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आत्मकथा 
लेखक किसी भी देश या भाषा का हो उसे अपने संघर्ष और अपनी हिम्मत से कलम को थामे रहना होता है जब तक ज़माना साथ न दे। यह लड़ाई हिन्दी की कलम से लड़ी जाये तो संघर्ष की अवधि कितनी लंबी होगी और ज़माने का साथ मिलेगा भी या नहीं कहा नहीं जा सकता, फिर भी अपनी भाषा और अपनी मिट्टी के दीवाने कलम का सिपाही होना छोड़ तो नहीं देते। प्रस्तुत है अभिज्ञात की बेबाक़ कलम से उनकी जिन्दग़ी के भावभीने दस्तावेज़ 'तेरे बगैर'। 

आत्मकथा का खयाल आते ही मेरे रोमों पर वह आँच आज भी ताजा महसूस होती है‚ जो मेरी दर्जन भर डायरियों के रात भर जलने से उठी थी। मेरी आँखों के आँसू खत्म हो चले थे‚ पर प्रतिभा की हिचकियाँ तब भी रह–रह कर सुनाई देती रही थीं। मैं एक–एक कर उन्हें आग के हवाले यों कर रहा था जैसे 'सत्यनारायण’ की कथा में या विवाह के मंडप में स्वाहा बोलते हुए धूप दीप नैवेद्य होम किया जाता है। पर यह गति धीमी थी। जब एक डायरी जल रही होती थी मैं दूसरी के सफे जहाँ–तहाँ से आहिस्ता–आहिस्ता पलटता जाता था और उस दुनिया की याद में खो जाता था‚ जो उनमें समाई थी। 

अपनी लिखी हुई डायरी के उन सफों को जलाते हुए लग रहा था कि जैसे मैं उस दुनिया को हमेशा–हमेशा के लिये खो रहा हूँ, जिन्हें मैंने डायरी में लिख कर जैसे हमेशा के लिये महफूज कर लिया था।
मेरी पत्नी प्रतिभा की जिद थी या तो मैं रहूँगी या ये डायरियाँ। मैने जो जिया सो जिया। अब उन्हें लिख क्यों रखा है? यह गाँव से आई मैट्रिक पास (जिसमें से आठवीं तक ही स्कूल गई) 17 साल की एक भोली–भाली तरूणी का सवाल था‚ जिसका जवाब देकर उसे संतुष्ट कर पाने की मेरी तमाम कोशिशें विफल थीं।

उसकी नजर में मेरे मुहब्बत के कारनामे तो निहायत गंदे थे ही‚ पर उस पाप की गठरी को घर में लिख कर रखने का क्या औचित्य है‚ उसकी समझ के बाहर का मामला था। मैंने बहुत समझाया था कि इन्हें मैंने इस ढँग से लिखा है कि महज पात्रों और स्थानों का नाम बदल दूँगा तो यह उपन्यास बन जाएँगे। और या फिर मैं जब नहीं रहूँगा तब शायद कोई यह जानना चाहे‚ कि मैंने क्या जिया है‚ तो उसे मदद मिले। इस पर तो उसे और भी एतराज था। मरने के बाद दुनिया को यह बताना की आप कितने घटिया इंसान थे। इसका क्या मतलब है?

मेरी मुश्किल यह थी कि डायरी में केवल लड़कियों से मुहब्बत की चर्चा ही नहीं थी। दूसरी बातें भी थी। मेरी असह्य यातनाएँ थीं। कुछ तस्वीरें थीं‚ कुछ सूखे हुए फूल। खुशबुएँ थीं जो जीने का संबल बनी। कुछ शब्द जो अपनी धड़कनों की तरह जब चाहूँ, सुना करता था। खास तौर पर कुछ विशेष दिनों की तारिखें। पर उसने मेरी–दो–चार डायरियों में ताक–झाँक की थी और न सिर्फ रो–रो कर बुरा हालकर लिया था‚ खाना–पीना छोड़ दिया था‚ बल्कि आत्महत्या के इरादे से तमाम उल्टी–सीधी दवाएँ भी खा ली थी। उसने मुझे इस कदर डरा दिया था कि मेरी सारी बौद्धिकता विफल थी।

