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                        त्रिनिडाड में सन २००२ के फगवा 
                        कार्यक्रम इस बार ज़रा और ज़ोर शोर से शुरू हुए हैं। मैंने 
                        पिछले तीन वर्षों में देखा है कि भारतीय सांस्कृतिक और 
                        धार्मिक उत्सव दिनों दिन अधिक उत्साह से मनाए जा रहे हैं। 
                        भारतीय मूल के लोगों में इन अवसरों पर अतिरिक्त उत्साह 
                        देखा जा है। इसलिए केन्द्र फगवा फेस्टिवल की अध्यक्षा 
                        श्रीमती गीताराम सिंह की ओर से १७ फरवरी, २००२ को वसंत 
                        पंचमी आयोजन के अवसर पर फगवा कार्यक्रमों के शुभारंभ 
                        कार्यक्रम का जब निमंत्रण मिला तो मैं अपनी व्यस्तताओं के 
                        बावजूद जाने का लोभ सँवरण नहीं कर पाया। यही नहीं मैंने 
                        पाँच दिन पहले ही भारत से आए, सफर के थकान में घिरे, 
                        महात्मा गांधी संस्थान के नए निदेशक पी.सी. भारद्वाज को भी 
                        चलने के लिए तैयार कर लिया।
 अब तक भारत में भारतीय सांस्कृतिक संबंध की फाइलों से घिरे 
                        हुए भारद्वाज की त्रिनिडाड में यह पहली सांस्कृतिक मुठभेड़ 
                        थी। जेट लैग में डूबे भारद्वाज को अचानक याद आया कि उन्हें 
                        तो इस कार्यक्रम में भारतीय उच्चायुक्त का प्रतिनिधित्व 
                        कराना है। यह याद आते ही वह अचानक सचेत हो गए और हम दोनों 
                        १७ फरवरी की सुबह एंटरप्राइज में स्थित रघुनंदन मार्ग की 
                        ओर चल दिये। हमें चलने में थोड़ा विलम्ब हुआ इसलिए विलम्ब 
                        से ही पहुँचे। कार्यक्रम आरंभ हो चुका था।
 
 जो हाल मेरा त्रिनिडाड में १९९९ में पहला कदम रखने के बाद 
                        हुआ था वही हाल भारद्वाज का था। फटी-फटी चकित आँखों से वह 
                        भारत से हज़ारों मील दूर एक और भारत को देख रहे थे या कहा 
                        जाए एक बेहतर भारत को। वसंत पंचमी के आयोजन को उन्होंने 
                        कभी सजीव नहीं देखा था। एन.डी.टी.वी. से त्रिनिडाड में ११ 
                        और १२ फरवरी को कार्निवाल की 'रंगीनियाँ' कैद करने आई तीन 
                        पत्रकार बालाएँ जैसे सबकुछ कैमरे में कैद कर लेना चाहती 
                        थीं। गीत, संगीत, पूजा आदि का मिश्रण ये कार्यक्रम इतना 
                        संगुंफित था कि ढाई घंटे कब बीत गए, पता ही नहीं चला।
 
 वसंत पंचमी के कार्यक्रम समाप्त होते ही फगवा कार्यक्रमों 
                        का औपचारिक शुभारंभ महात्मा गांधी सांस्कृतिक केन्द्र के 
                        नए निदेशक ने किया। मुझे, प्रोफेसर विजय नारायण सिंह और 
                        भारद्वाज को गीता एक खुले मैदान में ले गई जहाँ चूल्हा जल 
                        रहा था और उसपर एक बर्तन रखा हुआ था। भारद्वाज उत्सुक कि 
                        यह क्या पक रहा है। गीता ने हम तीनों के हाथ में एक-एक 
                        डंडी पकड़ा दी और बर्तन में पड़े द्रव्य को हिलाने को कहा 
                        और वह स्वयं फुकनी लेकर चूल्हे को फूँकने लगी। बर्तन में 
                        अबीर था जिसे उबाला जा रहा था। ये होली के कार्यक्रमों की 
                        शुरुआत थी।
 
