यह... "जी मैं अब आपके लिए क्या कर सकती हूँ।" वाला वही आदर्श पत्नी का घिसा–पिटा भारतीय अंदाज़ जो शायद प्रेमवश नहीं, कर्तव्यदक्ष ही ज़्यादा है फिर जो उसकी है, जिसे कभी भी हासिल किया जा सकता है, उसके साथ कैसा रोमाँस? मोहित होंठ बिचकाते हुए सोचने पर मजबूर था कि असल में तो वैनिस पत्नी के साथ आने की जगह ही नहीं। नहीं, यह स्पंदन की बराबरी नहीं कर सकती। ऊब चुका था वह बिलासपुर की रेशमा से, उसके सहवास से। आया ही क्यों वह यहाँ पर – असल में तो शादी ही क्यों की उसने और अगर कर भी ली थी तो क्या ज़रूरत थी इतने पैसे खर्च करने की और हनीमून के इस फालतू लफड़े में पड़ने की? हैरान था वह अपनी ज़िंदगी पर... कथित इस हनीमून पर जिसमें मून तो था पर हनी बूँद भर भी नहीं।

पति की ठंडी आह से रेशमा का उत्साह और उमड़ता स्नेह, दोनों ही भाप–भाप तिरोहित हो गए... मित्रता से देखो तो जग मित्र है और फिर पति तो अनन्य सखा है– जीवन साथी है, यही तो जाना समझा था उसने अपनी बीस वर्ष की जिंदगी में फिर क्यों आज हर पढ़ी–समझी बात बेहद किताबी लग रही थी रेशमा को? जितना वह पति के पास जाने का प्रयास करती उतना ही वह उससे दूर छिटकता जा रहा था। क्या यही वह व्यक्ति है जिसके भरोसे अकेली ही सबको छोड़ वह इस परदेस में, इतनी दूर चली आई है? क्या यही वह व्यक्ति है जिसके साथ आजीवन रहना है उसे–आशंकित और उद्वेलित थी वह भविष्य को लेकर– पति की अनमयस्कता को लेकर। क्या कुछ खुद उसमें या उसके व्यवहार में ही कमी रह गई या फिर उसके रूप या माता–पिता द्वारा दिए गए दान–दहेज में... ऐसा तो नहीं लगता इनका स्वभाव जो इस वजह से इतने उदासीन हो? कहीं बेमेल शादी तो नहीं यह उनकी – क्या वह छोटे शहर में पली–बढ़ी रेशमा सिकंद, इस लायक नहीं कि इंग्लैंड में बसे मोहित कपूर को खुश रख पाए? छोटे शहर में पली–बढ़ी थी तो क्या, अच्छी शिक्षा दी है माँ बाप ने उसे, अच्छे संस्कार भी दिए हैं और यह रूप – इसे देखकर ही तो मोहित की माँ खुद ही रिश्ता लेकर पहुँची थी उसके घर पर। फिर पति का यह रूखापन यह अनमयस्कता क्यों... हैरान थी रेशमा खुदपर। उसे लगने लगा कि कहीं यह खुशी बहुत पास आकर दूर तो नहीं हो जाएगी उससे, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि नदी के किनारे खड़ी वे कलात्मक इमारतें, वे खूबसूरत खिड़कियों के बाहर सजे रंग बिरंगे फूल, उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुराते और ललचाते हैं और फिर अगले पल ही आँखों से ओझल भी हो जाते हैं। पर पति एक अनजान इमारत खूबसूरत मंज़र तो नहीं, जो चुपचाप आँखों से यों ओझल हो जाने दे वह?

मन में अनायास ही हिलोर लेती, हर अच्छी बुरी सोच को काबू में कर एक बार फिर से रेशमा ने अपना सारा ध्यान वैनिस की उस खूबसूरत शाम की तरफ़ मोड़ दिया। फालतू में ही जाने क्या–क्या सोचने लग जाती है वह। वही जाने–पहचाने फूल पक्षी धरती आकाश ही तो हैं यहाँ भी, क्या नहीं है उसके पास। कितनी लड़कियाँ इतनी सौभाग्यशाली होती हैं जो पति के साथ इन सुंदर देश और शहरों में घूम पाती हैं? बहती पनीली हवा और उस सौंदर्य को अपनी उनीदी आँखों में समेटे–सँभाले रात के अँधेरे से भी ज़्यादा रोमाँचक गहरे नीले स्नो ड्राप्स में डूब जाना चाहती थी वह अब। अचानक ही सामने खड़ी लाल पत्थर की भव्य इमारत के तिकोने कंगूरे पर आँखें जा अटकीं। कोई म्यूज़ियम ही होगा ज़रूर, रेशमा ने सोचा और बड़ी हसरत से एक–एक चीज़ को मन में उतारने लगी। कितना शौक है उसे म्यूज़ियम और आर्ट गैलरियों में घूमने का – पापा होते तो ज़िद भी करती पर मोहित से कैसे कहे?