मैंने समझाने की तमाम कोशिशें कीं, कि मैं बदल चुका हूँ, यह सब पुरानी बातें हैं‚ मगर वह डायरियों के पीछे हाथ धोकर पड़ गई। हालाँकि मैंने उसे बहुत सख्त हिदायत दे रखी थी कि किताबों‚ मेरे लिखे किसी पन्ने को हाथ न लगाए और कोई भी मुद्रित पृष्ठ रद्दी समझ कर न इस्तेमाल करे या फेंके। अलबत्ता कोरे सफे वह रद्दी के तौर पर इस्तेमाल करे तो करे। पर जब वह घर में अकेली थी और किताबों की आलमारी में तमाम डायरियाँ देख कर उसे लगा कि इनमें से कुछ कोरी भी हो सकतीं है। उसने उसके सफे पलटे थे। उसके जी में आया था कि जो सैकड़ों लोकगीत उसे याद हैं‚ वह उन्हें डायरी में उतार डाले। और उसे हैरत हुई थी डायरियाँ भरी हुई थीं फिर तो उसने उन्हें पढ़ना शुरू किया था। और वह डायरियों का 'किरिया करम’ (अंतिम संस्कार) करके ही मानी। उन दिनों वह मेरी गैरमौजूदगी में थाली बजाकर गाती थी। और इस बात से अनजान रहती थी कि घर के बाहर उसका गीत सुनने वालों की भीड़ जुटी है।

मैंने बचपन में महात्मा गाँधी की जीवनी पढ़ कर डायरी लिखने का शौक पाला था और लगभग नियमित लिखने का क्रम कई वर्षों तक इस हादसे के पहले तक रहा। इस आदत के कारण मुझे दोस्तों की कमी उतनी महसूस नहीं होती थी। मैं अपनी पीड़ाओं को डायरी के हवाले कर देता था तो मन हल्का हो जाता था। डायरी में मेरी स्वीकारोक्तियाँ थीं। मेरे सपनों की गवाही। मेरी हमराज। जिससे मुझे कतई कुछ नहीं छिपाना था। धीरे–धीरे जैसे–जैसे मुझमें लिखने की तमीज आती गई ये डायरियाँ मेरे लिये आत्मसंवाद का माध्यम बनती गईं। यह डायरी ही थी जो मुझे कई आत्महत्या जैसे खयाल से उबारती रही थी।

मुझे याद है उस रात मैंने बतियाँ गुलकर दी थी। फर्श पर निढाल–सी पड़ी प्रतिभा रो रही थी। यह इस हादसे के आगाज का तीसरा दिन था। इस बीच वह बहुत कुछ कर गुजरी थी। जिसमें घर छोड़कर जाने के लिये सूटकेस में कपड़े रखने तक और दीवार से अपना सिर टकराकर तोड़ने तक सब कुछ शामिल था। घर के टूटने लायक तमाम बर्तन और क्रॉकरी शहीद हो चुके थे। रात के उस अंधेरे में मैंने किचन का बाहरी दरवाजा और खिड़की खोलकर पहले एक डायरी को माचिस की तीलियों के हवाले किया। उसके बाद, पहले से जलती हुई डायरी की धुँधली रोशनी और उठते हल्के धुएँ तथा कुछेक टपके आँसुओं से तर आँखों से, बची हुई डायरियों के कुछेक सफे पलटता और पिछली लगभग जल चुकी डायरी की आग के हवाले नई डायरी को करता रहा।

