| 
                       
                        
इमली के आकर्षण से मेरे कदम जल्दी-जल्दी पड़ते थे। मौसी के घर के सामने वाली सड़क 
सीधी जाती है। बाद में मोड़ पर एक आम का पेड़ है। उधर पहुँचने तक मैं रोज़ पीछे 
मुड़ कर देखता था और मौसी को हाथ हिला कर जो दौड़ लगाता था, तो एकदम इमली के पेड़ 
के नीचे। मेरे हाथ हिलाने तक मौसी आँगन में ही खड़ी रहती थी। एक बार मैं हाथ हिलाना 
भूल गया, तो मौसी को एकदम बुरा लगा। स्कूल से जब मैं लौटा तो कहने लगी- 
"रघू, आज तूने पीछे मुड़ कर देखा ही नहीं।" 
"कब मौसी?" 
"स्कूल जाते वक़्त।" 
"भूल गया।" 
"ऐसे कैसे भूल गया? तुझे तो मुझसे अपनापन ही नहीं है। मैं ही तुझ पर जान देती हूँ।" 
मौसी की आँखें भर आई। मुझे बहुत बुरा लगा। पीछे मुड़ कर नहीं देखा तो इसमें मौसी को 
इतना दुखी होने की क्या बात थी, यही मैं सोचता रहा। पर उस दिन से आम के पेड़ के पास 
पहुँचते ही मैं बिना भूले पीछे मुड़ कर देखने लगा।  
रात को मौसी मुझे कहानी सुनाती थी। उस रात उसने मुझे चिरुंगन की कहानी सुनाई। 
"एक था चिरुंगन। एकदम नन्हा-सा। एक दिन उसकी माँ मर गई। चिरुंगन घोंसले में अकेला 
रह गया। चिरुंगन की एक मौसी थी। उसने बड़ी ममता से उसे अपने पंखों तले सहारा दिया। 
उसे प्यार दिया। पाला-पोसा। 
मैंने मौसी से पूछा, "मौसी उस चिरुंगन की मौसी के अपने बच्चे नहीं थे क्या?" 
"नहीं बाबा, वह मुई थी बड़ी बदनसीब!" 
"तब।" 
"चिरुंगन की मौसी उसका पालन पोषण करने लगी। मौसी उसे बहुत प्यार करती थी। वह उसे 
अपना ही बच्चा समझती थी। मौसी ने उसे उड़ना सीखाया। बच्चे ने पंख फैलाए। वह अकड़ से 
उड़ने लगा। मौसी खुशी से फूली न समाई। एक दिन चिरुंगन घोंसले से बाहर निकला। उड़ कर 
दूर-दूर चला गया। मौसी चिरुंगन को भूल न सकी। वह उसकी राह देखती रही। कहने लगी - 
"ओ रे चिरुंगन मेरे, 
कब आएगा तू? 
प्यार करती हूँ तुम से मैं 
पर भूल गया रे तू!" 
और उस चिरुंगन की याद में मौसी घोंसले में रोती रहती थी। 
कहानी सुनाते-सुनाते मौसी खुद ही रोने लगी। उसका रोना देख कर मैं भी रोने लगा। मौसी 
ने मुझे गोद में लिटाया और थपथपाते हुए धीमे स्वर में वह गाने लगी। 
"ओ रे चिरुंगन मेरे. . ." 
हमारी छमाही परीक्षा हो चुकी थी मगर पिता जी एक बार भी मौसी के घर नहीं आए। मुझे 
उनकी, माँ की बहुत याद आती थी। रविवार के दिन कभी-कभी मैं मौसा जी के साथ बस स्टैंड 
पर जाया करता था। तब, शायद किसी बस से पिता जी उतरेंगे, इस आशा से मैं देखता रहता। 
पर पिता जी नहीं आए। मैंने उनसे कहा था, "जल्दी आना।" बहुत राह देखी और एक दिन पिता 
जी आ धमके। स्कूल की छुटि्टयाँ थीं। मैं अकेला ही आँगन में अंटों से खेल रहा था। 
सामने कोई खड़ा रहा। ऊपर देखा तो पिता जी! मैंने अंटे फेंक दिए और पिता जी की कमर 
में बाहें डाल दीं। 
"मौसी पिता जी आ गए।" 
पिता जी ने मुझे कस कर पकड़ा। मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा। 
मौसी बाहर आई। 
चाय पीते वक्त पिता जी ने कहा, "रघू को लेने आया हूँ।" 
मौसी के हाथ का सूप ज़मीन पर गिरा। उस में से चावल सब जगह बिख़र गए। मौसी बिल्कुल 
गई बीती। सूप भी ठीक तरह पकड़ना नहीं जानती। 
"तुम काम पर निकलोगे। रघू अकेला रह जाएगा। उसका क्या होगा?" 
"वह अकेला नही होगा।" 
"नहीं कैसे?" 
