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सूत्रधार :- वह सतयुग था. . .सत्य का युग! हमारी संस्कृति की उस समय नींव पड़ रही थी।. . .मुझे उस युग की एक कथा स्मरण हो आई है।
नटी :- 'सत्यमेव जयते!'. . .पर आज भी प्रत्येक भारतवासी का अटूट विश्वास है। मैं कहानी सुनने के लिए उत्सुक हूँ, आर्य! . . .और, यह कथा तो है भी इतनी रोचक कि चाहे जितनी बार सुनी जाए बासी नहीं होती, वरंच हर बार श्रवण की पिपासा को द्विगुणित कर देती है।
सूत्रधार :- तो सुनो, सतयुग की कहानी! . . .आर्यावर्त में एक प्रतापी राजा हुआ था सत्यकेतु। यथा नाम तथा गुण. . .

(पटाक्षेप)

दूसरा दृश्य

(राजसभा का दृश्य। महाराज सत्यकेतु राज-सिंहासन पर विराजमान हैं। रानी लावण्यमती राजा के वामांगस्थित अपेक्षाकृत छोटे सिंहासन पर आसीन हैं। महाराज सत्यकेतु के दाहिने पार्श्व में राजगुरु का आसन रिक्त है। वाम पार्श्व में महामात्य सहित समस्त पार्षद सभासीन हैं। नगर-श्रेष्ठि भी आज की सभा में उपस्थित हैं। आमोद-प्रमोद चल रहा है। राजनर्तकी द्वारा एक भाव-नृत्य प्रस्तुत किया जा रहा है।)

गीत

मुक्त चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र की वंदना हम करें!!

शुद्ध चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र-अभ्यर्थना हम करें!!

राष्ट्र ही शक्ति है।
राष्ट्र ही भक्ति है।
राष्ट्र में ही हमारी भी
अभिव्यक्ति है।।

मुक्त चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र की वंदना हम करें!!

शुद्ध चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र-अभ्यर्थना हम करें!!

राष्ट्र ही आन है।
राष्ट्र ही बान है।
राष्ट्र से ही हमारी
खिली शान है।।

मुक्त चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र की वंदना हम करें!!

शुद्ध चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र-अभ्यर्थना हम करें!!

राष्ट्र सर्वस्व है।
राष्ट्र संरक्ष्य है।
राष्ट्रहित में हमारा भी
भवितव्य है।।

मुक्त चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र की वंदना हम करें!!

शुद्ध चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र-अभ्यर्थना हम करें!!

राष्ट्र ही सत्व है।
राष्ट्र ही तत्व है।
राष्ट्र गतिमान है!
राष्ट्र गंतव्य है!!

मुक्त चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र की वंदना हम करें!!

शुद्ध चित प्राण मन से, अहो!
राष्ट्र-अभ्यर्थना हम करें!!

(नर्तकी के पाँवों की गति शनै: शनै: स्थिर हो जाती है। दोनों हाथ राजा के समक्ष प्रणाम-मुद्रा में बँध जाते हैं।)

सत्यकेतु :- अलौकिक!. . .अलौकिक!! कला और जीवन का अद्भुत संयोग! . . .सत्य, स्वस्ति एवं सौंदर्य का अभूतपूर्व मिलन!
(ग्रीवा से हीरों का हार उतारता है।)

नर्तकी, धारण करो इसे। तुम्हारे माथे पर छिटक आए श्रम-सीकरों की तुलना में इन मोतियों की आभा फीकी पड़ रही है, नर्तकी! फिर भी धारण करो इसे।

नर्तकी :- धन्य हुई, राजन!
(सिर झुकाकर पुरस्कार लेती है।)
आपका सुयश सर्वत्र प्रसारित हो।

(द्वारपाल का प्रवेश)

