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पर उसे लगता है धीरे-धीरे टूटते हैं तार। धीरे-धीरे ही टूटते हैं संबध- यह लुहार की ठोक से नहीं-सुनार की ठुक-ठुक से ही बनते और बिगड़ते हैं। धीरे-धीरे, भानुमति का कुनबा, न एक दिन में बनता है और न एक दिन में टूटता है।

आज यह फैसला- जो अचानक एक ठोस निर्णय बन कर निकला, कहीं अंदर पल रहे इसी ज्वालामुखी का विस्फोट था। आज किसी ठोस जमीन- आधार या सहारे के बिना भी यह निर्णय स्वयं डट कर उसके सामने खड़ा हो गया। अपने लिए या बच्चों की यदा-कदा सहायता करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। और विशाल से किसी तरह की कोई अपेक्षा रखना- दीवार में सिर फोड़ने वाली बात है। वह तो इतना स्वार्थी और स्वयंसेवी हो गया है कि घर में बने चिकन की बोटियाँ भी पहले अपनी प्लेट में बटोर लेता है और बच्चे देखते रह जाते हैं। पर उसे कोई फरक नहीं पड़ता। वह सड़ाप-सड़ाप बेशर्मी से खाता रहता है।

उसकी इकलौती मैगजीन- जो उसने यहाँ आकर, अपनी संस्कृति को कायम रखने के लिए चला रखी है, नितांत लंगड़ी है। उसके अधिकतर विज्ञापन भी विशाल ही लाता है और उसके पैसे बाहर-बाहर वसूल कर खर्च कर देता है। मैगजीन की कम्प्यूटर सेंटिंग, छापाखाना, बाइंडिंग आदि के बिल, वहीं के वहीं खड़े रहते हैं। हर बार जब नए अंक की तैयारी होती तो सभी बिलों के लिए उसे तंग करते और हिकारत और अपमानित नजरों से देखते। वह अपने में इतनी छोटी होती जाती- दिन पर दिन। काफी झिकझिक के बाद विशाल कुछ देता और आंशिक बिल देकर- गाड़ी आगे ठिलती...। कई-कई दिन वह ऐसी किल्लतें उठाती और रातों को सो नहीं पाती।

विशाल पर, इस सबका कोई असर नहीं। उसने अब अपने आप में यह निर्णय ले लिया था कि अलग होकर वह इस मैगजीन को बंद कर देगी। अपने आप को कर्ज में और नहीं डुबो सकती...। वह पढ़ी लिखी है कहीं भी छोटी-मोटी नौकरी करके अपना पेट-पाल लेगी और उसे मालूम है, बच्चे बड़े कर्मठ और मेहनती हैं, अपने बूते पर खड़े हो जाएँगे और हो रहे हैं। यों मैगजीन के माध्यम से वह राज्य के गवर्नर और अन्य बड़े ओहदे वाले लोगों को जानती है। बड़े-बड़े अखबारों के राइटर्स और सचिवों को पहचानती है, पर उनसे नौकरी नहीं माँग सकती...। मैगजीन बंद हो गई तो अपने-आप व्यक्तित्व का वह भव्य पहलू तिरोहित हो जाएगा। उस पहलू ने आखिर दिया भी क्या है...!

घूमते-घूमते वह घर के पिछवाड़े से सामने वाले लॉन में आ गई है। आसमान जैसे रात भर रोया है। सड़क धुली हुई- आर्द्र चुपचाप बिछी है लिथड़ने के लिए...। विलगता के अपने ध्रुव होते हैं, जिन्हें कभी तुम छू कर विगलित होते हो तो कभी निःसंग रहकर। दो धार की तलवार की तरह काटती है विलगता।

आँख में किरकिरी की तरह चुभते हैं वे क्षण, वे बीते हुए दिन-साल-महीने। जिन सालों-महीनों पर अमेरिका आने से पहले रेखा ने ढेरों उमंगो के महल गाड़ दिए थे। उन सब पर जैसे गाज गिर गई थी। उन सब अरमानों की जैसे किसी ने खटिया खड़ी कर दी थी।

सामने वाले घर की चिमनी का धुँआ थका-थका ऊपर उठ रहा था। बीच की बुर्जियों से आँख-मिचौनी खेलती धूप-धुएँ की उड़ान को चक-मक कर रही थी, पर चिमनी की बुर्जी का धुआँ रोशनी को घुटकने की कोशिश कर रहा था।
उसका मन नहीं हो रहा था कि वह अंदर जाए और विशाल का सामना करे। ठहरे हुए जल में पत्थर मारने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी... अच्छा था बच्चे घर पर नहीं थे। वह धीरे-धीरे अपना भविष्य तय कर रहे थे- कोई कहीं-कोई कहीं... रेखा को इसी घड़ी का इंतजार था। पर दोहरा इंतजार विशाल के बदलने और न बदलने की उम्मीद का भी...
अनचाहे सवालों की बेतरतीबियाँ उसके चारों ओर फैल गई थीं... हाथ की लकीरें-दिशाओं के बदल जाने से बदल जाती होंगी। ग्रह-नक्षत्रों को न मानने से वे अपना प्रभाव नहीं छोड़ देते... पूर्व से पश्चिम में आ गए... इस पश्चिम का अपना पूर्व और अपना पश्चिम। जन्मपत्रियाँ ही उल्टी हो गई थीं...।

फिर भी अन्दर तो जाना ही था। विशाल की प्रतिक्रिया जानना ज़रूरी था...यह नहीं कि वह इस इंतजार में थी कि विशाल उसके समक्ष गिड़गिड़ाएगा- या माफी माँगेगा। ऐसी कोई अपेक्षा उसके मन में नहीं थी। इस समय उसका निर्णय अटल था, पर उस पर विशाल की मोहर चाहिए थी... वह अपने वजूद को मजबूती से पकड़ कर रखना चाहती थी...अपने इतने बड़े निर्णय को कागजी नाव की तरह डोलते नहीं देखना चाहती थी।

अन्दर आई तो विशाल ऊपर गुसलखाने में जा चुका था। गुसलखाने के बाहर, उसके कपड़े-तौलिया आदि रखे थे जो शायद पहली बार उसने खुद रखे थे...। वह आश्वस्त होकर नीचे उतर आई और कार की चाबी लेकर लाइब्रेरी के लिए निकल गई। उसे उसका उत्तर मिल गया था...।

धूप खुलकर चँदोवे की तरह उसके माथे को छू रही थी।

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२९ जून २००९

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