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(प्रतिध्वनि) चल अयोध्या के लिए, चल अयोध्या के लिए

सूत्रधार : देख लो, साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।

केतु : पट अँचल सदृश है उड़ रहे, कनक-कलशों पर अमर दृग जुड़ रहे!
कितनी सुंदर है यह साकेत नगरी। इंद्रधनुषाकार तोरण कितने आकर्षक लग रहे हैं। दीर्घ छज्जों पर विविध प्रकार की फली-फूली बेलें कैसे सौंदर्य के गागर से भरी मन को मोह रही हैं। देव-दंपत्ती भी इस नगरी में विश्राम करने की कामना करते हैं। इस नगरी की स्वर्ग से तुलना हूँ, उचित भी है और अनुचित भी, स्वर्ग से उतरी माँ गंगा तो मरों को पार उतारती है परंतु साकेत की धरा को अपनी कल-कल से आलोड़ित करती सरयू नदी जीवतों को भी तारती है। प्रभु श्रीराम की इस नगरी को मेरा बारंबार प्रणाम है। मेरा प्रणाम अयोध्यापति दशरथ को जिन्होंने श्रीराम अभिषेक का सुखद निर्णय लिया। (राग भैरवी के संगीत के साथ प्रभात होने की सूचना) लो चिड़िया की चहचहाट संग पूर्व दिशा का द्वार खुल गया। गगन के सागर में जैसे आलोक का उठा ज्वार चारों ओर सुखमय वर्षा करने को तत्पर है। अरे! अरुण-पट पहने, अपने आह्लाद में डूबी यह कौन बाला है। लगता है जैसे उषा ही साक्षात धरती पर आ गई हो। उस अद्भुत शिल्पी का कितना अद्वितीय शिल्प है। कमल-सी कोमल कनक-लतिका, मोतियों से चमचमाते दाँत, हीरों में नीलम जड़े-सी दो बड़ी-बड़ी आँखें। जिधर देखती है सौंदर्य की लहरें बिखर जाती है। (प्रतिध्वनि) "स्वर्ग का यह सुमन धरती पर खिला, नाम है इसका उचित ही उर्मिला।" (हल्का मधुर संगीत)

उर्मिला : अरे! बोल रे शुक्र तू मुझे देख मौन क्यों हो गया। हे सुभाषी, अभी तो तूँ बज रही बाँसुरी से निकल रहे मधुर संगीत का कितना सुंदर अनुकरण कर रहा था। बोल रे शुक्र, बोल।

लक्ष्मण : (दूर से आता हुआ स्वर) यह शुक्र तो तुम्हारे सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया है, मैं कुछ बोल सकता हूँ, प्रिय!

उर्मिला : ओह आर्यपुत्र, आप जग गए।

लक्ष्मण - नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाड़िम का समझकर भ्रांति से देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है, यह अन्य शुक कौन है।

उर्मिला : ओह, लगता है आर्यपुत्र अभी भी कोई स्वप्न ही देख रहे हैं।

लक्ष्मण : इतने सुंदर स्वप्न जागते हुए भी कौन न देखना चाहेगा, उर्मिले!

उर्मिला : पर जागरण स्वप्न से अधिक अच्छा होता है।

लक्ष्मण : प्रेम में कुछ भी बुरा नहीं होता।

उर्मिला : पर जिसकी सराहना करें, उसमें कुछ तो योग्यता होनी चाहिए।

लक्ष्मण : योग्यता! मैं तुम्हारा दास ऐसे ही तो नहीं हूँ।

उर्मिला : (मुस्कुराकर) दास! अपने को दास बनाकर मुझे क्या दासी कहने का बहाना ढूँढ़ रहे हैं। आप तो मेरे देव बनकर ही रहो और मुझे देवी ही रक्खो।

लक्ष्मण : यही सही। तुम रहो सदा मेरा हृदय-देवी और मैं तुम्हारा सदा तुम्हारा प्रणय-सेवी। (उर्मिला के खिलखिलाने का स्वर)

लक्ष्मण : मेरी हृदय-देवी मुझे कुछ वरदान भी देगी।

उर्मिला : आर्यपुत्र, क्या यह धर्म है? हमारा कर्म कामना को छोड़कर ही होना चाहिए।

लक्ष्मण : पर मेरी तो छोटी-बड़ी कामनाएँ, सब तुम्हारे चरण कमलों में पड़ी हैं। अब चाहे स्वीकार करो या त्यागो।

उर्मिला : हाय, क्यों इस अवश अबला पर पाप चढ़ाते हो। आप तो मेरे शिरोधार्य हैं, चरणों की बात क्यों करते हो।

लक्ष्मण : अवश्य अबला, तुम? तुम्हारी एक बाँकी दृष्टि पर यह सृष्टि मर और जी रही है। (तोते के बोलने की ध्वनि)

उर्मिला : यह तोता क्या कह रहा है, इसे क्या चाहिए?

