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                    प्रकृति ने वासना के लिए उपयुक्त 
                    अंगों को मलमूत्र बाहर निकलने का रास्ता भी बना दिया है। 
                    गन्दगी से बचो। अच्छे कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते।" गुरु जी की 
                    बातें, जया के दिमाग को मथती रहती है। आजकल जया स्वाध्याय के सत्संग 
                    में चली जाती है। कुछ समय के लिए ही सही, शरीर और उस से जुड़ी 
                    समस्याओं से छुटकारा-सा मिलता दीखता है। "जो सुख में सुमिरन 
                    करे तो दु:ख काहे को होये?" इस बात का जया के पास कोई उत्तर 
                    नहीं। जीवन की गति शुरू-शुरू में इतनी तीव्र थी कि उसके पास 
                    स्थूल बातों के अतिरिक्त किसी भी विचार के लिए समय नहीं था। 
                    सूक्ष्म को जानने या समझने के लिए समय ही कहाँ था? राज ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसके साथ हर विषय पर बातचीत कर लेती 
                    है। विषय चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल, राज के पास जैसे हर प्रश्न 
                    का उत्तर मौजूद रहता है। वह कई बार सोचती भी है कि यदि दिलीप 
                    और इसके बीच एक खाई-सी न बन गई होती तो क्या राज उसकी सोच के 
                    दायरे में कदम भी रख सकता था? राज शराब नहीं पीता, माँस नहीं 
                    खाता, सिगरेट से भी परहेज, फिर तम्बाखू का तो सवाल ही कहाँ 
                    उठता है! क्या यहीं कारण है कि जया राजन के साथ समय बिता कर 
                    थोड़ा हल्का महसूस कर लेती है। केवल इतना कारण ही तो नहीं हो 
                    सकता। जया सदा ही दिलीप में एक मित्र तलाशती रही, किन्तु वह 
                    मित्र उसे राज में ही मिला। पति पत्नी एक दूसरे के मित्र क्यों 
                    नहीं बने रह पाते? लेकिन ज्योति और दक्षा के भी तो प्रेम विवाह 
                    ही हुए थे। जब भी उनसे बात करती है, तो उनके मन में भी यही 
                    परेशानी पाती है कि विवाह के बाद उनके पति केवल पति ही बन कर 
                    रह गए हैं। मित्र न जाने कहाँ खो गए हैं। परन्तु उन दोनों के 
                    पति अपने व्यापार में जुते होने के कारण अपनी-अपनी पत्नियों के 
                    मित्र नहीं बन पाते। दिलीप की तरह समय को शराब में नहीं बहाते 
                    रहते।
 जया ने राज से ही तो प्रश्न 
                    किया था, "राज, क्या वास्तव में जीवित रहते, मोह माया से 
                    मुक्ति मिल सकती है? तुमने कैसे इतनी आसानी से अपने जीवन की 
                    आवश्यकताओं को इतना सीमित कर रखा है? मैं क्यों ऐसा नहीं कर 
                    पाती?""जया, मैंने एक घटना राजा जनक के बारे में पढ़ी है। वे राजा 
                    होते हुए भी एक सन्यासी थे। राजशाही के बावजूद उनके दरबार में 
                    काफी हद तक लोकतन्त्र मौजूद था। उनके दरबार मे किसी ने प्रश्न 
                    किया कि ऐ राजन, तुम संसार के सभी सुख भोग रहे हो, राजा हो, 
                    चांदी के बर्तनों में भोजन करते हो, सोने के पलंग पर सोते हो 
                    और फिर भी चाहते हो कि हम मान ले कि तुम मूलत: सन्यासी का जीवन 
                    जी रहे हो? यह कैसी राजनीति है?"
