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                   1 एक स्मृति-यात्रा महोबा होकर खजुराहो की
 - कुमार रवींद्र
 
 
                   
                    
					ग्रीष्मावकाश, ईस्वी सन् १९८०
 `बारह बरस लौं कूकुर जीवे,
 सोलह बरस लौं जिये सियार
 अठारह बरस लौं छत्री जीवे,
 आगे जीवन को धिक्कार ।`
 
 डिंगल काव्य का यह बहुश्रुत दोहा मेरी साँसों में ऊभ-चूभ कर 
					रहा है कानपुर से महोबा जाती बस के शोर के साथ-साथ।धुर बचपन 
					में सुनी लोककाव्य आल्हा की अनूठी स्वर-लहरियाँ भी 
					गूँज-अनुगूँज बन कर साँसों में व्याप रहीं हैं। महोबा 
					जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा है, `आल्ह-खंड' के नायक-द्वय आल्हा और 
					ऊदल के शौर्य के प्रसंग भी जैसे साकार होते जा रहे हैं। 
					बुंदेलखंड की भूमि अप्रतिम शौर्य की भूमि रही है। उसमें भी 
					झाँसी और महोबा का अपना अलग ही स्थान है।
 
 उत्सुक-उत्कंठित हूँ मैं। बस की खिड़की से मैं देख रहा हूँ 
					धरती की उन अनगढ़ ऊँची-नीची होतीं आदिम आकृतियों को, जिनमें 
					पग-पग पर बिछी हैं अनन्त शौर्यगाथाओं की अनगिनत स्मृतियाँ। 
					भारत के सामूहिक अवचेतन का जो हिस्सा मुझे मिला है, उनमें ये 
					कथाएँ भी समोई हुई हैं।
 
 महोबा 
					आए हुए तीन दिन हो चुके हैं। भारत में मुस्लिम शासन के तुरन्त 
					पूर्व के इतिहास के एक खंडावशेष को अवलोकने, उसके खंडहर हो 
					चुके अस्तित्व को परखने का जो मौका मुझे मिला है, उससे मैं 
					अभिभूत और असंतुष्ट, दोनों हूँ। राजपूत इतिहास की ढलती हुई 
					प्रभा का साक्षी रहा है यह नगर भी। `पृथ्वीराजरासो' के महानायक 
					पृथ्वीराज चौहान की राज्य-लिप्सा एवं उसके शौर्य का, उससे उपजे 
					जन-संहार का भी। दिल्ली के रायपिथौरा के खंडहरों से मैं उस 
					उत्कट राजपूत महानायक की शौर्य-गाथा सुन चुका था। आल्हा-ऊदल की 
					इस वीरभूमि ने उसके महानायकत्व को चुनौती दी थी। महोबा का किला 
					तो साधारण-सा ही, किंतु उसे विशिष्टता प्रदान कर रहीं थीं मेरी 
					कल्पना में उभरतीं कृपाण एवं कंकण-किंकिण की मिली-जुली 
					ध्वनियाँ और शौर्य तथा सौन्दर्य की जीवंत होतीं आकृतियाँ। कभी 
					आल्हा-ऊदल इसी भूमि पर विचरे होंगे। इन्हीं छोटी-छोटी बीहड़ 
					पहाड़ियों में उनके घोड़ों की टापों की, उनकी युद्धोन्मुख 
					ललकारों की, उनके शस्त्रों-शिरस्त्राणों-कवचों की झंकारों की 
					गूँज भरी होगी। आज सब कुछ शांत है। मन विचरण कर रहा है और मैं 
					उदास हो गया हूँ मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं के बारे में सोचकर। 
					हमारा यह जो आज है, यह भी तो कभी अतीत हो जाएगा इसी तरह।
 
 महोबा एक छोटा-सा शहर है। मेरे पैतृक-स्थान लखनऊ के मुकाबले 
					में बहुत ही छोटा। छोटा-सा ही है हाट-बाज़ार, जिसका प्रमुख 
					आकर्षण है पान की मंडी। हाँ, महोबा आज पान के उत्पादन का एक 
					महत्वपूर्ण केन्द्र है।पान का एक खेत मैं भी देख आया हूँ छोटे 
					भाई महेन्द्र के साथ। महेन्द्र यहाँ पी०डब्ल्यू०डी० में 
					इंजीनियर है। उसी के पास हम आये हैं, हम यानी मैं, पत्नी सरला 
					और हमारे दोनों बच्चे, अपर्णा और राहुल। महेन्द्र की पत्नी 
					मिलनसार, हंसमुख और स्नेहिल है, एक कुशल गृहिणी भी। उनके दो 
					छोटी-छोटी प्यारी-सी बेटियाँ हैं- हमारे लिए यहाँ आने का एक 
					विशेष आकर्षण। ग्रीष्मावकाश में हम सुदूर हरियाणा के हिसार शहर 
					से पितृगृह लखनऊ हर वर्ष आते हैं। महेन्द्र और उसका परिवार 
					अबकी बार हमसे मिलने वहाँ नहीं आ सके। इसीलिए हम आ गये। साल भर 
					में एक बार अपने सभी आत्मीयों-प्रियजनों से मिलकर उनके स्नेह 
					की ऊर्जा संजोने का यह सुयोग ही हमें अगले ग्रीष्मावकाश तक 
					सक्रिय रखता है।
 
