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मॉर्निंगसाईड के निवासियों को सूचित किया जाता है कि उनको चट्टान के नीचे से आनेवाले चोर उचक्कों से सावधान रहना चाहिए। कल शाम छह बजे एक प्रोफेसर पर उसके अपार्टमेंट के आगे हमला हुआ। प्रोफेसर की ग्रोसरी और बटुआ लेकर हमलावर चंपत हो गए। जब भी आप मॉर्निंगसाईड पर हों तो ध्यान से देखत रहिए कि आपका कोई पीछा तो नहीं कर रहा!

सब खूब चौकन्ने हो गए। यों इस तरह की चेतावनियाँ अकसर आती ही रहती थीं। सो कोई नई बात नहीं थी। फिर भी हर नई चेतावनी के साथ सब और सावधान हो जाते थे। सावधान मतलब कि अंधेरे में पार्कवाली सड़क पर कभी न जाना और पार्क को तो अंदर से किसी ने देखा ही न था। ख़ैर इस इमारत में सारे पड़ोसी जब भी लिफ्ट या लॉबी में एक दूसरे के सामने पड़ते तो बस इसी हमले की बात शुरू हो जाती। यह उन दिनों की सबसे सनसनीखेज़ ख़बर थी और लोग इसमें खूब दो चार और चिकनी चुपड़ी जोड़कर सुनाते।

वह भारतीय महिला कहे जा रही थी,
''मैंने ही तो बेहोश पड़ा देखा तो प्रोफेसर पोलक को और फिर एंबुलेंस बुलवाई। वह तो शुक्र है कि बहुत चोट नहीं आई थी पर खुदा न करे उनके पास कोई हथियार होता तो?''
वह भारतीय महिला जिसका नाम पद्मा था, काफी अरसे से इस इमारत में रहती थी और अपने आप को गोरों जैसा ही समझती थी। उन्हीं से मिलती-जुलती थी और खुद को उन्हीं के साथ जोड़ कर देखती थी। पढ़ी लिखी थी, मेधावी थी और गोरों की तरह ही ऊपर उठना चाहती थी। उसने शादी भी एक अमरीकी प्रोफ़ेसर से की थी और खुद भी बोयोलॉजी पढ़ाती थी। पुरानी रह रही थी तो उसका सबके साथ आना-जाना या जान पहचान भी थी। शायद वह गोरों का अपनापन हासिल करने के लिए कालों के ख़िलाफ़ हो जाती। यों भी उसे लगता कि वह कहीं दूर से भी कालों जैसी नहीं है। वह तो हर तरह से यहाँ के गोरों के मुकाबले की ही थी और उसी तरह से अपनी पहचान बनवाना चाहती थी।

डोरा की सोच तो बहुत अलग किस्म की थी। वह उन सबसे जुड़ना चाहती थी, जानना चाहती थी जो उससे अलग थे, दूसरी दुनिया के थे और अभाव की दुनिया में जी रहे थे।
खुले मौसम में अकसर पार्क के किनारे खड़ी हो जाती थी।
चट्टान के ऊपर से ही पार्क की रेलिंग के सहारे खड़े हो नीचे झाँकती और फिर टूटी बीयर की बोतलें, काग़ज़ और प्लास्टिक की चिंदियों के अंबार सूखे पत्ती से घुलमिल एक अजीब-सी पीड़ा पहुँचाते। हमेशा सोचती कि इस स्थिति का कुछ इलाज होना चाहिए। जिनसे डरते हैं लोग, जिनसे हमेशा हमले का खतरा रहता है, उनसे घुला-मिला जाए, दोस्ती की जाए तो क्या फिर भी यही स्थिति रहेगी। अगर वे भी ऊँचे समाज की संपन्नता के भागीदार हो सकें तो क्योंकर नफ़रत करेंगे वे। लेकिन उसे परेशानी होने लगती कि कब कैसे यह हो पाएगा! इसके लिए तो समाज में बड़े आधारभूत परिवर्तन की ज़रूरत है। यह बरसों की गुलामी का इतिहास कब जाकर लोगों की स्मृति से मिटेगा! अकसर आँख पार्क के अंदर देखने के बजाय दूर कहीं टिक जाती। ऊँचाई पर होने की वजह से दूर-दूर तक के नज़ारे किसी उजले धुपीले दिन में तो खूब साफ़-साफ़ दीख जाते थे। जैसे कि बायीं ओर और सामने इस्ट रिवर पर बने हुए लंबे-लंबे पुल जिनपर हमेशा गाड़ियों का तांता लगा होता और दायीं ओर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वाँ इमारतें जो कि अब भस्म ही हो चुकी हैं पर पहले बहुत साफ दिखा करती थीं। वहाँ हादसा होने के बाद बहुत दिन बाद तक वह और उसका साथी धुएँ के बादल देखा करते थे। अब तो बस शून्य है उस हिस्से पर!