लक्ष्मण : (मुस्कुराकर) इस तोते को जनकपुरी के राज कुंज में विहार करने वाली एक सलौनी सारिका चाहिए।

उर्मिला : इसके लिए तो इसे धनुष तोड़ना होगा।

लक्ष्मण : धनुष तो प्रभु ने तोड़ डाला है और टूटे को भला क्या तोड़ना। (कुछ रुककर) प्रिये, कल का दिन कितना शुभ और मंगलमय है, कल आर्य का अभिषेक है (भावुक स्वर में) मेरे भैया राम का अभिषेक है। चारों ओर आनंद के अतिरेक का साम्राज्य है। एक नया युग आने वाला है। हमारे सारे सुकृत शीघ्र ही सिद्ध होंगे। कितना अलौकिक दृश्य होगा अभिषेक का।

उर्मिला : प्रिय वह दृश्य देखना चाहते हैं!

लक्ष्मण : उर्मिले, क्या तुमने चित्र बनाया है? तनिक लाओ, दिखाओ, कहाँ है?

उर्मिला : आप धैर्य से इस मणिमय आसन पर विराजें (धीरे-धीरे पहले दूर जाता और पास आता स्वर) मैं अभी आपको चित्र दिखाती हूँ, बालक की तरह अधैर्य न हों।

लक्ष्मण : तुम तो जानती हो प्रिये, भैया राम के अभिषेक का मैं कब से स्वप्न ले रहा हूँ। अब यह यथार्थ होने जा रहा है। जब तक अभिषेक न होगा मेरा एक-एक पल।

उर्मिला : (पास आते हुए) मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ और आपको अच्छी तरह जानती हूँ। यह लीजिए चित्र। (हल्का संगीत, कुछ क्षण पश्चात) कैसा लगा प्रिय (लक्ष्मण कुछ नहीं बोलते हैं) आप तो इस चित्र से हो गए, मैंने पूछा प्रिय, चित्र कैसा लगा आपको?

लक्ष्मण : अद्भुत, सुंदर, भावप्रवण। अभिषेक का कितना सजीव चित्र खींचा है। रंग रेखाओं का कितना सुंदर समिश्रण है! कितना सुंदर मंडप है, झालरों में मोती ऐसे सुशोभित हो रहे हैं जैसे किसी सुहागन की माँग। लहराती हुई ध्वजाओं में चिह्नित हमारे कुल-गुरु सूर्य, कैसे आनंद की वर्षा कर रहे हैं। तूर्य वादन की तरंगों में, नर्तकों के रंग में, बालक उमंग से भरे कूद रहे हैं। द्वार पर जय-दुंदभी बज रही है तथा प्रहरी प्रसन्नचित्त खड़े हैं। सभी सभासद सर झुकाए शिष्टाचार की मूर्ति बने विराजमान हैं। गुरु वसिष्ठ अभिषेक जल छिड़क रहे हैं। देश-देश के राजा अपने हाथों में उपहार धारण किए विराजमान हैं।
सभी विद्यमान हैं परंतु भरत और शत्रुघ्न नहीं हैं। क्या यथार्थ चित्रण किया है तुमने! वाह!
यह तुम्हारी भावना की स्फुर्ति है, जो अपूर्ण, कला उसी की पूर्ति है।
हो रहा है जो जहाँ, सो हो रहा, यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?
किंतु होना चाहिए कब, क्या, कहाँ, व्यक्त करती है कला ही यह यहाँ।
मानते हैं जो कला को कला के अर्थ ही, स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही।
तुम्हारी इन सुंदर अंगुलियों में कितनी गहरी कला छिपी हुई है, प्रिये! लाओ तुम्हारे कर-कमल चूम लूँ।

उर्मिला : (मुस्कुराकर) ध्यान रहे मस्त हाथी की तरह मेरे कर कमल न तोड़ देना।

लक्ष्मण : तुम्हारे लिए कोई भी सटीक उपमा नहीं दी जा सकती इसलिए अब मैं तुमको सदा अनुपमा ही कहूँगा। हे निरूपमे, इस चित्र में मैं कहाँ हूँ?

उर्मिला : आपका कौन-सा पद है?