वह तो चलने से पहले ही सचेत कर चुका था "बस तीन दिन के लिए ही जा रहे हैं हम, म्यूज़ियम और आर्ट गैलरी वगैरह के चक्कर में मत पड़ना, कोई शौक नहीं मुझे इन जगहों का– टोटल वेस्ट ऑफ टाइम।" पूरी की पूरी पिछली दो रातें कसीनो और नाइट क्लब में जाग–जागकर निकालने के बाद, वैसे भी उत्साह और मनोबल दोनों ही तो नहीं बचे थे अब रेशमा के पास। यों ही बस चुपचाप गंडोले पर लेटकर वैनिस घूमने की ही शक्ति रह गई थी थके तन और मन में।

जिरेमियम, नैस्ट्रेशियम पुटेनिया, बिजी लिजी– चारों तरफ़ दमकती नियोन लाइट से स्पर्धा करते महकते दमकते वे फूल सीधे आँखों से मन में उतर रहे थे परंतु मोहित तो उन्हें देख–देखकर और भी उद्वेलित ही होता जा रहा था। इन फूलों के बीच में भी तो वही बैठी मुस्कुरा रही थी – हाँ वही, स्पंदन। कहीं कुछ बिखर टूट न जाए, इसलिए पलकों में समेटकर एक बार फिरसे आँखें बंद कर लीं उसने। अपने ही खयालों में डूबा मोहित पास होकर भी उसके साथ नहीं था, रेशमा यह बात अच्छी तरह से जान चुकी थी।

बहती हवा सुरों की बौछार करती गंडोले को दूर बहाए ले जा रही थी, वैसे ही जैसे कि विंडो बॉक्स से झांकते वे रंग–बिरंगे फूल मुस्कुरा–मुस्कुराकर पास आते और तुरंत ही पकड़ से दूर भी हो जाते। वैसे ही, जैसे कि स्पंदन मोहित के जीवन में आई और फिर दूर बहुत दूर चली गई। उसे यों अब भुला पाना, ठहराव की चोटी से बेचैन तरंगों में डूबना– आसान तो नहीं मोहित के लिए। वह तो यह भी नहीं जानता कि स्पंदन कहाँ और कैसी है और अब उसके बारे में क्या सोचती है। पर करे भी तो क्या करे, वक्त ही कहाँ मिल पाया था उसे अपने मन को स्पंदन के आगे स्पष्ट करने का। माँ का यों तुरंत ही बीमारी का बहाना करके अचानक ही उसे दिल्ली वापस बुला लेना, फिर पहुँचते ही मरने से पहले बहू को देखने की ख्वाहिश में लगातार रोते ही रहना... गिन–गिनकर दूर–दराज़ के रिश्ते–नाते वालों के और पास पड़ोस के हर लायक बेटे की, सोते–जागते दिनरात दुहाई देना, बार–बार ही बतलाना कि कैसे माँ–बाप की खुशी के लिए चुपचाप शादी कर ली उन्होंने, बिना किसी विरोध या मीन–मेख के। कोई कम पढ़े लिखे तो नहीं थे वे भी, बस माँ बाप की इज़्ज़त करना जानते थे। वक्त की कीमत जानते थे। यह शादी ब्याह वगैरह, उम्र के होते ही अच्छे लगते हैं, तीस के पेठे में आ गया है वह भी तो अब– क्या अधबूढ़ा होकर, उनके मरने के बाद ही शादी के लिए हाँ कहेगा वह अब? क्या उनकी किस्मत में बहू का सुख नहीं? पोते–पोतियों का सुख नहीं?

जैसा माँ बाप और बड़ों ने कहा, वैसा ही कर लेना, यही एक लायक औलाद की पहचान है। उसे भी मान जाना चाहिए। विरोध नहीं करना चाहिए माँ बाप का। माँ है आखिर, दुश्मन तो नहीं, क्यों विश्वास नहीं करता वह उनपर? और इस तरह से सोचने और समझने का वक्त ही कहाँ दिया था माँ ने उसे? दिनरात के कलपने और उलाहनों से घबराकर... निरंतर बहते आँसुओं में डूबकर, तंग मोहित ने हथियार डाल ही तो दिए थे। हाँ कर दी थी। भुला दिया था स्पंदन को और उसके साथ देखे उस मनचाहे भविष्य के हर सपने को। ले आया था पत्नी बनाकर माँ द्वारा पसंद की हुई बिलासपुर की इस रेशमा को। पर आज तक तो इसके साथ कोई मानसिक या हार्दिक तारतम्य बैठ नहीं पाया उसका। दोष नहीं दे रहा – वह लड़की अच्छी है और हर तरह से ध्यान भी रखती है उसका। बस स्पंदन को ही नहीं भूल पा रहा वह। उसकी जगह नहीं दे पा रहा इसे। इतना आसान तो नहीं पलभर में ही अनजाने को पत्नी और प्र्रेयसी के रूप में स्वीकार लेना। माँ ने भी तो हद कर दी थी जल्दबाजी में। आनन–फानन ही तो सारे इंतज़ाम कर डाले थे– लड़की, शादी, घोड़ा, बैंडबाजा सभी। और दर्जनों दूर पास के जुटाए वे रिश्तेदार, पूरा ही जुलूस निकाल दिया था उसका। ऐसा नहीं कि अच्छा नहीं लगा था उसे यह सब। कुछ दिन के लिए तो वाकई में भूल भी गया था वह स्पंदन को। स्पंदन जो दिन रात उसके साथ रहती थी, यादों में ही सही, आज भी उसकी बेहद अपनी थी।

