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47–साहित्य समाचार

दिल्ली में आयोजित 'प्रवासी भारतीय दिवस महोत्सव'

दिल्ली में फिक्की द्वारा आयोजित पहला प्रवासी भारतीय दिवस बड़े ही शानदार ढंग से 2003 में 9–11 जनवरी को प्रगति मैदान में आयोजित किया गया था जिसमें 60 देशों के 1700 प्रवासी भारतीय (एन•आर•आई/ पी•आई•ओ•) तथा 1500 भारतीय प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस तरह 2003 के प्रवासी भारतीय दिवस ने 110 देशों में बसे बीस मिलियन प्रवासी भारतीयों को तथा भारत के नागरिकों को विभिन्न तलों पर व्यवहारिक और क्रियात्मक ढंग से प्रभावित एवं लाभान्वित किया था।
प्रवासी भारतीय दिवस 2004 उद्घटन समारोह का एक दृश्य

इस समारोह का यह भी आग्रह था कि प्रवासी भारतीय विदेशी मुद्रा अपनी मातृभूमि के व्यवसाय उत्थान में लगा कर देश के साथ स्वयं भी लाभान्वित हों। इस अवसर पर भारत ने अप्रवासी भारतीयों की उपलब्धियों को रेखांकित कर, उनका मान–दान करते हुए उत्सव मनाया। इन उपलब्धियों को मान देने के लिए भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने 10 विशिष्ट व्यक्तित्वों को प्रवासी भारतीय सम्मान से सम्मानित किया। 2003 के उद्घाटन समारोह में बिस्मिल्ला खान की शहनाई और पंडित रविशंकर जी के सितार की युगलबंदी ने जो अद्भुत समा बांधा था वह आज भी लोगों के दिलों–दिमाग पर छाया हुआ है।

2003 के प्रवासी दिवस ने विश्व–परिवार यानी वसुधैव कुटंबकम की अलख जगाने के साथ ही कई विशिष्ट निवेश नीतियों का निर्धारण करते हुए प्रवासी भारतीयों के लिए दोहरी नागरिकता की सुगमता की घोषणा। जिसकी चर्चा एवं परिकल्पना पिछले कई वर्षों से चल रही थी।

प्रवासी भारतवंशियों के हित की यह सब बाते भारत के महान चिंतक डा• लक्ष्मीमल्ल सिंघवी जी के कल्याणकारी मन की संवेदना है। सिंघवी जी ने इंग्लैण्ड में प्रवासी भारतीयों के बीच भारतीय दूतावास में नौ वर्ष बिताए उन्होंने प्रवासियों की पीड़ा को बड़े करीब से जाना और समझा। वस्तुतः 'भारतवंशी' शब्द उन्हीं का सृजन है। यानी प्रवासी 'भारतवंशी' न तो कभी मूल से कटा और न उखड़ा। वह सदा 'मनसा, वाचा, कर्मणा' से मूलतः भारत से जुड़ा रहा। तन विवशतावश अथवा आवश्यकतानुसार विदेश गया पर मन कभी नहीं गया। प्रवासी भारतीय के इसी दर्द को 'भारतवंशी' कह कर डा•सिंघवी ने उसे गौरव और सम्मान दिया। इसी तरह 'प्रवासी दिवस' की परिकल्पना कर उन्होंने भारतीय प्रवासियों को अपने देश के लिए हितकारी होने का मान और सम्मान भी दिया। इस वर्ष भी इस त्रै–दिवसीय 'भारतीय प्रवासी दिवस' के कई सत्रों में बहुत से महत्वपूर्ण विषयों पर संवाद हुआ।

9–11 जनवरी 2004 के इस त्रै–दिवसीय प्रवासी सम्मेलन में दो सांस्कृतिक संध्या, कॉकटेल, महाभोज, खूबसूरत कला प्रदर्शनी, बाजार–मेला और प्रादेशिक मनोरंजन का आयोजन था। प्रत्येक सांझ बॉलीवुड, यू•के•, यू•एस•ए•, त्रिनिदाद, मॉरिशस आदि प्रवासी भारतीयों द्वारा भव्य रसभरा रंगारंग कार्यक्रम का प्रदर्शन हुआ। साथ ही भारतीय परंपरा के अनुसार विभिन्न प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हुए भोजन का शानदार रूचिपूर्ण आयोजन और प्रबंधन रहा। राजसी सत्कार, उत्कृष्ट सज्जा और भव्य वातावरण का परिदृश्य था . . .

