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आज सुबह ही सम्भाल कर रखी थी कि शाम को बत्ती जाएगी तो ढूँढने में मुश्किल ना हो। राहुल के रोने ने दिव्या को अस्त-व्यस्त कर दिया था। न तो दियासलाई ही मिल रही थी और न ही मोमबत्ती। एकाएक बिजली वापिस भी आ गई। यह क्या, आज बिजली इतनी जल्दी कैसे आ कई? पिछले महीने भर से तो तीन-तीन, चार-चार घण्टे तक बिजली नदारद रहती थी। दिव्या ने जल्दी से मोमबत्ती और दियासलाई ढूँढ ली। स्टोव जलाने लगी। कब से प्रभात से कह रही है कि घर में गैस होनी चाहिए। किन्तु घर की छोटी छोटी वस्तुओं के बारे में वह सोचता ही कब है। उसे तो साहित्य की रचना करनी है - उत्कृष्ट साहित्य की ! उसके पास इन हीन वस्तुओं के लिए समय कहाँ हैं?

आज तो राहुल को बुखार भी है। दिव्या की अपनी तबियत भी कहाँ ठीक है। तीसरा महीना चल रहा है। डाक्टर कहता है फल खाओ; टॉनिक पियो। यहाँ दो जून की रोटी के लाले पड़े हुए हैं। फल कहाँ से आएँ? परन्तु प्रभात की शराब कहाँ से आती है? अभी तो राहुल भी उसके शरीर से खून पी रहा है उस पर दूसरे के आने की तैयारी है।...सारा अहम् त्यागकर अपने माता पिता के यहाँ क्यों न चली जाए!...पर इससे तो प्रभात का अपमान होगा।...किन्तु प्रभात को ही उसके मान-अपमान की क्या परवाह है। उसे तो बस एक ही शिकायत है, 'दिव्या, तुम्हें क्या हो गया है। शादी के ड़ेढ साल बाद ही मुटाने लगी हो। ना सलीके से कपड़े पहनती हो, ना ढंग से पेश आती हो...मैंने तुम मे अपना प्यार देखा था - तुम मेरी प्रेयसी थी, मेरी प्रेरणा।...ज़रा अपना चेहरा देखो! तुम्हें देखकर क्या कोई कविता या कहानी लिखने की प्रेरणा पा सकता है क्या?...यू बोर मी दिव्या...तुमने तो प्रेयसी का रूप भी खो दिया है, प्रेरणा बनना तो बहुत दूर की बात है। वे...वो पत्रों
वाली दिव्या कहाँ चली गई?'

फिर वही छद्म की तलाश। सच्चाई से दूर भागने का प्रयास। पलायनवादी सोच।...जो है उसमें अच्छाई न ढूँढकर 'जो नहीं हैं' उसे पाने की व्यर्थ चेष्टा।

किन्तु क्या प्रभात वही पत्रों वाता प्रभात है? कैसी-कैसी कविताएँ लिखता था। एक-एक कविता पर रीझ-रीझ जाती थी दिव्या। प्रभात का लेखक एक नये समाज की परिकल्पना करता था और दिव्या अपने आप को उस समाज की प्रथम नागरिक मानती थी...प्रभात की कविताएँ उसे भीतर तक छू जाती थीं। फिर उसने अपना पहला पत्र प्रभात के नाम लिखा था। कई दिन तो अपने पत्र को स्वयं ही पढ़कर रीझती रही। आषाढ़ के उस एक दिन की कल्पना ही उसके मन को रोमांचित किए जा रही थी जब उसका पत्र कविता के रचियता के पास पहुँचेगा।...अनजाने में ही वह स्वयं को प्रभात की
कविताओं की, उसके जीवन की नायिका मानने लगी थी।

इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ, युवा हृदय की उड़ान, समुद्र का समीप्य, दिव्या के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे। और फिर प्रभात का पहला पत्र - यानि की दिव्या के पहले पत्र का उत्तर आ गया। लिफ़ाफे के बाहर वही हस्ताक्षर - वही! -प्रभात! कितनी देर तक तो वह उस पत्र को निहारती रही थी। जल्दी से खोलकर, उस पत्र को पढ़कर उसका रोमांच समाप्त नहीं कर देना चहती थी। कितना सुन्दर लिफ़ाफ़ा इस्तेमाल किया था प्रभात ने। चाहता तो डाक-तार विभाग का सड़ा-सा लिफाफा भी प्रयोग में ला सकता था। अवश्य ही विशेष तौर पर जाकर उसके लिए यह जीवंत-सा लिफाफा चुना होगा। स्वप्न की-सी दशा में, काँपते हाथों से लिफाफा खोला था उसने, 'प्रिय दिव्या!' घंटियाँ बजने लगी थीं उसके कानों में।... प्रिय! कितना प्यारा शब्द है!...तुम्हारा प्रभात!...हाँ, मेरा है, मेरा ही तो है..और भला किसका हो सकता है...प्रभात मेरा ही हैं, केवल
मेरा...!

पत्र में क्या लिखा है - यह तो वह पढ़ ही नहीं पा रही थी। उसका मन तो 'प्रिय दिव्या' और 'तुम्हारा प्रभात' के बीच ही अटका पड़ा था। फिर तो पत्रों का एक सिलसिला ही चल पड़ा। उसे जब-जब प्रभात की याद आती तो वह 'मढ आइलैंड' के समुद्र के सामने जाकर खड़ी हो जाती। मालाड में ही तो उसका घर था।...समुद्र के पानी की हिचकोले खाती लहरें बहुत कुछ उसके हृदय की गाथा कहती ही प्रतीत होती थीं। एक विचित्र-सा आनन्द मिलता था - दो प्रेमियों का मिलन! दोनों का एक दूसरे के साथ आत्मसात हो जाना; एक का दूसरे में समा जाना। सूर्य और सागर...प्रभात और दिव्या। अब तो उसे
अकेलापन भी भाने लगा था। उस समय प्रभात का अस्तित्व उसे अपने और भी अधिक करीब महसूस होता था।

अपनी इन भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के विषय में सोच ही रही थी कि प्रभात की कहानी एक बड़ी पत्रिका में छपी और साथ ही छपा प्रभात का चित्र। संसार की हर वस्तु स्थिर-सी हो गई थी। आज तक केवल एक 'ख़्याल' एक 'विचार' को जानती थी वह। डरती थी प्रभात का चित्र मँगवाने से - कहीं इमेज ना टूट जाए।

किन्तु आज! उसका प्रभात, केवल उसका प्रभात उसके सामने था। चित्र में भी प्रभात की आँखों में एक विचित्र-सा एकांकीपन, एक विचित्र सा रहस्य दिखाई दे रहा था जो दिव्या को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। दिव्या ने कहानी एक बार पढ़ी, दोबारा पढ़ी, तिबारा और बस पढ़ती रहीं। कहानी में भी समुद्र, अकेलापन, बेचारगी और दु:ख। 'ऊँह! दिल्ली में रहते हैं। और समुद्र के बारे में लिखते हैं। कभी महसूसा है सागर के विशाल अस्तित्व को। अरे मुझ से पूछो, सागर का चुम्बकीय आकर्षण तो पूरे व्यक्तित्व पर छा जाता है।'
बाहर बरसात हो रही थी और दिव्या के दिल में गुदगुदी। कुछ सोचने लगी। फिर काग़ज और पेन उठाया और पत्र लिखने लगी-
"प्रभात जी,