सामने मुस्कुराते सुर्ख दहकते उन फूलों को देखकर एक बार फिरसे स्पंदन ही तो याद आ रही थी उसे। याद आ रहा था कि यही तो था उसका मनपसंदीदा रंग और फबता भी तो खूब था उसके गोरे गुलाबी अंगों पर। खो चुका था वह उस महकती हवा में बादलों–सा आवारा उड़ता– बहती पनीली यादों को, उस सौंदर्य को अपनी ऊदी–ऊदी आँखों में समेटता सहेजता। पता नहीं आँसुओं का धुँधलापन था या मन में जल रही आक्रोश की वह अग्नि, आकाश ही नहीं पूरा वैनिस ही कलुछाया और मटमैला लग रहा था उसे।

पर रेशमा की खुली और विस्मित आँखों के सामने तो एक नया और आकर्षक संसार बाहें फैलाए खड़ा था– यूरोप और वैनिस, दोनों से ही पहली पहचान थी उसकी। एक–एक दृश्य को बड़ी ही तत्परता और संलग्नता के साथ मानस पटल पर और कैमरे में सहेज–सहेजकर रखती जा रही थी वह। अचानक ही एक कबूतरी जाने कहाँ से उड़ती हुई आई और नदी के किनारे खड़ी भव्य पथरीली उस इमारत के एक बेहद आकर्षक और घुमावदार कंगूरे पर जा बैठी। पीछे–पीछे उड़ता कबूतर भी वहीं आ गया और मादा के इर्द–गिर्द ही मँडराने लगा, बेचैन और फड़कता हुआ। पर इतनी दूर से कैसे पहचान लिया उसने कि जो पहले आई वह कबूतरी थी और जो गुटरगूं करता, आगे पीछे शो ऑॅफ़ किए जा रहा है, वह कबूतर है... उलटा भी तो हो सकता है। नहीं यही कबूतर है और जो शांत चुपचाप बैठी है, वही कबूतरी है। रेशमा ने अपनी अनायास उठती जिज्ञासा का बड़ी ही सहजता से समाधान कर लिया था। क्या–क्या सोचने लगी है वह भी... हंसी आ रही थी उसे अपनी बेतुकी सोच पर। माना विद्यार्थी जीवन में आमूमन ऐसा ही होता था कि लड़के ही लड़कियों का पीछा करते थे पर ज़रूरी तो नहीं कि हमेशा ही ऐसे ही होता हो, सभी नर मादा तो ऐसे नहीं होते, उसके मोहित को ही ले लो कितना शांत और तटस्थ है, कभी ऐसे बेचैन होकर नहीं मचलता, गुटरगूँ नहीं करता। गुलाबी पड़ते गालों को हथेलियों से छुपाए रेशमा जाने कहाँ–कहाँ भटक रही थी। कबूतर युगल से ध्यान हटाकर एक बार फिर पति को देखा जो उससे और उसके खयालों से पूरी तरह से निरासक्त अभी भी अपनी ही दुनिया में विचर रहा था। न रेशमा का साथ लुभा पा रहा था उसे और न ही वैनिस का वह अल्हड़ छलकता यौवन। सामने गंडालों पर, पुलिया के नीचे और पूलों के ऊपर, हाथ में हाथ डाले मादक नज़रों से एक दूसरे में खोए युगल घूम रहे थे। आलिंगनबद्ध युगल– गोरी टांगें, गुलाबी होंठ और नशीली आँखें झिलमिल, सबकुछ ही एक दूसरे में गुँथा हुआ और गडमड। सकरी पथरीली गलियाँ और उनसे आते वे कहकहे और उल्लास के सुर, मन–सा ही आँख मिचौली खेलता, फूलों–सा ही तो नाजुक और सुंदर माहौल था चारों तरफ़।