लक्ष्मण : मैं तो प्रभु राम का मात्र एक सैनिक ही तो हूँ।
(वंदिजनों के विरूदावली के स्वर पृष्ठभूमि में धीरे-धीरे तीव्र होते हैं। वीणा, बाँसुरी आदि वाद्यों के स्वर) दिन निकल आया है, अब मुझे विदा दो प्रिये।

उर्मिला (भावुक स्वर में): मुझसे मिलने का अब कब अवकाश मिलेगा आर्यपुत्र?

लक्ष्मण : कहा न मैं प्रभु राम का सैनिक हूँ, चलता हूँ।
(संगीत द्वारा दृश्य समाप्त होने की सूचना)

दूसरा दृश्य

सूत्रधार : प्रकट जिसका यों हुआ प्रभात, देख अब तू उस दिन की रात।
लक्ष्मण और उर्मिला के दांपत्य-प्रेम का प्रभात, राम के अभिषेक की उषा, साकेत के गगनांचल में अपनी छटा बिखेर रही है पर इस सौंदर्य को अपनी कालिमा में डूबोने के लिए रात भी तो सामने से आ रही है।

कैकयी : अरी तू कहाँ से आ रही है ज़रूर वत्स राम के अभिषेक कार्य में व्यस्त होगी। पर यह क्या तेरे मुख पर उदासी कैसी?

मंथरा : क्या आप उदास नहीं हैं!

कैकयी : (मुस्कुराकर) हाँ उदास तो मैं हूँ। मेरा भरत ननिहाल गया हुआ है और वह राम के अभिषेक के सुखमय पलों का आनंद न भोग सकेगा, यह सोचकर उदास हूँ।

मंथरा : (माथा ठोकते हुए) हो गया भोलेपन का अंत। दूसरे के पुत्र के लिए इतनी प्रसन्नता!

कैकयी : (रोष से) दूसरे के। यह क्या उल्टे वचन तू बोल रही है। क्या राम मेरा पुत्र नहीं?

मंथरा : (व्यंग्य से) हाँ, राम आपका पुत्र है और भरत औरस पुत्र।

कैकयी : औरस पुत्र! राम और भरत में क्या है भेद?

मंथरा : भेद? भेद सुबह का सूर्य दिखा देगा रानी कैकयी! सुबह समस्त अयोध्या के समक्ष एक राजमाता होगी और दूसरी मात्र एक दर्शक।

कैकयी : क्या उलटा बोल रही है, कल हो या आज, क्या मुझसे राम की माता का पद छिन जाएगा? क्या समाज मुझे राम की माता नहीं कहेगा? बोल।

मंथरा : मैं कुछ बोलने वाली कौन होती हूँ, मेरे मुँह में आग लगे, पर रानी मैंने आपका नमक खाया है, स्वामी के हित की बात करना दासी का प्रथम कर्तव्य है। इसलिए बहुत रोकती हूँ पर बात निकल ही जाती है। आप बहुत भोली हैं, आप अपने जैसा सबको सीधा समझती हैं (रहस्यात्मक स्वर में) वरना सीधा-साधा षड़यंत्र आपकी समझ में नहीं आता!

कैकयी - षडयंत्र, कैसा षड़यंत्र, तेरे मायिक वचन सुन मैं अपने को संयत नहीं रख पा रही हूँ तनिक विस्तार से कह।

मंथरा : (माथा ठोकते हुए) हे इश्वर! किसी को इतना सीधा भी नहीं होना चाहिए कि अपने सीधेपन में उसे अपने हित-अहित का पता ही न चले। (रहस्यात्मक स्वर में) सुनो महारानी,
भरत को करके घर से ताज्य, राम को देते है नृप राज्य
भरत-से सुत पर भी संदेह, बुलाया तक न उन्हें गेह।

कैकयी : (सक्रोध) दूर हो जा कुल्टा, मेरे मन में विष मत घोल। हमारे आपस के व्यवहारों को तू अनुदार कहाँ समझ सकती है? नीच की सोच नीच ही होती है। जा मेरी आँखों के आगे से दूर हो जा।

मंथरा : (भयभीत स्वर में) महारानी, मेरा अपराध क्षमा हो। आप समर्थ हैं, आप जो भी दंड देना चाहें दें, मैं उफ न करूँगी। मेरी अल्प बुद्धि में जो आया मैंने कह दिया। मैंने अपने दासी-धर्म का पालन किया है महारानी! फिर भी आपको जो अनुचित लगा हो उसके लिए मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ। मुझे क्षमा करें देवी, मुझे क्षमा करें।

कैकयी : मेरे चरणों से उठ, और जा दूर चली जा।

मंथरा : जो आज्ञा देवी। (मंथरा के जाने का स्वर)