 राजा जनक कुछ देर विचार करते 
                    रहे। एकाएक उन्होंने आदेश दिया कि ऐसा प्रश्न करने वाले को दो 
                    दिन पश्चात फाँसी पर लटका दिया जाए। भला राजा की आज्ञा का 
                    उल्लंघन कैसे हो सकता था। उस व्यक्ति को कारागार में पहुँचा 
                    दिया गया। किन्तु कारागार में उसे मखमली बिस्तर दिए गए, भोजन 
                    के लिए नाना प्रकार के व्यंजन दिए गए, परिचारिकायें उसे उबटन 
                    लगा कर स्नान करवाने के लिए आई। जीवन का हर सुख जो वह व्यक्ति 
                    सोच तो सकता था किन्तु महसूस नहीं कर सकता था, उसे दिया गया। 
                    और दो दिन पश्चात उसे राजा जनक के दरबार में लाया गया। राजा 
                    जनक ने उस व्यक्ति से पूछा कि ऐ महानुभाव तुम्हें फांसी तो अभी 
                    लग ही जाएगी, किन्तु तुम से एक प्रश्न करना चाहता हूँ। पिछले 
                    दो दिनों में तुमने जीवन का हर सुख भोगा। क्या तुम्हें याद है 
                    कि तुम ने भोजन में क्या क्या व्यंजन खाएँ? क्या तुम्हें याद 
                    है कि उस मखमली चादर का रंग क्या था जिस पर तुम सोये थे। उस 
                    परिचारिका का चेहरा या नाम याद है जिस ने उबटन लगा कर तुम्हें 
                    स्नान करवाया था। वह व्यक्ति आँखें नीची किए बोला, "राजन, मुझ 
                    पर तो मृत्यु की तलवार लटक रही थी। भला मैं उन सुखों का आनंद 
                    कैसे ले सकता था।" राजा जनक ने शांत स्वर में 
                    उत्तर दिया, "मेरे मित्र, ठीक उसी तरह मैं भी इन सुखों को भोग 
                    नहीं पाता। मैं भी मृत्यु से आतंकित हूँ, मैं जनता के दुखों से 
                    पीड़ित हूँ। मेरे लिए इन सुखों का कोई अर्थ नहीं हैं।" यह कह 
                    कर राजा ने उस व्यक्ति की फांसी की सज़ा माफ़ कर दी। जया एकटक राज की बातें सुनती 
                    जा रही थी। कितने सुन्दर ढंग से उसकी हर बात का उत्तर देता है 
                    यह इन्सान। कितना सरल किन्तु कितना कठिन था उसका प्रश्न। और 
                    राज ने उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए अपनी संस्कृति में से 
                    ही कथा खोज ली। वह राज से पूछ बैठती है, "राज, तुम अपना एक 
                    आश्रम क्यों नहीं खोल लेते। जितनी अच्छी बातें तुम कर लेते हो, 
                    जितना अपने आप हर तुम्हारा नियंत्रण है, उस हिसाब से तो 
                    तुम्हें स्वामी जी होना चाहिए। तुम्हें संसार को अपना सारा 
                    ज्ञान बाँटना चाहिए।" राज बस मुस्करा भर देता। मुस्कुराहट ही तो जया के जीवन 
                    से गायब हो गई है। दिलीप से विवाह अपने आप में उसके जीवन के 
                    लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। उसका चार फुट दस इन्च का दुबला 
                    पतला शरीर, सपाट सीना, देखने में भी कहीं ग्लैमर का नामोनिशान 
                    नहीं। उस पर पढ़ाई लिखाई के शौक ने बचपन से ही आँखों पर चश्मा 
                    चढ़वा दिया था। माँ बाप को बस एक ही चिन्ता कि बेटी का विवाह 
                    होगा तो कैसे! जया को बार बार यह याद दिलवाया जाता था कि उसकी 
                    साधारण शक्ल और सूरत के कारण ही देखने वाले नापसन्द कर जाते 
                    हैं। घर की एलबम में से जया के सभी चित्र एक एक कर लड़के वालो 
                    के यहाँ पहुँच चुके थे। अब तो उसे फोटोग्राफर की दुकान पर जाना 
                    भी अखरने लगा था। दिलीप ने तो उसे बिना देखे, बिना मिले ही 
                    विवाह कर लिया था। जया ने तो मन ही मन तय कर लिया था कि सारा 
                    जीवन ऐसे पति की सेवा करेगी जिसने उसे अपने ही परिवार की चुभती 
                    हुई निगाहों के प्रश्नों से बचा लिया। वह अपने दिलीप के साथ ही 
                    चित्र खिंचवाया करेगी। चित्र भी समय के साथ-साथ 
                    धुंधले पड़ जाते हैं। हर समय एक ही अपनी सच्चाई होती है। जया 
                    को भी शनै: शनै: मालूम होता गया कि दिलीप ने उससे बिना मिले 
                    विवाह क्यों कर लिया था। उस सच्चाई ने उसके शुरुआती सपनों को 
                    आहत कर दिया था। दिलीप को विनोदिनी के माता पिता ने स्वीकार 
                    नहीं किया था। विनोदिनी ने घर से भागकर विवाह करने से इन्कार 
                    कर दिया था। यदि विनोदिनी नहीं तो कोई भी चलेगी। माँ को 