द्वारपाल :- अन्नदाता की जय हो!. . .नगर-रक्षक प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सत्यकेतु :- उन्हें मार्ग दो।
(नगर-रक्षक का एक बालक सहित प्रवेश। बालक की आयु लगभग बारह वर्ष। तन पर मैले-कुचैले वस्त्र, किंतु, मुख पर क्षात्र-तेज विद्यमान। कमर में एक छोटी-सी कटार बँधी हुई है।)
नगर-रक्षक :- महाराज की जय हो!
(आगे बढ़कर अभिलेख प्रस्तुत करता है। अभिलेख पढ़ने के पश्चात राजा की पैनी दृष्टि बालक पर पड़ती है।)
सत्यकेतु :- वत्स, तुम्हें क्या कहकर पुकारा जाए?
बालक :- कंदर्प।
सत्यकेतु :- तुम्हारी आयु?
कंदर्प :- बारह वर्ष।
सत्यकेतु :- तुम्हारे पिता का नाम।
कंदर्प :- मेरे पिताश्री का नाम अश्वजित है।
सत्यकेतु :- उनका व्यवसाय?
कंदर्प :- भूतपूर्व सैनिक हैं। युद्ध में आँखें चली गईं, इसलिए समय से पूर्व सेवानिवृत्त हो गए।

(राजगुरु का गुरु-गंभीर प्रवेश। राजा समेत समस्त पार्षदों का सम्मान में खड़े हो जाना। समवेत प्रणाम। राजगुरु के आसन ग्रहण कर लेने के पश्चात सभा पुनश्च स्थापित होती है।)

सत्यकेतु :- हमारी सेना के महान योद्धा अश्वजित के पुत्र कंदर्प! तुम्हें अभियुक्त के रूप में सामने पाकर मेरा हृदय अत्यंत क्षुब्ध है।
कंदर्प :- सब नियति का खेल है, महाराज!
सत्यकेतु :- वत्स, तुम पर राज-नियम की अवहेलना का आरोप है। जानते हो, हमारे राज्य में दूसरे की वस्तु को उसकी अनुमति के बिना ग्रहण कर लेना अपराध है।
कंदर्प :- (सिर झुका लेता है।) हाँ, महाराज।
सत्यकेतु :- बाज़ार में बंदी बनाए जाने से पूर्व तुम क्या कर रहे थे?
कंदर्प :- खाद्य-सामग्री क्रय कर रहा था, महाराज।
सत्यकेतु :- उस समय तुमहारे पास जो थैली पाई गई, वह तुम्हें कहाँ मिली थी?
कंदर्प :- मार्ग में।
सत्यकेतु :- क्या तुम्हें थैली के स्वामी का ज्ञान हैं?
कंदर्प :- हाँ, महाराज।
सत्यकेतु :- कैसे?
कंदर्प :- जिस समय वह पथिक की असावधानी से मार्ग में छूटकर गिरी, उस समय मैं उसके पीछे चल रहा था।
सत्यकेतु :- फिर, तुमने पथिक को आवाज़ क्यों नहीं लगाई?
कंदर्प :- मुझे धन की आवश्यकता थी।
सत्यकेतु :- अभियुक्त बालक, तुम पर लगाया गया आरोप उचित एवं सिद्ध-दोष है। तुमने पथिक के धन पर लोभ प्रकट किया है, अतएव तुम्हें दंडस्वरूप दो मास के लिए कारागृह प्रदान किया जाता है। इस अवधि में तुम अपने चित्त से अपराध का परिमार्जन करो।
कंदर्प :- महाराज, मुझे कुछ निवेदन करना है।
सत्यकेतु :- वत्स, मैं तुम्हारी सत्यवादिता से प्रसन्न हूँ। कहो, क्या कहना है तुम्हें?
कंदर्प :- महाराज, मुझसे विवशता में अपराध हुआ है, अतएव मुझे दंडित नहीं किया जाना चाहिए।

(सभा चौंक पड़ती है।)