कैकयी : (स्वगत) कैसी दुष्ट और कुचाल हो गई है। कैसा अनर्गल प्रलाप कर रही थी। इसमें कोई संदेह है कि राम मेरा पुत्र है (पार्श्व से स्वर गूँजता है, भरत से सुत पर भी संदेह) है ये कौन बोला मैं इसके बहकावे में आने वाली नहीं, भरत तो अपनी इच्छा से ननिहाल गया है और फिर शत्रुघ्न भी तो उसके साथ है। बहन कौशल्या जितना भरत पर स्नेह रखती है उतना राम पर भी नहीं रखती हैं (पार्श्व से फिर स्वर गूँजता है - भरत से सुत पर भी संदेह, भरत से सुत पर भी संदेह, भरत से सुत पर भी संदेह) हे दुर्देव मेरा मन इतना मलिन क्यों हो रहा है। हे भगवान आज मेरे कान यह क्या सुन रहे हैं। मेरे मन-मंदिर की शांति कहाँ चली गई? आज भी कोई कैकयी का हृदय चीर देख ले, वहाँ स्वार्थ का लेशमात्र भी नहीं है, इस हृदय में आज भी स्वामी के लिए अथाह प्रेम बसता है। पर उसी हृदय में यह कैसा विकार उठ रहा है? हे नाथ मुझे भी भरत के साथ मेरे भाई के घर क्यों न भेज दिया? राम जेष्ठ है, गुणी है, राज्यअधिकारी है (पार्श्व से स्वर गूँजता है, भरत से सुत पर भी संदेह) आह, आज शांत रस वीभत्स क्यों हो रहा है? मैंने कभी कोई भेद-भाव नहीं किया, पर मेरे पुत्र के साथ ऐसा क्यों क़ुछ भी हो जाए, मैं यह अन्याय सहन नहीं करूँगी। कैकयी इतनी निर्बोध नहीं है, कैकयी इतनी अशक्त भी नहीं, कैकयी के पास महाराजा दशरथ के दिए दो वरदान हैं, आज मैं अपने पुत्र के लिए कुछ भी करूँगी। (तीव्र संगीत के साथ दृश्य-परिवर्तन)

तीसरा दृश्य

सूत्रधार : भरत की माँ हो गई अधीर क्षोभ से जलने लगा शरीर।
मानिनि कैकयी का कोप बुद्धि का करने लगा विलोप।
एड़ियों तक आ छूटे केश, हुआ देवी का दुर्गा-वेश।
छोड़ती थी जब तब हुंकार चुटीली फणिनी-सी फुंकार।
पड़ी थी बिजली-सी विकाराल, लपेटे घन-जैसे बाल!
कौन छेड़े ये काले साँप? अवनिपति उठे अचानक काँप।
(स्वर गूँजता है) कौन छेड़े ये काले साँप? अवनिपति उठे अचानक काँप।

दशरथ : (स्वर में कंपन हैं) प्रिये आज के शुभ दिन यह क्रोध किसलिए? अगर कुछ रोग-विकार हो तो वैद्य को बुलाऊँ, और यदि किसी ने कुछ कहा है तो समझो आज भाग्य उसके विपरीत हो गया है। देखो तो संपूर्ण अयोध्या आज किस प्रकार राम के अभिषेक की प्रतीक्षा कर रही है, भरत भी होते तो कितना अच्छा रहता। आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ प्रिये, आज तुम्हें जो माँगना हैं, माँग लो, परंतु ईश्वर के लिए यह कोप छोड़ दो। तुमने तो युद्ध में मेरे प्राण बचाए थे और मैंने उसके बदले में तुम्हें दो वर भी दिए थे। प्रिय उस दिन अपने शौर्य से तुमने मेरे प्राण बचाए थे, आज अपने कोप से मेरे प्राण तो न लो।

कैकयी : चलो, यह झूठा प्रेम रहने दो। मैं राजनीतिज्ञों की राजनीति जानती हूँ। पहले वचन दे देते हैं और फिर पालन करना भूल जाते हैं। दो वरदान कहने को ही हैं, दो वरदान, बस मेरा मन रखने को दे दिए थे।

दशरथ : (स्वर में प्रेम है) ऐसे बोल मारकर मुझे घायल मत करो, कहो तो अपना हृदय खोलकर दिखा दूँ। तुम मुझपर व्यर्थ ही आरोप लगा रही हो, सभी रानियों में मैं तुमपर अधिक स्नेह रखता हूँ। आज तक तुमने जो चाहा तुम्हें दिया ही तो है। आज रघुकुल की प्रसन्नता की पूर्व संध्या है, आज तो जो माँगो तुम्हारा प्रिय तुम्हें देगा।

