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कमल जी के पुरोहित ने आकर सादी ज़बान में अपनी बात कहनी शुरू कर दी है। बीच बीच में संस्कृत के श्लोक भी बोल रहे हैं। वह इस वक़्त भी यही देख रहा है कि कौन कौन आया है। वह कमल जी की पत्नी से शायद एक आध बार किसी पार्टी में मिला है। उसे तो उनकी शक़्ल भी याद नहीं है। फिर भी यहाँ मौजूद है। इन्सान मरने वालों के यहाँ क्यों जाता है। जो मर गया उसका सोग मनाने या जो ज़िन्दा हैं, उनको तसल्ली देने - कि चिन्ता न करें अभी आप तो ज़िन्दा हैं।
पुरोहित ने अपना काम समाप्त कर दिया है। सामने ही दाएं हाथ पर ताबूत रखा है। उस ताबूत में कमल जी की पत्नी गहरी नींद सो रही हैं। “मीरा भी आई है।” उसकी पत्नी की हल्की सी आवाज़ सुनाई दी। उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।

अचानक उसके दिमाग़ में एक बात कौंधती है, “क्या सभी अंग्रेज़ मृत शरीर को क़ब्र में दबाते हैं या जलाते हैं? या फिर अपनी अपनी मर्ज़ी से जो जी चाहे। ... मगर यह तो कोई तरीक़ा न हुआ। मृत्यु में कुछ तो विधि का पालन होना चाहिये। लेकिन क्या जीवन स्वयं एक बने बनाए ढर्रे पर चलता है? फिर मृत्यु भला क्यों किसी ढर्रे की ग़ुलाम बने।
कमल जी स्वयं खड़े हो कर माइक पर अपनी पत्नी के बारे में बता रहे हैं। यह एक और अच्छी प्रथा है जो ब्रिटेन के भारतीयों ने यहाँ के स्थानीय लोगों से सीखी है, “सुधा के साथ मैने केवल दो वर्ष बिताए। मुंबई में जब मैं अपना उपन्यास गटर गंगा लिख रहा था, उन्हीं दिनों सुधा से मेरी मुलाक़ात हुई। मुझे देखने में बच्ची सी लगी।.....”उसे लगा जैसे कमल जी रेडियो पर समाचार पढ़ रहे हैं। क्या सच उसे सुधा के बारे में कुछ जानने की इच्छा है? उसका मन क्यों उचाट हो रहा है? आज पहली बार तो उसकी पत्नी ने ऐसा व्यवहार नहीं किया। फिर इतना परेशान क्यों है?
क्रियाकर्म के बाद कमल जी के घर शराब एवं भोजन की व्यवस्था है। यह भी अंग्रेज़ों से ही सीखा है। अंग्रेज़ अंतिम संस्कार के बाद किसी पब में इकट्ठे होते हैं और उन्हें शराब पिलाई जाती है। अंग्रेज़ जीवन के किसी भी पहलू को उत्सव बना सकता है। हिन्दुओं ने इस प्रथा के साथ भोजन भी जोड़ दिया है। ब्रिटेन के गोरे आदमी को हिन्दुओं से कोई परेशानी नहीं होती। ये लोग किसी भी सामाजिक व्यवस्था के साथ जुड़ जाते हैं। मज़हब के लिये लड़ाई नहीं करते। समाज में अपना योगदान देते हैं। अर्थव्यवस्था को मज़बूत करते हैं। अचानक उसे अपने हिन्दू होने पर गर्व महसूस होने लगता है।