 
  पिछले तीन दिनों में मैंने पूरा महोबा छान मारा है। बाज़ार तो 
					सिर्फ एक दिन सभी के साथ गया था। पान की मंडी देखकर मैं चकित 
					रह गया। पूरा एक महाहाट। हाँ, यहाँ का पान पूरे उत्तर भारत में 
					जाता है। नवीं शताब्दी के चंदेल राजा राहिला द्वारा निर्मित 
					सूर्यमंदिर अनूठा लगा। भारतभूमि पर कुछ गिने-चुने ही मंदिर हैं 
					सूर्य के। सूर्य को एकमात्र जाग्रत देवता कहा गया है शास्त्रों 
					में। इसीलिए संभवत: उनके प्रतिमा-विग्रह के पूजन का चलन कम ही 
					रहा है। महोबा नगर की जल-आपू़र्ति हेतु जिन कीरत सागर, विजय 
					सागर, मदन सागर नाम के तीन महातालों का निर्माण चंदेल-प्रतिहार 
					राजाओं ने करवाया था, उन्हें भी देख आये हैं हम। जल-संरक्षण 
					एवं जल-आपूर्ति की यह व्यवस्था अपने समय में यानी 
					ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में सचमुच अनूठी-अद्भुत रही होगी। हमारे 
					धर्मग्रन्थों में ताल-कुएँ-बावड़ी बनवाने को एक महापुण्य माना 
					गया है। अंग्रेजी शासन में और उसके बाद इन पारंपरिक जल-संरक्षण 
					प्रविधियों के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। इसी 
					से पानी की भयंकर समस्या आज पैदा हो रही है। महोबा की गोरख 
					पहाड़ी भी ऐतिहासिक है। कहते हैं नाथपंथ के बाबा गोरखनाथ ने 
					यहाँ कुछ काल तक वास किया था और यह एक सिद्धभूमि है। आज भी 
					यहाँ गुरू गोरखनाथ के अनुयाइयों का हर वर्ष जमावड़ा होता है। 
 सुबह घूमने जाने की मेरी आदत है। यहाँ भी सुबह तड़के ही निकल 
					जाता हूँ मैं आसपास की पहाड़ियों पर चढ़ने-उतरने। धरती की 
					उतार-चढ़ाव वाली ऊबड़-खाबड़ संरचना मुझे सदैव ही लुभाती रही 
					है। महोबा के पहाड़ काफी टूटे-फूटे हैं। चढ़ते-उतरते तमाम 
					छोटे-छोटे पत्थर बिखरे दीखते हैं। एक दिन एक अज़ीब बात हुई। 
					मेरे दोनों बच्चे, महेन्द्र की बड़ी बेटी शालू भी साथ थे। 
					अचानक मेरी नज़र एक पत्थर पर पड़ी। छोटा-सा बेडौल तिकोना 
					पत्थर। उसके उभरे-हुए तल पर मुझे एक आकृति दिख गई थी। बच्चों 
					को मैंने वह पत्थर दिखाया। उन्हें उसमें कुछ भी नहीं दिखा। घर 
					पर सरला, महेन्द्र और पुष्पा को भी उसमें कुछ नहीं दिखा। मैंने 
					शालू के कलर-बॉक्स से काला रंग लेकर उसमें छिपी आकृति को उभार 
					दिया। अब सभी को वह दिखने लगी। बाद में मैंने उसे शीर्षक दिया- 
					`कंकाल का वीणा-वादन'। हाँ, महोबा के कंकाल हुए इतिहास का 
					अनन्त वीणा-वादन उसमें अंकित था। हर अतीत की गूँज ऐसी ही तो 
					होती है। सुरीली किंतु मृत्यु की झंकृति से भरी हुई। वह पत्थर 
					आज भी मेरे ड्राइंग रूम में टंगा इतिहास की उस यात्रा की सुखद 
					स्मृतियों से मुझे जोड़ता रहता है। जीवन की जिज्ञासा और मृत्यु 
					के अतीन्द्रिय रहस्य से भी।
 