कैकयी : मुझे अपने दो वर चाहिए बस।

दशरथ : माँगो, रघुवंशी अपने प्राण दे सकते हैं, पर अपने वचन नहीं हार सकते।

कैकयी : आप विवश करते हैं तो माँग ही लेती हूँ। पहले वर में मैं अपने पुत्र भरत के लिए राज्य माँगती हूँ और दूसरा सुन लो(तनिक मौन) उदास मत होना प्रिय, दूसरे वर में तुम्हारे प्रिय राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास!
(तीव्र संगीत में दशरथ का हा, राम स्वर)

दशरथ : राम -से सुत को भी वनवास, यह सत्य है या परिहास?
सत्य है तो है सत्यानाश, हास्य है तो है हत्या-पाश।

राम, हा राम, वत्स राम, कुलदीप राम। (हा राम स्वर के साथ संगीत, दृश्य-परिवर्तन)

चौथा दृश्य

(उदासी भरे संगीत के मध्य सूत्रधार का स्वर उभरता है।)

सूत्रधार -

जहाँ अभिषेक - अंबुद छा रहे थे, मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे।
वहाँ परिणाम में पत्थर पड़े से यों, खड़े ही रह गए सब थे खड़े ज्यों।
करे कब क्या, इसे बस राम जाने, वही अपने अलौकिक काम जाने।
(स्वर गूँजता है) करे कब क्या, इसे बस राम जाने। (धीमे-धीमे गूँज समाप्त होती है तथा चलते कदमों का स्वर उसे आच्छादित करता है।)

राम : अरे लक्ष्मण, तुम कहाँ जा रहे हो। बहुत आह्लादित लग रहे हो?

लक्ष्मण : भैया राम, आज अयोध्या में कौन आह्लादित नहीं हैं!

राम : चलो पितृ-वंदना करने चलें।

लक्ष्मण : जो आज्ञा भैया।
(चलने की ध्वनि बीच दशरथ का स्वर)

दशरथ : कौन मेरे राम आए हैं क्या? हा राम! हा राम!

राम : हे तात! कहें क्या बात है, आपका राम आपके पास ही खड़ा है, आप आदेश दें।

दशरथ : हा राम! हा राम!

राम : माता, तात कुछ कहते क्यों नहीं?

कैकयी : क्या कहें, लज्जा के कारण कुछ कहने में असमर्थ हैं।

राम : लज्जा, कैसी लज्जा माते! स्पष्ट कहें।

कैकयी : अपने दिए दो वरदान का न पालन कर पाने की लज्जा।

राम : क्या है वो दो वरदान, माते? पिता के दिए वचनों को यह राम पूर्ण करेगा।

कैकयी : कुछ विशेष नहीं, मैंने दो वर माँगे हैं, एक में भरत के लिए राज्य और दूसरे में तुम्हारे लिए चौदह वर्ष का वनवास।

राम : बस इतना माते! भरत और मुझमें भेद ही क्या है। यहाँ भरत अपने कर्म का पालन करेंगे और मैं वन में अपने धर्म का पालन करूँगा। वैसे भी बहुत दिनों से मेरी इच्छा वन में ऋषि-मुनियों की सेवा करने की थी। आप व्यर्थ ही चिंता न करें तात! मुझे आशीष दें, शुभ कार्य में विलंब नहीं होना चाहिए।

दशरथ : हा राम, तुम मेरे पुत्र ही क्यों हुए! क्या मेरे काम, एक पिता के काम है? हे राम!

लक्ष्मण : (तनिक रोष के स्वर में) माँ, क्या यह ठीक है?

कैकयी : मैं क्या कहूँ? तुम मातृघाती बनना चाहते हो, तो बनो। भरत यहाँ होता तो मैं भी तुम्हें बता देती।

लक्ष्मण : (अत्यधिक रोष के स्वर में) तू भरत की ठसक किसे दिखा रही है। आज जिसे देखना है, लक्ष्मण का बल देख लें। जिसे सहायता के लिए बुलाना है तू बुला ले। एक तरफ़ चाहे सारा लोक आ जाए, दूसरी ओर लक्ष्मण रहेगा, सूर्यवंशी भरत को तू अपने पाप में क्यों सानती है। वह तो मेरे जैसे कीचड़ में कमल की तरह हैं। भरत होते तो वह लज्जा के मारे डूब मरते। जेष्ठ पुत्र के होते हुए पिता कौन होते हैं भरत को राज्य देने वाले। सारा साम्राज्य प्रजा का है और प्रजा भैया राम को अपना राजा मानती है।