नमस्ते!
"नवयुग' में सद्य: प्रकाशित आपकी कहानी पढ़ी। पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे आपने दु:खों को छूकर देखा है। 'अन्धेरा', अकेलापन', 'उदासी', 'समुद्र' क्या समदु:खी हैं? अन्धेरा सुकून देता है। 'अकेलापन' राहत लाता है, 'उदासी' खुशी की महत्ता बतलाती है। हाँ 'सागर' की विशालता को कभी नहीं नाप पाई। जितनी बार समुद्र को देखती हूँ उतनी बार उसके नीलवर्णीय कामदेव सदृश रूप पर रीझ जाती हूँ।
कहानी का सुखद अन्त क्या आवश्क था? नायक का त्याग ग्या आवश्यक था? क्या हमारा हृदय इतना सिक़ुड नहीं गया है कि उस त्याग के फैलाव को गेहण नहीं कर पा रहा है?
कुछ रोशनी डालेंगे तो अच्छा बनेगा।

आपकी
दिव्या
"अपकी दिव्या' - हाँ मैं आपकी ही तो हूँ। चाहे बम्बई में हूँ। आपसे कोसों दर हूँ। पर दूरियाँ मजबूरियाँ नहीं बनने दूँगी। मैं शीघ्र ही अपने प्रियतम के पास पहुँच जाऊँगी। मेरी प्रतीक्षा करना प्रभात - धीरज ना खोना। आपके इस अकेलेपन का
निवारण केवल मैं कर सकती हूँ।

माता-पिता ने भी अपनी चिन्ता का निवारण खोज लिया था। लड़का बिरादरी का ही था। डाक्टर! लड़की का जीवन संवर जाएगा। राज करेगी! किन्तु दिव्या को तो राजा की रानी बनना ही नहीं था। वह तो केवल प्रभात की कविताओं और कहानियों की प्रेरणा बनना चाहती थी। प्रभात कविता कहते रहं और वह सुनती रहे। इसके अतिरिक्त उसे अपने जीवन से और कोई अपेक्षा नहीं थी।

लड़का-लड़की को देखने आने वाला था। दिव्या को अपनी प्रदर्शनी लगानी होगी। लड़का प्रश्न पूछेगा और वह परीक्षार्थी की भाँति उत्तर देगी। मौखिक परीक्षा होनी थी उसकी। पसन्द आ गई तो घर की लक्ष्मी मान ली जाएगी नहीं तो जवाब मिलेगा, 'हाँ जी, सोचकर लिखेंगे।'

अब सोचने जैसी कोई स्थिति थी नहीं। वह तो निर्णय भी ले चुकी थी। राजधानी एक्सप्रेस में बैठकर राजधानी की ओर रवाना हो ली।

किन्तु आज तक प्रभात से तो मिली भी नहीं थी। बिना बताए-माता-पिता का घर पीछे छोड़ आई थी और उसके सामने एक विकराल प्रश्न चिन्ह मुँह बाये खड़ा था - क्या प्रभात मुझे अपना लेंगे? क्या उनके पत्रों की गरमाहट उनके व्यक्तित्व का अंग भी होगी?

अब तो निर्णय लिया ही जा चुका था। अब तो आगे ही बढ़ना था। कदम पीछे वापिस लेने का तो प्रश्न ही नहीं था। अजनबी शहर, अजनबी लोगों के बीच उसे नया जीवन आरम्भ करना था। एकाएक पापा की याद आई। वो क्या सोच रहे होंगे! ममी क्या कर रही होंगी? पापा तो उसके इस तरह अचानक चले आने से टूट गये होंगे। उन्होंने तो बचपन से ही अपनी प्यारी-सी बिटिया को प्यारा-सा नाम दे रखा था- गब्दु! आज जब वे अपनी प्यारी गब्दु को आवाज़ देंगे तो उनकी आवाज़ एक ठोस सन्नाटे से टकराकर लौट आएगी।