डोरा को यह इलाका बहुत पसंद था। यों तो उसे यहाँ आए पाँच छह साल ही हुए थे पर उसे यहाँ की शांति, पार्क की हरियाली सब बहुत मोहक लगते।
फिर इस जगह का ऐतिहासिक महत्व भी तो था। पार्क के साथ लगी यह सड़क तो लगभग सौ दो सौ बरस पुरानी है। पार्क के सामने बनी इमारतें करीब ढाई सौ साल पुरानी है। एक बहुत बड़ा चर्च भी बना है जो हमेशा बनता ही रहता है या कहिए कि आज तक संपूर्ण नहीं हुआ। सड़क के पार्क वाली तरफ़ के पेड़ों के तने देखकर भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि डेढ़ दो सौ साल से कम पुराने नहीं। खूब फैल गए हैं पेड़। वसंत में उनकी डालियों पर नन्ही-नन्ही कोंपले खिल आती है और अलग-अलग किस्म के फलों से लद जाते हैं पेड़। गर्मियों में हरी-हरी पत्तियों से ढके खूब घनी छाँह देते हैं, पतझड़ में पत्तों के रंग बदलते ही सारी सड़क रंगों की होली खेलने लगती है और सर्दियों में इनकी बेपर्द शिखायें बड़ी आकर्षक, लोचदार और लहरीली दीखती है। हवा में झूमती शाखाएँ जैसे संगीत की लहरों को आकार दे रही होती है।

डोरा सड़क के किनारे बेंच पर अकसर धूप में आकर बैठ जाती। क्यों कि बहुत कम लोग इस ओर आते सो शांति ही रहती। ज़्यादातर लोग कैंपस के मुख्य हिस्से में ही चलते फिरते दीखते। धूप में वहीं लायब्रेरी के सामने बनी सीढ़ियों पर बैठ धूप सेंकते। लेकिन इधर कभी-कभी कोई कुछ कुत्तों को घुमाने चला आता तो वह भी देखना डोरा को सुखद लगता। सड़क पर हर चार पाँच ब्लॉक के बाद पार्क का मुहाना था जहाँ सीढ़ियों से आया जाया जा सकता था। यों पार्क का आर्किटेक्चरल डिज़ाईन काफी खूबसूरत था। इस पार्क को उसी वास्तुकार ने डिज़ाईन किया था जिसने इस शहर के सबसे सुंदर पार्क सेंट्रल पार्क को डिज़ाईन किया था। इसलिए पूरे पार्क की परिकल्पना ही खूबसूरत थी। ऊँचाईसे निचाई तक का डिज़ाईन भी बड़ा दिलचस्प मालूम होता था, हर मुहाने की सीढ़ियाँ भी अलग डिज़ाइन की थी, बीचोंबीच एक झरना बहता था जिसका पानी नीचे एक तालाब में गिरता था जहाँ बत्तखें और मुर्गियाँ रहती थीं। अकसर जंगली फूल भी खिल जाते थे। पानी, फूल और पेड़-पौधे थे तो किस्म-किस्म की चिड़ियाँ भी यहाँ आया करती थीं। अकसर गर्मियों में चिड़ियों के शौकीन दूरबीन लिए पार्क के आसपास घूम रहे होते। सो पार्क को अगर काले इंसानों से खतरा न हो तो बाकी बहुत कुछ वहाँ था। चूँकि खतरा तो था ही सो पुलिस भी वहाँ जाने से घबराती थी जिसका परिणाम यह हुआ कि यह पार्क नशीली दवायें बेचने-खरीदने वालों का अ़ड्डा बन गया था। पुलिस की दखलंदाज़ी का अंदेशा कम होने से ड्रग्स के लिए यह जगह खूब सुरक्षित हो गई थी। नशा करनेवालों का भी यह अड्डा बन गया। शाम को पार्क के एक सिरे पर खड़े हो जाएँ तो किस्म-किस्म की नशीली दवाओं के भभके हवा के झोंकों के साथ तैरते चले आते। यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट का बड़ा-सा तिमंज़िला घर भी चट्टान के ऊपर ठीक इस पार्क के सामने ही था। दरअसल घर सूना ही पड़ा रहता था और प्रेसिडेंट शहर से दूर हरियाली से घिरे एक सुरक्षित इलाके में रहता था। वैसे तो यह यूनिवर्सिटी ही एक द्वीप की तरह थी जिसके तीन तरफ़ इसी तरह की गरीब बस्तियों का सैलाब था, एक ओर हडसन नदी और बीचोंबीच यह किले जैसी लाल इंटों और सीमेंट की साफ़ सुथरी प्राचीन ग्रीक वास्तुकला के नमुनों से होड़ करती यूनिवर्सिटी की इमारतें, जहाँ बहुत शांति से अध्ययन का कार्य संपन्न होता। यहाँ के विद्यार्थी और प्रोफेसर देश में बड़े-बड़े ओहदों पर नियुक्त होते, विश्व में नोबल पुरस्कार विजेता होते, बड़े-बड़े बिज़नेसों के अधिकारी, संचालक व निर्देशक होते और सारे देश की बागडोर सँभालनेवालों में से होते।