पुरोहित एक बार फिर श्लोक पढ़ना शुरू कर देता है। अब अंतिम सच्चाई का पल आ पहुँचा है। केवल दो मिनट में शरीर का माँस पिघल जाएगा और हड्डियों का चूर्ण बन जाएगा। हाड़ माँस के इन्सान को दो मिनट में एक थैली में भर कर वापस दे दिया जाएगा। पुरोहित के श्लोकों के साथ साथ वो पट्टी चलने लगी है जिस पर कि ताबूत रखा है। सब खड़े हो कर दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि पेश कर रहे हैं। यदि अंतिम सत्य यह है तो वह और उसकी पत्नी सारा समय झगड़ते क्यों हैं? आख़िर मारामारी किस बात की है?
जब तक कमल जी की पत्नी को थैली में बन्द किया जाना है तब तक का समय है लोगों के पास अपनी अपनी बातचीत कर लेने का। कार्यक्रम बन रहे हैं। कल, परसों अगले हफ़्ते तक के प्रोग्राम तय हो रहे हैं। अब बात करते करते चेहरों पर मुस्कान भी दिखाई देने लगी है। जिस जिस का जितना नज़दीकी रिश्ता है उसके चेहरे पर वैसे ही भाव भी हैं। उसका मन आसपास की ख़ूबसूरत हरियाली में रम रहा है। कितना सुन्दर है यह क्रैमेटोरियम। इसे देख कर तो बार बार मरने को जी चाहता है।

कमल जी, उनका पहली पत्नी से पुत्र अजित, कमल जी की सास, साली और एक रिश्तेदार सबको विदा देने के लिये हाथ जोड़ कर खड़े हो गये हैं। लोगों ने उनको देख कर विदा होना शुरू भी कर दिया है। शरीफ़ भाई उसके नज़दीक आकर खड़े हो गये हैं, “क्यों भाई जान, क्या प्रोग्राम है? क्या कमल जी के घर चल रहे हैं।”
“नहीं शरीफ़ भाई, आपकी भाभी साहिबा को ज़रूरी काम है। बस यहाँ से सीधे वहीं जा रहे हैं।” पत्नी कभी कभी ढाल का काम भी कर जाती है।

“यार हमारा तो पुराना रिश्ता है। हम अशोक जी की कार में जा रहे हैं। आज रात का भोजन भी कमल के घर पर ही होगा।” शरीफ़ मियाँ कमल जी से अपनी निकटता का प्रदर्शन कर रहे थे।
उसे उस प्रदर्शन में कोई रुचि नहीं थी। दरअसल आज श्मशान में आकर उसका मन उचाट सा हो गया है। वह कहीं दूर भाग जाना चाहता है। फिर अचानक उसे श्मशान से प्यार होने लगता है। उसे लगता है कि हर मुसीबत का हल श्मशान ही तो है। दूसरी शादी एक निरंतर मौत है जिसमें वह रोज़ाना इंच दर इंच मर रहा है। बचने की कोई संभावना नहीं है। ऐसा क्यों होता है कि एक पल की ग़लती के लिये इन्सान को उम्र भर की सज़ा हो जाती है। क्या श्मशान में एक नया जीवन जन्म नहीं ले सकता?

आरबाज़ भी अपनी पत्नी अलका के साथ विदा ले रहे हैं। उसके आगे मंगल जी हैं, और पीछे शनि यानि कि उसकी अपनी पत्नी! वह अपनी पत्नी के साथ कमल जी को हाथ जोड़ कर आगे बढ़ जाता है। वह अंग्रेज़ों के एक रिवाज़ से परिचित है। जब सारा कार्य पूर्ण हो जाता है तो घर का बड़ा आने वालों से कह देता है कि जिसे जो जो फूलों का गुच्छा पसन्द आ जाए, ले जा सकता है। कुछ लोग तो इसी चक्कर में काफ़ी देर तक रुके रहते हैं ताकि अपनी पसन्द के फूल पा सकें। जबकि हिन्दुओं में मुर्दे से जुड़ी किसी भी चीज़ को लेकर अलग किस्म की भावनाएं होती हैं। यहाँ ऐसा कुछ नहीं होगा। हो सकता है कि कोई और अंग्रेज़ इन फूलों को घर ले जाकर अपना कमरा सजा ले।