राम : अपने वेग को संभालो सौमित्र और मौन रहो।

लक्ष्मण : अन्याय देखकर भी मैं मौन रहूँ! वीर कभी अपना अधिकार नहीं खोते हैं। अपने पिता की क्या कहूँ जो इस दसयुजा के दास बने हैं। और यह जो माँ बनी खड़ी है, यह नागिन है और नागिन के विषदंत तोड़ने ही चाहिए भैया, मुझे बस आदेश दें।

राम : (तनिक रोष के स्वर में) मेरी आज्ञा है कि अब तुम मौन रहो। यह कठोर वचन तुम किसके लिए कह रहे हो, अपने माता-पिता के लिए। हमारे पिता जो धर्म के लिए मर रहे हैं, उन्हीं के कुल के होकर हम राजत्व को धर्म खोकर प्राप्त करें, उन्हीं को त्रास दें। (मधुर स्वर में) लक्ष्मण, अगर मेरे स्थान पर तात तुम्हें वनवास जाने को कहते तो क्या तुम पुत्र-धर्म का पालन न करते, उन्हें मना कर देते। मेरी प्रकृति भी तुम जानते हो। लक्ष्मण मन:शासक बनो, अखिल संसार अपना राज्य जानों और समझ लो दैव की इच्छा यही है।

दशरथ : पुत्र लक्ष्मण ठीक कह रहा है, राम। लक्ष्मण, मुझे वीरता से बंदी बनाकर मेरे सभी दुख दूर करो। हे राम, तुम भी आज अपने पिता की आज्ञा न मान मुझे मृत्यु-मुख से उबारो।

राम : तात, इतना मोह। यदि आपका पुत्र होकर मैं आपकी आज्ञा न मानूँ तो रघुकुल के मान का क्या होगा? हमारी वंश मर्यादा मिटेगी और माता कैकयी के साथ भी न्याय न होगा। माँ, सौमित्र ने क्रोध में जो कहा उसे क्षमा करें और मुझे वन जाने की आज्ञा दें।

दशरथ : हे राम!

राम : पिता फिर मूर्छित हो गए।

कैकयी : इनके उपचार के लिए मैं राजवैद्य को बुलाती हूँ। राम जब तक तुम इनके सामने रहोगे, इनका स्वास्थ्य न सँभलेगा, इनका मोह और बढ़ेगा। जाओ, अपने पिता के दिए गए वचनों का सम्मान करों, वन गमन की तैयारी करो।

राम : जो आज्ञा, माता।
(संगीत के बीच से चलते कदमों की ध्वनि)

राम : सौमित्र, जीवन में धैर्य कभी नहीं त्यागना चाहिए, चाहे कितनी भी विषम परिस्थिति हो। मेरे वन गमन के पश्चात अब सबका दायित्व अब तुम्हारे उपर है।

लक्ष्मण : आपके वन गमन के पश्चात! मेरा दायित्व तो आपके साथ वन गमन में हैं, भैया। आपका यह दास आपको छोड़कर कब रहा है। आपही तो मेरे माता-पिता, भ्राता, मेरे सर्वस्व, भाग्य विधाता, सभी कुछ हैं। आप आज्ञा देंगे तो मेरा जीव नरक की यातना सहकर भी अयोध्या में रह लेगा, पर मेरा शरीर न सह सकेगा। आपके लौटने तक यह आपको जीवित न मिलेगा। आपके साथ जब अमृत पिया है तो विष भी मैं ही पिऊँगा।

राम : (भावुक स्वर में) सौमित्र इतने कातर न हो। तुम तो मेरे अर्द्धांश हो। तुम जैसा भाई वन में हो तो वन में भी मैं राजभोग ही करूँगा। मैंने तुम्हें कभी अपने से अलग नहीं समझा, तुम मेरे सुहृत, सहचर, सचिव, सेवक, सभी ही तो हो। पर मुझे उर्मिला की चिंता है।

लक्ष्मण : वह अपना धर्म जानती हैं, भैया।

राम : तो चलो, सबसे आज्ञा ले लें।

(संगीत द्वारा दृश्य परिवर्तन की सूचना।)

पाँचवा दृश्य

(मंगल संगीत)

कौशल्या : अयोध्या की संभावित रानी, मेरी लाड़ली बहू, सीता आज कितनी सुंदर लग रही है। ला तुझे दिठोना लगा दूँ।
(राम और लक्ष्मण के कदमों का स्वर)

राम, लक्ष्मण : प्रणाम मातें!