9 जनवरी 2004 के सुबह फिक्की द्वारा भारत सरकार के तत्वाधान में प्रवासी दिवस का उद्घाटन समारोह बड़े ही शानदार ढंग से 10•30 पर इंदिरा गांधी स्टेडियम में भारत के प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा संपन्न हुआ। स्टेडियम दर्शकों एवं श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ। प्रधानमंत्री के दीप–प्रज्वलन के पश्चात् वायलिन वादक श्री सुब्रमनियम और सारंगीवादक श्री सुल्तान खान ने जो समां बांधा तो मन, देह से ऊपर उठ देवराज इंद्र के दरबार जा पहुंच गया। सभी तन्मय . . .संयोजन समिति के अध्यक्ष डॉ•लक्ष्मीमल्ल सिंघवी जी ने सदा की तरह इस बार भी अत्यंत सारगर्भित स्वागत व्याख्यान दिया। इस अवसर पर गयाना के राष्ट्रपति श्री भरत जगदेव, भारत के उपराष्ट्रपति श्री लाल कृष्ण अडवानी, विदेश मंत्री श्री यशवंत सिन्हा अन्य गणमान्य अतिथियों के साथ मंच पर उपस्थित थे। पिछल वर्ष की भांति इस वर्ष भी प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने प्रवासी भरतवंशियों को मान–सम्मान और खिताब से नवाज़ा। उन्होंने जिम्बाबवे के न्यायमूर्ति श्री अहमद मूसा इब्राहिम, गयाना के महामहिम भरत जगदेव, अमेरिका के प्रो•दीपक सी•जैन, न्यूज़ीलैण्ड की सुश्री टर्नर, यू•के• के लार्ड मेघनाथ देसाई, खाड़ी देश की डा•मरियम चिश्ती आदि को सम्मानित किया। प्रधानमंत्री ने अपने व्याख्यान में कहा, 'एक साथ मिल कर हम एक वैश्विक भारतीय परिवार बनाते हैं। इकठ्ठे मिल कर हम घोषणा कर रहे हैं कि भारत–उदय यानी 'शाइनिंग इंडिया' विश्व–मंच पर आ खड़ा हुआ है, एक ऐसा भारत जो अपने गौरवशाली अतीत को फिर से पाने बल्कि उससे आगे बढ़ कर एक आर्थिक शक्ति–पुंज और उच्च स्तर पर मानवता के सर्वांग विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्र के रूप में उभरेगा।' . . .आगे उन्होंने प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए कहा, 'आपने जिन देशों में अपना घर बनाया है वहां आप हमारे राजदूत हैं। भारत से आपके संपर्को और आपकी मातृभूमि में आपके रूतबे के कारण आप इस विशिष्ट स्थिति में हैं कि आप अपने रहने वाले देशों में श्रोताओं को यह बता सकें कि भारत क्या है? और भारत क्या हो सकता है? इसीलिए मैं आप लोगों से अनुरोध करता हूं कि आप वहां एक महत्वपूर्ण राजदूत की भूमिका निभाएं।'

आयोजन में युवा प्रवासी भारतवंशी व्यापारियों और व्यवसायियों एवं छात्रों को जोड़ने के लिये विशेष प्लैनिलिनरी सत्र का आयोजन किया गया था। खाड़ी देशों और अफ्रीकन देशों को छोड़ कर संसार के अन्य सोलह देशों को दोहरी नागरिकता की सुविधा का प्रावधान दिया गया। यानी अब प्रवासी भारतवंशी किसी भी स्कूल कॉलेज में बिना किसी अवरोध के प्रवेश पा सकेंगे। प्रवासी भारतवंशी भारत के किसी भी शहर या गांव में व्यापार कर सकेंगे, फैक्टरी लगा सकेंगे। भारत के विकास में सहयोग दे सकेंगे है। वे मकान खरीद सकेंगे, बनवा सकेंगे। एल•आई•सी• गवर्नमेंट सेक्टर आदि से भी मकान खरीद सकेंगे हैं। परंतु कुछ विषम राजनीतिक कारणों से वे इलेक्शन में खड़े होने, वोटिंग राइट, पब्लिक एम्लायमेंट, आदि से वंचित रहेंगे।

खाड़ी देशों में रहनेवाले भारतवंशियों ने दोहरी नागरिकता न प्राप्त कर सकने के कारणों पर गहरा असंतोष ज़ाहिर किया, अतः भारत सरकार ने खाड़ी देशों के भारतवंशियों तथा 'लीगल इश्यु इन द कॉन्टेक्स्ट ऑफ प्राइवेट इंटरनेशनल लॉ' पर भी गहरा विचार विमर्श किया।

