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जब भी दोनों मिलते एक-एक लम्हा जी भर कर प्यार करते। मार्था तो उस पर वारी-वारी जाती। और जब बिछड़ते तो जी भर कर उदास हो जाते। एक अनिश्चित अहसास कि मालूम नहीं कि अब कल क्या होगा? इसी तरह दोनों ने बरसों साथ साथ गुज़ार दिए थे। और आज जब मार्था अकेली है, बग़ैर पत्तों के दरख़्तों के नीचे तन्हा और उदास बैठी थी। यह दरख़्त भी मार्था को अपनी ज़िंदगी का प्रतिबिंब दिखाई दे रहे थे। जो ज़िंदगी की बहारें देखने के बाद पतझड़ के हत्थे चढ़ चुके थे। जिनकी ख़ूबसूरती और जवानी पतझड़ की भेंट हो चुकी थी। अब केवल पीले, सुनहरे, भूरे और नारंगी पत्ते ही बहार गुज़र जाने की कहानी कह रहे थे।

मार्था बेचैनी से मारिया का इंतज़ार कर रही थी। इंतज़ार की तड़प के साथ-साथ रह-रह कर उसका ख़याल आ रहा था। उसकी कसक महसूस कर रही थी। उसका अकेलापन खाए जा रहा था। वह कितना मज़बूत सहारा होता जब-जब वह मुश्किल में होती। कोई भी परेशानी होती तो वह कहता, "तुम क्यों परेशान होती हो?.. मैं जो हूँ।" और आज जब मार्था को एक चाहने वाले सहारे की आवश्यकता है तो वह कितनी अकेली है!

मारिया, जो उसकी साथी होती, जिसको माँ हमेशा अपना दोस्त, अपनी साथी और अपना सहारा समझती रही, वह माँ को बताए बग़ैर सबकुछ कर ग़ुज़री। माँ के भरोसे को किस क़दर ठेस पहुँचाई। इस तड़प को केवल वही समझ सकता। मार्था को फिर वह याद आने लगा। और आँसू बंदिशों को तोड़ कर बाहर आने के लिए बेताब हो गए।

अचानक जो घड़ी पर नज़र पड़ी, तो वक्त हो गया था। मार्था तेज़ी से उठी और तेज़-तेज़ कदम बढ़ाती क्लिनिक की तरफ़ रवाना हो गई। अब यह पत्ते तड़प-तड़प कर ख़ामोश हो गए थे। मार्था कि चाल में भी ठहराव आ चुका था। आँसू भी काफ़ी हद तक थम गए थे। क्लिनिक की घंटी बजाते ही दरवाज़ा खुल गया, और मार्था ने दाख़िल होते ही रिसेप्शन पर बैठी एक अनुभवी नर्स से पूछा, "मारिया कहाँ है, कैसी है, वह ठीक है न? क्या उसने स्वयं मारिया को देखा है?" मार्था लगातार सवाल करती गई, बोलती गई। उस नर्स को जवाब देने का अवसर तक नहीं दिया।

थोड़ा-सा अंतराल मिला तो नर्स ने पूछा, "मारिया का पूरा नाम क्या है?.. और उम्र क्या है? "
मारिया का नाम जैसे मार्था के हलक में अटक गया हो। जैसे उसका जी चाह रहा हो कि मारिया का नाम छुपा ले। कहीं यहाँ बैठी सारी औरतों को न मालूम हो जाए कि मारिया ने क्या किया है। और उम्र के बारे में तो सोचते ही जैसे उस पर बेहोशी-सी छाने लगी थी। पंद्रह साल की कुँवारी माँ ! मार्था एक बार फिर काँप उठी। शर्म से पानी पानी होने लगी। वह नर्स मारिया को लेकर आ चुकी थी। माँ बेटी की नज़रें मिलीं। दोनों की आखें नम हो उठीं। दोनों ने नज़रें झुका लीं। मारिया ने माँ के कंधे पर सिर रख दिया। माँ ने उसके हाथ पकड़ लिए। हाथ बिल्कुल ठंडे बर्फ़ हो रहे थे। माँ अपने हाथों से जल्दी-जल्दी उसके हाथ मल-मल कर गरम करने लगी। माँ को महसूस हुआ कि मारिया का रंग संगमरमर की तरह सफ़ेद हो रहा है। होंठो का गुलाबी रंग उड़ चुका है। घने सुनहरे बाल उलझे हुए कंधों पर पड़े हुए हैं। मारिया में माँ की सी पवित्रता पैदा हो चुकी थी। माँ उसको पकड़ कर धीरे-धीरे चलाती हुई कार तक लाई। मार्था स्वयं को इतना कमज़ोर महसूस कर रही थी जैसे कार चलाने की ताक़त ही न हो। उसने हिम्मत करके मारिया से मालूम किया कि ऐसा कौन था जिसके लिए मारिया यह कुर्बानी दे गुज़री। मारिया ने माँ को कोई जवाब नहीं दिया और उसकी गोद में मुँह छुपा लिया।

माँ और अधिक उदास हो उठी। उसको फिर उसका ख़याल आ गया। वह भी मार्था की गोद में ऐसे ही मुँह छुपा लेता था। घंटों उसकी गोद में सिर रख कर लेटा रहता और कहता, "मेरा जी चाहता है कि वक्त यहीं ठहर जाए।"
मार्था की गोद में उसे बेहद सुकून मिलता। मार्था भी उसको लिटाए घंटों एक ही स्थान पर बैठी रहती। हिलती भी नहीं थी। मारिया के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए माँ ने दोबारा पूछा, "मारिया ऐसा कौन था जिसकी मुहब्बत में तूने अपने आपको बरबाद कर लिया? "
मारिया ने चेहरे को और ज़्यादा अंदर घुसाते हुए घुटी आवाज़ में कहा, "माँ जिसके पास तुम जाती थीं! "

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२५ फ़रवरी २००८

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