 गीता ने आगामी कार्यक्रमों की घोषण करते हुए बताया कि ३१ 
                        मार्च को दीवाली नगर में फगवा कार्यक्रमों के अंतर्गत 
                        पिचकारी प्रतियोगिता का अंतिम दौर होगा। पिचकारी गीतों की 
                        पाँच श्रेणियाँ हैं - - पिचकारी चैम्पियन, सामाजिक विषयों 
                        पर सर्वोत्तम टिप्पणी, हिंदी शब्दों का सर्वाधिक प्रयोग 
                        करने वाली पिचकारी आदि। ३१ मार्च को ही माखन चोर, बच्चों 
                        का खेल, आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन भी होगा। भारद्वाज 
                        चकित होकर देख सुन रहे थे।
 
 त्रिनिडाड में प्रत्येक हिंदुस्तानी त्योहार बड़ी धूमधाम 
                        बिना झूमें मनाया जाता है। दीवाली के दिन सार्वजनिक अवकाश 
                        होता है पर और त्योहारों पर सार्वजनिक या व्यक्तिगत किसी 
                        तरह का कोई अवकाश नहीं होता और यही कारण है कि त्योहार 
                        सप्ताह के किसी भी दिन हो वह मनाया आने वाले रविवार को ही 
                        जाएगा। क्या आपके मन में भी उत्सुकता जगी कि यहाँ के लोग 
                        होली कैसे मनाते हैं! जनवरी १९९९ में जब मैं यहाँ आया था 
                        तो मेरे मन में उत्सुकत जगी थी। उस दिन सन १९९९ के मार्च 
                        की दो तारीख थी और मैं बिना गुजिया और समोसे के, अपने मन 
                        को मसोसे हुए, होली की यादों में खोया वेस्ट इंडीज 
                        विश्वविद्यालयों को हिंदी रटने का अभ्यास करा रहा था। 
                        मैंने अपने एक छात्र सत्यानंद से पूछा, "तुम लोग होली 
                        मनाते हो?"
 "होली!" उसके चेहरे पर आश्चर्य-सा था, जैसे वह कुछ याद 
                        करने की कोशिश कर रहा हो।
 "हाँ होली, होली पर तुम रंग नहीं खेलते, गुलाल नहीं मलते, 
                        पिचकारी नहीं चलाते!"
 " ओह आपका मतलब है, हाँ हम बड़े ज़ोर शोर से मनाते हैं। 
                        अगले रविवार सात मार्च को हैं न। आप दीवाली नगर 'पिचकारी' 
                        कार्यक्रम में ज़रूर जाइएगा।"
 (उपर्युक्त संवाद को कृपया इस भ्रम के साथ न पढ़ें कि 
                        त्रिनिडाड वासी अच्छी हिंदी बोल लेते हैं। मैंने बातचीत का 
                        भावानुवाद किया है।)
 