महामात्य :- धृष्ट बालक, तुम राजदंड का अपमान कर रहे हो। क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि इस कारण तुम्हारा दंड मृत्यु-दंड में भी परिणत हो सकता है?
कंदर्प :- ज्ञात है, महामात्य!
सत्यकेतु :- वत्स, तुमने जानबूझ कर अपनी मृत्यु का वरण किया है। . . .अभियुक्त को राजदंड का विरोध करने के कारण मृत्यु-दंड दिया जाता है।
कंदर्प :- कोई अंतर नहीं पड़ता है, महाराज! . . .भूख से तिल-तिलकर मरने की अपेक्षा जीवनलीला निमिषमात्र में समाप्त हो जाए, यही अच्छा है।
सत्यकेतु :- अंतिम इच्छा व्यक्त करो, वत्स!
कंदर्प :- मृत्यु से पूर्व मात्र अपनी बात कह भर लेने की अनुमति चाहता हूँ महाराज!
सत्यकेतु :- अनुमति है।
कंदर्प
:- (संयत होकर) महाराज, जब घर के मृत्तिकाभांड तक बिक गए हों. . .कुटुंब कंगाल हो गया हो. . .पिता दृग्विहीन हों और बहिन रुग्ण. . .तो कोई भी व्यक्ति अनायास मिलने वाले धन के प्रति लोभ सँवरण करे भी तो कैसे?. . .सेना में वृत्ति नहीं मिली- अवयस्क हूँ. . .भिक्षा नहीं मिली- क्षत्रिय हूँ! हुँह. . .भूख की कोई आचारसंहिता नहीं होती, महाराज!

(थोड़ा थमकर, राजगुरु को दृष्टि में लेते हुए)

भूखे व्यक्ति को कर्तव्य-अकर्तव्य की सुध कहाँ?. . .जानना चाहता हूँ कि प्राणहर्ता वह कैसे हो सकता है जो प्राणों की रक्षा न कर सके?. . .जो हमारी पीड़ाओं को नहीं समझता वह हमारा भगवान कैसे हो सकता है, राजगुरु?

(सत्यकेतु किंकर्तव्यविमूढ़ की भाँति राजगुरु को ओर निहारते हैं।)

राजगुरु :- सत्यकेतु, राजा का कर्तव्य प्रजा के हित की रक्षा करना है। नियमों के विनियमन एवं पालन की व्यवस्था इस कर्तव्य को ध्यान में रखकर ही की जानी चाहिए। स्मरण रहे कि संवेदनशीलता न्याय की पहली अनिवार्यता है। . . .व्यक्ति व्यवस्था का साधन भी है और प्रयोजन भी।. . .व्यक्ति के अभाव में न तो समाज की कल्पना की जा सकती है और न ही राज्य की। इसलिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम व्यक्ति के अस्तित्व से जुड़े हुए प्रश्नों को हल किया जाए। उन्हें नकार कर आगे बढ़ जाना संभव नहीं। बालक ने उचित ही कहा है. . .व्यवस्था की सार्थकता तभी है जब वह व्यक्ति के अस्तित्व की रक्षा करने में समर्थ हो। स्वयं के कर्तव्य की अवहेलना कर दूसरों से कर्तव्यपालन की अपेक्षा करना बुद्धिमानी नहीं। बालक को मुक्त ही नहीं किया जाना चाहिए, अपितु, इसके परिवार को पर्याप्त भरण-पोषण भी राज्य द्वारा प्रदत्त किया जाना चाहिए।
सत्यकेतु :- (खड़े होकर)
आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, राजगुरु!
राजगुरु :- (आशीर्वाद की मुद्रा में)
कल्याण हो!
सत्यकेतु :- दंडादेश वापस लिया जाता है। बालक को मुक्त कर दिया जाए।
नगर-रक्षक :- जो आज्ञा महाराज!

(बालक को मुक्त कर दिया जाता है।)

(नटी का स्वर)
विश्व क्षितिज पर आर्य संस्कृति की किरनें फूटीं अभिराम।
वेद-ऋचाओं के सुमधुर गायन से गुंजित हुआ विहान।।

वैभव, यश सविनय करते थे, चरणों में झुक दंड-प्रणाम।
अखिल विश्व में मिला सहज ही हमें जगद्गुरु-सा सम्मान।।

सुनो!, किसी दिन यहीं कहीं पर किलका करते थे भगवान।
सोन-चिरैया कभी कहा जाता था. . .भारतवर्ष महान!।।