कौशल्या : जियो, जियो, बेटा! आओ पूजा का प्रसाद पाओ। बहू! तनिक अक्षत-रोली तो ला, अपने राजा राम को तिलक कर दूँ।

राम : राजा राम नहीं माँ, वनवासी राम। माँ आज तुम्हारा राम कृतार्थ हुआ, उसे पावनकारक जीवन का वन में चौदह वर्ष रहने का वास मिला है और अयोध्या में अब भरत राज्य करेंगे।

कौशल्या : तू कब से हँसी करने लग गया, यह तो लक्ष्मण का ही आभूषण है। तेरा स्वत्व और भरत ले लेगा! असंभव। लक्ष्मण! देख तो सही तेरा दादा मुझे डराता है, मेरे धैर्य की परीक्षा लेता है। (चौंकते स्वर में) ऐ! लक्ष्मण तू क्यों रो रहा है, हे मेरे ईश्वर यह क्या हो रहा है!

लक्ष्मण : माँ भैया सत्य कह रहे हैं। पिता का प्रण रखने के लिए तथा मझली माँ के मन को रखने के लिए भैया वन जा रहे हैं।

कौशल्या : मैं सब समझ गई, कैकयी मैं सब समझ गई। मेरे मन में राम और भरत में कोई भेद नहीं है। कैकयी का पुत्र-स्नेह धन्य है पर वह मेरे पुत्र-स्नेह की भी रक्षा करे। मेरे राम को वन न भेजो कैकयी, वह अयोध्या में कहीं भी पड़ा रहेगा। मैं जाती हूँ, कैकयी के पाँव पड़ती हूँ और उससे अपने राम की भीख माँगती हूँ।
(दूर से तीव्रता के साथ पास आता सुमित्रा का रोष भरा स्वर)

सुमित्रा : नहीं नहीं नहीं मुझे स्वीकार नहीं यह दीनता।

राम, लक्ष्मण : (एक स्वर में) माता हमारा प्रणाम स्वीकार करें।

सुमित्रा : जिओ दोनों, यश का अमृत पिओ दोनों। स्वत्वों की भिक्षा कैसी? दूर रहे इच्छा ऐसी। हम क्षत्राणी हैं, हम क्यों किसी से भिक्षा माँगे, याचना करें। भिक्षा हमारे लिए मृत्यु के समान है। राघव! क्या तुम यह अन्याय सहोगे? मैं यह अन्याय नहीं सह सकती। लक्ष्मण तुम चुप क्यों हो?

लक्ष्मण : माँ मैं क्या कहूँ। आज भैया आज्ञा दे दें तो हमारे सभी द्रोही मृत्यु को प्राप्त हों।

राम : हे माता, तुम ही कहो यदि आज मैं वन न जाऊँ तो किसके विरुद्ध विद्रोह होगा यह - अपने पूज्य माता-पिता या भरत-से भाई के विरुद्ध ही न! और यह सब किसलिए, तृण समान राज्य के लिए, धर्म बेचकर धन जोड़ने के लिए। तुम्हारा राम अबल नहीं है। तुम ही कहो क्या धर्म से बड़ा धन है? राज्य, राम का भोग नहीं है। जब लक्ष्मण जैसा भाई मेरे साथ है तो मुझे वन का भय कैसा?

सुमित्रा : मैं जानती थी लक्ष्मण का निर्णय यही होगा। लक्ष्मण तुम बड़भागी हो जो तुम्हें राम की सेवा का सुअवसर मिला। तुमने मेरे दूध की लाज रख ली। जाओ, दोनों भाई, अपने धर्म का पालन करो।

कौशल्या : हाँ मेरे पुत्रों जाओ और जो गौरव लेकर जा रहे हो उसी गौरव के साथ लौटना।

सीता : (संकोच से) और मेरा गौरव, मेरा पति धर्म?

राम : तुम्हारा गौरव और धर्म अयोध्या में है।

सीता : पत्नी का गौरव और धर्म पतिव्रता होने में हैं। सुख में साथ हूँ तो दुख में भी तो साथ ही रहना है मुझे। मेरा त्याग मत करो काननगामी।

राम : पर अयोध्या में माताओं और पिता को तुम्हारी अधिक आवश्यकता है। उनका ध्यान कौन रखेगा?

सीता : आर्यपुत्र, सास-ससुर की स्नेहलता मेरी बहन उर्मिला मुझसे अधिक उनकी सेवा करेगी।

राम : वन में कष्ट बहुत हैं और तुम राजमहलों में पली राजकुमारी हो।

सीता : नाथ भी राजमहलों में ही पले हैं।

राम : तो तुम किसी प्रकार न मानोगी।

सीता : मैं अनुरोध करूँगी कि नाथ अपनी छाया को स्वयं से अलग न करें।

(हाय स्वर के साथ उर्मिला के गिरने का स्वर)

सुमित्रा : अरे! बेटी उर्मिला?