“तुमने कभी सोचा है कि अंग्रेज़ अपने आँसू कैसे रोकता है। क्या तुमने कभी किसी अंग्रेज़ को मातम के दौरान बिलख बिलख कर रोते देखा है?” वह पत्नी के साथ विषय परिवर्तन करने को उत्सुक है। किन्तु पत्नी के पास उसकी फ़ालतू बातों के लिये समय नहीं है।
वह फिर भी अपनी बात जारी रखता है, “यह गोरे लोग अपनी नाक के उस ऊपरी हिस्से को दबाते हैं जहाँ से आँसुओं की सप्लाई होती है। बस इसी तरह वह अपने आँसू रोक लेते हैं।”
पत्नी शायद सोच रही होगी कि जब मुझे इसकी बक़वास में कोई रुचि ही नहीं तो यह बोलता क्यों जा रहा है। वह चुप होकर पत्नी के पीछे चला जा रहा है।
“ओह शिट! हमारी कार तो बीच में फंस गई है।” उसे अपनी पत्नी की आवाज़ सुनाई देती है। अब उसे भी ओवरफ़्लो पार्किंग का चक्कर समझ में आ रहा है। समस्या तो खड़ी हो चुकी है। लाल रंग की रोवर कार उनकी कार के आगे अभी तक खड़ी है और उनकी कार के पीछे तीन कारें और आ कर खड़ी हो गई हैं।
“अब तो हम फंस गये। जब तक अगली कार हटती नहीं हम अपनी कार हिला भी नहीं सकते।”
“जबसे तुम्हारे साथ शादी हुई है मेरी तो पूरी ज़िन्दगी ही फंस गई है। कार तो फंसेगी ही।”
“अब ये कार फंसाने में मेरा तो कोई दोष नहीं है न! यहाँ जितने लोगों की कारें खड़ी हैं उन सबको एक दूसरे का इन्तज़ार करना ही पड़ेगा न!” वह जैसे अपनी सफ़ाई देने लगा था।
“तुमने ही तो कहा था कि कार यहाँ खड़ी कर दो। अगर मैं बाहर जाकर सिंगल लाइन पर कर आती तो अब तक तो हम कहाँ के कहाँ पहुँच जाते।”
“मैनें तो तुम्हारा भला ही चाहा था। वर्ना तुम गेट से यहाँ तक बारिश में भीगती आतीं। जब क्रैमेटोरियम वालों ने जगह बना रखी है तो इसका एक ही तो मतलब है कि यहाँ लोग गाड़ी खड़ी करते ही होंगे।”
“मुझे औरों से क्या लेना है। हम तो फंस गये न। एक तो आज ही आना था यहाँ। तुम और तुम्हारे जानने वाले हमेशा मेरे लिये मुसीबत ही खड़ी करते रहते हैं।”

उसे महसूस होने लगता है कि जैसे उनकी कार ही ओवर-फ़्लो पार्किंग में नहीं फंसी है, बल्कि उसका सारा जीवन ही ओवर-फ़्लो पार्किंग का हिस्सा बन गया है, “तुम कम से कम ऐसी जगह पर तो अपनी ज़बान की कड़वाहट को काबू में रखने की कोशिश कर सकती हो। आते जाते लोग देख रहे हैं।” वह परेशान हो जाता है। शरीफ़ भाई, अशोक जी की कार में लदे हुए जा रहे हैं। जाते जाते हाथ हिलाते हुए बाय बाय कहते हैं। वह अपने होठों पर नकली मुस्कान ला कर उनके अभिवादन का जवाब देता है।

“मेरी ज़बान की जगह तुम अपने एक्शन्स पर काबू लाओ। जबसे शादी हुई है मुझे कोई न कोई टेन्शन देते रहते हो। कभी किसी का फ़ोन आ जाता है तो कभी किसी की चिट्ठी या फिर एस.एम.एस.। तुम्हारा कोई कैरेक्टर भी है क्या? अब ससुर बन चुके हो अगर तुम्हारा दामाद तुम्हारी बेटी के साथ ऐसा करेगा तो आयेगी तुम्हारी अक़्ल ठिकाने।”
“तुम इतनी गन्दी बातें सोच कैसे लेती हो?”
“अरे जब तुम्हें इतनी गन्दी बातें करने में शर्म नहीं है तो मुझे कहने में क्या हर्ज है?”
“तुम तो किसी की उम्र का लिहाज़ भी नहीं करती हो। जो मुंह में आता है जिसके बारे में आता है, बस शुरू हो जाती हो।”
“अरे तुम्हें कौन सी उम्र की परवाह है। तुम तो सोलह से सत्तर तक की औरत को छोड़ने वाले नहीं हो। याद नहीं अपनी बेटी की उमर की नौकरानी के साथ बॉम्बे में सो जाते थे। जब तुमने उसे नहीं छोड़ा तो किसी और से क्या परहेज़ करोगे।”