रेलवे स्टेशन से वह सीधी प्रभात के कार्यालय की ओर चल दी थी - मन में सहस्त्र शंकाओं के तूफ़ान को समेटे। प्रभात
तो उसे पहचान भी नहीं पायेंगे। क्या कहेगी उन्हें? कैसे समझा पायेगी अपनी स्थिति? इन्हीं आशंकाओं से घिरी वह प्रभात के दफ़्तर के बाहर पहुँच गई। स्कूटर रिक्शा वाले को पैसे देकर वह लिफ़्ट तक पहुँची थी कि एक विचार कौंधा - 'यदि आज प्रभात दफ़्तर आए ही ना हुए तो?'... रूँआसी-सी दिव्या बस किसी भी तरह प्रभात की मेज़ के आगे जाकर बस खड़ी हो गई -
"मैं, दिव्या...' और आँसू अपना घर छोड़ उसकी गोरे गालों पर अपना घर बनाकर जम गए।
प्रभात चौंककर खड़ा हो गया - 'तुम दिव्या हो!...लेकिन एकाएक अचानक दिल्ली कैसे आना हो गया? कोई पत्र, कोई तार, कोई सूचना, कुछ दिया होता। ठहरी कहाँ हो?'
दिव्या ने हाथ का सामान दिखाया, 'ट्रेन से सीधी आपके दफ़्तर आ रही हूँ। माता-पिता का घर सदा के लिये छोड़ आई हूँ... अब वहाँ कभी वापिस नहीं जाऊँगी...वो मेरी शादी कहीं और कर रहे थे...।'
प्रभात एकाएक उत्पन्न हुई स्थिति से गड़बड़ा-सा गया था। तुरन्त अपने दोनों मित्रों सुदेश और रमेश को सम्पर्क किया। फिर ख्याल आया, 'दिव्या तुम तो सफ़र से थकी होगी...एक कप चाय तो पी लो।' चाय का आर्डर दिया...
"दिव्या को रातभर कहाँ रखा जाए?' यह प्रश्न प्रभात को झिंझोड़ रहा था। जेब टटोली। वहाँ तो कुल मिलाकर ग्यारह रुपये सत्तर पैसे ही थे। होटल ले जाने का तो सवाल ही नहीं था। 'किन्तु क्या दिव्या होटल में रहने को तैयार होगी? जो लड़की अपना घर बार तज आई हो, क्या वह चोरी और उधार का जीवन स्वीकार करेगी?' उसका भी तो कोई कर्तव्य है दिव्या के प्रति!

गुपचुप दोस्तों मं सलाह हुई - तीन रुपये की दो मालाएँ आईं, एक नारियल, थोड़ा सिन्दूर और प्रसाद, कुल मिला कर नौ रुपये पैंसठ पैसे स्वाह! पुजारी जी को देने के लिए ग्यारह रुपये सुदेश और रमेश ने निकाले और उसी शाम दिव्या और
प्रभात का विवाह हो गया।

ऐसा होता है विवाह! दिव्या ने विवाह के सपने तो देखे थे और उन सपनों में सेहरे के पीछे सदा प्रभात का चेहरा ही रहता था। किन्तु ऐसा विवाह! स्वप्नों के रेतीले महल पर वास्तविकता का पहला हथौड़ा पड़ा था। सब कुछ छिन्न-भिन्न होता-सा प्रतीत हो रहा था। फिर भी एक अहसास उसे जिआए जा रहा था - प्रभात का साथ। उसका प्रभात उसके साथ था - वह वरमाला डाले अपने प्रभात की बगल में खड़ी थी।
"भाई आज तो जश्न हो आए! ...हमारे यार की शादी है।'

सुदेश की बात सुनकर चौंकी थी दिव्या। 'जश्न' का अर्थ अभी तो वह समझ भी नहीं पाई थी।
प्रभात भी कहीं भीतर से डर रहा था। इतना बड़ा कदम उसने माता पिता की आज्ञा के बिना केवल एक क्षण भर की भावनाओं में बहकर उठा लिया था। किन्तु घर तो जाना ही था।
दिव्या को देखकर पिता चौंके थे। माँ को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका बेटा ऐसा काम कर सकता है। पिता का स्वर गूँजा था, 'यदि ज़रा भी शरम हो तो कल से अपने लिए दूसरी जगह रहने का प्रबन्ध कर लो।...मुझे अपनी बेटी भी ब्याहनी है।'