खुद अपनी ही सोच का मज़ाक उड़ाते ढीठ एक आँसू को चोर उँगली से पोंछती रेशमा नहीं चाहती थी कि पति के आगे कमज़ोर पड़े। नयी नवेली दुल्हन के भर–भर हाथ चूड़ों को अनमयस्क हाथों से यों ही आगे पीछे घुमाती, एक बार फिर सामने खड़ी इमारत को देखने लगी वह। तीन खूबसूरत मूर्तियाँ कंगूरे के अगल–बगल खड़ी बहुत ही मोहक अंदाज़ से उसे ही देखे जा रही थीं। एक के हाथ में कलश था, दूसरे कंधे पर बालक और तीसरी आगे छुककर गिरता हुआ आँचल संभाल रही थी। तीनों ही मूर्तियों का अंदाज़ बेहद सधा, तराशा हुआ व आकर्षक था। पत्थर में भी माँसल शरीर पे लिपटे पतले कपड़े की उन एक–एक बेचैन सलवटों को बहुत ही खूबसूरती से तराशा था कलाकार ने। ज़रूर ही म्यूज़ियम होगा यह, रेशमा ने एक बार फिरसे सोचा। मन म्यूज़ियम के अंदर जाने को मचलने लगा। कलाकारों का देश है इटली और यहाँ आने की मात्र सुनकर ही कितना खुश हुई थी रेशमा– फ्लोरेंस रोम, वैनिस सब घूमेगी वह और जो किताबों में देखा था अपनी आँखों से देख पाएगी– कितने दिवा स्वप्न देखे थे उसने इन इमारतों को लेकर, खुद से ही ईर्ष्या कर बैठी थी वह आत्मविभोर उन पलों में। परंतु मोहित तो पहले ही मना कर चुका था, बार–बार समझा चुका था उसे। मन मारते हुए रेशमा ने थका सर घुटने पर रख लिया और कल्पना की बैसाखी के सहारे ही म्यूज़ियम के अंदर घूमने लगी। "माना मुझे इन आर्ट गैलरियों और म्यूज़ियम में कोई रुचि नहीं। यों वक्त और पैसा बरबाद करना अच्छा नहीं लगता, परंतु तुम्हें नहीं रोकूंगा मैं। अगर तुम जाना ही चाहती हो तो जा सकती हो। मैं यहीं इंतज़ार करता हूँ।" मोहित ने पलटकर रेशमा से कहा। रेशमा को याद था कि कल भी तो मोरेलो ग्लास फैक्टरी के शो रूम में अकेली ही घूमी थी वह। एक से एक आकर्षक चीज़ों को देखती, पर बिना किसी के साथ सुख, विस्मय, सौंदर्य और उस कला को बाँटे बगैर ही। किसी से कुछ कहे या बताए बगैर ही। अजनबियों के इस शहर में नितांत अकेली पड़ गई थी वह – खुद अपना ही रास्ता ढूंढ़ती और भटकती। वैसे भी थके शरीर और मन में शक्ति ही कहाँ थी, जो कुछ घूम या देख पाए वह और वह भी एक बार फिर वैसे ही अकेले–अकेले तो हरगिज़ ही नहीं। यह सब उसके थके–टूटे मन के लिए संभव ही नहीं था अब।

निढाल रेशमा ने भी मोहित की तरह ही घुटनों पर सर रखकर खुद को ढीला छोड़ दिया। बह जाने दिया खुद को भी धीमे–धीमे बहते उस गंडोले के साथ। मैंडलिन की लहरियों पर तैरते सुरों का जादू उसके अभिसारित मन को और भी भटका रहा था पर मोहित की कोहनी के नीचे दबा रेशमी आँचल मन सा ही, दबा रहा... हर खूबसूरत मोड़ के साथ और और मुड़ता–तुड़ता चला गया।

वैनिस की एक और रोमांचक व रंगीन शाम सामने बाँहें फैलाए खड़ी थी। अभी तक जो सूरज किरणों का रुपहला और सुनहरा जाल बुन रहा था अब मदिर मंथर इठलाती नदी के सुनहरे वक्षस्थल को दहकाता डूब चुका था उसी में। अब चारों तरफ़ बादल में लहरें थीं और लहरों में उमड़ते बादल, पर वह इन स्थानीय युवतियों की तरह दौड़कर पति की बाहों में सिमटने का साहस नहीं कर सकती थी। शर्म और संस्कार की पायलों में जकड़ी नवविवाहिता रेशमा पति के बगल में चुपचाप बैठी रही। माँग में खिंची सिंदूर की रेखा और माथे की बिंदिया सभी की परछाई देख पा रही थी वह अपने इर्द–गिर्द ही क्या, चारों तरफ़ भी। कभी किसी खिड़की के शीशे में, तो कभी उबाल खाती लहरों के ढहराव में। बस समझ नहीं पा रही थीं वह कि अब यह दूरी क्यों और किसलिए... यह और कोई नहीं उसका और सिर्फ़ उसका पति मोहित है जो उसके साथ है। इसीकी सेहत और सलामती के लिए तो वह सोलह साल की उम्र्र से ही, उसे मिले या जाने बगैर ही, हर सोमवार को व्र्रत और पूजा करती आई है वह – फिर उसके साथ में, उसकी पसंद में ढलने में इतनी तकलीफ़ क्यों हो रही है उसे? आज भी तो सोमवार है और आज भी तो मोहित के बार–बार ही कहने पर भी उसने कुछ नहीं खाया है...