 महोबा से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है चरखारी, जिसे 
					`बुदेलखंड का कश्मीर' कहा जाता है। यह एक खूबसूरत रियासत नगर 
					है। इसे बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मदनशाह और वंशियाशाह 
					नामके दो भाईयों को उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर जागीर के रूप 
					में दिया था। इसका प्राचीन नाम मांडवपुरी था। कहते हैं मांडव 
					ऋषि का आश्रम यहीं पर था। इसे मिनी-वृंदावन की मान्यता भी 
					प्राप्त है।यहाँ भगवान कृष्ण के कई मंदिर हैं, जिनमें गुमान 
					बिहारी मंदिर और गोवर्धन मंदिर की विशेष ख्याति है। कार्तिक 
					मास में यहाँ गोवर्धन मेला का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के 
					क्षेत्र से बड़ी संख्या में भक्तजन एकत्रित होते हैं। यहाँ का 
					कालीमाता का मंदिर भी दर्शनीय है। चरखारी एक रमणीय स्थान है। 
					रतन सागर, कोठी ताल और टोला ताल के साथ लगभग ६०३ फीट की ऊँचाई 
					वाले इस स्थान की शोभा देखते ही बनती है। मुलिया पहाड़ी पर 
					स्थित चरखारी का किला, जिसे मंगलगढ़ कहा जाता है, लगभग ढाई सौ 
					वर्ष पूर्व बनवाया गया था। काफी ऊँचा है यह किला। इसमें प्रवेश 
					करते ही मुझे रोमांच हो आया। इतिहास और काल के व्यतीत का आतंक 
					मेरे मन-प्राण पर छा गया। हम कल तीसरे पहर यहाँ के 
					पी०डब्ल्यू०डी० के रेस्टहाउस में आ गए थे। आज पूरा दिन चरखारी 
					में बिताकर भी मन की संतुष्टि नहीं हो पाई। पर लौटना तो था ही। 
					कल सोमवार है और महेन्द्र को ऑफिस जाना है।
 
 
  महोबा उत्तर प्रदेश के दक्षिण सीमांत पर स्थित है। उसके ठीक 
					दक्षिण में उससे बिल्कुल सटा हुआ है मध्य प्रदेश का छतरपुर। 
					छतरपुर जिले में ही स्थित हैं विश्वविख्यात खजुराहो के मंदिर। 
					महोबा से केवल चव्वन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है कामतीर्थ 
					खजुराहो। मनुष्य के रतिभाव का यहाँ जिस रूप में उदात्तीकरण 
					किया गया है, वह भारतीय मनीषा के धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के 
					पुरूषार्थ चतुष्टय को ही परिभाषित-व्याख्यायित करता है। बाहर 
					की दीवारों पर मनुष्य की वासना का अंकन और भीतर देवालय में 
					मनुष्य की दैवी आस्था का आस्तिक रूपायन- यही तो है इस कामतीर्थ 
					का विरोधाभासपरक दार्शनिक रूपक। मनुष्य की देह और उसकी आत्मा 
					का रूपक भी तो यही है। मैं खजुराहो के कंदारिया महादेव मंदिर 
					के परिसर में खड़ा अपने मन के इसी विरोधाभास से जूझ रहा हूँ। 
					देह की वासनाएँ मुझे परिसीमित करती हैं। वहीं भीतर निरन्तर 
					जाग्रत देवभाव मुझे अनन्त-असीम भी बनाता है। हाँ, मै भी तो हूँ 
					देह-प्राण से एक ऐसा ही कामतीर्थ। 
 मंदिर का एक शिलालेख बताता है कि कलियुग के सत्ताइस सौ वर्ष 
					बीतते-बीतते सीमांत प्रदेश पर म्लेच्छों के बार-बार आक्रमण के 
					कारण राजपूतों की बड़गुज्जर शाखा पूर्व की ओर पलायन कर गई और 
					मध्यभारत में उन्होंने अपने राज्य स्थापित किए। वर्तमान 
					राजस्थान के धुन्धार क्षेत्र से लेकर आज के बुंदेलखंड तक उनके 
					राज्य का विस्तार था। वे महापराक्रमी शासक महादेव शिव के उपासक 
					थे। उन्हीं शासकों द्वारा नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच 
					खजुराहो के मंदिरों का निर्माण कराया गया। कहते हैं कि मूल 
					स्वरूप में हिन्दू एवं जैन मतावलंबियों द्वारा निर्माण कराए गए 
					मंदिरों की कुल संख्या पच्चासी थी, जिन्हें आठ द्वारों का एक 
					विशाल परकोटा घेरता था और उसके हर द्वार पर दो-दो सुनहरे खजूर 
					वृक्ष लगे हुए थे। आज न तो वह परकोटा है और न ही उतनी संख्या 
					में मंदिर ही। मुस्लिम आक्रमणकारियों की धर्मान्धता का शिकार 
					हुआ यह विशाल मंदिर-परिसर भी। अधिकांश मंदिर विनष्ट हो गए। आज 
					जो बीस-पच्चीस मंदिर लगभग बीस वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में 
					बिखरे पड़े हैंं, उनमें से कुछ ही संपूर्ण हैं।
 