अगले ही दिन से जद्दोजहद शुरू हो गयी थी। दिक्कतें भी प्याज़ के पर्तों की तरह एक-एक कर खुलकर सामने आती जा रही थीं। सबसे पहले तो सिर छुपाने के लिए घर की समस्या थी। फिर उस घर में रहने के लिये हर छोटी से छोटी वस्तु का जुगाड़ करना था। सभी मित्र जुट गये थे। ख़ासी भाग दौड़ करके एक गैराज का प्रबन्ध हो पाया था। गैराज की छत से साँप जैसी बिजली की तार लटक रही थी और उसमें एक मध्दिम रोशनी का बल्ब जल रहा था। कमरे के बीचो-बीच एक गद्दा बिछा था। और उस पर थी एक नीले रंग की चादर। समां ख़ासा संगीतमय था क्योंकि थोड़ी थोड़ी देर के बाद मच्छर आकर कानों में अपने गीत सुना रहे थे। पंखा वहाँ लगा ही नहीं हुआ था। और गैराज में कोई खिड़की तो थी नहीं। वहाँ दिव्या को मनानी थी अपनी सुहागरात। ना घूँघट, ना शरमाना। गर्मी के कारण दोनों पसीने से तरबतर थे। बस थोड़ी ही देर में दोनों एक दूसरे के शरीर की गन्धों के साए में खो गए थे।

सुबह उठकर, फारिग होकर, प्रभात बाजार से ही चाय और रस ले आया था। दोनों चाय में डुबो डुबो कर रस खा रहे थे। अब क्या होगा! दोनों की आँखों में यही लिखा हुआ था। दिव्या अभी तक सहमी हुई थी। प्रभात को ही प्रयत्न करना था ताकि दिव्या सहज हो सके। 'दिव्या, अभावों से भरा जीवन जी पाओगी?'
"...'
"बस, एक ही चीज़ तुम्हें भरपूर मिलेगी...प्यार! उसके अतिरिक्त तो केवल अभाव ही अभाव हैं यहाँ...क्या मेरा प्यार उन अभावों की भरपाई कर पायेगा?'
"जैसा रखोगे वैसे ही रह लूँगी...केवल एक बात याद रखना, कभी अपने प्यार में कमी न आने देना...कभी भी मुझे यह ना महसूस करवाना कि मैं तुम पर बोझ बन गई हूँ...नहीं तो मैं जी नहीं पाऊँगी।' दिव्या की आँखों में से कुछ मोती फिर बाहर को सरक आए।

प्रभात ने दिव्या को देखा, उसकी ठोड़ी ऊपर को उठायी, अपने करीब लाकर उसके होठों पर अपने होंठ रख दिए। जी गई दिव्या एक बार फिर। उसका जीवन जैसे सफल हो गया था। वह प्रभात की बाँहों में झूल गई थी।

धीरे-धीरे घर जमने लगा था। एक-एक करके घर की आवश्यकता का सामान उस गैराजनुमा घर में इकट्ठा होने लगा था। दिव्या को गैस की कमी बहुत खलती थी। बम्बई में उसने स्टोव जलाना सीखा ही नहीं था। वास्तव में उसके पिता के घर तो शायद स्टोव था भी नहीं। किन्तु स्वयं चुने हुए जीवन के बारे में शिकायत करे भी तो किससे!

दिन बीतने लगे थे। प्रभात प्रतिदिन शाम को छ: बजे घर पहुँच जाता था। दिव्या की बाँहों का स्वर्ग उसे दफ़्तर जैसी बोर जगह से कहीं अधिक आकर्षक लगता था। दोस्तों की शिकायत अनिवार्य ही थी - 'प्रभात बीवी का ग़ुलाम बन गया है।' 'अरे शादी तो हमारी भी हुई थी, पर यह तो नहीं कि बीवी की गोद में ही छुप जाएँ।' 'बीवी अपनी जगह है यार दोस्त अपनी जगह...ऐसे कोई दोस्तों को थोड़े ही छोड़ देता है।' हर दोस्त के पास एक जुमला था और हर जुमला प्रभात के पौरुष पर सीधी चोट था।