वह रोशनी की हिलती हुई लौ मुझमें आज भी कहीं सलामत है। मुझे याद है मैंने अपनी डायरियों को नाम दिया था 'तीलियाँ और तल्खियाँ’। मैंने डायरी में अपने संघर्ष और गम ही नहीं बयाँ किए थे बल्कि उस सबका जिक्र भी था‚ जो मुझे हताशा से उबारते रहे। उस कृषि वैज्ञानिक और अपने मामा रामकुमार सिंह का भी जिक्र था‚ जो कैंसर से बेऔलाद मरे। उन्होंने धान पर कुछ खोजें की थीं और मेरी तमाम रचनाओं को नष्ट कर देने के लिये प्रेरित करते रहे थे पर सफल नहीं हो पाए थे। वे मानते थे लोगों का जीवन विज्ञान से बदला जा सकता है साहित्य से नहीं‚ पर जो मेरी एक कहानी सुनकर रो पड़े थे। पर अब मुझे कभी–कभी लगता है काश मैं वैज्ञानिक होता तो सचमुच लोगों के हित में कुछ सार्थक कर पाता। साहित्य में तो पता ही नहीं चल पाता क्या कर रहा हूँ। …तो उस रात लगा था कि तीलियाँ खुद अपनी लौ में जल जाती हैं। आखिर वे जल गईं और मेरे लिये तल्खियाँ छोड़ गईं।

इस तरह के सन्नाटे की रातें मेरी जिन्दगी में बहुत कम आई हैं। अपनी अजन्मी दूसरी बेटी की मौत की वह तनहा रात कुछ ऐसी ही लगी थी। जब प्रतिभा नर्सिंग होम में थी और मैं घर पर। मेरे चित्रकार मित्र अमर पटनायक ने बताया था कि जिस घर में मौत हुई हो वहाँ लाइट नहीं जलाई जाती। दीया जलना चाहिए बस। यह उस रात की तरह भी लगा था जो कई सालों बाद मैंने कोलकाता छोड़ने से पहले गुजारी थी। प्रतिभा के बगैर। वह उस रात के लिये पहले ही एक सांगीतिक कार्यक्रम में शामिल होने की स्वीकृति दे चुकी थी। इसलिये वह उस कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेती तो उस पर कानूनी मामला हो जाता और मुझे दूसरे दिन सुबह जाना जरूरी था‚ क्योंकि 'अमर उजाला’ ने जालंधर पहुँच कर ड्यूटी ज्वाइन करने की जो तिथि तय की थी उसके मुताबिक मुझे जो ट्रेन पकड़नी थी। वह यही थी।

सियालदह स्टेशन सुबह ११ बजे वह स्टेशन छोड़ने पहुँची थी। बिछड़ते समय ही मुझे पता चला था कि वह मुझमें किस तरह समा चुकी है। जिस प्रतिभा के साथ शुरआती दौर में मुझे लगा था कि इसके साथ जी भी पाऊंगा या नहीं‚ १२ साल बीतने का बाद यह लग रहा था कि प्रतिभा के बगैर मैं जीऊंगा कैसे? यह वही स्टेशन था‚ जहाँ प्रतिभा एक युग पहले गुम हो गई थी भीड़ में। पर अब इस कोलकाता महानगर ने बतौर गायिका उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी थी। वह दौर भी आया कि प्रतिभा सिंह की तस्वीरों के पोस्टर दीवारों पर चिपके मिल जाते हैं। टिकट खरीदकर उसका गीत सुनने वालों से ६५ हजार दर्शकों वाला नेताजी इंडोर स्टेडियम भर गया और फिर टिकट न मिलने पर दर्शक गेट तोड़ कर भीतर घुस गए थे।

