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संस्मरण

जन्म जयंती के अवसर पर

साठोत्तरी कहानी के समर्थ हस्ताक्षर अमर गोस्वामी
- सतीश जायसवाल


अमर गोस्वामी के साथ मेरे सम्बन्ध अच्छी मित्रता के रहे हैं, जिसमें कृत्रिमता के लिए कोई जगह नहीं थी। क्योंकि अमर, स्वयं, अकृत्रिम रहे। फिर भी पास उनके पुराने मोबाइल नंबर के अतिरिक्त और कोई भी संपर्क सूत्र नहीं बचा है। यह संपर्क- विहीनता उनके और मेरे बीच, दिल्ली और मेरे बीच की दूरी से उपजी-उपजाई है। यह दूरी मिर्जापुर और दिल्ली के बीच के भी होगी, जहाँ से निकल कर अमार गोस्वामी बाहर आये तो वहाँ से बाहर ही कर दिए गए। पता नहीं वहाँ, मिर्ज़ापुर में, जहाँ से वो चल कर आये, आज के दिन किसी ने उन्हें याद भी किया? अमर, मिर्जापुर से चले तो थोड़े दिनों के लिए उन्होंने, तब के मध्यप्रदेश के बुढार को अपनी आजीविका के साथ- साथ रचनात्मक गतिविधियों का केंद्र भी बनाया था।

बुढार में, अमर गोस्वामी एक (संभवतः गैर-सरकारी) कालेज में अध्यापन करते थे। बुढार का उनका यह प्रवास-काल बहुत लंबा नहीं था, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण था। और बहुत महत्वपूर्ण साहित्यिक गतिविधियों का भी रहा, जिन्हें उनकी उल्लेखनीयता के साथ दर्ज किया जाना था। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ। वो गतिविधियाँ, तब अपनी प्रक्रिया में ही थीं और उनकी उल्लेखनीयता उस समय संभावनाओं के अवलोकन के अंतर्गत थीं। और जब तक वो संभावनाएँ परिपक्व हुईं तब तक अमर गोस्वामी बुढार छोड़ चुके थे, क्योंकि वहाँ रहने-बसने की संभावनाएँ नहीं बन पा रही थीं। इलाहाबाद से उस समय, हिन्दी कहानियों पर केन्द्रित, दो महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ अपनी-अपनी प्रतिष्ठाओं के साथ प्रकाशित हो रही थीं-- ''कहानी'' (सम्पादक : श्रीपत राय) और ''नयी कहानी'' (सम्पादक : अमृत राय।) अमर गोस्वामी को, संभवतः ''नयी कहानी'' के लिए इलाहाबाद बुलाया गया था।

अब यह बात इतने दिनों की हो चुकी है कि तथ्य और उनके क्रमों के इधर-उधर होने की आशंकाओं से उन्हें मुक्त नहीं माना जा सकता। लेकिन, हिन्दी के एक कथाकार के संघर्ष और उसकी रचना-शक्ति के सन्दर्भों को उनकी तथात्मक क्रमबद्धता में सहेजने और सुधार कर रखने के काम में सामूहिक भागीदारी भी अपेक्षित होती है। महत्वपूर्ण होता है कि, देर सही, लेकिन उनके दर्ज किये जाने की पहल हुई।

बुढार-काल, मेरी दृष्टि में, अमर गोस्वामी का सबसे उल्लेखनीय रचनात्मक समय रहा है। यहाँ रहते हुए उन्होंने, हिन्दी कथा पर केन्द्रित एक पत्रिका का सम्पादन भी किया था। और, ऐसे साहित्यिक प्रयासों के साथ जैसा होता है, उस पत्रिका के भी २-३ अंकों से अधिक नहीं निकल सके थे। अविभाजित मध्य प्रदेश का शहडोल, उस समय, हिन्दी साहित्यिक गतिविधियों के लिए आश्चर्यकारी महत्त्व का केंद्र बना हुआ था। और अमर गोस्वामी उसके केंद्र में दिखे थे। आज के, हिन्दी के एक बड़े महत्वपूर्ण हस्ताक्षर उदय प्रकाश का वह उदय-काल ही था। उदय प्रकाश उस समय शहडोल में ही थे। और शहडोल के पास ही, एक छोटी सी जगह -- जमडी -- में विश्व पदयात्री सतीश कुमार ने अपना आश्रम बना रखा था। जमडी के आश्रम ने साहित्य की गतिविधियों को अपने समय के सामजिक विकास की गतिविधियों की सापेक्षितता में देखने की दृष्टि विकसित की। सतीश कुमार ने साहित्य की एक उल्लेखनीय पत्रिका का हिन्दी में प्रकाशन भी किया था- "विग्रह।'' लेकिन उसके भी एक या दो अंक ही प्रकाशित हो पाए थे।