 मंदिर तीन भौगोलिक इकाइयों में बंटे हैं- पश्चिम,पूर्व और 
					दक्षिण। ये मंदिर अधिकांशत: बलुहा पत्थर के बने हैं। खजुराहो 
					के मंदिरों को आम तौर पर कामसूत्र मंदिरों की संज्ञा दी जाती 
					है, किंतु वस्तुत: केवल दस प्रतिशत शिल्पाकृतियाँ ही 
					रतिक्रीड़ा से संबंधित हैं। न ही वात्स्यायन के `कामसूत्र `में 
					वर्णित आसनों अथवा वात्स्यायन की काम-संबंधी मान्यताओं और उनके 
					कामदर्शन से इनका कोई संबंध है।
 
 हाँ, खजुराहो का प्रमुख एवं सबसे आकर्षक मंदिर है कंदारिया 
					महादेव मंदिर। आकार में तो यह सबसे विशाल है ही, स्थापत्य एवं 
					शिल्प की दृष्टि से भी सबसे भव्य है। समृद्ध हिन्दू 
					निर्माण-कला एवं बारीक शिल्पकारी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत 
					करता है यह भव्य मंदिर। बाहरी दीवारों की सतह का एक-एक इंच 
					हिस्सा शिल्पाकृतियों से ढंका पड़ा है। सुचित्रित तोरण-द्वार 
					पर नाना प्रकार के देवी-देवताओं, संगीत-वादकों, आलिंगन-बद्ध 
					युग्म आकृतियों, युद्ध एवं नृत्य, सृजन-संरक्षण-संहार, 
					सद्-असद्, राग-विराग की विविध मुद्राओं का विशद अंकन हुआ है। 
					उपासना-कक्ष के मंडपों की सुंदर चित्रमयता मन मोह लेती है। 
					सुरबालाओं की कमनीय देह-वल्लरी की हर भंगिमा का मनोरम अंकन हुआ 
					है इस भव्य शिवालय में। उनके अंगांे-प्रत्यंगों पर सजे एक-एक 
					आभूषण की स्पष्ट आकृति शिल्पकला के कौशल को दर्शाती है। मुख्य 
					वेदी के प्रवेश-द्वार पर पवित्र नदी-देवियों गंगा और यमुना की 
					शिल्पाकृतियाँ मंत्रमुग्ध कर देती हैं। गर्भगृह में 
					संगमरमर का 
					शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह की परिक्रमा-भित्तियों को भी 
					मनोरम शिल्पाकृतियों से सजाया गया है। नीचे की पंक्ति में आठों 
					दिशाओं के संरक्षक देवताओं का अंकन किया गया है। मंदिर की 
					बाहरी दीवारों पर चारों दिशाओं में देवी-देवताओं, देवदूतों, 
					यक्ष-गंधर्वों, अप्सराओं, किन्नरों आदि का तीन वलय वाले 
					आवरण-पटकों के रूप में चित्रण किया गया है। वस्तुत: यह मंदिर 
					हिन्दू शिल्पकला का एक पूरा संग्रहालय है। प्रसिद्ध अंग्रेजी 
					लेखक ऑल्डस हक्सले ने ताज़महल को शिल्प की दृष्टि से बंजर कहा 
					है। शिल्प-समृद्धि की दृष्टि से उसने राजस्थान के मंदिरों का 
					विशेष उल्लेख किया है। उसने खजुराहो की इस महान कलाकृति को 
					नहीं देखा होगा, वरना निश्चित ही वह इसका भी ज़िक्र करता। इस 
					मंदिर को देखते हुए मैं बार-बार अभिभूत होता रहा, आत्मस्थ होता 
					रहा। सरला भी मंत्रमुग्ध निहार रहीं थीं इस शिल्प-समृद्धि को।
 