सीता : बहन उर्मिला!

राम : हे अनुज लक्ष्मण, उर्मिला की ओर देखो और मेरे साथ जाने का हठ छोड़ दो। मुझे अन्यायी मत बनाओ।

लक्ष्मण : आर्य, यह मत कहिए। पाप-रहित संताप जहाँ आत्म-शुद्धि ही आप वहाँ।

राम : तुम धन्य हो लक्ष्मण, तुम सच्चे तपस्वी हो और मैं तो वन में भी गृही की भाँति रहने जा रहा हूँ।

सुमित्रा : राम जो निश्चय हो चुका, हो चुका। अब जैसे दैव रखेगा हम रहेंगी। चाहे रोकर ही हम सब सहेंगी। तुम हमारी चिंता मत करो। निश्चिंत होकर सीता और लक्ष्मण के साथ वन गमन करो।
(संगीत में उभरता सूत्रधार का स्वर)

सूत्रधार : प्रस्थान, वन की ओर, या लोक-मन की ओर? होकर न धन की ओर, है राम जन की ओर
(संगीत द्वारा दृश्य परिवर्तन)

छठा दृश्य

(उदासी भरा संगीत)

सुलक्षणा : हे सखि उर्मिले, धैर्य रखो उससे भाग्य भी बदल जाता है। महाराज ने सुमंत्र को भेजा है, राम लक्ष्मण और सीता को वह अवश्य लौटा लावेंगे। मन में आशा रखो।

उर्मिला - सब गया, हाय! आशा न गई। सुलक्षणा तुम्हें अभी भी आशा है? मेरे जैसी अभागिनी त्रैलोक्य में भी होगी। मैं अपने पतिव्रत धर्म का भी पालन न कर सकी, अपने नाथ का भी साथ न दे सकी। उनकी संगिनी भी न बन सकी और जाते हुए उनसे इतना भी न कह सकी कि नाथ आप अपने भाई का साथ दो और मेरी ओर से निश्चिंत रहो। प्रेम कर्तव्य से बड़ा है और जब आप आएँगे अपनी दासी को अपने कर्तव्य में लीन पाएँगे। मेरी ओर से तनिक भी सोच न करना, अपने कर्तव्य का पूर्ण पालन करना। मैं तो जीजी की व्यथा सुनकर ही मूर्छित हो गई, नाथ ने जाते समय क्या कहा, सुन न सकी। अब तू ही बता सुलक्षणा यह दीर्घ काल अवधि कैसै कटेगी?

सुलक्षणा : धैर्य से सखी।

उर्मिला : सारा धैर्य रखना मेरे भाग्य में ही विधाता ने क्यों लिख दिया।
(उदासी भरा संगीत। दृश्य परिवर्तन)

सातवाँ दृश्य

दशरथ : सुमंत राम के साथ नहीं लौटे क्या?

कौशल्या : हे नाथ अधीर न हों।

दशरथ : कौन, कौशल्या, मेरी दृष्टि को यह क्या हो रहा है, हाँ, मेरी दृष्टि तो चली ही गई है। राम जानकी को भी साथ ले गए। उर्मिला, तू कहाँ है रघुकुल की असहाय बहू सबके कष्ट का मैं ही हेतू हूँ। सब सुन लें अगर राम न आए तो इस दशरथ से उनकी कभी भेंट न होगी। और कैकयी, तू मेरी बलि लेकर ही राज्यश्री भोग पाएगी।
(नेपथ्य से 'सुमंत्र आ गए' का स्वर)

दशरथ : मेरे राम आ गए, सुमंत्र मेरे राम को ले आए, सब कुछ अस्पष्ट क्यों दिख रहा है? सुमंत्र!

सुमंत्र : (प्रवेश करते हुए) महाराज की जय हो!

दशरथ : मेरा राम कहाँ हैं?

सुमंत्र : राघव ने कहा है

दशरथ : कहाँ है? राम कहाँ हैं यह बताओ।

सुमंत्र : महाराज राघव ने हाथ जोड़कर कहा है - मैं शीघ्र इन चरणों में लौटना चाहता हूँ, पर मेरा धर्म मुझे वन में रोक रहा है। मेरा सोच मत करना, आपकी शांति मुझे भी विश्रांति देगी।

दशरथ : मेरी शांति! मेरी शांति तो अब मृत्यु में ही है, हे राम! हे जीव चलो अब दिन बीते, हे राम, लक्ष्मण, सीते। हे राम
(उदासी भरा संगीत के साथ हाहाकार का स्वर। दृश्य परिवर्तन)

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