वह ग़ुस्से के मारे कांपने लगा है। उसे समझ नहीं आ रहा कि इस बदतमीज़ी का जवाब कैसे दे। तभी मंगल जी और उनकी पत्नी की गाड़ी सामने से गुज़रती है। वे गाड़ी रोक कर पूछते हैं, “क्यों भाई, क्या मसला है?... ओह गाड़ी फंसी खड़ी है। अच्छा भइया हम तो चलते हैं। तुम दोनो मियाँ बीवी बारिश का मज़ा लो।” मंगल जी की बात ने उसे ग़ु्स्सा नियंत्रित करने में सहायता की है। किन्तु वह बुरी तरह आहत हो गया है। उसकी पत्नी ने शब्द बाण छोड़ने की कोई सीमा तय नहीं कर रखी।

“तुम हर वक़्त जो ये ज़हर उगलती रहती हो, इससे तुम्हें कभी कुछ हासिल हुआ है? तुम हमेशा मुझे हराने की फ़िराक में रहती हो। याद रखो अपने पति को हराना बहुत मुश्किल होता है जबकि उसे जीत लेना बहुत आसान। इस तरह की बातों की जगह अगर तुम मेरे बच्चों को प्यार देतीं और मेरे साथ प्यार से पेश आतीं तो हमारा घर दुनियाँ का सबसे सुखी घर बन गया होता।” वह एक शांत, सुखी घर का सपना देखने लगता है।
“तुमने मेरे बेटे पर जो ज़ुल्म बॉम्बे में किये क्या मैं वो कभी भूल सकती हूँ? उसके मुंह में लाल मिर्ची डाल दी! दिस इज़ सिम्पल चाइल्ड एब्यूज़! अगर तुम ये हरकत लन्दन में करते तो मैं पुलिस को बुलवा कर तुम्हें जेल में बन्द करवा देती।”
“कॉन्टेक्स्ट के बाहर कोई भी बात अलग दिख सकती है।”
“अरे तुम तो मेरे फ़ोन तक गिनते थे। मैं अपनी भाभी को अमरीका फ़ोन करती थी तो तुम मुझे कहते थे कि हम रोज़ रोज़ अमरीका फ़ोन नहीं एफ़ोर्ड कर सकते। यहाँ आकर तुम जो रोज़ रोज़ हिन्दी वालों को इंडिया फ़ोन करते हो, वो हो सकते हैं?”
“तुमसे बात करना ही बेकार है।” वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाता। इतने में आरबाज़ हुसैन की कार आ जाती है।
“हाँ जी सरकार, क्या यहीं हनीमून मनाने की सोच रखी है? किसका इन्तज़ार हो रहा है?”
“जी इस लाल कार के ड्राइवर का। यह हटे तो हम भी निकल सकें।”
“चलिये भैया, हम तो निकलते हैं। ऑल दि बेस्ट!”
अपनी लाउड सी बातें करता हुआ आरबाज़ अपनी नीली मर्सिडीज़ ले कर आगे बढ़ गया।
वह पत्नी से अपनी बात कह देता है, “आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि हम दोनों कभी इकट्ठे बाहर गये हों और हमारी लड़ाई न हुई हो। चाहे हम कहीं भी क्यों न गये हों, हम बस लड़ते ही रहे। फिर आज कैसे कुछ अलग हो सकता था?”
“क्यों जब पिछले साल हम वेनिस गये थे, तब तो लड़ाई नहीं हुई थी!”
“अब मुझ में हिम्मत नहीं रह गई है न! लड़ूं तो लड़ूं कैसे?”
“तुम जाओ और जाकर पूछो कि आगे वाली कार किसकी है। यह ज़रूर किसी अंग्रेज़ की है अब हमारे वाले तो सभी चले गये।”
“क्या कमल जी वगैरह भी... ओह हाँ, उनको जाते हुए भी तो देखा था। क्या यह संभव नहीं कि तुम कुछ दिन के लिये लड़ना छोड़ दो?”
“अगर तुम सुधर जाओ तो ज़रूर हो सकता है।”
“तुम तो मेरी मरी हुई बीवी को लेकर भी मुझ से लड़ती रही हो। फिर मेरी बेटी से तुम्हें जलन होने लगी। अब मेरे बेटे से भी तुम्हें तक़लीफ़ रहती है।... इस तरह भला कैसे चलेगा।
“जो लोग दूसरी शादी करते हैं वो पहली की यादों में खोये नहीं रहते। और हाँ तुम्हारे बच्चे मेरे बायोलॉजिकल बच्चे नहीं हैं।...”
“अरे अगर वो तुम्हारे बच्चे नहीं हैं तो मेरे तो हैं न। कम से कम उनको मेरा बच्चा तो समझा करो! अगर तुम उन्हें प्यार दो तो मैं अपनी बेइज़्ज़ती भूल भी सकता हूँ।” वह समझौता करने को तैयार हो गया लगता था।
“मैनें बहुत देखभाल करली तुम्हारे पिल्लों की। अब मुझ से और कुछ ज़्यादा की उम्मीद न करना।...”
“तुम ने मेरे बच्चों को पिल्ला कहा?”