 
  विशालता और शिल्प-वैभव की दृष्टि से दूसरा उल्लेखनीय मंदिर है 
					लक्ष्मण मंदिर। इसे रामचन्द्र मंदिर या चतुर्भुज मंदिर के नाम 
					से भी जाना जाता है। इसके चारों कोनों पर बने उपमंदिर आज भी 
					सुरक्षित हैं। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण इसका सुसज्जित 
					प्रवेश-द्वार है। द्वार के शीर्ष पर भगवती महालक्ष्मी की 
					प्रतिमा है। उसके बाएँ स्तम्भ पर प्रजापति ब्रह्मा एवं दाहिने 
					पक्ष पर शिव के संहारक स्वरूप की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में 
					चतुर्भुज और त्रिमुखी सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु की 
					लगभग चार फुट ऊँची प्रतिमा अलंकृत तोरण के मध्य स्थापित है। 
					मूर्ति का बीच का मुख तो मानुषी है, किन्तु पार्श्ववर्ती शीश 
					नृसिंह और वाराह अवतारों के हैं। मंदिर के भीतरी और बाहरी 
					भित्तियों पर दशावतारों, अप्सराओं, योद्धाओं आदि की आकृतियों 
					के साथ-साथ प्रेमालाप, आखेट, नृत्य, मल्लयुद्ध एवं अन्य 
					क्रीड़ाओं का सुन्दर अंकन किया गया है। मंडप में एक शिलालेख 
					है, जिसके अनुसार मंदिर का निर्माण नृप यशोवर्मन ने करवाया था। 
					इसमें स्थापित भगवान विष्णु की प्रतिमा उसे कन्नौज के राजा 
					महिपाल से प्राप्त हुई थी। यशोवर्मन का एक नाम लक्षवर्मन भी 
					था। इसी से इस मंदिर का नाम लक्ष्मण मंदिर पड़ा। 
 तीसरा उल्लेखनीय हिन्दू मंदिर है चित्रगुप्त मंदिर। यह मंदिर 
					बाहर से चौकोर, किन्तु अंदर से अष्टकोण है और उस अष्टकोण को भी 
					क्रमश: घटते हुए गोलाकारों का आकार दिया गया है- अष्टदल कमल के 
					समान। इसमें सात घोडों के रथ पर आसीन पांच फीट ऊँची सूर्यदेव 
					की भव्य प्रतिमा स्थापित है। वेदी की दक्षिण दिशा में एक ताखे 
					में स्थापित है भगवान विष्णु की एक अनूठी मूर्ति-ग्यारहमुखी इस 
					विग्रह का बीच का मुख भगवान विष्णु का स्वयं का है और शेष मुख 
					उनके दशावतारों के हैं।यह मूर्ति वास्तुशिल्प का एक अद्भुत 
					नमूना है। बाहर चबूतरे पर हस्तियुद्धों, उत्सव एवं आखेट 
					दृष्यों का अंकन मन मोह लेता है।
 
 खजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर है चौसठ योगिनी मंदिर। कनिंघम 
					के अनुसार यह ईस्वी सन् आठ सौ से भी पहले का बना हुआ है। कभी 
					पूरे भारत में चौसठ योगिनी मंदिरों की संख्या भी चौसठ थी, 
					किंतु अब केवल चार मंदिर ही बचे हैं, जिनमें से दो हैं उड़ीसा 
					में, एक है जबलपुर में और एक यह खजुराहो में है। स्थापत्य की 
					दृष्टि से यह मंदिर सामान्य हिन्दू मंदिरों से बिल्कुल अलग है। 
					पहली बात तो यह कि इस मंदिर में कोई मंडप या छत नहीं है। 
					संभवत: यह इस कारण है क्योंकि योगनियाँ गगनचारी होती हैं और 
					अपनी इच्छा से कहीं भी उड़कर जा सकती हैं। इसकी दूसरी विशेषता 
					है आम हिन्दू मंदिरों से अलग इसका उत्तरपूर्व से दक्षिण-पश्चिम 
					दिशा की ओर उन्मुख होना। इसकी तीसरी ख़ास बात यह है कि खजुराहो 
					का यह एकमात्र मंदिर है, जो पूरी तरह अनगढ़ गे्रनाइट पत्थरों 
					का बना है और चौथी विशेषता यह कि अन्य मंदिरों से अलग इस 
					मंदिर-परिसर में कोई भी मिथुन शिल्पाकृति नहीं है। मंदिर का 
					अनगढ़ सादा परिवेश अपनी गुह्य रहस्यमयता से आतंकित करता है। 
					ऊँचे चबूतरे पर १०३ फीट लंबे और ६० फीट चौड़े विस्तृत प्रांगण 
					में कभी पूरे पैंसठ कक्ष थे, किंतु अब केवल पैंतीस ही बचे हैं। 
					दक्षिण-पश्चिमी दीवार के मध्य स्थित है मुख्य कक्ष, जिसके 
					पास 
					एक विवर है। उसी से प्रवेश होता है मंदिर के चारों ओर बने 
					गुप्त गलियारों में। उन गलियारों के रहस्यमय वातावरण में 
					प्रवेश करने का हमारा साहस नहीं हुआ। कोठरियों के शिखर 
					कोणस्तूप के आकार के हैं और उनके निचले भाग में त्रिभुजाकार 
					चैत्य-खिड़कियाँ हैं। बीच की बड़ी कोठरी में महिषासुरमर्दिनी 
					की प्रतिमा है और उसके दोनों बगल की कोठरियों में चतुर्भुजा 
					ब्रह्माणी एवं महेश्वरी की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के परिसर से 
					बाहर निकलकर भी कुछ देर तक मंदिर की रहस्यमयता का आतंक मेरे मन 
					पर बना रहा। मेरे मन में तांत्रिक साधना से जुड़े तमाम संदर्भ 
					उभरते रहे। भैरवी या देवी महाकाली की उपासना नवीं से तेरहवीं 
					शताब्दी तक भारत में अपने पूरे उत्कर्ष पर रही। संथाल 
					जनजातियों में आज भी इसके अवशेष वनदेवी की गुह्य 
					उपासना-क्रियाओं में मिलते हैं।
 
