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                           ओबामा 
                          प्रशासन की पड़ताल करते हुए वाशिंगटन से
                          डॉ. 
                          वेद प्रताप वैदिक का आलेख- 
                          ओबामा के 
                          अमेरिका का आँखों देखा हाल 
 पिछले 
                          दो साल में मेरी यह चौथी अमेरिका यात्रा है। इस यात्रा 
                          में अमेरिका का जो हाल देख रहा हूँ, उसे देखकर दुख होता 
                          है। मुझे लगता था कि बराक ओबामा के राष्ट्रपति बन जाने 
                          पर अमेरिका के दिन फिरेंगे। बुश की गल्तियाँ सुधारी 
                          जाएँगी, आम आदमी की जिंदगी बेहतर हो जाएगी, एराक और 
                          अफगानिस्तान से अमेरिका को निकल भागने का रास्ता मिल 
                          जाएगा और लुढ़कता हुआ डॉलर जल्दी ही किसी मुकाम पर जाकर 
                          टिक जाएगा लेकिन डॉलर तो डॉलर पिछले ११ माह में खुद 
                          ओबामा ही लुढ़कने लगे हैं।  
                          अमेरिका तो लोकमत-संग्रह का देश है। बात-बात में यहाँ 
                          लोगों की राय जानने की कोशिश की जाती है। ओबामा के १० 
                          माह के शासन-काल पर जब जनता की राय मांगी गई तो मालूम 
                          पड़ा कि उनका स्वीकृति सूचकांक ७० से फिसलकर ४० पर आ गया 
                          है। उनके समर्थक भी उनकी मज़ाक उड़ाने लगे हैं। आज एक 
                          विश्व सम्मेलन में जब ओबामा के एक अफसर ने कहा कि हमारी 
                          सरकार अभी अपने प्रारंभिक दौर में है तो एक विद्वान ने 
                          खड़े होकर पूछा कि यह प्रारंभिक दौर कब तक चलेगा? सरकार 
                          का एक-चौथाई काल तो बिना कुछ किए-धरे बीत गया है। क्या 
                          शेष तीन साल भी वह इसी तरह बिता देगी?
 यदि सत्तारूढ़ होने के बाद ओबामा ने फुर्ती से काम किया 
                          होता और फटाफट निर्णय लिये होते तो वे न्यू जेरेसी और 
                          वर्जीनिया में क्यों हारते? गवर्नरों के इन उप-चुनावों 
                          में वे स्वयं आठ बार अभियान पर गए लेकिन उनकी 
                          डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार हार गए। इन उम्मीदवारों 
                          की हार-जीत के कारण स्थानीय होते ही हैं लेकिन रायशुमारी 
                          करनेवालों का कहना है कि ओबामा भी एक कारण थे। ओबामा ने 
                          आर्थिक सुधार के लिए ७८७ बिलियन डॉलर की सहायता की जो 
                          योजना बनाई थी, वह बेअसर साबित हो रही है। अमेरिका की 
                          बड़ी-बड़ी कंपनियाँ यह मोटी राशि डकार गई हैं लेकिन वे अभी 
                          तक अपने पाँव पर खड़ी नहीं हो सकी हैं। बेरोजगारी घटने की 
                          बजाय लगातार बढ़ती चली जा रही है। इस समय बेकारी की दर 
                          १०.२ प्रतिशत हो गई है याने हर दसवाँ अमेरिकी बेरोज़गार 
                          हो गया है। अमेरिका में बेरोज़गार होने से बड़ा कोई अभिशाप 
                          नहीं है। यहाँ हर चीज़ किस्तों पर खरीदी जाती है। यदि आप 
                          बेरोजगार हैं तो किस्तें कैसे चुकाएँगे? याने आपको अपना 
                          घर खाली करना पड़ेगा, कार वापस करनी होगी और खाने-पीने के 
                          लिए भी तरसना होगा। कुछ अमेरिकी मित्रों ने मुझे बताया 
                          कि उन्होंने अपने घर खाली किए तो वे अपनी कारों में ही 
                          सोते रहे। बेरोजगार परिवारों के लोग चर्च या सदाव्रतों 
                          द्वारा लगाए गए मुफ्त खाने के पंडालों में पहुँचने के 
                          लिए मजबूर हो गए हैं। कुछ लोग एक-एक करके अपने दोस्तों 
                          और रिश्तेदारों के घर रहे हैं।
 पिछले 
                          एक साल में लगभग ५० लाख लोगों ने अपना बेरोजगारी भत्ता 
                          पूरा कर लिया है। अब उन्हें नई या पुरानी नौकरियाँ लेते 
                          समय लगभग आधी तनखा पर काम करना होता है। अमेरिका के 
                          वेतनभोगी लोग अपनी सारी आमदनी खर्च करने के आदी होते 
                          हैं। उनके पास बचत कुछ भी नहीं होती बल्कि हर व्यक्ति 
                          कर्ज़दार ही होता है। ऐसी हालत में आधी तनखा पर गुजारा 
                          करना आधा जीवन जीने के बराबर हो जाता है। व्यापारिक 
                          संस्थानों की बात जाने दीजिए, अमेरिका की २५० बड़ी कानून 
                          कंपनियों ने ५००० से भी ज्यादा वकीलों को हटा दिया है। 
                          जो काम कर रहे हैं, उनकी तनखा भी घटा दी गई है। यों तो 
                          अमेरिकी विश्वविद्यालयों पर मंदी का ज्यादा असर नहीं पड़ा 
                          है लेकिन कई प्रोफेसरों को वेतन-कटौती बर्दाश्त करनी पड़ 
                          रही है। छोटे-मोटे कई अखबार बंद हो रहे हैं और टी.वी. 