 
  भारत 
                        में तो होली का हुडदंग कई दिन पहले आरम्भ हो जाता है, 
                        परंतु यहाँ शनिवार तक कुछ नहीं था। न गलियों में बच्चे हो 
                        हो करके भाग रहे थे और नहीं आते जाते गुब्बारे पड़ रहे थे। 
                        मन ने कहा प्यारे होली की सम आदाइगी होगी, मन और दुखेगा 
                        होली की याद करके, क्या जाना। गोपियों के मन चाहे दस बीस 
                        नहीं थे पर अपने तो हैं। हमारे दूसरे मन नें कहा अकेले 
                        छड़े छाँट घर में पड़े क्या करोगे। तीसरे मन ने कहा हो 
                        सकता है किसी काले-काले गाल पर, क्यों कि गोरे यहाँ कम 
                        उपलब्ध है और जो उपलब्ध है वो होली नहीं खेलते, रंग लगाने 
                        का सुअवसर मिल जाए या हो सकता है कोई गोपी कह दे 'लला फिर 
                        आइयो खेलन होली'। 
 सो त्रिनिडाड होली के दिन, ९ मार्च १९९९ को सुबह दस बजे 
                        यांत्रिक होली देखने के लिए, खेलने नहीं, दीवाली नगर में 
                        पिचकारी खेलने चल दिया। उन दिनों में 'बेकार' था यानि कार 
                        नामक वाहन से विहीन और त्रिनिडाड में बिन कार आप अपंग हैं, 
                        सो अपने मित्र राजेश श्रीवास्तव का सहारा लिया। वैसे भी जब 
                        से वह महात्मा गांधी सांस्कृतिक संस्थान के निदेशक बना है 
                        संस्कृति से जुड़े लोगों को सहारा देकर भारतीय संस्कृति की 
                        कुछ अधिक ही सेवा कर रहा है। मन में कोई उत्साह नहीं था। 
                        हम होली खेलने जा रहे थे पर हमारे पास रंग नहीं थे। हाँ 
                        राजेश के मुँह में पान मसाले का कत्था अपना कुछ रंग अवश्य 
                        दे रहा था और उसकी सड़क पर थुकी पीक होली अवश्य खेल रही 
                        थी।
 
 दीवाली नगर वालसायन, जहाँ मैं रहता हूँ, से १० किलोमीटर 
                        दक्षिण की ओर मुख्य हाई वे पर है। अभी हम दीवाली नगर से एक 
                        किलोमिटर दूर थे तो नगाड़ों की आवाज़ सुनकर कान चौकन्ने हो 
                        गए और आधा किलोमीटर दूर रह गए तो आँखें चौकन्नी हो गई और 
                        बुझा हुआ मन भी, अगर उसके कान होते हैं, जो की होते हैं 
                        क्यों कि साधु-संत अक्सर कहते हैं कि मन लगाकर सुनो, 
                        चौकन्ना हो गया। माईक गूँज रहे थे और दीवाली नगर का मैदान 
                        होली के हुड़दंग से भीगा हुआ था। मैंने अपने आपको कोसा कि 
                        मैंने अपने मन का कहा मानकर अच्छा कुरता पायजामा क्यों पहन 
                        लिया। हमारे यहाँ होली के पक्के रंगों से डरकर पुराने 
                        कपड़े पहनने का रिवाज है। ख़ैर ओखली में सर दिया तो मुसल 
                        से क्या डरना मुहावरा शायद इसी समय के लिए बना है।
 
 भारतीय उच्चायोग से सम्बद्ध होने के कारण हमें ससम्मान आम 
                        जनता से दूर एक मंच पर ला बैठाया गया। यह मंच संभ्रांत 
                        लोगों के लिए बना था। सामने भी एक मंच था जिसपर गीत संगीत 
                        चल रहा था और अंग्रेज़ी में कुछ गाया जा रहा था। मंच के 
                        सामने एक बड़े से मैदान में अनेक 'आम लोग' या तो कुरसियों 
                        पर बैठे थे या फिर खड़े खड़े संगीत की फुहारों के साथ-साथ 
                        रंग की फुहारों का भी आनंदं उठा रहे थे। मैदान के चारों ओर 
                        तथा बीच में पंद्रह फीट उपर पाईप लगी थी जिनसे कभी हरा कभी 
                        नीला और कभी लाल रंग फुहारों के रूप में मैदान में उपस्थित 
                        लोगों को अपने रंग में सराबोर कर रहा था।
 
