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वैदिक देवताओं की कहानियां

—डा रति सक्सेना

उषा और मरूत

 

 

 

 

उषा

वेदों में उषा देवता मात्र ऐसी स्त्री पात्र हैं जिन्हें लक्षित करके अनेक सूक्त रचे गए। उनका गुणगान लगभग 20 सूक्तों में किया गया है। यद्यपि ये सूर्य की पुरोगामी देवता हैं किंतु उनके वर्णन में प्राकृतिक अवलोकन कभी भी ओझल नहीं हुआ है। उषा के सौंदर्य वर्णन में साहित्यिक विकास का उत्कर्ष ध्यान देने योग्य है। यह द्यौ की परम सुंदरी पुत्री है जिसका जन्म आकाश में हुआ। यह श्याम रजनी की भास्वर भगिनी हैं। वह अपने प्रणयी सूर्य की प्रभा से दैदिप्यमान होती हैं। सूर्य उसी का मार्ग अनुकरण करता है जिस तरह से कोई युवक किसी सुंदर लड़की के पीछे जाता है। यह चमकीले रथ पर सवार होती है जिसमें लाल घोड़े या बैल जोते जाते हैं। यह नर्तकी की भांति चमकीले कपड़े पहनती है और प्राची दिशा में उदित होती हैं। उसका रूप सद्यस्नाता नायिका के समान मनोहर है जो सभी को आकर्षित करता है। वही अंधकार के द्वार खोलती है जिससे गो गोशाला से बाहर निकल सकें। वह रजनी के श्याम परिधान को उतारती है, भूत–प्रेत भगाती है और अंधकार दूर करती है। वही प्राणियों को जगाती है, पक्षियों को उड़ने के लिए प्रेरित करती है। वह मधुर स्वर में गाती है। वह नियम का उल्लंघन नहीं करती, वह अजर–अमर और चिरंतर है। जहां मानव का जीवन नश्वर है, उषा शाश्वत है–जो नर देखा करते थे उषा को, वे चले गए, उषा आज भी दैदीप्यमान हैं हमारे लिए। आगे भी इसे देखने आते रहेंगे भविष्य में। (ऋग्वेद – 1•113•11) पुनःपुनः जन्म लेती उषा देवी मर्त्यों की आयु का करती है क्षपण, जिस तरह द्यूत रसिक खिलाड़ी संपत्ति का करता है क्षरण। (ऋग्वेद–1•92•10) उषा से संबंधित कुछ मनोहर मंत्र इस प्रकार हैं – यह ज्योतियों में श्रेष्ठ ज्योति उदित हुई,

दैदिप्यमान प्रकाश प्रकाशित हुआ
जिससे प्रसूत सविता देव, रात्रि ने दे दी
अपनी योनि उषा को
ये दोनों चलती समान मागे से
देवताओं की आज्ञा से बारी–बारी
न मनमुटाव, न रोक–रूकाव
रात्री और उषा हैं समान मनसा
हैं स्वरूप भिन्न–भिन्न फिर भी
भास्वती नेत्री यह चमकती है
चित्रों को सबके हित खोल
अखिल चराचर को प्रबोधित कर
उषा जगाती है सभी प्राणियों को
यह दिव दुहिता प्रत्यक्ष हुई
देदीप्यमाना युवती सुंदर वेष में
हे सुभगे! यहीं चमकती रहो
प्राथिव विश्व की स्वामिनी
गगन मंडल में यह उषा देवी
चमकाती है अपनी द्युति
वह आ रही है जगत् में
अरूण अश्वों पर आरूढ़ होकर
उठो जगों मानवों उषा आ गई
हमारे निकट ज्योति बिखेरती
अंधकार विदा हुआ, प्रकाश फैला
सूर्य के लिए मार्ग बनाती हुई
मानवों को आयु देती हुई। (ऋग्वेद – 1, 113, 1–8 तक के कुछ मंत्र)


