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शाम को नानी दूध का बर्तन उठा कर, गौशाला की ओर बढ़ ही रही थीं।
''क्या कर रही हैं आप?'' अनु देख कर चौंक पड़ी।
''दूध निकालने जा रही हूँ।''
''आप बर्तन रख दें। आपको काम नहीं करना है।''
''अरे, आश्रम में, मैं खाना पकाती थी।''
''वहाँ डॉक्टर थे। यहाँ कौन दौड़ धूप करता फिरेगा?''
''कुछ नहीं होगा।'' कहकर वो चल पड़ी।
''आप बर्तन रख दीजिए।'' अनु की आवाज़ में सख़्ती थी। नानी ने बर्तन, वहीं रख दिया। उनके कलेजे में हूक-सी उठी। उनका अपमान हुआ था।

वे उसी समय भीतर चली गईं। मुँह पर पल्ला डालकर रोती रहीं। सोते समय उन्होंने निश्चय किया। घर मेरा है, सबको मेरे आदेश मानने होंगे। आश्रम में दस-पंद्रह का भोजन बनाती थीं। यहाँ कैसी मेहनत?
वे मुँह अंधेरे ही उठ बैठीं। स्नान के बाद आटे का डिब्बा लिया और आटा गूँध कर रोटियाँ सेंकने लगीं।
उठकर अनु ने चूल्हे के पास रोटियों का ढेर देखा।
''किसने बनाईं ये रोटियाँ?''
''मैंने, और किसने?''
अनु सिर पर हाथ मार कर, सुन्न खड़ी रह गई। नानी ने परवाह नहीं की और सफ़ाई करने जुट गईं।

पुरुषों के भोजन कर लेने के बाद अनु और नानी खाने बैठी थी।
''सबने खाई थी रोटियाँ?''
''हाँ!''
''कोई कुछ बोला?''
''हाँ, .ये और ससुर जी बोले, अच्छी बनीं हैं!''
यह सुनकर नानी के चेहरे पर रौनक आ गई।

अनु कुछ न बोली और खाते-खाते नानी के हाथों की उँगलियाँ देखने लगी। उनपर छोटे से नाखून थे। टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियाँ। नानी उन्हीं हाथों से भोजन कर रही थी।
खाना खाने के बाद, नानी घर के भीतर जाने लगीं तो विनू दिखाई दे गया।
''वीनू, मेरे हाथ की रोटियाँ कैसी लगीं?''
''अच्छी लगीं।''
नानी आनंदित हो बरामदे में पहुँच गईं। वहाँ रामाराव चहल-कदमी कर रहे थे।
''आज रोटियाँ कैसी लगीं?''
''कहाँ थीं आज रोटियाँ?
रामाराव का ध्यान अचानक वीनू की नज़रों की ओर गया, वे झेंप गए।

नानी को दाल में कुछ काला नज़र आया। वे थोड़ी बुझ-सी गईं। घर के भीतर चटाई बिछाकर सोने का प्रयत्न करने लगीं। पर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
शाम को वो चुपचाप दूध का बर्तन खोजने लगीं। माँजने वाले बर्तनों के साथ दूध का बर्तन पड़ा था। वहीं पर रखा था आटे का डिब्बा। सुबह तो डिब्बा आटे से भरा था। फिर माँजने के लिए क्यों रखा है? वो सोचते हुए दूध का बर्तन उठा कर गौशाला की ओर बढ़ गई।

पानी लेकर उन्होंने गाय के थन धोए। तभी उनकी दृष्टि गाय के आगे पड़ी रोटियों पर ठहर गईं। नानी उसी समय उठ खड़ी हुईं।
बर्तन घर में ला पटका और आँगन में बँधे झूले पर बैठी, रुँधे गले को दबाए रखने का प्रयत्न करती रहीं।
रात वो अपने कमरे में गईं। थोड़े फासले पर दो बिछौने पड़े थे। कल भी ऐसा ही था क्या?
उन्होंने दोनों बिछौने सटा लिए। फिर रामाराव के बिछौने की ओर मुँह कर एक हाथ सामने फैला वो पड़ी रहीं।

.................

रात आहट से उनकी आँख खुली।
रामाराव दीपक जला रहे थे।
फिर उन्होंने झटपट अपना बिछौना अलग खींच लिया। चूड़ियों की खनक हुई और नानी का हाथ, फ़र्श पर आ गिरा। पर रामाराव ने हाथ उठाकर, उनके बिछौने पर न रखा।
इतना भी स्पर्श नहीं।
नानी के होठों से सिसकी फूट पड़ी। पर वे रोई नहीं। बस, आँखों से पानी बहता रहा। हाथ उसी प्रकार न जाने कब तक पड़ा रहा।

सुबह रामाराव उठकर बाहर आए। नानी पहले ही उठ गई थीं।
''सासू जी नहीं उठीं क्या?''
''वो तो कब की उठ गईं।''
''नहीं।''
''नहीं? अरे वीनू...'' रामाराव चीख पड़े।
वीनू भागता हुआ आया। सब जगह खोज हुई। सभी कमरे देख डाले पर नानी कहीं नहीं थीं।
पीपल के नीचे दीप जल रहा था। गणेश जी के मस्तक पर चंदन का तिलक और सूँड पर जसवंती के फूल थे।
''कहाँ गई होंगी?''
चारों ओर आदमी दौड़ा दिए गए।
बाद में पता चला कि नानी बस अड्डे पर अमरावती की बस में बैठी दिखाई दी थीं।

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४ फरवरी २००८

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