प्रतिभा आज एक लेखक की जिन्दगी के तौर–तरीकों को समझ चुकी है‚ इसलिये अब कोई खौ.फ नहीं रहा आत्मकथा लिखने का। डायरी वाले हादसे के काफी बाद उसकी नजर में आए उन प्रेम–पत्रों से भी अब उसे कोई एलर्जी नहीं रही जो मुझे विभिन्न लड़कियों ने अलग–अलग दौर में लिखे थे। और जिनमें वह खत भी शामिल है जो अब तक मेरी जिन्दगी का आखिरी प्रेम पत्र साबित हुआ है। और जिसके लिखने वाले से प्रतिभा न सि.र्फ खुद मिलना चाहती है‚ बल्कि मुझे भी प्रेरित करती रहती है कि उससे जरूर मिलूँ।
मेरी बेटी भी उन खतों को पढ़ कर उसकी शब्दावली पर हँस चुकी है‚ जिसने अभी इस तरह का कोई खत नहीं लिखा है और ना ही पाया है। और ना पढा है। अस्तु‚ मेरे सामने सवाल यह है कि फिर आखिरकार यह आत्मकथा किसलिये। तो इसका लेखन आत्मकथा एक इतफाक है। मुझे खुद नहीं मालूम था कि मेरी जिन्दगी कभी इतनी दिलचस्प हो उठेगी। जिन्दगी के इतने पेचों–खम होंगे‚ मैंने नहीं सोचा था। और जब यह लिख रहा हूँ तय नहीं है कि जिन्दगी अब मुझे किधर ले जाने जा रही है और इसी दौर में मेरे एक लेख को पढ़ कर 'अभिव्यक्ति’ की संपादक पूर्णिमा वर्मन ने आत्मकथा लिखने को प्रेरित किया है‚ तो लिख रहा हूँ।

शार्ट टर्म के दौर में लांग टर्म की कीमत अपने लेखन के आरंभिक काल से लेकर कुछ अरसा पहले तक मैं दुनियावी ढर्रे पर ही यह मानता था कि मैं क्या करने की कोशिश कर रहा हूँ, भले मेरे लिये वह अहम हो दुनिया के लिये नहीं है। दुनिया के लिये अहम वह है कि हम क्या करने में कामयाब रहे। दुनिया कामयाबी को ही महत्व देती है। सो जो समाज की स्वीकृत अवधारणा है‚ मैं भी उसी का शिकार रहा। पर देर से ही इस गलती का अहसास हुआ कि क्या मैं इस दुनियाँ का हिस्सा नहीं? अगर यह बात मेरे लिये माने रखती है कि मंजिल ही सब कुछ नहीं है‚ बल्कि कुछ भी नहीं है और यह जो सफर हम अपनी तय की गई मंजिलों के लिये करते हैं वही मेरी उपलब्धियाँ हैं‚ तो दूसरे के लिये माने क्यों नहीं रखती। अगर मैं दुनिया से अलग नहीं हूँ, तो दुनिया से मेरे अलगाव का कोई औचित्य नहीं। दुनिया मेरा ही हिस्सा है। दुनिया पर मेरा भी हक है। और वह जो मैं सोचता हूँ,जो करता हूँ वह मैं सबसे बाँटने में क्या हर्ज है। अगर मैं दुनिया के बारे में सोचता हूँ और यह उचित है तो फिर जो मैं अपने तई जो सोचता हूँ, वह दुनिया के लिये क्यों अहम नहीं है। मैंने अपनी रचनाशीलता में दुनिया और अपने बीच की हर दूरी को न मिटाने की कोशिश की है। क्योंकि मेरे मैं होने में केवल मैं शामिल नहीं हूँ।

मेरे मैं के होने में कई मामूली लोगों का होना शामिल है। कई वे भी शामिल हैं‚ जिन्हें दुनिया ने स्वीकार किया है कि वे मामूली नहीं रहे। जिन्हें वक्त ने साबित किया है कि वे उनमें से हैं‚ जो कभी–कभी जनमते हैं। जिनसे मैं नहीं मिला होता तो मैं वह नहीं होता जो मैं हूँ। कहीं न कहीं उनका मुझ पर ऋण है। मैंने उस ऋण को शिद्दत से महसूस किया है मेरी कविता 'सरापता हूँ'– में इसकी अभिव्यक्ति हुई है। (पर कविता की गलत व्याख्या हुई है। वह कविता अपनी विरासत से नफरत और छुटकारा पाने की नहीं है। यह उनसे अनहद जुड़ाव की है।)