अमर गोस्वामी, उदय प्रकाश और सतीश कुमार का एक साथ वहाँ होने को यदि उनके ठीक-ठीक महत्त्व के साथ देखा-समझा और दर्ज किया गया होता तो हिन्दी साहित्य की गतिविधियों में एक उल्लेखनीय घटना ही थी। अविभाजित मध्यप्रदेश का साहित्य सन्दर्भ उस घटना के उल्लेख के बिना एक अधूरा सन्दर्भ ही होगा। आज, इतने बरसों बाद भी एक बात मन में बनी हुयी है कि कोई ऐसी सूरत बनती कि वह दौर, वो दिन एक बार फिर लौटें। यह समझते हुए भी कि जा चुके दिन लौटते नहीं, इस पर अमर गोस्वामी के साथ मेरी बात तब भी होती रही जब वो दिल्ली चले आये थे। और कहीं न कहीं, यह बात, किसी अतृप्त रचनात्मक इच्छा की तरह अमर के मन में भी बनी हुई थी। लेकिन, इस तरफ ही कोई उपाय नहीं हो पाया।

दिल्ली में, अमर गोस्वामी को, एक बड़े प्रकाशन समूह ने अपने साथ जोड़ा। रेमाधव प्रकाशन। रेमाधव कई दृष्टियों से, हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय के सन्दर्भ में कुछ वैसी ही उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण घटना ही रही है, जैसा, अमर गोस्वामी के बुढार के दिनों को वो असाधारण संयोग। ''रेमाधव'' प्रकाशन समूह एक बड़े और भरोसेमंद व्यावसायिक आश्वासनों के साथ सामने आया। और ऐसा लगा कि यह, हिन्दी साहित्य के प्रकाशन में घर कर चुके कुत्सित-एकाधिकार का प्रतिकार होगा। अशोक भौमिक जैसे ख्यातिनाम चित्रकार और माधव भान जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के छायाकार इस नए प्रकाशन समूह से जुड़े तो ऐसा लगा था की ''रेमाधव'' रचनाकारों का अपना एक ऐसा गृह-संस्थान होगा जहाँ साहित्य और कला के सभी अनुशासनों के लोगों का आपस में मेल-मिलाप होता रहेगा। लेकिन, वैसा कुछ नहीं हो पाया, सिवाय एक अवसादपूर्ण निराशा के। उस अवसादपूर्ण निराशा ने कहीं न कहीं अमर गोस्वामी को तोड़ा भी होगा।

रमेश तैलंग जिस समय अमर गोस्वामी का स्मरण कर रहे थे वह शायद इतनी सारी स्मृतियों के लिए उपयुक्त अवसर नहीं रहा होगा। लेकिन, अब उनके साथ तो मैं अपनी इन भावनाओं का साझा कर ही सकता हूँ। और अपनी एक कमजोरी भी उनके सामने रख सकता हूँ कि अमर गोस्वामी को मैं एक व्यंग्य-कथाकार के सीमित चौखटे में बाँध कर नहीं देख पाया। अपनी दृष्टि में मैं, अमर गोस्वामी को हिन्दी कथा की समग्रता में ही देख पा रहा हूँ। अमर गोस्वामी मेरे मित्र रहे, इसलिए, उनकी पहली बरसी पर मैं अपनी भावनाएँ उनके परिवार तक भी पहुँचाना चाहता था। और मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य भी रहा कि उनके बेटे ने उनका मोबाइल नंबर अपने पास सम्हाल कर रखा है। मैंने उनके बेटे से, उनके इसी पुराने नंबर पर बात करने की भी कोशिश की, लेकिन पुरानी बातों के लिए नयी पीढी के पास अब उतना समय कहाँ बचा कि याद करें और याद करने वालों के साथ बात करें ?

 

२५ नवंबर २०१३

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