भारतीय महिला की बात जारी थी। वह हर तरह से डोरा से अपनी बात को खरा करवाने पर तुली थी, वह कह रही थी,
''सच कहूँ तो एक बार मैं भी हमले का निशाना बनी थी। वह भी मेरा ही पागलपन था। वही गर्मी के दिन थे सो हमारा भी मन कर आया कि सड़क पर ठंडी हवा नौश फ़रमायी जाए। पार्क में पेड़ों की हरियाली को छूकर आती हवा सच में बहुत मादक लगती थी। खुराफातों का वक्त भी यहाँ की गर्मी का समां ही होता है। मैं और मेरा पति सड़क के और भी सूने हिस्से की ओर चले गए। बस कुछ लड़के नीचे से भाग कर हमारी ओर दौड़े। हम तो सरपट भागे और प्रेसिडेंट के घर के आगे बैठे सेक्योरिटी गार्ड के पास आकर दम लिया। लड़के फिर डर कर वापस नीचे भाग गए। बस बच गए पर होने को तो कुछ भी हो सकता था।
डोरा उस महिला की बात सुनकर अपना धीरज खो रही थी। बस इतना कहा,
''ठीक है, ठीक है। मैं ध्यान रखूँगी।''

और कहकर उसने किवाड़ तो बंद कर दिया पर मन में बहुत हलचल मची रही। बहुत गुस्सा आया उस पड़ोसन पर। इतनी तंग दिमाग है कि काले रंग को क्या देख लिया कि शक करने लग गई। जैसे सारे काले लड़के चोर डाकू ही होते हैं। बेचारा काम करके पैसे कमा रहा है तो तुमको क्यों तकलीफ़ होती है। फिर यूनिवर्सिटी भर में सफाई, सेक्योरिटी के सारे काम कालों ने ही सँभाले हुए हैं। तुमको इस लड़के से इतनी तकलीफ़ क्यों है? गोरे हों चाहे एशियाई, बढ़िया नौकरियाँ तो खुद हजम कर जाते हैं। सारी एकैडेमिक दुनिया में गंदगी फैलाई हुई है। दूसरों का गला घोंट कर अपनी नौकरी पक्की करते हैं और यह बेचारे लड़के के पीछे पड़ी है।
उसने मन में ठान लिया था कि वह लड़के को आने देगी। टुहैल विद दिस वुमन! इसके कहने से रोकेगी नहीं।
अगले शुक्रवार को वह नियमित रूप से आया। काम करते हुए पूछा,
''क्या वह महिला आई थी? वह बहुत नाराज़ थी।''
''हाँ आई थी। उससे कुछ नहीं होता। तुम अपना काम करो।''
वह बताता रहा, ''मेरी माँ एक दिन आपसे मिलना चाहती है। वह नहीं चाहती मैं काम करूँ। पर मैंने बताया कि आप बहुत अच्छी हैं। वे आपसे मिलेंगी। माँ कहती हैं कि यहाँ मेरे साथी अच्छे नहीं। वे मुझे टेनेसी भेज देंगी पढ़ने के लिए।''
''क्यों?''
''वहाँ मेरे नाना नानी हैं। वहाँ स्कूल ज़्यादा अच्छे हैं। यहाँ शहर के स्कूल अच्छे नहीं। लड़के पढ़ाई नहीं करते। उधम मचाते हैं। माँ कहती हैं कि मुझको एक अच्छा इंसान बनना है।''
''क्या तुम...''
''हाँ मैं भी पढ़-लिखकर अच्छे काम में लगना चाहता हूँ।''
उस दिन वह काम करके चला गया और कोई घटना नहीं हुई तो डोरा ने चैन की साँस ली। वह भारतीय औरत एकाध बार एलिवेटर में मिली भी तो कोई बात नहीं हुई। एक दिन एक दुसरे पड़ोसी ने ही पूछा,
''आपके यहाँ कोई काला छोकरा काम करता है?''
''हाँ। क्यों?''