और हैरत है कि यह जो मेरी आवरणहीनता है‚ इसने मेरी रचनाशीलता में कुछ ऐसा पैदा किया कि जहाँ एक तरफ लोगों को शिकायत रहती है कि साहित्य को लोग नहीं पढ़ना चाहते। वहीं मेरी रचनाओं को पढ़ने वालों का कहना है कि उनमें से अधिकांश ने कई बार मुझे पढ़ा है। क्यों पढ़ा है यह उनके मनन का विषय है। और मेरे लिये विस्मय का। शायद उन्हें मुझमें वही मिलता है जो उनमें भी किसी हद तक किसी न किसी रूप में है। यह जो परदादारी है‚ उसी को खत्म करने से यह हुआ है।

मैं यह नहीं कहता कि मैंने मामूली आदमी से उठाकर अपने–आपको गैर–मामूली बनने की कोशिश नहीं की। मैं लगातार इसी दौड़ में रहा। पर वह दौड़ आम दुनियाँदारों की दौड़ से अलग है। लगभग उल्टी दिशा में। जहाँ वह होने की कोशिश जो हमसे प्रकृति चाहती है और उन हालातों के खिलाफ लगातार संघर्ष‚ जो मेरे मैं को मैं बनने से रोकता है। उस दौड़ में जहाँ आसानियाँ आसान नहीं है। वह कमाने की कोशिश‚ जो बहुत कुछ खोकर भी मिल जाएगा की नहीं‚ तय नहीं है।

मैं जानता हूँ कि मैं चर्चित लेखक नहीं हूँ। जो जिन अर्थों में किसी को स्थापित लेखक कहा जाता है वह भी नहीं। मैंने पुरस्कार नहीं पाए हैं। मैंने कभी अपनी रचनाओं को किसी पुरस्कार के लिये नहीं भेजा। और काफी अरसे तक कई बार तो दो–दो साल कहीं प्रकाशित करने के लिये भी नहीं। रचना लिख ली तो लगता है कि काम पूरा हुआ। अरुण कमल से लेकर एकांत श्रीवास्तव तक ने मुझे राय भी दी है कि मैं पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएँ क्यों नहीं भेजता। जिन्दगी में इतमीनान कम ही हो पाया। इंतजार करता हूँ कि थोड़ा इतमीनान हो जाए तो रचना भेजूँगा। और मामला टल जाता है। फिर भी अपने लिखे पर यकीन है कि कुछ ठीक–ठाक सा लिख लेता हूँ। बाबा नागार्जुन ने यों ही नहीं कहा होगा कि मुझमें रचनात्मक उर्जा बहुत है।

साहित्य अकाडेमी पुरस्कार पाने वाले मेरे वरिष्ठ मित्र कीर्तिनारायण और वरिष्ठ कथाकार अवध नारायण सिंह यों ही नहीं कहते होंगे कि मुझमें निराला–सी रचनाशीलता और प्रयोगधर्मिता है। यों ही असद जैसी‚ अदम गोंडवी‚ विजेंद्र जैसों को मेरी रचनाओं में कहीं कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे याद है मेरी पहली ही किताब पर 'संडे मेल’ से लेकर 'हिन्दुस्तान’ तक में समीक्षाएँ आई थी और संभावनाएँ व्यक्त की गई थीं। वह धासू समीक्षात्मक लेख नहीं मिला जो अरसा पहले मेरी किताबों पर इन दिनों 'आज तक’ से जुड़े पुण्य प्रसून वाजपेयी ने लिखा था। कभी मदन कश्यप ने ही मुझे बताया था कि कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह को मेरी कविताएँ बेहद पसंद थीं‚ जिनसे मैं कभी मिला ही नहीं। पर मैं चर्चा में नहीं आ पाया तो इसलिये भी की मैं रह–रह कर साहित्यिक परिदृश्य से गायब होता रहा। जिन्दगी ही ऐसी रही कि कभी मैं जीने में ऐसा डूब जाता कि रचना की दुनियाँ से कट जाने को विवश हो जाता।