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फिक्की का पूरा प्रयास था कि इस वर्ष भी यह उत्सव उसी शानो–शौकत और धूम–धाम से मनाया जाए जिस तरह से पिछले वर्ष मनाया गया था। यद्यपि शानो–शौकत, साज सज्जा और व्यवस्था में इस वर्ष काफी काट–छाट नज़र आई। कला, प्रदर्शनी, भोजन, मेहमान नवाज़ी सब कुछ बहुत मनभावन आकर्षक और रूचिपूर्ण था। परंतु पिछले वर्ष के अनुपात में प्रत्याशी बहुत कम थें। 1700 की जगह सिर्फ 1200 प्रवासी भारतीय प्रतिनिधियों ने शिरकत किया। क्यों? बात सोंचने को मजबूर करती है।

पहले ही दिन रजिस्टे्रशन के समय ही बहुत अराजकता हो गई। कार्यकर्ता प्रतिनिधियों के पहचान–पत्र खोजने में बहुत समय लगा रहे थें। प्रत्याशी विलंब के कारण अधीर हो रहे थें। प्रबंधन में निसंदेह अव्यवस्था थी। पहचान–पत्र समय से उपलब्ध न होने के कारण लोग समय से उद्घाटन समारोह नहीं पहुंच पा रहे थें। कोई भी प्रत्याशी प्रधानमंत्री का वक्तव्य मिस करना नहीं चाह रहा था। लोग असंतुष्ट हो रहे थे। संपर्क व्यवस्था में भयंकर अव्यवस्था और कनफ्यूजन नज़र आ रहा था। लोग एक काऊंटर से दूसरे काऊंटर पर टरकाए और ठेले जा रहे थें। कुछ लोग तो बेहद नाखुश नज़र आ रहे थे। फिक्की के पास रजिस्टे्रशन शुल्क तीन महीने पहले आ चुका था। फिर इस विलंब का क्या कारण था?

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उद्घाटन समारोह के आरम्भ होने की घोषणा हो चुकी थी पर कुछ लोग अभी भी पहचान–पत्र और डेलिगेट बैग के इंतजार में खड़े थें . . .ऐसा लग रहा था फिक्की ने कार्यकर्ताओं को भर्ती तो कर लिया पर उनके 'ब्रीफिंग और टे्रनिंग' पर ध्यान नहीं दिया। पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी प्रवासी भारतवंशी प्रतिनिधियों (डेलिगेट्स) को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। उद्घाटन से पहले और उद्घाटन के दिन तो ऐसी मारा–मारी और अव्यवस्था थी कि स्वयं कार्यकर्ताओं को यह नहीं पता था कि उनके कार्य क्या हैं और उनके संपर्क (को–आर्डिनेटर)कौन है। किसी भी प्रश्न के उत्तर में कार्यकर्ता बड़े ही सुंदर सधी हुई अंग्रेजी में कहता,
'यस सर'
'थैंक्यू सर'
'ओ•के•सर'
'आई विल फाइंड आउट सर'
और वह काऊंटर के पीछे बने एंट्री रूम से गायब हो जाता। डेलिगेट वहां खड़ा टापता रहता। फिर अधीर हो कर दूसरे कार्यकर्ता से पूछता तो वह उसे किसी और काऊंटर पर टरका देता। यह केवल मेरे साथ ही नहीं हुआ, मेरे कई साथियों के साथ हुआ। बहुत से लोग इसी कारण उद्घाटन समारोह में सम्मिलित नहीं हो सके।

भारत सरकार ने करोड़ो रूपए की 'सबसिडी' दी फिक्की को, फिर भी प्रवासी दिवस के डेलिगेट फी की दर बहुत ऊंची रही है। इस उत्सव में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों ने तकरीबन एक लाख रूपए से ऊपर डेलिगेट शुल्क, हवाई यात्रा, होटल में रहने और यातायात के प्रबंध में खर्च किए होंगे फिर भी उन्हें बहुत सारी बेकार की तवालते उठानी पड़ी। डेलिगेटस बहुत प्रसन्न नहीं थें। पार्किंग की व्यवस्था बहुत दूर की गई थी। रात में पार्किंग की जगह खोजनी कोई आसान नहीं थी। फिक्की ने अपनी सुविधा की बात सोंची किन्तु उस डेलिगेट के असुविधा की नहीं सोंची जिससे सहयोग पाने के लिए यह आयोजन किया गया था। कड़क ठंड की इन रातों में, एक उत्सव इंदिरा गांधी स्टेडियम में तो दूसरा विज्ञान भवन में, फिर तीसरा ताल–कटोरा मैदान में। रातें काली अंधेरी, प्रकाश धूमिल, डाइरेक्शन की कमी, यदि डाइरेक्शन कहीं लिखा है तो उस पर रोशनी नहीं है। कार्यकर्ताओं को खुद रास्ते नहीं पता। डेलिगेटस इधर से उधर भटकतें फिरें . . .ऐसे बड़े उत्सव में नेटवर्किंग क्या होती है, उसकी शिक्षा फिक्की के आयोजकों को अन्य देशों के आयोजकों से लेनी होगी।