उस दिन उसे इमारत से बाहर निकलते देखा तो हैरान रह गया कि यह हमारी इमारत में कैसे आ गया तो तब उसने आपका बताया। फिर पद्मा ने भी बतलाया...
पद्मा यानी की वही पड़ोसन जो डोरा से शिकायत करने आई थी कि इमारत में ऐसे वैसे लोगों को मत आने दे। जो खुद चाहे साँवली है पर खुद को कालों से बहुत श्रेष्ठतर समझती है।
तो बात फैल गई लगती है।
डोरा अच्छा कह कर चुप हो गई। इस विषय पर और बात करना सही नहीं लगा। इनको क्या मतलब कि वह अपने घर में क्या करती है। क्या वह इनके घर जाकर देखती है कि कौन क्या कर रहा है!
अगले शुक्रवार जैस्सी आया तो कहने लगा,
''आपकी बिल्डिंग के लोग बड़े अजीब है। मुझको ऐसे घूरते हैं कि आँखों से ही कच्चा चबा डालेंगे।
पागल हैं। डरपोक। बेबात डरते हैं। तुम मत परवाह करना। तुम अपना काम करते रहो।
लड़का हमेशा की तरह इमानदारी और लगन से सारा काम कर चला गया। डोरा साथ ही साथ उसके पैसे भी चुका देती। अच्छा काम करने की कुछ टिप भी पा जाता वह।
पर उस दिन के बाद से वह लड़का उस इमारत में कभी नहीं आ सका। शाम को डोरा के दरवाज़े के नीचे मैनेजमेंट की ओर से चिट्ठी पड़ी थी।
'इमारत के रेजीडेंट्स की सुरक्षा हम सबकी सामूहिक ज़िम्मेदारी है। किसी भी अनजान व्यक्ति को इमारत में घुसने देना विपत्ति को आमंत्रित करना है। ऐसे किस्से आम देखे गए हैं कि किसी बहाने से अनपहचाने लोग इमारत के अंदर आ जाते हैं और रहनेवालों की सुरक्षा पर सवाल लग जाता है। आपसे निवेदन किया जाता है कि आगे से किसी ऐसे व्यक्ति को इमारत में आने से रोकें।

तो डोरा की शिकायत हो चुकी थी और फ़ैसला भी सुनाया जा चुका था। कहाँ तो वह सोच रही थी कि सब ठंडा पड़ गया। कि वक्त के साथ सब उस लड़के के आदी हो जाएँगे, उसे जान लेंगे कि वह कितना अच्छा लड़का है। पर यहाँ तो अंदर ही अंदर सब उल्टा ही पक चुका था।
वह हक्की-बक्की, निढाल-सी होकर वहीं फ़र्श पर बैठ गई।
मैनेजमेंट का खत हाथ में था और डोरा सोच रही थी कि जिस विश्वास को बरसों के इतिहास ने खो दिया है, उसे अभी और कितने बरस लगने हैं खुद को ज़माने में।

क्या या तो सिर्फ़ चट्टान के ऊपर रहा जा सकता था, या चट्टान के नीचे। क्या नीचेवाले ऊपरवालों के जीवन के भागी कभी नहीं होंगे! या ऊपरवाले चट्टान के नीचे बह रहे जीवन के? यह दूरी कभी खत्म नहीं होगी?
पर डोरा जानती थी वह खामोश नहीं बैठी रहेगी। कल ही यूनिवर्सिटी के प्रेसिडेंट को खत लिख कर विरोध करेगी। जो दूरी बढ़ती जा रही है, उसे खत्म करना है। अब उसे इंसानियत के बारे में सिर्फ़ पढ़ाना और लिखना ही नहीं, कुछ करने की भी ज़रूरत है। लेकिन कितनी देर लगेगी?

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१ दिसंबर २००८

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