"मैंने दूसरी शादी की है।" पिता जी ने धीरे से कहा। 
"क्या? मोगरू के चल बसे छ: महीने भी नहीं बीते, और तुमने। । ।।" 
"क्या करता? दुनिया में रहना तो है न? बड़ी मुसीबत में था। आख़िर रघू को भी कितने 
दिन यहाँ रखता?" मौसी का चेहरा तमतमा गया। 
"रघू का नाम मत लेना। उसे वहाँ ले जा कर क्या सौतेली माँ के मुँह में दोगे? मैं उसे 
कभी नहीं भेजने वाली।" 
मौसी गुस्से से बोलने लगी। मैं दोनों के मुँह ताकता रहा। सौतेली माँ? मौसी ने मुझे 
सौतेली माँ की बहुत कहानियाँ कही थीं। सब सौतेली माँएँ बुरी होती हैं, यह मैं जानता 
था। पिता जी मेरी भी सौतेली माँ लाए हैं यह सोच कर मुझे रोना आया और माँ की याद में 
मैं हिचकियों पर हिचकियाँ भरता रहा। 
"रघू को सौतेली माँ से कुछ तकलीफ़ नहीं होगी। वह उसे प्यार ही करेगी।" 
"यह तुम मुझे मत बताना। तुम अभी से कैसे जान गए?" 
"वह पड़ोस में ही रहती थी। हमारे रघू को वह बहुत चाहती है।" 
"कौन है वह?" 
"सुरंग. . ." 
सुरंग? मेरी आँखें चमक उठीं। हटो, सुरंग भी कभी सौतेली माँ हो सकती है भला? वह 
कितनी अच्छी है! उसकी बगल में जब सोया था, तब मुझे लगा था कि जैसे मैं माँ की गोद 
में सो गया हूँ! 
मैं फ़क से हँसा। पिट्ट कर के कूद कर पिता जी के पास पहुँचा। 
"पिता जी, मैं चलूँगा।" 
पिता जी हँसे। मेरे बाल सहलाने लगे। मौसी चुपके से खाली सूप ले कर अंदर चली गई। 
"मौसी मेरी कमीज़ किधर है? पतलून किधर है?" कह कर मैं उनके पीछे दौड़ा। 
मौसी रसोई घर में खड़ी थी। उनकी नाक लाल हुई थी। 
"रघू, क्या तू सचमुच जाएगा?" 
सचमुच याने? पगली मौसी! क्या पूछती है, जानती ही नहीं! मैंने सिर हिलाया। 
"यहाँ तुझे अच्छा नहीं लगता?" 
''यहाँ मुझे अच्छा लगता था पर पिता जी के साथ और भी अच्छा लगेगा।'' मैंने मौसी 
से वैसा कहा। 
"मैं ही पगली!" ऐसा बोलते-बोलते मौसी ने सूप में चावल डाल दिए। 
"मौसी, बाहर चावल बिखरे हैं। वैसे ही पड़े हैं।" 
"हाँ, जानती हूँ, च़ावल बिखरे हैं।" 
"मैं जमा कर लाऊँ?" 
"नहीं रघू, मुझसे बिखरे थे, मैं ही जमा कर लूँगी।" कह कर मौसी बाहर चली गई। 
दोपहर भोजन के बाद मौसी ने मेरे कपड़े थैली में रख दिए। मेरी मनपसंद पिपरमिंट मेरी 
जेब में भरी। कुछ लड्डू बाँध दिए। 
"आएगा न कभी-कभी?" 
मैंने सिर हिलाया। पिता जी के तैयार होने से पहले ही मैंने पैरों में चप्पल भी पहन 
लीं। मैं आँगन में आ पहुँचा। मौसी ने मुझे कस कर गले लगाया, चूम लिया। मैं शरमिंदा 
हुआ। पिता जी ने देखा होगा, यह सोच कर ही मैं लाल हो गया। पिता जी का हाथ पकड़ कर 
मैं चलने लगा। 
"पिताजी, क्या नाले में अभी तक पानी है?" 
"पिताजी, हम छोटे पुल पर मछलियाँ पकड़ने जाएँगे न?" 
" स़ुरंग भी अभी हमारे ही साथ रहेगी?" 
मैं बहुत कुछ जानना चाहता था। पिता जी हँस-हँस कर मुझे जवाब देते थे। बेंदित और 
शिरी को बहुत सारे समाचार सुनाने थे। जेब में से इमलियाँ देनी थीं। घर पहुँचने को 
मैं बहुत उतावला था। 
खुशी-खुशी मैं बस में चढ़ा। बस चलनी शुरू हो गई। बोलते-बोलते जेब में हाथ डाला। 
मौसी के दिए पिपरमिंट हाथ लगे और झट से मुझे याद आया- 
आम के पेड़ के पास पहुँचने पर, पीछे मुड़ कर, मौसी को हाथ हिलाना मैं भूल गया था। 
बिल्कुल भूल गया था। 
                     |