प्रवासी भारतीय दिवस पर तीन संस्थाएं कार्य कर रही थीं, भारत सरकार, फिक्की, और मिड़िया, तीनों संस्थाओं में कोआरडिनेशन की कमी साफ नज़र आ रही थी। यद्यपि सबके पास मोबाइल फोन थें

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यही हाल शाम के खाने और मनोरंजन–कार्यक्रम के प्रवेश–पत्र के साथ हुआ। भोजन और मनोरंजन स्थलों के प्रवेश–पत्र कहां मिलेंगे, कौन देगा? विधिवत कोई सूचना नहीं। पहले दो–ढ़ाई सौ लोगों को प्रवेश–पत्र सुगमता से मिल जाता पर बाद में आने वालों का हश्र निराशाजनक ही होता। मीडिया वाले कहते फिक्की के पास जाओ उनके प्रवेश–पत्र खतम हो चुके हैं तो फिक्की वाले कहते हम आपको प्रवेश–पत्र नहीं दे सकते हैं, मीडिया की अपनी व्यवस्था है। इस तरह के कनफ्यूजन और अव्यवस्था ने सहज–सरल सुव्यवस्था में रहने वाले भारतवंशियों को इतना आतंकित किया कि उन्होंने प्रवासी दिवस को समय और धन का दुरूपयोग माना, वैसे भी आज के वक्त में इंसान 'व्यय–संचयन' यानी 'कॉस्ट–इफेक्टिव नीतियों का समर्थक है। इस वर्ष के समारोह में आशिकांश वही लोग थें जो प्रतिवर्ष इन दिनों भारत आए हुए होते हैं अथवा वे लोग जो पिछले वर्ष नहीं आए थे और फिक्की द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम को महज़ एक अनुभव के लिए महसूस करना चाहते थें। यही कारण था कि 2003 में आए अधिकांश प्रवासी डेलिगेटस पलट कर दुबारा नहीं आए। इस बार 1700 के बजाए केवल 1200 प्रतिनिधि आए।

इस त्रैदिवसीय प्रवासी भारतीय कार्यक्रम में जो सबसे निराशाजनक बात थी वह हिन्दी का एक विदेशी भाषा हो जाना। यानी हिन्दी जो हमारी अस्मिता है, पहचान है उसकी पूरी तरह से इस समारोह से लुप्त कर दिया जाना। हिन्दी भाषा इस प्रवासी दिवस में कहीं नज़र नहीं आ रही थी। 'भारतीय प्रवासी दिवस' का कार्यक्रम भारत की राजधानी में अंग्रेजी में, यहां तक शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का स्वागत भाषण, संचालन, परिवेश वेश–भूषा नृत्य–वाटिका सब अंग्रेजी में। लग रहा था मानों हम कहीं विदेश में हो जहां की भाषा अंग्रेजी हैं। ऐसा स्वखलन भारतीय सभ्यता और भाषा का आजतक नहीं देखा! सिर घूम उठा। क्या हो गया है भारतवासियों को? प्रवासी भारतीय, अंग्रेजी डिस्को तो रोज़ ही देखता है, वह भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने आया था। साथ बैठी महिला का पुत्र पूछ रहा था, "मां क्या यही वह इंडियन क्लासिकल डान्स है जिसे दिखाने तुम मुझे यहां लाई थी!" मां ठीक से बात नहीं बना पाई, बोली, "अरे नहीं, यह तो बस मित्रभाव के नाते आंतर्राष्ट्रीय संस्कृति दिखाई जा रही है।" और तभी मॉरिशस से आई गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित नृत्यवाटिका का प्रदर्शन और हरिहर जी का संगीत बचा ले गया मां के लज्जित हो आए भावों को . . .

विदेशों में जो हिन्दी का प्रचार–प्रसार हो रहा है और जो उसे हम विश्व भाषा बनाने का प्रयास कर रहे हैं वह क्या व्यर्थ है। यह जो करोड़ों रूपए खर्च कर के विश्व हिन्दी सम्मेलन देश–विदेश में हो रहे है वे क्या झूठ–मूठ की स्टंटबाजी है। क्या इस त्रैदिवसीय प्रवासी दिवस पर हिन्दी का कोई कार्यक्रम या हिन्दी 'वर्क–शॉप' नहीं रखा जा सकता था।

लगता है यह प्रवासी दिवस हमारी राज–भाषा हिन्दी को लुप्तप्रायः करने की एक गहरी साज़िश है . . .

उषाराजे सक्सेना – लन्दन

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