ज़ोरदार बारिश हो रही थी अब और पिछले दो घंटों से मंथर–मंथर तैरता गंडोला एक बार फिरसे अपने उसी आखिरी पड़ाव, लूडो कसीनो तक आ पहुँचा। सामने कसीनो की जलती–बुझती हज़ार रौशनियों ने गिरती बूँदों के साथ मिलकर एक अनूठा दृश्य रच दिया था। वहाँ आए अन्य सैलानियों की तरह वे दोनों भी एक बार फिरसे चकाचौंध थे। अपनी–अपनी तंद्रा से जागते जाने किस सम्मोहन की अदृश्य डोर से बँधे, अगले पल ही वे कसीनो के मुख्य हॉल में खड़े थे। अब तो रेशमा भी अभ्यस्त हो चली थी इस माहौल की। रूलेट की घूमती बौल ज़्यादा चक्कर देती है या हारे हुए काउंटर्स की गिरती खनक, कहना मुश्किल था परंतु तीन दिन से लगातार रोज़ ही आने के बावजूद भी, एक बार फिर विस्मित और कौतुहलमय आँखों से देख रही थी वह कि कैसे गड्डियों नोट जेबों से निकलते और अगले पल ही एक गढ्ढे में गुम भी हो जाते – इतने नोट कि उसके भारत में चार जनों का परिवार महीने भर भरपेट खा और रह ले, यहाँ पल भर में ही गायब और वह भी बस एक नन्हीं–सी बौल के घूमते इशारे पर। अगले पल ही टेबल फिर से भर भी तो जाती थी उन्हीं रंग–बिरंगे काउंटर्स से और साँस रोके लोग फिर से इंतज़ार करने लग जाते अपने–अपने नंबरों का, जीतने या हारने का – वे जो अरमानी के सूट में थे और वे भी जो फटी कॉलर की कमीज़ में और पुराने कोट पहने थे। हारे जीते सभी, गरीब, अमीर सभी, एक से ही थे इस छत के नीचे, लालच के इस खेल में। जो नफ़ा नुकसान बर्दाश्त कर सकते थे वे भी और जो नहीं कर सकते थे वे भी। सिगरेट के धुएँ फेंकते ये लोग दीन–दुनिया से बेखबर बच्चों से ही लगे रेशमा को। वही उत्सुकता और आतुरता, वही बेचैन खुशी और निराशा। वही बेपरवाह और मस्त कर्तव्यहीन बेफ़िक्री और कहकहे।

रेशमा देख पा रही थी कि कैसे और भी बहुत कुछ चल रहा था वहाँ पर जो बता रहा था कि ये कहकहे बच्चों के नहीं बच्चे बने वयस्कों के थे। बस इनके हाथ में पकड़े वाइन के ग्लास के ग्लास ने न सिर्फ़ इनके मस्तिष्क से सही और ग़लत की परिभाषा मिटा दी थी अपितु लालच की पट्टी बाँधकर अंधा भी कर रखा था इन्हें। इनमें से कई तो बारबार जीतते और हारते और बस आखिरी एक बार जीतने की आस में पूरा मानसिक और शारीरिक संतुलन खो चुके थे। फिर भी शायद रोज़ ही आते होंगे ये यहाँ इस छलित स्वर्ग में। किसी की बांहों में एक नहीं दो–दो सुंदरियाँ होतीं, तो कोई नितांत अकेला, पूरी ही तरह से टूटा और बिखरा हुआ, पर आता ज़रूर था। अपना सबकुछ दाँव पे लगाकर बस एक आखिरी जीत के इंतज़ार में जाने कबसे और कब तक यहीं बैठे रह जाते होंगे ये यहीं पर। हाथ नोट और काउंटर्स फेंकते रहते और आँखें अर्ध नग्न कूपियर के गोरे वक्षस्थल पे ही टिकी रहतीं। इतने सम्मोहित हो जाते वे कि हार–जीत तक का ध्यान नहीं रख पाते। रेशमा देख पा रही थी कि कैसे हारी गोटियों की भीड़ में कई जीती गोटियाँ भी समेट ली जाती थीं। उसका अपना मोहित भी तो डूब चुका था इन काले लाल खानों के अनूठे नंबरी मायाजाल में। रेशमा के लिए भी उसने सैंडविच और केक मँगवा दी थी और शाम के लिए हर दायित्व से निवृत्त हो आराम से रातभर के लिए बैठ चुका था वह भी तो अपनी उसी जानी–पहचानी लकी टेबल पर।