                          चैनलों के प्रसिद्ध एंकरों की आय भी घटाई जा रही है। 
                          लोगों की आय कम हो जाए और ऊपर से मँहगाई की मार पड़े तो 
                          हाल क्या होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है।  
                          अमेरिका-जैसे मालदार देशों में प्राय: मंहगाई डेढ़-दो 
                          प्रतिशत ही बढ़ती है लेकिन पिछले साल वह ३.८ प्रतिशत तक 
                          पहुँच गई थी और इस साल आषंका है कि वह चार प्रतिशत का 
                          आंकड़ा लांघ जाएगी। यों तो अमेरिका में खाने-पीने की 
                          चीज़ें सस्ती होती हैं लेकिन इस बार उन्हें खरीदते समय 
                          कीमतों पर ज्यादा ध्यान अपने आप जाने लगा है। 
                          विस्कोन्सिन एवेन्यू पर नेशनल केथिड्रल के सामने जिस 
                          फ्लेट में मैं अपनी बेटी के साथ रूका हुआ हूँ, वहाँ अनेक 
                          फ्लेट खाली पड़े हुए हैं। किरायेदार नहीं मिल रहे हैं। 
                          लोग अब सस्ते किरायेवाले फ्लैट ढूंढ रहे हैं। मकानों की 
                          क़ीमतों में जर्बदस्त गिरावट हुई है। जिन्होंने अपनी 
                          आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से दो-दो मकान खरीद लिये थे, 
                          वे अब झींक रहे हैं। उन्हें किरायेदार नहीं मिल रहे हैं 
                          और क़िस्तें बोझ बन गई हैं। मकानों को खरीदनेवाले नहीं 
                          मिल रहे है और अगर मिलते हैं तो वे उन्हें मिट्टी के भाव 
                          खरीदना चाहते हैं। लगभग १५ लाख मकान खाली हो गए हैं और 
                          ८५ लाख मकान ऐसे हैं, जिनकी मूल कीमत के मुकाबले आज की 
                          क़ीमत बहुत कम रह गई है। ओबामा 
                          सरकार की आर्थिक नीतियों में फुगावा तो काफी है लेकिन 
                          उनके परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। वे बन गई हैं, पेड़ 
                          खजूर, जिसके फल लागे अति दूर! अफगानिस्तान या एराक़ में 
                          अगर ओबामा कुछ चमत्कार कर दिखाते तो लोगों को ध्यान बंट 
                          जाता। उनकी छवि कुछ चमक जाती। लेकिन अभी तक ओबामा यही तय 
                          नहीं कर पा रहे हैं कि अफगानिस्तान में सैनिक भेंजे या 
                          नहीं और भेजें तो क्यों भेजें, कितने भेजें? उनके विषेश 
                          दूत रिचर्ड होलब्रुक की गाड़ी बिल्कुल ठप्प हो गई है। 
                          अफगानिस्तान में हर माह १० बिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च 
                          हो रहा है। गरीबी में आटा गीला! जितने अमेरिकी जवान इस 
                          साल मारे गए हैं, पहले कभी नहीं मारे गए। फोर्टहुड के 
                          सैन्य मुख्यालय में मारे गए १३ अमेरिकियों के बलिदान ने 
                          सारे अमेरिका का दिल दहला दिया है। मेजर निदाल मलिक हसन 
                          ने कहा है कि उसने हत्याकांड इसलिए किया है कि फौज के 
                          अमेरिकी मुसलमानों को मजबूर किया जाता है कि वे मुस्लिम 
                          देषों में जाकर अपने मुसलमान भाइयों को मारें। उधर अफगान 
                          राष्ट्रपति हामिद करज़ई खुले-आम कह रहे हैं कि अमेरिका 
                          अफगानिस्तान में अफगानिस्तान के भले के लिए नहीं आया है, 
                          वह सिर्फ अल-क़ायदा से लड़ने के लिए आया है। अब ओबामा क्या 
                          करे? 
                          २३ नवंबर 
                          २००९ |