पत्नी के उत्तर देने से पहले ही लाल कार की मालकिन ने आकर अपनी गाड़ी स्टार्ट की और उनकी कार का रास्ता साफ़ हो गया।
पत्नी ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, “अब अन्दर आ जाओ। बाहर बारिश हो रही है।”
वह अपनी समझौतावादी सोच से बाहर आ चुका था, “तुम मेरे बच्चों को पिल्ला कैसे कह सकती हो?... तुम इन्सान हो क्या?... ऐसी बातें तो झोंपड़पट्टी वाले भी नहीं करते.... तुमने उन्हें पिल्ला कहा कैसे? क्या पूनम कुतिया थी या मैं कुत्ता हूँ?... मेरे बच्चे पिल्ले हैं?” उसकी आवाज़ में दरार साफ़ सुनाई दे रही थी।
“तुम कार में आते हो या मैं चलूँ?... बाद में मुझे कुछ मत कहना।”
आज वह पूरी तरह बग़ावत के मूड में है, “जब तक तुम मेरे बच्चों को पिल्ला कहने के लिये माफ़ी नहीं माँगोगी मैं कार में नहीं बैठूँगा।”

उसका वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ कि उनकी कार एक झटके से वहाँ से चल पड़ी है। वह कार को मुड़ कर जाते हुए देख रहा है। उसने सोचा कि पत्नी गाड़ी मोड़ कर खड़ा कर लेगी और उसे फिर से कार में बैठने को कहेगी। कार ने रफ़्तार पकड़ी और मेन गेट की तरफ़ बढ़ने लगी। वह अपनी ही कार की लाल बत्तियाँ देख रहा है। लाल बत्तियाँ ओझल हो गईं।
वह क़रीब दस मिनट तक वहीं खड़ा रहा। इसी प्रतीक्षा में कि पत्नी का गुस्सा जब शान्त होगा वह ज़रूर पलट कर आएगी।

आज श्मशान में उसे नया ज्ञान प्राप्त हुआ था। शायद फ़िनिक्स की ही तरह कमल जी की पत्नी की राख में से वह एक नया जीवन प्राप्त करने जा रहा है।
वह आहिस्ता आहिस्ता मुख्य द्वार की तरफ़ बढ़ा। अब तो पत्नी को गये करीब पच्चीस मिनट हो गये। यानि कि अब उसके वापिस आने की कोई सम्भावना नहीं । यह अच्छा था कि अपने वाले सभी लोग जा चुके थे और अंग्रेज़ों में से कोई उसे पहचानता नहीं । उसका छाता भी कार में ही रह गया।
उसने मुख्य द्वार से बाहर देखा। मुख्य द्वार मेन रोड से करीब दस पन्द्रह मिनट की पैदल दूरी पर होगा। वह पैदल चलते हुए अपनी आँखें पोंछ रहा था। समझ नहीं पा रहा था कि यह बारिश का पानी है या उसकी आँखों का।
मेन रोड पर आकर वह कुछ पल रुका। उसने सोचा कि किधर जाए। सिर को हल्का सा झटका दिया और दाईं ओर को मुड़ गया।

यक़ीनन यह रास्ता उसके घर को नहीं जाता था।

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२० अप्रैल २००९

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