तिलमिला उठा प्रभात। उसी सांय पुराने अन्दाज़ की पार्टी का प्रबन्ध किया गया। जाम! शराब! बस शराब! और कुछ नहीं। प्रभात ने अपनी मर्दानगी एक बार फिर सिद्ध कर दी। दिव्या खाना बनाकर शाम को ही तैयार होकर बैठ गई थी। कल ही प्रभात से बात की सत्य शिवम सुन्दरम देखने का बहुत मन था। बम्बई में भी राजकपूर की फिल्में वह बहुत शौक से देखती थी। प्रभात कह कर भी गया था कि शाम को जल्दी लौट आयेगा। शाम से रात हो गई और प्रतीक्षा करते-करते रात के बारह बज गए...अब तो दिल में बुरे-बुरे ख़्याल आने लगे थे - 'कहाँ होगा प्रभात?...कहीं उसका एक्सीडेण्ट...' और उसके आगे दिव्या सोच भी नहीं पा रही थी...बाहर एक झींगूर की आवाज बार-बार सन्नाटे में दरारें पैदा कर रही थी। अचानक एक स्कूटर रिक्शा की फटी हुई आवाज़ ने सन्नाटे के साथ बलात्कार किया। उस रिक्शे में से एक आकृति उतरी और होठों पर तलत महमूद की गज़ल लिए झूमती हुई आगे बढ़ने लगी।

दिव्या के लिए प्रभात का यह रूप सर्वथा नया और अप्रत्याशित था। कहानी में उसके सपनों का प्रभात - एक लेखक, नये समाज का निर्माण-कर्ता और कहाँ वह नशे में झूमता इन्सान।
डर से सहमी हुई दिव्या बस प्रभात को देखे जा रही थी। 'ऐ बीवी तुम इतना डर क्यों रही हो?...अरे मैं तुम्हारा पति हूँ...पति! हाँ आ जाओ; आओ हमारी बाँहों में। हमारा दिल बहुत बड़ा है।...तुम्हें बहुत प्यार दूँगा मैं...बहुत प्यार करूँगा...आ जाओ...' और बेसुध होकर गिर गया था प्रभात।
भूखी, प्रतीक्षा करती दिव्या ने प्रभात को उठाया। क्या वह प्रभात ही था।...या कोई शरीर केवल प्रभात का नाम ओढ़े वहाँ चला आया था। दिव्या के सामने उसका भविष्य सड़ांध मारता पड़ा था। निर्विकार सी दिव्या प्रभात को देखती रही और फिर ज़ोर से उसकी रुलाई फूट पड़ी।
अब तो रोना ही जीवन बनने जा रहा था ऊपर छत पर कुण्डलि मारे मध्दिम रोशनी का बल्ब पीली सी रोशनी दे रहा था। और दिव्या की आँखों के सामने अन्धेरा था - पीला अन्धेरा। आज का 'सत्यम', शिवम और सुन्दरम नहीं लग रहा था।

एक सुबह दिव्या उठी तो उठते ही उसे मितली-सी अनुभव हुई। पर पिछली रात तो प्रभात ने पी भी नहीं थी और समय पर वापिस भी आ गया था। कल तो उसकी तबियत भी ढीली थी - फिर? शीशे में अपने आपको देखा। मुस्कुरा दी! माँ बनने का आन्नद ही विचित्र है। एक नये सृजन का आनन्द। प्रभात और दिव्या के प्रेम की निशानी। प्रभात पापा बन जाएगा और वह स्वयं माँ!