                    
					 बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में 
					भगवान बुद्ध की मातुश्री महामाया की उपासना में भी इसी प्रकार 
					की गुह्य पूजाक्रियाओं का समावेश हुआ।मध्यकाल में प्रचारित नाथ 
					पंथ में भी गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ने असम के कामरूप प्रदेश में 
					जाकर इसी प्रकार की कोई साधना की होगी। कौल संप्रदाय के प्रभाव 
					से वाममार्गी अर्थात् योगिनी-डाकिनी-शाकिनी के साथ-साथ 
					पंचमकारों यानी मत्स्य-मद्य-मांस-मुद्रा-मैथुन के माध्यम से 
					सिद्धि प्राप्त करने की कई क्रियाएँ शक्ति-उपासना में शामिल हो 
					गईं। संभवत: यही विकृति इसके पतन का कारण भी बनी। महाकाली या 
					भद्रकाली की उपासना में आज भी एक गुह्य रहस्यमयता का पुट 
					विद्यमान है। भारत से इतर देशों में भी मातृशक्ति की पूजा की 
					गुह्य क्रियाओं का चलन रहा है। प्राचीन मिस्र में मुख्य देवी 
					आइसिस की पूजा में कुछ तांत्रिक साधना जैसी क्रियाएँ की जातीं 
					थीं। प्राचीन यूनान की मातृदेवी हेरा की उपासना भी गुह्य रूप 
					में ही की जाती थी। उसी का प्रवेश आरम्भिक ईसाई धर्म में भी 
					हुआ। उसमें एक अलग पंथ बना, जो ईसा और मैरी मैग्डलीन को 
					पति-पत्नी के रूप में पूजता था। किंतु ईसा के प्रमुख शिष्यों 
					के प्रबल विरोध के कारण वह संप्रदाय शीघ्र ही पहले गुप्त हुआ 
					और फिर लुप्त हो गया। उसमें भी कुछ गुह्य क्रियाओं का समावेश 
					था। इन्हीं सब पर विचार करता हुआ मैं अन्य मंदिरों की ओर बढ़ 
					चला। 
 जगदम्बी देवी का मंदिर वर्तमान में कालीमंदिर के रूप में जाना 
					जाता है, पर मूल रूप में यह विष्णु मंदिर रहा होगा, क्योंकि 
					इसके वेदीगृह के द्वार पर विष्णु की मूर्ति खुदी हुई है एवं 
					इसमें जो मूर्ति स्थापित है, वह मकरासन पर विराजमान है, जो यह 
					दर्शाता है कि वह देवी गंगा की मूर्ति है। इसके महामंडप एवं 
					अर्धमंडप की छतें देखने योग्य हैं। बाहरी सजावट कंदारिया मंदिर 
					के समान ही दर्शनीय है। वेदी के दक्षिण में स्थित यमराज की 
					मूर्ति भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से बड़ी ही चित्ताकर्षक है। 
					पश्चिम में अष्टाशिर शिव की प्रतिमा भी ध्यान आकर्षित करती है।
 