 सामने गीत संगीत की वर्षा और आकाश से रंगों की फुहार, मेरे 
                        लिए यह पहला अनुभव था और इस पहले अनुभव का मात्र दर्शक था। 
                        इतनी अनुशासित होली भी मैं पहली बार देख रहा था। कोई रंग 
                        डालने से रोक नहीं रहा था और न ही कोई जबरदस्ती रंग लगा 
                        रहा था। मन कर रहा था कि इन संभ्रांत लोगों के मंच से 
                        कूदूँ और मैदान में कूद पडूँ। पर मैं तो प्रोटोकोल का नया 
                        पाठ पढ़ रहा था। इतने में हमारे तत्कालीन उच्चायुक्त श्री 
                        इंद्रवीर चोपड़ा और उनकी पत्नी नोनिता चोपड़ा आए। उनके साथ 
                        'पिचकारी' कार्यक्रम के आयोजक रवि महाराज जिन्हें सभी 
                        त्रिनिडाडवासी रवि जी के नाम से पुकारते हैं, भी थे। 
                        नमस्कार चमत्कार के बाद हमने अपना आसन ग्रहण कर लिया और 
                        रवि जी मंच सँभलने चले गए। थोड़ी देर में चोपड़ा दंपत्ति 
                        के चाहने वालों ने उन्हें मैदान में खींच लिया। बस फिर 
                        क्या था मेरे सामने भी मैदान खुल गया। मैदान में हुड़दंग 
                        था पर शालीन, मैदान में रंग थे पर मधुर, मैदान में भीड़ थी 
                        पर सभ्य और मैदान में बच्चे थे पर बड़ों जैसे। नहीं थी तो 
                        घुटती हुई भांग, झूमते हुए कदम, सीटी बजाते मजनूँ , कुछ 
                        करो इस होली में हैं सब क्षमा के लाभेक्षु।
 
 
  ऊपर 
                        रंगों की पिचकारी चल रही थी और सामने गीत संगीत की 
                        पिचकारी। मैं देखकर चौंका था, आप पढ़कर चौंक रहे होंगे। 
                        पिचकारी से रंग निकलते तो आपने देखे होंगे पर गीत और संगीत 
                        निकलता नहीं देखा होगा। वैसे तो होली और संगीत का राग-रंग 
                        जैसा संबंध है। गलियों में गाती हुई टोलियाँ निकला करती 
                        थीं, कुछ आज भी निकलती हैं और शहरों ने रंग से राग को अलग 
                        कर दिया है। पर यहाँ रंग के साथ कुछ अलग तरह का था। 
                        'पिचकारी' की कल्पना रवि जी की है जो बरसों से त्रिनिडाड 
                        में अपने रंगों से सबको भिगो रही है। सामने मंच पर 
                        अंग्रेज़ी में जो गया जा रहे थे वे पिचकारी गीत थे, न् न् 
                        न् केवल अंग्रेज़ी में नहीं अपितु हिंग्लिश में, ये 
                        हिंग्लश विंग्लश क्या है! भोजपुरी और अंग्रेज़ी का सदाबहार 
                        मिश्रण। यही मिश्रण इस द्वीप में हिंदी को ज़िंदा रखे हुए 
                        हैं वरना जिस राष्ट्र में लोगों की मातृभाषा विदेशी भाषा 
                        हो जाए और विदेशी भाषा मातृभाषा वहाँ भाषा की अपनी अस्मिता 
                        कैसे बच सकती है। पिचकारी के इस रसीले रंग में मैं भाषा 
                        सवाल का सूखापन नहीं लाना चाहता हूँ, यह चर्चा फिर कभी। 
 रवि जी द्वारा संकल्पित इस पिचकारी में राजनीति, समाज, 
                        फिल्म, कानून व्यवस्था आदि में व्याप्त विसंगतियों पर 
                        व्यंग्य किए जाते हैं और इन गीतों को पिचकारी गीत कहा जाता 
                        है। कहें तो हिंग्लिश में रचे इन पिचकारी गीतों की कुछ 
                        बानगी प्रस्तुत करूँ।
 