दरअसल‚ मेरे सामने दो दुनियाएँ रहीं। एक जीवन की दुनिया‚ दूसरी रचना की दुनिया। मैं जब सोचता हूँ कि मैं क्यों जीता हूँ तो मेरे पास इसका सीधा सरल जवाब होता है रचने के लिये। इससे सही जवाब मेरे पास नहीं है। और सचमुच कुछ नहीं है मेरे जीवन का उद्देश्य। और जब सवाल सामने होता है मैं क्यों लिखता हूँ मेरे पास जवाब होता है जीने के लिये। क्योंकि मेरा लिखना ही मेरा जीना है।

मैं उस जीवन की कल्पना नहीं कर सकता जहाँ मेरे लिखने की कतई गुंजाइश न हो। मेरा जीवन मेरे लिखने की खुराक है। जैसे मुझे लिखने के लिये जीवन की असाइनमेंट दी गई हो। और मेरा लिखना मेरे जीवन का सबब। कभी–कभी तो मैंने महसूस किया है कि मैंने जो जिया है वह सब अपने अंदर के लेखक के हवाले कर देता हूँ और छोड़ देता हूँ भूखे भेड़िये की तरह उसे निगल जाने के लिये। जो मेरे जीवन का सारा रस ले जाता है। लेकिन जब अपने जीवन के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि और कुछ नहीं किया है मैंने शायद जो लिखा है वही संचित पूँजी है। वही मेरी पहचान है। जैसे किस्सों में जादूगर रखता है अपनी जान किसी पक्षी में‚ मेरी जान मेरी रचनाओं में है।

मैं आज 'वेबदुनियाँ डॉट कॉम’ में हूँ विश्व के पहले हिन्दी पोर्टल में। मुझे सिटी चैनल्स के अलावा साहित्य चैनल का संपादन प्रभार मिला। एक तरफ समाचारों का दबाव है। तात्कालिकता की दुनिया होती है समाचारों की दुनिया। दूसरी ठीक उसके विपरीत साहित्य की दुनिया है। तात्कालिकता को मुँह चिढ़ाती हुई। तात्कालिकता के दबाव में जो कुछ पीछे छूट जाता है उसकी खोज–खबर लेता हुआ। समाचारों को चाहिए सेलिब्रेट्रीज। प्रसिद्ध लोग। बड़ी–बड़ी घटनाएँ। बड़े हादसे। साहित्य उनकी बात करता है जो खबर के लायक नहीं समझे जाते। साहित्य उसे भी पकड़ता है जिसे अखबार समाचार नहीं मानते। दो विपरीत ध्रुवों पर एक साथ हूँ। और एक चुनौती है। आधुनिकतम माध्यम इंटरनेट पर साहित्य जैसी गंभीर चीज को प्रासंगिक बनाए रखने की। उस कंपनी में जहाँ विदेशी पूँजी निवेश हो वहाँ किसी भी शै को उत्पाद बनने से नहीं बचाया जा सकता।

हर निवेशक मुनाफा चाहता है। लगातार सवाल उठ रहे हैं–साहित्य इस बाजार में बिकेगा या नहीं। साहित्य से कमाया जा सकता है या नहीं। साहित्य को बेचने के लिये कोई शार्ट टर्म रास्ता है या नहीं। बाजार में साहित्य खड़ा है। मैं माध्यम भर हूँ। साहित्य अगर बचा रह गया तो सुखद आश्वासन होगा। इस नए माध्यम पर गंभीर साहित्य का टिके रहना‚ इस माध्यम को नई दिशा देने वाला साबित होगा। एक खूबसूरत सपना है इंटरनेट पर गंभीर साहित्य। और मैं इंतजार कर रहा हूँ। यह बचेगा कि नहीं। यह नहीं बिका तो नहीं बचेगा। बाजार में जो बिकता है वही बचता है। कोलकाता में किताबों की दुकानें बिकी तों वहाँ साड़ियों और जूतों की दुकानें लगीं। मुझे एक और खूबसूरत सपने को बाजार में विफल होने से बचाने की कोशिश करनी पड़ रही है और साथ ही साथ सपने की मौत का मातम मनाने के लिये भी अपने आप को कहीं न कहीं तैयार रखना पड़ रहा है। देश की ३ दर्जन लघु–पत्रिकाएँ मेरे साथ हैं। ये वे पत्रिकाएँ हैं जो अपने संपादकों के निवाले में कटौती करने निकलती हैं। बच्चों के दूध की कीमत पर निकलती हैं। और कई बार वह कर्ज लेकर भी।