अचानक ही सामने दरवाज़े से एक लंबी छरहरी और बेहद आकर्षक युवती ने चार युवकों के साथ प्रवेश किया और मोहित का दूर से ही बड़े ज़ोरदार हाव–भाव से हाथ हिलाकर स्वागत किया मानो पुरानी और अच्छी जान पहचान हो उनकी। मोहित भी उतनी ही तत्परता से उठा और पाँचों को अपनी टेबल पर ले गया। फिर तो वे सब ऐसे डूबे एक दूसरे में और उन काउंटर्स की खनक में कि रेशमा उनके लिए अदृश्य ही हो गई – उनके बेहद पास खड़ी रेशमा उनकी एक–एक बात सुनती और समझती रेशमा – उनकी हमउम्र रेशमा। मोहित की नवविवाहिता पत्नी का कोई अस्तित्व नहीं था उस भीड़भाड़ भरी जुआ खेलती रात में... न किसी और की आँखों में और ना ही उसके अपने पति मोहित के लिए। रेशमी महंगी कांजीवरम की साड़ी और सिंदूर व बिंदी से सजी–संवरी रेशमा एक अजूबा–सा ही थी वहाँ पर। चारों युवक और उसके पति, हरेक के मुंहपर बस एक ही नाम था स्पंदन और सभी बस उसीसे बात कर रहे थे। दम घुटने लगा उसका। उमड़ते आँसुओं का सैलाब बहुत ही मुश्किल से आँखों में ही रोककर जब वह निकलने को मुड़ी तो जाने किस धक्का–मुक्की में बगल में खड़े आदमी के वाइन के गिलास से सर से पैर तक नहा गई। अभी अपने को संभाल तक पाए या कुछ समझ पाए, इससे पहले ही पीले दाँत और आवारा से लगते उस आदमी की सिगरेट भरी साँसों की दुर्गंध उसे अपने ऊपर महसूस हुई। इतने करीब कि दिन भर की थकी और नींद में डूबी रेशमा को उस भभके से उबकाई आने लगी। सड़ाँध भरी महक और उन गंदे हाथों से दूर भागने के लिए झटपटाती, दरवाज़े की तरफ़ लपकी वह। परंतु "सॉरी मैम" कहकर वाइन पोंछने के बहाने वह आदमी उसे बेधड़क छुए और टटोले जा रहा था और एक बेहद भोंडी और अश्लील मुस्कान बेवजह ही उसके होठों पर चिपकी थी।

स्तब्ध रेशमा दुख और ग्लानि में सर से पैर तक डूब गई। स्वयं को ही कोसने लगी क्या ज़रूरत थी यहाँ आने की, इस भीड़भाड़ में इन अनजान लोगों के बीच यों सटकर खड़े होने की? अभी जैसे तैसे अपने को तटस्थ करके जलती आँखों से उसे भस्म करते हुए दो कदम पीछे ही हट पाई थी वह, कि वह धृष्ट आदमी उसे यों अकेली देखकर एक बार फिर आगे बढ़ा और बाहों से पकड़कर अपनी तरफ़ खींचने लगा। कानों के पास झुककर धीरे से फुसफुसाया – "आओ मेरी गोदी में बैठ जाओ मैं तुम्हें अपने हाथों से साफ़ कर देता हूँ – क्या मेरा नंबर चाहिए तुम्हें, निराश नहीं करूँगा मैं, वैसे भी मैंने किसी भारतीय युवती को कभी गोदी में नहीं बिठलाया?"

बात आपे से बाहर थी और अभद्रता और मर्यादा की हद पार कर चुकी थी। आँसुओं को घोटती थप्पड़ के लिए उठे हाथ कैसे भी रोकती और उस दुष्ट आदमी को गुस्से से परे धकेलती, दरवाज़े की तरफ़ दौड़ पड़ी रेशमा। कितनी अनाथ और अकेली थी वह आज इस भीड़ में। छिः इतना अभद्र प्रस्ताव और वह भी उससे, एक विवाहिता से? मात्र एक इस अकेली घटना ने कितने सवाल उठा दिए थे खुद उसकी अपनी आँखों में और उसके अस्तित्व पर – यूरोप के लिए शायद यह एक सामान्य घटना हो परंतु उसकी अपनी सोच तो बस एक उसीको धिक्कारे जा रही थी। जब कोयले की खान से गुज़रोगे तो काला तो होना ही पड़ेगा, बार–बार यही समझा रही थी। ज़रूर उसी में कहीं कुछ कमी थी, या अवांछनीय था कुछ उसकी वेश–भूषा में, जो उस व्यक्ति की इतनी हिम्मत हुई। अपनी कोई ग़लती न होते हुए भी, बहुत छोटा और ओछा महसूस कर रही थी रेशमा। पुरुष प्रधान बाहर की दुनिया से यह उसका पहला परिचय जो था – शोषण और खेल की ही वस्तु तो है आज भी नारी और फिर अकेली नारी – विशेषतः उसके जैसी सिकुड़ी सिमटी और सजी संवर... रात के दो बजे इन यूरोपियन नाइट क्लब में वह भी अकेली एक काँच की नाजुक गुड़िया से ज़्यादा तो नहीं? यदि रखवाला साथ न हो तो, कोई भी उठा या खेल सकता है और अगर पासा सही बैठ जाए तो ख़रीद भी सकता है इसे। ज़रूरत पड़े तो अपहरण तक कर सकता है इसका तो वह? शरीर में क्रोध और अपमान की ज्वाला धधक उठी और अपने ही आँसुओं में बह चली रेशमा। इसके पहले कि वह पूरी तरह से टूटकर बिखर जाती, दो सशक्त बाहों ने समेट लिया उसे। प्यार से उसके आँसू पोंछता, उसके कपड़े और अस्तव्यस्त बालों को ठीक करता, उसे तसल्ली देता कोई और नहीं उसका अपना पति मोहित ही था, जो अब अपने दोस्तों से कह रहा था कि, "हमें चलना होगा। मेरी पत्नी की तबियत ठीक नहीं है। हम लोग यहीं होटल रॉयल में ही रुके हैं। स्पंदन, कल शाम तुम अपने साथियों के साथ डिनर हमारे साथ ही लो, अच्छा लगेगा हमें।" "नहीं नहीं, हम सब आकर रेशमा की मदद करेंगे, रूखा–सूखा जो भी बन पड़ेंगा, मिल–जुल कर खाएँगे।" तो जिन्हें अनजाना और बेगाना समझ रही थी वह, सहृदय हैं और मित्र हैं – रेशमा की आँखों में अब एक नयी समझ और आस थी।
"ठीक है। खाना भले ही रूखा–सूखा खा लें हम, पर पानी तो ठंडा ही पीएँगे। और उसका इंतज़ाम मैं करूँगा।" मोहित के होठों पर अब एक संतुष्ट और शरारती मुस्कान थी। "ठंडा ही पानी क्यों?"