 दूल्हादेव या नीलकंठ मंदिर खजुराहो के सर्वोत्तम मंदिरों में 
					गिना जाता है। अन्य मंदिरों के समान इसमें पांच कोष्ठ तो हैं, 
					किन्तु इसमें प्रदक्षिणा-पथ नहीं है। इसकी महामण्डप की छत अन्य 
					मंदिरों की छतों से अलग ढंग से बनी है। एक-दूसरे पर आरोपित 
					प्रस्तर-खंडों के उत्तरोत्तर छोटे होते वृत्तों वाली यह छत, सच 
					मंे, स्थापत्य की दृष्टि से अनूठी एवं अद्भुत है। नारी के 
					अंग-प्रत्यंगों के सौन्दर्य का अंकन इसमें भी अत्यन्त समृद्ध 
					है। इसमें अंकित विद्याधरों के हाव-भाव, उनकी भवों और बरौनियों 
					की भंगिमा अत्यन्त आकर्षक है।
 
 कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंदिर हैं मातंगेश्वर मंदिर, पार्वती 
					मंदिर, विश्वनाथ एवं नन्दी मंदिर, वराह मंदिर तथा जतकारी या 
					चतुर्भुज मंदिर। मातंगेश्वर मंदिर एक अलंकरण-विहीन वर्गाकार 
					मंदिर है, जिसमें पूजा-अर्चना आज भी चलती है। इसमें स्थापित 
					महाकाय स्फटिक शिवलिंग को परम पूजनीय माना जाता है। पार्वती 
					मंदिर में स्थापित गौरी पार्वती की प्रतिमा गोह पर सवार दिखाई 
					गई है। विश्वनाथ मंदिर में प्रजापति ब्रह्मा की एक अत्यन्त 
					भव्य मूर्ति है। उसी चबूतरे पर उसके ठीक सामने शिव-वाहन नन्दी 
					की एक विशाल प्रतिमा है। वराह मंदिर में भगवान वराह की एक भव्य 
					महाकाय प्रतिमा है। जतकारी गांव में स्थित चतुर्भुज मंदिर में 
					भगवान विष्णु की नौ फुट की विशाल मूर्ति के अतिरिक्त भगवान शिव 
					की अर्धनारीश्वर मूर्ति एवं नृसिंह भगवान की शक्ति को रूपायित 
					करती एक नारीसिंही मूर्ति है, जो इस मंदिर को विशिष्ट बनाती 
					है। इनके अतिरिक्त हिन्दू मंदिर-शृंखला में हनुमान मंदिर, वामन 
					मंदिर, ब्रह्मा मंदिर, जवेरी मंदिर और लाल गुआन महादेव मंदिर 
					हैं।
 
 जैन मंदिर समूह में पार्श्वनाथ मंदिर, आदिनाथ मंदिर, शांतिनाथ 
					मंदिर एवं घंटाई मंदिर विशिष्ट हैं।
 
 
  पार्श्वनाथ मंदिर को पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं कलामर्मज्ञों 
					द्वारा खजुराहो के मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ और सुन्दरतम माना 
					गया है। किसी भी मंदिर के स्थापत्य में पांच अंगों को अनिवार्य 
					माना जाता है अर्थात् अर्धमण्डप, महामण्डप,अन्तराल, प्रदक्षिणा 
					एवं गर्भगृह। इस मंदिर के ये सभी अंग समृद्ध एवं सम्पन्न हैं। 
					मंदिर के अंतरंग में प्रकाश की व्यवस्था करने के लिए झरोखों या 
					मोखों के स्थान पर छोटे-छोटे छिद्रोंवाली प्रस्तर-जालियों का 
					निर्माण किया गया है। इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की 
					आराध्य-देवी चक्रेश्वरी की अष्टभुजा प्रतिमा स्थापित है। मंदिर 
					के बाहर और भीतर जो शिल्प उकेरे गए हैं, वे सभी बड़े कलापूर्ण 
					एवं मनोरम हैं। जैन देव-प्रतिमाओं के अतिरिक्त इसमें हिन्दू 
					देवी-देवताओं की मूर्तियों की उपस्थिति उस युग की समन्वयवादी 
					दृष्टि की साक्षी देती है। इसमें विविध रूपों, मुद्राओं एवं 
					क्रियाकलापों में नारी-आकृतियों का विशद अंकन किया गया है। हम 
					अपलक इन कलाकृतियों को निहारते रहे।बार-बार देखकर भी तृप्ति 
					नहीं हो रही थी।़ मन तो यही कर रहा था कि वहीं समाधिस्थ हो 
					जाएँ। 
 आदिनाथ मंदिर में कोई प्रदिक्षणा-पथ नहीं है। इसके बाहरी भाग 
					पर तीन पंक्तियों में मूर्तियाँ अंकित है। ऊपर की पंक्ति में 
					गंधर्व-किन्नर तथा विद्याधरों की आकृतियाँे तथा अन्य दो 
					पंक्तियों में देवों, यक्षों-अप्सराओं एवं विभिन्न 
					मिथुन-मुद्राओं का अंकन किया गया है। बीचवाली पंक्ति में 
					कुलिकाएँ हैं, जिनमें सोलह देवियों की चतुर्भुज ललितासन 
					मूर्तियाँ स्थापित हैं। इन अप्सरा-शिल्पों में अपने शिशु पर 
					ममता से निहारती, उसे दुलराती एक मां की आकृति अत्यन्त 
					स्वाभाविक बन पड़ी है। तोरण-द्वार के सबसे ऊपरी भाग में 
					तीर्थंकर महावीर की मातुश्री के सोलह स्वप्न बड़े ही सुन्दर 
					ढंग से उकेरे गये हैं।
 