माँ इस समय क्या कर रही होगी? माँ! कितने चाव से दिव्या के लिए गहने कपड़े इकट्ठे कर रही थी। दिव्या की शादी होगी। बारात घर पर आएगी! दूल्हा! शादी! बारात! वह तो सब कुछ पीछे छोड़ आई है। अपने पापा को भी और माँ को भी। क्या हर बेटी अपने माता पिता को ऐसे ही दु:खी करती होगी।...अरे अभी तो माँ बनी नहीं और इतनी ममता। माँ पर क्या गुज़री होगी। माँ का इतने वर्षों का प्यार, विश्वास सब कुछ रोंदकर आ गई।

क्या प्रभात को ख़ुशख़बरी दे दे! नहीं...! अरे वह भी तो पापा बनने वाला है। प्रभात की ओर देखा। कैसी मस्त नींद सो रहा है। कैसे सो लेता है सुबह दस दस बजे तक। कहने को तो बहुत सेंसिटिव है - तभी तो इतना अच्छा लिख लेता है। फिर उसके प्रति इतना उदासीन कैसे हो पाता है? सारे संसार को तो एक नई सुबह का सन्देश देता है, फिर उनकी अपनी सुबह इतनी धुँधली होकर कैसे रह गई है।

"चलो! माँ को पत्र लिखती हूँ! पत्र!...अब तो पत्रों से भी घृणा-सी होने लगी है। एक तो कल ही आया है। दिव्या को भीतर बाहर तक झिंझोड़ गया है। उसका सिंहासन हिल गया है। प्रभात की प्रेरणा वह अकेली ही नहीं है। और भी कई हैं।...प्रभात तो काम के सिलसिले में कई शहरों में जाता रहता है...क्या हर शहर में एक प्रेरणा होगी! सान्तवना दास! जैसे यह नाम ही उसे डंक मारे जा रहा हो।...सान्तवना ! कलकत्ते से दिल्ली आ रही है। कितने अधिकर से लिखा है-'आशा है उस दिन तुम कार्यालय से अवकाश ले ही लोगे।...तुम्हारी 'स।'

मैं यहाँ घर-बर माता-पिता को छोड़कर रात को बारह-बारह बजे तक प्रतीक्षा करती रहूँ और यह उसके लिए अवकाश ले लेंगे।...काश वह प्रभात की पत्नी ना होती, केवल प्रेमिका होती। फिर तो प्रभात की रुचि उसमें कायम रहती।'

वह क्या सोचने लगी? क्या स्वयं ही प्रभात के क्रिया-कलापों का औचित्य सिद्ध करने लगी है। यदि सान्तवन पत्नी होती और दिव्या प्रेरणा तो क्या प्रभात के कार्य सही करार दिए जा सकते थे? अब यदि प्रभात से सान्तवना के बारे में पूछती है तो बुरा मान जाएगा और यदि नहीं पूछती तो...। फिर पूछे भी तो किस-किस के बारे में पूछे? यह घुटन उसे कहाँ पहुँचा देगी।

प्रभात बरस पड़ा था। मुझसे इतने दिन तक छुपाए रखा! अरे मैं होने वाले बच्चे का बाप हूँ! मुझसे ही इतनी बड़ी बता छुपाए रखी?
"मैं भी तो तुम्हारी पत्नी हूँ। तुमने मुझसे इतनी बड़ी बात कैसे छुपा ली?'
"कौन-सी बात?' प्रभात चौंका।
"यह सान्तवना कौन है? तुम्हारी 'स'? उसके लिए तो ऑफ़िस से छुट्टी भी ले ली थी।'
"तुम्हें कैसे मालूम?'
"दफ़्तर फोन किया था।'
"अब जासूसी भी करने लगी हो?'
"बड़ा घिसापिटा डायलाग है। हर दूसरा पति जब-जब कोई घटिया काम करता है, पत्नी से यह सवाल पूछता है।'

प्रभात का मन चाहा कि दिव्या के मुँह पर एक जोरदार तमाचा रसीद कर दे; या फिर दीवार में सिर मार दे या सामने पड़ी मेज़ ही दीवार पर फेंक मारे। किन्तु उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया, 'देखो दिव्या, सान्तवना मेरी मित्र हैं, मेरी प्रेरणा हैं, मुझसे बड़ी हैं, मेरी गाइड हैं। देखो, पत्नी पत्नी होती है और प्रेरणा प्रेरणा। दोनों को गडमड नहीं किया जाता।'