सूत्रधार :- भारतवर्ष को देवभूमि कहा जाता है. . .संभवत: इसीलिए, नटी!
नटी :- और सोन-चिरैया भी,. . .आर्य!
सूत्रधार :- (मुस्कुराते हुए)
सत्य कह रही हो, नटी! आर्यावर्त सोने की चिड़िया के रूप में विश्व-विख़्यात रहा है। किंतु,. . .इसके पीछे था हमारा वह गहन तत्वबोध जो शुद्ध-प्रज्ञा की अजस्र रस-धारा में स्नात, वेदों, आरण्यकों, उपनिषदों एवं सूत्रों के रूप में भारतीय जनमानस में रच-बस गया था। सचमुच अनोखी रही है हमारी जीवन-दृष्टि, नटी!

(सूत्रधार का स्वर)

'ईशावास्यमिदम् सर्वम्' सी दृष्टि. . .हमारी अनुपम थी।
'भुंजीथा त्यक्तेन' नीति थी, यदपि न वस्तु कोई कम थी।
'सत्यमेव जयते' की वाणी जन-गण-मन का अभिमत थी।
जीवनदृष्टि मुमुक्षु-चेतनायुक्त. . .सत्य की अनुगत थी।
सदाचार, यश, धर्म और ऐश्वर्ययुक्त जन-जीवन में,
रागद्वेषविहीन 'प्राणिनामार्तनाशम्' . . .का था ध्यान।

(सूत्रधार-नटी का सम्मिलित स्वर)

सुनो!, किसी दिन यहीं कहीं पर किलका करते थे भगवान।
सोन-चिरैया कभी कहा जाता था. . .भारतवर्ष महान!।।

सत्यकेतु :- बालक के परिवार राजकोष से इसके वयस्क होने तक भरण-पोषण लिए पर्याप्त धन प्रदान किया जाए, महामात्य!. . .इसके अतिरिक्त राज्य के प्रत्येक नागरिक को दिन में दो बार संतुलित आहार अवश्य मिल सके, इस संबंध में तत्काल प्रावधान किया जाए जिससे कि भविष्य में किसी भी व्यक्ति को भूखे ही सो जाने पर विवश न होना पड़े।
महामात्य :- जो आज्ञा महाराज!
कंदर्प :- कृतार्थ हुआ, राजन!
सत्यकेतु :- सभा विसर्जित हो।

(राजा सत्यकेतु रानी के साथ नेपथ्य में चले जाते हैं। सभा विसर्जित होती है।)

(पटाक्षेप)

तीसरा दृश्य

{राज-ज्योतिषी का प्रासाद। नगर-श्रेष्ठि के साथ वार्ता चल रही है। शिष्य वररुचि समीप ही कुशासन पर बैठा हुआ आचार्य की अमृत-वाणी का रसपान कर रहा है।}
राज-ज्योतिषी :- 'ग्रहाधीना: जगत् सर्वम् मंत्राधीना: च ग्रहा:। ते मंत्रा: ब्राह्मणाधीना: तस्मात् ब्राह्मण देवता।।. . .तात्पर्य यह है, नगर-श्रेष्ठि!. . .कि यह जगत जो भासमान है, वह ग्रहों की पारस्परिक गतियों के अधीन है।. . .और जो यह ग्रह हैं वह स्वयं मंत्रों के अधीन हैं. . .दूसरे शब्दों में, ग्रहों के शुभाशुभ फलों को परिवर्तित करने की क्षमता मंत्रों में है। . . .पुनश्च, मंत्रादि ब्राह्मणों के अधीन हैं. . .एतदर्थ ब्राह्मण देवता है। भावार्थ यह है कि इस भूतल पर वांछित फलों का प्रदाता वह मंत्रद्रष्टा ब्राह्मण है जो ग्रहों की पारस्परिक गतियों से निरपेक्ष रहकर 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' की भावना के साथ 'सर्व भूतानां प्रिय' होता है।
नगर-श्रेष्ठि :- राज-ज्योतिषी जी, यदि आपकी दृष्टि में ब्रह्मोपासना ही फलदायी है जो यज्ञादि कर्मों का क्या महत्व है?


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