 घंटाई मंदिर में उच्च कोटि की शैल्पिक कला देखने को मिलती है। 
					इसके स्तम्भों पर उकेरी घंटियों की बेलनुमा लड़ियाँ एवं 
					वेणियाँ इतनी सुन्दर एवं सजीव हैं कि उन्हें देखते ही रहने का 
					मन करता है। इस मंदिर में भी तीर्थंकर महावीर के गर्भावतरण के 
					समय उनकी माता को दिखाई दिये सोलह स्वप्नों का अंकन किया गया 
					है।
 
 शांतिनाथ मंदिर प्राचीन जैन मंदिरों की खंडित शिल्प-सामग्री को 
					उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पुनर्संयोजित करके बनाया गया 
					था। इसमें भगवान शांतिनाथ की बारह फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा 
					की अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा है। मूर्ति के पृष्ठ पर संवत् १०८५ का 
					एक पंक्ति का लेख तथा हिरण का चिह्न बना हुआ है। मंदिर के आँगन 
					में बायीं दीवार पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सेवक धरणेन्द्र और 
					माता पद्मावती की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। 
					किंवदंती है कि मुगल सम्राट औरंगजेब ने जब इस क्षेत्र की 
					सर्वश्रेष्ठ भगवान शांतिनाथ की मूर्ति को तोड़ने के लिए ज्यों 
					ही मूर्ति की कनिष्ठिका पर टांकी चलाई, उस स्थान से दूध की धार 
					बह निकली और फिर तत्काल ही मधु-मक्खियों ने उसकी सेना पर 
					आक्रमण कर दिया, जिससे घबराकर वह सेना सहित वहाँ से भाग खड़ा 
					हुआ।
 
 शाम होने लगी है और महोबा जाने के लिए आखिरी बस का समय भी होने 
					लगा है। हमने जल्दी-जल्दी खजुराहो की शिल्पाकृतियों की कुछ 
					अनुकृतियाँ बतौर स्मृतिचिह्न खरीद ली हैं और बस में आकर बैठ गए 
					हैं। महोबा है तो केवल चव्वन किलोमीटर, पर यहाँ की बसें धीमी 
					चलती हैं, कुछ सड़कों का भी हाल ठीक नहीं है। आते समय दो घंटे 
					से ऊपर ही लग गए थे।
 
 और इस प्रकार साक्षी हुए हम भारत के इस महान कामतीर्थ के। इसके 
					माध्यम से हमने सभ्यता के आवरण से ढंके-मुँदे अपने आदिम स्वभाव 
					का, उसमें छिपी अपनी आवरण-रहित वासनाओं का सीधा-सच्चा 
					साक्षात्कार किया, उन्हें परखा-जाँचा और समझा; मनुष्य की ऊर्जा 
					के मूल स्रोत को देखा; उस कामवृत्ति को महसूसा, जाना, जो 
					देवत्व की भावभूमि बनाती है और जिससे समस्त मानुषी कलात्मकता 
					का उद्भव होता है। हाँ, यही तो है मानुषी अवचेतना में 
					युगों-युगों का समोया वह कामतीर्थ, जिसके हमने आज दर्शन किए 
					हैं। लौटती यात्रा में मेरे मन में कविवर केदारनाथ अग्रवाल की 
					प्रसिद्ध कविता `खजुराहो के मन्दिर' की ये पंक्तियाँ गूँज रही 
					हैं -
 
                   `चंदेलों की कला-प्रेम की देन देवताओं के मन्दिर बने हुए अब भी अनिंद्य जो खडे हुए हैं खजुराहो में
 याद दिलाते हैं हमको उस गए समय की
 जब पुरूषों ने उमड़-घुमड़ कर
 रोमांचित होकर समुद्र-सा
 कुच-कटाक्ष वैभव विलास की
 कला-केलि की कामनियों को
 बाहु-पाश में बांध लिया था
 और भोग-संभोग सुरा का सरस पानकर
 देश-काल को, जरा-मरण को भुला दिया था ।'
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