दिव्या हैरान खड़ी रह गई। कितनी सरलता से यह इन्सान अपनी ग़लतियों को छिपाने के लिए तर्क की दीवार खड़ी कर लेता है। 'श्री प्रभात कुमार सक्सेना, भारत के महान् लेखक ज़रा इस बात पर प्रकाश डालेंगे कि इन्दौर की श्रध्दा आपकी क्या लगती हैं और पटना की शिखा?... क्या अपको हर उस शहर में एक प्रेरणा की आवश्यकता होती है जहाँ भी आप काम से जाते हैं? दफ़्तर में भी तो आपकी प्रेरणा है, आपकी स्टेनो!'

तिलमिला के रह गया प्रभात। कोई जवाब देते नहीं बन रहा था। यदि दिव्या गर्भवती न होती तो शायद उसे मार मारकर अधमरा ही कर देता।

अब तो मार भी कई बार खा चुकी है। राहुल अभी दो तीन महीनों का हुआ था। प्रभात फिर रात को एक बजे नशे में धुत वापिस लौटा था। राहुल को दोपहर से ही बुखार था। दिव्या ने एक, दो, तीन, चार बार दफ़्तर फ़ोन किया था। पर प्रभात तो अपनी बालकटी स्टेनो रीटा के साथ दफ्तर से ऐसा निकला कि बस! उस रात फिर वही तक़रार; वही इल्ज़ाम और वही बेमानी तर्क। प्रभात ने पी तो रखी ही थी। नशे ने शराफ़त की सीमाओं को परे धकेल दिया। वह दिव्या को तब तक मारता रहा जब तक स्वयं नहीं थक गया। फिर निढाल होकर सो गया।

"अब नहीं रहूँगी यहाँ।...पर जाऊँगी कहाँ? राहुल के जन्म का सुन कर तो पापा और ममी दोनों ही आए थे। अब तो वहाँ भी जा सकती हूँ।...अपने लिए हुए निर्णय का उन्हें मज़ाक उड़ाने दूँ? नहीं! ऐसा नहीं होगा।'

"फिर क्या करूँ? क्या प्रभात को ही हक है प्रेरणाएँ ढूँढने का? लेखन तो अच्छा करता है पर क्या पति के कर्तव्य भी ठीक से निभा पाता है? घर में तो सदा तंगी ही चलती रहती है। न जाने कैसे जोड़ तोड़ करके घर का खर्चा चलाती हूँ।...जितना अच्छा वह लेखक है उससे तो कहीं अच्छी मैं पत्नी हूँ। क्या मैं भी एक सम्पूर्ण पति की प्रेरणा ढूँढनी शुरू कर दूँ?'

"कई बार तो अभी भी बचों का-सा व्यवहार करता है। जब कभी टूटता है तो मेरे ही कन्धों पर सिर रखकर रो लेता है। जब कभी कोई नई रचना लिखता है, तो रात को सोती हुई को भी उठाकर सुनाता है। प्यार तो राहुल से भी करता है।...कोई नौकरी कर लूँ? पर इस हालत में?'

सामने फ़र्श पर एक चींटा अकेला ही एक कॉक्रोच की लाश को घसीटता हुआ अपने बिल तक ले जाने की कोशिश कर रहा है। उसे नहीं मालूम कि वह कौंक्रोच को घसीट कर ले जाने में अन्तत: सफल हो पायेगा कि नहीं। फिर भी अपने काम में लगा हुआ है। अपनी लगन में मगन।

बाहर फिर एक स्कूटर रुकने की आवाज आई और साथ ही एक पुराना फ़िल्मी गीत हवा में लहराया। दिव्या ने सोते हुए राहुल को बिस्तर पर लिटाया।
वह बाहर गेट की ओर चल दी - प्रभात को सहारा देने।

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१३ जून २०११

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