मुझे याद है 'विपक्ष’ के संपादक भारत यायावर किसी समय मेरे अच्छे दोस्त हुआ करते थे। इधर अरसे संपर्क नहीं रह गया है। मैंने उनके तीन पत्रों के बावजूद आलोचक नामवर सिंह वाले अंक के लिये कुछ नहीं दे पाया था। मुझे नहीं पता वह अंक निकला या नहीं। उन्हें लगता है मैं कवि चाहे जैसा होऊँ आलोचक अच्छा हूँ। मेरी कुछेक टिप्पणियाँ उन्होंने 'विपक्ष’ में प्रकाशित भी की थी। मैंने नामवर जी पर लिखना शुरू भी किया था‚ मगर जिन्दगी में इतनी उथल–पुथलमची की फिर महीनों कुछ नहीं लिख पाया। और फिर महीनों बाद उनका पत्र आया कि वे 'विपक्ष’ के एक और विशेषांक की सामग्री जुटाने के खयाल से अपने गृहनगर बोकारो से कोलकाता के जालान पुस्तकालय पहुँच रहे हैं। पुस्तकालय के पास ही कहीं ठहरें हैं। मैं मिलूँ। बहुत–सी बातें करनी हैं। मिलने का समय भी नहीं निकाल पाया। और फिर शर्मिंदगी में कभी उनसे खतो–किताबत नहीं की। पर वे जब मिले थे‚ उन पर 'विपक्ष’ के लिये ५२ हजार का कर्ज था।

तो वेबदुनिया के माध्यम से यह जरूर हुआ कि अपने अस्तित्व के संकट से जूझती वे साहित्यिक लघु–पत्रिकाएँ जो हजार‚ पांच सौ की तादाद में प्रकाशित होती हैं उन्हें हमसे जुड़कर एक ऐसा मंच मिला जहाँ उनकी रचनाएँ देश–विदेश के हजारों लोगों तक पहुँचीं। उनका नाम दुनियाँ के अलग–अलग कोनों में बसे हिन्दी जानने वालों तक पहुँचा। और यह हुआ कि जो इंटरनेट चैट‚ पोर्नोग्राफी और ई–मेल के बियाबानों में अपनी राह तलाश कर रहा है और पत्रकारिता में 'तहलका’ के रूप में सनसनीखेज जानकारियाँ 'बेच’ रहा हो वहाँ गंभीर साहित्य की थोड़ी–सी जगह बनी है। अगर यह जगह बनी रह गई तो यह दिन भर की मेहनत और देर रातों तक जागना सफल समझूँगा। इससे पहले कि लतीफेबाज साहित्य के नाम पर इस माध्यम पर ऊल–जुलूल परोसें हम नेट के पाठकों को साहित्य के सही आस्वाद तक पहुँचा देना चाहते हैं।

संघर्ष 'देवदास’ को भी करना पड़ रहा है। शरत्चंद्र के 'देवदास’ पर लगा पैसा लौट आया तो साहित्यिक कृतियों के दिन फिर सकते हैं। साहित्य वहाँ भी बाजार में खड़ा है। वह बिक भी सकता है‚ पर गारंटी नहीं है। शार्ट टर्म के बाजार में लांग टर्म की क्या कीमत लगती है देखना है।

२४ अगस्त २००२

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क्रमशः

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