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लीना का पति तो सब कुछ ले लेने को तैयार था पर लीना बच्चे को बचाने की भलाई बेचना नहीं चाहती थी। जाने यह पुन्न ही किसी दिन दुआ दे जाए। वह नहीं मानी तो नहीं मानी।

धीर-धीरे उन सैलानियों का मिलना-जुलना आना-जाना बढ़ा। एक औरत दूसरी की नस पहचान गई। लीना को ज़ालिम पति से बचाने का कोई तरीका नज़र नहीं आ रहा था। तलाक़ का तो सवाल ही नहीं था। तीन बच्चों का भी सवाल था। इतना तो निश्चित था कि यहाँ रहेगी तो हर साल एक और बच्चा जनेगी। यहाँ रह कर लीना का कुछ नहीं हो सकता था। आख़िर एक रास्ता निकाला गया और लीना के पति से लीना को काम पर अमेरिका भेजने के लिए मना लिया गया। उस खाली खंडहर हो चुके शराबी को अमेरिकी डॉलर मिलने की बात किसी लॉटरी से कम न लगी। और लीना अमेरिका आ गई।

इन दस सालों में लीना के डॉलर जाते रहे। उसके पति का बिना हाथ पैर हिलाए काम चलता रहा। बच्चे अमेरिका के ब्रैंड कपड़े पहन-पहन कर इतराते रहे।

इधर लीना का ग्रीन कार्ड हुआ फिर नागरिकता हुई फिर बच्चे आए फिर बच्चों का बाप आया।
दस साल तक जिन बच्चों के लिए अमेरिका में रह कर लीना एशियन माँ की तरह दिन रात तड़पती रही, वही बच्चे एशिया में रह कर अमेरिकी डॉलर का राशन खा-खा कर पूरी तरह से अमेरिकी हो चुके थे। विडंबना और किसे कहते हैं? इनको माँ के प्यार से अधिक माँ के जमा किए डॉलरों में रुचि थी।

बाप, अभी भी, यहाँ आकर भी, एशियाई मर्द बना रहना चाहता था।
डाँटने-डपटने तक नौबत रहती तो रहती पर वह तो हाथ उठाना तक न भूला था। एक दिन पड़ौसी ने देख लिया और पुलिस बुला ली। पुलिस ने दूसरी बार कांड न दोहराने की चेतावनी भरी धमकी दी तो मर्द के पाँव तले से तो ज़मीन खिसक ली। साथ रहे और हाथ न उठाए? फिर मर्दानगी कैसी? लानत है! खिसियाए बाप ने बच्चों को यकीन करा दिया कि ज़रूर इस लीना का पड़ौसी के साथ चक्कर रहा होगा? तभी तो। वर्ना कौन किसी के लिए अपना हाथ आग में डालेगा। बच्चों ने अभी तक बाप का कहना माना था, अभी भी मान लिया।

बाप और बच्चे उस बनवासिन निर्वासिन को छोड़ कर चले गए। लीना फिर अकेली हो गई। जीवन भर की तपस्या एक ही झटके में निष्फल हो गई।
इतना सब कुछ देख चुकी, झेल चुकी, लीना को अब क्या दुखा रहा है, यह मुझे देखना है।

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9 अक्तूबर 2007

 
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