                          
                            | शीर्षक - मॉडर्न बेटी लेखक - जगदेव
 | "मिह बॉयफ्रेंड, सो 
                            लेज़ी वो डोन्ट वॉट टू वर्क ढकोलेइंग दारू इन दी रम शॉप
 ना घर ना भोजन एँड लिक्स नॉन स्टॉप
 बिहेविंग छंद्दर, शी गेट ए कुलच्छन।
 |  
                            | 1 |  |  
                            | शीर्षक - पितरिस वुड बी 
                            हैप्पी लेखक - रूपनारायण रामस्वरूप
 | इफ बाई मैजिक इट कैन हो सकता
 और पितृस कैन कम अगेन
 आजा एँड आजी विल बी हैप्पी, फॉर देयर धर्म वुई मेंटेंन
 दे विल सी दी स्कूल एँड मन्दिर
 नाना एँड नानी हैप्पी
 सीइंग झंडी एज बिफोर।
 |  अगर मैं सभी 
                        पिचकारी गीतों को लिखने लगा तो अगली होली तक लिखता लिखता 
                        भारत ही पहुँच जाऊँगा और संपादक गतांक से आगे आगे करता हुआ 
                        थक जाएगा। इस पिचकारी संस्कृति ने अनेक पिचकारी लेखकों को 
                        जन्म दिया है। मुकेश बुद्धराम, अनंत राम बचन, डॉ. सूरज 
                        रामलखन, केन रामचंद, इंदिरा महाराज, राधिका मोहम्मद, जगदेव 
                        महाराज, मोहिप पूनवासेई, मार्वा मेकेन्सी, और स्वयं रवि जी 
                        जैसे अनेक लेखक हैं जो इस लेखन में सक्रिय हैं। 
 स्टील 
                        पैन और केलिप्सो के इस देश में पिचकारी वस्तुत: ऐसा मंच 
                        प्रदान करता है जहाँ आम कलाकार अपनी प्रतिभा को पहचान उसका 
                        समुचित विकास कर सकता है। पिचकारी गीत, लोक या फिल्म धुन 
                        किसी पर आधारित हो सकते हैं तथा विषय कुछ भी हो सकता है, 
                        अश्लीलता को सहा नहीं जा सकता। रवि जी कहते हैं कि इस देश 
                        में सैक्स के लिए बड़ी उपजाउ ज़मीन है पर भारतीय संस्कृति 
                        की ज़मीन तैयार करने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। 
                        फगुवा के इस मौसम में राग रंग से रंगी इस 'पिचकारी' का 
                        अबीर न केवल आत्मा को भिगोता है अपितु उसे आध्यात्म के 
                        असीम रंग में रंग देता है।
 
 
  'पिचकारी' का यह कार्यक्रम केवल गीत संगीत के राग रंग से 
                        समाप्त नहीं होता है अपितु जैसे ही यह प्रतियोगिता समाप्त 
                        होती है एक नई प्रतियोगिता आरंभ हो जाती है, 'माखन चोर' की 
                        प्रतियोगिता। इस प्रतियोगिता के सभी भारतवासी जानकार हैं। 
                        गोविंदा आला के स्वरों में मटकियों को फोड़ता नौजवानों का 
                        समूह आपको यहाँ भी देखने को मिलेगा, बस अंतर यह है कि यह 
                        समूह गलियों में नहीं घूमता है, अपितु पिचकारी के इसी स्थल 
                        पर बनाया जाता है। इसमें अनेक टीमें भाग लेती हैं और मटकी 
                        फोड़ने वाले इसे जीतते हैं। 
 भारतीय मूल के रंग बिरंगे चेहरों और उड़ते गुलाल को देखकर, 
                        मटकी को फोड़ते उत्साही युवकों को देखकर, अपनी अपनी 
                        पिचकारी से लैस कुछ नन्हे मुन्नों को इधर उधर भागते देखकर 
                        तथा दुकानों पर रोटी जलेबी फुलेरी, पकोड़े और डबलस, छोले 
                        भठूरे खाते देखकर आपको भारत में होने का भ्रम होगा, बस जब 
                        कोई बोलेगा और त्रिनिडाडीय अंदाज़ में क्रियाविहीन 
                        अंग्रेजी को सुनकर आपका भ्रम अवश्य खुल जाएगा।
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