इसके पहले कि आधे दर्जन खुले मुंह सवाल पूछ पाएँ, मोहित ने खुद ही कहा, "हाँ, ठंडा ही पानी। ऋषि मुनियों ने भी तो यही कहा है... रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीय।" अब हंसने की मित्रों की बारी थी "देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीय"– दोहे की अंतिम समवेत पंक्ति सातों के सम्मिलित ठहाकों में ही डूब गई – सारा तनाव पल भर में ही बह गया। सुख और संतोष भी तो आखिर उसी मनःस्थिति का ही नाम है, जिसमें हम पूरी तरह से भूल जाएँ कि हमें सुख और संतोष चाहिए... क्यों ठीक है ना रेशमा – रेशमा का हाथ अपने हाथों में ले, दबाते सहलाते बेहद प्यार से मोहित ने पूछा। इसके पहले कि रेशमा कुछ जवाब दे, विदा लेकर वे कसीनो के बाहर आ चुके थे।

सड़क पर बहती मंद–मंद हवा बालों से खेल रही थी और जानी पहचानी एक खुशबू मन को आल्हादित और उन्मादित कर रही थी। यादें ही पहचान देती हैं और पहचान से ही प्यार और अपनापन आता है। रेशमा ने पलटकर देखा कि सड़क के किनारे सर उठाए खड़े गुलमोहर से लगते वे पेड़, वाकई में गुलमोहर के ही थे, वही गुलमोहर, जो बिलासपुर में उसके अपने घर के बाहर की सड़क पर भी यों ही पंक्तिबद्ध खड़े थे और अब यहाँ वैनिस में भी। नाम चाहे जो भी दो, गुलमोहर ही तो थे वे उसकी अपनी मीठी सुहानी यादों के गुलमोहर। अनायास ही रेशमा के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। भारत में हो या यूरोप में, गुलमोहर तो बस गुलमोहर। घर ही जा रही थी वह आज।

पहली बार मोहित का यह नया और अनछुआ रूप आँखों के आगे था। पहली बार बेगानापन नहीं, प्यार देखा था उसने– मंगलसूत्र और सिंदूर के प्र्रति कद्र थी पति की आँखों में, अपनापन था। रेशमा जान चुकी थी कि यूरोप में पैदा और पल–बढ़कर भी, मोहित के मूल्य और संस्कार भारतीय ही थे। सब कुछ संजोकर रखने की ललक थी आज भी उसके मन में। युवा अवस्था में ज़ोर दबाव किसे अच्छा लगता है, रेशमा अच्छी तरह से समझ पा रही थी अब उसे और उसके रूखे व्यवहार को, उसकी उस अनमयस्कता को, बीते दिनों के संकोच भरे अटपटेपन को?