                    प्रसन्न ही तो करना है। इसी कारण दिलीप और जया के सम्बन्धों 
                    में कोई कोमल तन्तु जुड़ नहीं पाया। उनका मिलन केवल शारीरिक ही 
                    था। उनकी आत्मायें कभी एक नहीं हो पाई। शरीर मिलने के परिणाम 
                    स्वरूप पलक का जन्म भी हो गया। किन्तु दिलीप को न तो कभी जया 
                    में कोई विशेष रुचि थी और न ही पलक में। पलक अभी एक वर्ष की ही रही 
                    होगी कि दिलीप के भाई ने उन्हें लन्दन आ कर बसने की दावत दी। 
                    दिलीप को इसमें भी कोई रुचि न थी। किन्तु जया को लगा शायद 
                    लन्दन जा कर दिलीप का व्यवहार बदल जाए। ठीक सोचती थी जया। 
                    दिलीप का व्यवहार बदल ही तो गया है। न जाने परमात्मा को क्या 
                    मंजूर है! "परम पिता परमात्मा मे 
                    विश्वास की तीन स्थितियाँ हैं। हर व्यक्ति परमात्मा में 
                    विश्वास करता है अपने संस्कारों के हिसाब से। एक ईसाई जब कभी 
                    प्रभू के बारे में सोचेगा तो स्वयंमेव ही यीशू का चेहरा उसकी 
                    आँखों के सम्मुख आ जाएगा। एक मुसलमान अल्लाह के अतिरिक्त 
                    परमात्मा के विषय में सोच ही नहीं सकता। हिन्दु भी शंकर, 
                    विष्णु, राम और कृष्ण में अपना भगवान खोजता है। यदि आर्य समाजी 
                    है तो $ में अपना प्रभू ढूँढ़ेगा। किन्तु इनमें से कोई विरला 
                    ही ऐसा होगा जो अपने परिवेश से आगे बढ़ कर परमात्मा के विषय 
                    में सोच पाए। तर्क़ की दृष्टि से सोचा जाए तो धर्म मनुष्य की 
                    सोच को सीमित कर देता है; उसे अध्यात्म की राह पर जाने के अन्य 
                    मार्गों से विमुख करता है।""किन्तु राज इसमें ग़लत ही क्या है। जो व्यक्ति जिस राह से 
                    वाकिफ़ है वही राह तो चुनेगा।"
 "प्रश्न राह चुनने का नहीं हैं जया। विडम्बना यह है कि मनुष्य 
                    उस राह का ही पुजारी हो जाता है जो कि उसे परमात्मा तक ले जाती 
                    है। परमात्मा को भूल जाता है। धर्म और अध्यात्मवाद दो भिन्न 
                    भिन्न वस्तुयें हैं। महत्त्वपूर्ण बात है परमात्मा में 
                    विश्वास। रीति रिवाज या आडम्बर परमात्मा से दूर तो ले जा सकते 
                    हैं कभी भी परमात्मा को पा नहीं सकते।"
 "तुम विश्वास की तीन स्थितियों की बात कर रहे थे।" जया को फिर 
                    से राज की बातों में वह सुख मिल रहा था जिसके लिए वह दिलीप के 
                    साथ बाईस वर्ष रह कर भी तरसती रही थी।
 "देखो जया तुम्हें एक उदाहरण 
                    देता हूँ। एक व्यक्ति एक रेस्टॉरेण्ट में भोजन करने जाता है। 
                    वह एक परिवेश में जा कर बैठता है। सबसे पहले बेयरा उसके पास आ 
                    कर मेनू कार्ड रख जाता है। वह उस मेनू कार्ड को पढ़ता है और 
                    व्यंजनों के नाम पढ़ कर ही उसे महसूस होता है कि उसे स्वादिष्ट 
                    भोजन मिलने वाला है। उसके मुँह में पानी आने लगता है। उसकी 
                    स्थिति ठीक उस व्यक्ति जैसी है जिसे केवल बताया गया है कि 
                    भगवान में विश्वास करो। यदि उसमें विश्वास करोगे तो स्वर्ग 
                    मिलेगा अन्यथा नरक में वास करना होगा। वह व्यक्ति या तो डर के 
                    कारण भगवान में विश्वास करता है या फिर लालच के कारण। उसने 
                    स्वयं भगवान के अस्तित्व को महसूस नहीं किया है। दूसरी स्थिति 
                    है उस व्यक्ति की जो कि रेस्टॉरेण्ट में बैठे दूसरे ग्राहकों 
                    को भोजन करते देखता है और उनके चेहरे के हावभाव देख कर अन्दाज़ 
                    लगाता है कि भोजन कितना स्वादिष्ट होगा। यानि के वह अपने आसपास 
                    के लोगों को परमात्मा की पूजा कर उन्हें आत्मिक आनंद लेते 
                    देखता है। अभी भी उसे स्वयं यह ज्ञात नहीं है कि भोजन का असली 
                    स्वाद क्या है। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण स्थिति उस मनुष्य की 
                    है जो कि भोजन को स्वयं खा कर भोजन के स्वाद को महसूस करता है। 
                    यानि कि वह स्वयं परमात्मा से आत्मसात हो कर प्रभू के अस्तित्व 
                    का ज्ञान प्राप्त करता है और उसे जो सुख प्राप्त होता है वह 
                    नैसर्गिक सुख है। उस सुख को शब्दों में व्यक्त कर पाना लगभग 
                    असंभव है।"  |