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साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है रवीन्द्रनाथ ठाकुर की
बांग्ला कहानी का हिन्दी रूपांतर- "विद्रोही"।


लोग कहते हैं अँग्रेजी पढ़ना और भाड़ झोंकना बराबर है। अँग्रेजी पढ़ने वालों की मिट्टी खराब है। अच्छे-अच्छे एम.ए. और बी.ए. मारे-मारे फिरते हैं, कोई उन्हें पूछता तक नहीं। मैं इन बातों के विरुद्ध हूँ। अँग्रेजी पढ़-लिखकर मैं डॉक्टर बना हूँ। अँग्रेजी शिक्षा के विरोधी तनिक आँख खोलकर मेरी दशा देखें।

सोमवार का दिन था। सवा नौ बजे मेरे मित्र बाबू सन्तोषकुमार बी.एस-सी. एक नवयुवक रोगी को साथ लिये मेरे दवाखाने में आये। उस रोगी की आयु अठारह-उन्नीस से अधिक न थी। गेहुआँ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, गठीला शरीर, कपड़े स्वदेशी, किन्तु मैले थे। सिर के बाल लम्बे और रूखे। उस युवक को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।
सन्तोषकुमार ने युवक का परिचय कराते हुए कहा- आप जिला नदिया के निवासी हैं, नाम ललित कृष्ण बोस है, किन्तु ललित के नाम से प्रसिद्ध हैं। एम.ए. में पढ़ते थे; परन्तु किसी कारणवश कॉलेज छोड़ दिया।

मैंने मुस्कराते हुए पूछा- आजकल आप क्या करते हैं?
सन्तोषकुमार ने उत्तर दिया- दो महीने पहले यह किरण प्रेस में प्रूफरीडर के काम पर थे परन्तु इस काम में जी न लगने के कारण नौकरी छोड़ दी। परसों से ज्वर से पीड़ित हैं, कोई अच्छी औषधि दीजिये।

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