सुरक्षा और आत्मीयता के उस अहसास भरे एक पल ने ही शिकायत और असुरक्षा की हर दीवार को तोड़ डाला। रेशमा के संस्कारी मन में पति के लिए बेपनाह प्यार हिलोरें लेने लगा। और अब तो मोहित भी कुछ ऐसी ही मनःस्थिति में था। कितनी ज़्यादती की है इसके साथ – अपनों से और हर जाने पहचाने परिवेश से दूर लाकर भी इतनी अवहेलना की। वैनिस लाकर भी दूर–दूर और अनाथ ही छोड़ दिया, अकेले–अकेले ही यों भटकने और धक्के खाने को। स्पंदन – एक याद में ही डूबा रहा– प्यास–प्यासा, जबकि उसकी अपनी सुख और सपनों की खान बगल में खड़ी उपेक्षित और अवहेलित, इंतज़ार कर रही थी उसका। अब वह हर ज़िम्मेदारी और ज़िंदगी बहुत ध्यान से और खुशी–खुशी ही जिएगा। जो अपनी, बस वही अपनी। स्पंदन मित्र थी और मित्र ही बनी रहेगी। रेशमा ही पत्नी है– सहचरी व संगिनी है। कैसे नहीं समझ पाया इतनी स्पष्ट और ज़रा सी बात को वह? फिर अपना बनाने के प्रयास का पहला कदम एक दूसरे के पास जाना, जानना समझना और पसंद में ढलना ही तो है – एक दिन में तो नहीं आ जाती यह सब भावनाएँ? स्पंदन की चाह में कैसे पिछले दो वर्षों में उसकी कमीज़, स्वैटर, मोज़े सभी बस लाल रंग के ही हो गए थे, याद आते ही मुस्कुराहट फैल गई उसके होठों पर... और वह भी तब जब लाल रंग तो उसे कतई पसंद ही नहीं था और स्पंदन उसकी कोई नहीं थी। कहते हैं जब जगो तभी सवेरा है। कल सुबह ही रेशमा के साथ म्यूज़ियम घूमने जाएगा, अच्छी से अच्छी चीज़ भी तो अपनों के संग ही आनंद दे पाती है।
 
फूलों से लदे–फंदे पेड़ के नीचे टेक लगाए खड़ी, नींद से बोझिल और थकी रेशमा मोहित को एक तस्वीर–सी ही सुंदर लगी उस उजास में। मात्र एक सपना नहीं, रेशम सी ही कोमल और सामने थी उसकी रेशमा – प्यार और यौवन की खुशबू में महकती–गमकती। पहली बार मोहित ने ध्यान से देखा और जाना कि वाकई में कितनी सुंदर है रेशमा, तन से भी और मन से भी। कितनी इस उम्र की लड़कियाँ होती हैं जो इतनी जटिल और दुरूह स्थिति में भी इतनी शांत और यों नियंत्रित रह पातीं? जल्दी में ही सही, शादी के जोड़े में लपेटकर माँ ने हीरा ही भेंट किया है उसे। माँ तो कुछ उलटा–सीधा तो दे ही नहीं सकतीं उसे, फिर वही कैसे वह माँ के इस निर्णय को इतने हठ और दुराग्रह के साथ अस्वीकारता रहा? लाल साड़ी में बीरबहूटी बनी और सुर्ख फूलों के नीचे खड़ी रेशमा आज वाकई में दुल्हन ही तो लग रही थी। कांपती नाजुक उन कटीली पत्तियों से छन–छनकर आती चांदनी और सामने क्षितिज से फूटती सिंदूरी भोर, अनूठी धूपछांव आभा थी चारोतरफ़ जो अब फूलों के उन झूमते गुच्छों को ही नहीं, उसके मन को भी राग–रंग की चुनौती दे रही थी।

पिछले तीन दिन से असंख्य सुख के पल इन फूलों से यों ही झर गए और वह जाने किस उन्माद में डूबा, पैरों तले सब रौंदता बेमतलब ही भटकता रहा। मोहित आगे बढ़ा और बाहों में लेकर चूमने लगा, प्यार से बहुत ही धीरे–धीरे मानो रेशमा खुद एक फूलों भरी डाली हो। मचलते–फिसलते वे फूल भी भला कैसे और कबतक रुक पाते– झरझर पूरा दामन खुशियों से भर दिया। बाल–बाल में गुंथकर अनूठा श्रृंगार कर दिया। सुख में डूबती उबरती रेशमा ने आँखें खोलीं तो मोहित अभी भी प्यार से उसे ही देखे जा रहा था, मानो पहले देखा ही न हो, आँखों–आँखों में दुलारता और अंग–अंग सराहता। शरमाती सकुचाती रेशमा बालों से फूल और पंखुरियों को झारते–हटाते बादलों पर चल रही थी – एक बार फिर से सात फेरे ले रही थी। जाने किस सुख तंद्र्रा में डूबी पति की तरफ़ देखती, यों ही बोल पड़ी, "ये फूल रात में तो यों नहीं झरते, फिर आज यह क्या हो गया है इन्हें?" "कुछ नहीं रेशमा, ये भी मुस्कुरा रहे हैं, जैसे कि तुम मुस्कुरा रही हो।" रेशमा ने पलटकर देखा गुलमोहर मुस्करा नहीं, खिलखिलाकर हंस रहा था, तभी तो झरती पंखुरियों का कालीन पैरों के नीचे बिछ गया था।

पल–पल को पलकों में संजोती रेशमा ने तुरंत ही सुर्ख पड़ता चेहरा पति के वक्षस्थल में छुपा लिया। अभी भी विश्वास नहीं कर पा रही थी वह कि यह सब सच था या फिर उसकी सोती–जागती आँखों का एक और दिवा स्वप्न... हाँ मुस्कुराते होंठ और बंद पलकों के पीछे से चंचल आँखें ज़रूर सचेत किए जा रही थीं कि चाहे जो भी हो, इस जादू को बिखरने नहीं देना – आजीवन यों ही सहेजना होगा... हमेशा के लिए ही।

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१६ जून २००६

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