मरूत

मरूत के प्रति वेद और वेदोत्तर साहित्य एक बात में सहमत हैं कि यह एक देवता नहीं अपितु एक समान आकृति और स्वभाव वाले अनेक देवताओं का समूह हैं। ऋग्वेद में मरूतों की गणना प्रमुख देवता के रूप में हुई हैं। इनकी संख्या कहीं 21 तो 100 बताई गई हैं। वेदों में मरूतों को रूद्र का आत्मज तथा रंगबिरंगी जलद धेनु प्रश्नि की प्रसूति माना गया है। ये पवन और वात्या पर अधिकार रखते हैं। मैक्डोनल के अनुसार वेदों में मरूत युवक वीरों का एक दल है। ये भाले फरसे हाथ में लिए मस्तक पर शिरस्त्राण (लोहे के टोप) पहने रहते हैं। ये सुवर्ण के आभरण धारण करते हैं। विशेषकर अंगद और नूपुर इनके प्रिय आभूषण हैं। जब सौदामियां पृथ्वी पर मुस्कुराती हैं तो मरूत घी की बरसात करते हैं। (ऋ•1•167•8) मरूत का स्वभाव वन्य वराह और सिंह की भांति भीषण एक दारूण बताया गया है। वे अपने रथ में घोड़े जोतते हैं। कभी–कभी वे वायु को भी घोड़े की तरह जोत लेते हैं। वे अपने रथ की नेमि के पर्वतों को विदीर्ण कर देते हैं। (ऋ•8, 7–4) इनके क्रोध से वन झुक जाते हैं, पृथ्वी कांप उठती है, पर्वत डोल उठते हैं। (ऋ 5, 60–2) नदियां निनाद करने लगती हैं और मेघ प्रशंसा गान करने लगते हैं। (1•168•8) ऋग्वेद में मरूत इन्द्र के सहयोगी देवता हैं जो युद्ध में सहायता करते हैं।

पुराणों में मरूतों का स्थान महत्वपूर्ण हैं किंतु उनकी उत्पत्ति कथा अलग अलग पुराणों में अलग–अलग तरीके से दी गई हैं। वाल्मीकि रामायण और मत्स्य, वामन और ब्रह्म पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम में अपने पुत्रों के वध से दुखी होकर दैत्यों की माता दिति ने मदन द्वादशी व्रत किया। कश्यप ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। दिति ने ऐसा पुत्र मांगा जो इंद्र का वध कर सके। तब कश्यप ने दिति में गर्भाधान किया। इंद्र को पता चला तो उसने गर्भ में घुसकर वज्र से भ्रूण के सात टुकड़े कर दिए। वे सात टुकड़े रोने लगे तो इंद्र ने "मा रूदत, मारूदत" कहते हुए चुप करवाया। इस तरह इनका नाम मरूत पड़ गया। इंद्र ने दिति से अपने अपराधों की क्षमा मांग ली। दिति ने क्षमा कर दिया तो इंद्र ने मरूतों को देव पद दे दिया। इस तरह अन्य पुराणों में मरूतों की उत्पत्ति के संदर्भ में भिन्न–भिन्न कथाएं हैं। एक कथा में मरूत को चंद्रवंशी राजा अवीक्षित का पुत्र माना गया है जिसका इंद्र से विरोध रहता था। इंद्र ने बृहस्पति को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे मरूतों को यज्ञ कार्य न करने दें। बृहस्पति ने नारद के कहने पर यज्ञ कार्य के लिए मना कर दिया। मरूत ने संवर्त को अपना गुरू बना लिया और बृहस्पति को त्याग दिया। मरूत को शंकर की आराधना से असीम स्वर्ण राशि प्राप्त हुई। यह देखकर बृहस्पति चिंतित हो गए, इंद्र ने भी मरूत के यज्ञ में बाधा उत्पन्न करने की कोशिश की, किंतु संवर्त ने मंत्रबल से इंद्र सहित सभी देवों को बुलाकर मरूत का यज्ञ संपन्न करवाया।

मरूत के संदर्भ में सबसे रोचक बात हैं इंद्र से सम्बन्ध। वेदों में वे इंद्र के स्वतः सहयोगी हैं। यहां पर प्रकृति के प्रतिरूप होते हुए भी वे योद्धा के रूप में दिखाई देते हैं, किंतु पुराणों में न केवल उनके पूर्णतया मानवीयकरण की कोशिश हैं बल्कि उन्हें इंद्र के प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करने की भी कोशिश है। लेकिन वे इंद्र के शत्रु नहीं कहलाए। उनकी गिनती देवताओं में होती रही। इसमें कोई संदेह नहीं कि देवताओं के बदलते अंतर्संबंध इतिहासकारों के लिए सामाजिक विकास की गुत्थियां खोलने में सहायक हो सकते हैं।

ऋग्वेद में कई ऐसे देवता हैं जिनका वेदों में मानवीय रूप है किंतु परवर्ती साहित्य में पूर्णतया प्रकृति का अंग मान लिया गया है। ऐसे देवताओं में प्रमुख हैं –
1 – वात – (वायु का एक रूप) जिसको ऋग्वेद में इंद्र के सहचारी के रूप में ख्यापित किया है।
2 – पर्जन्य – जिसे वृष्टि के देवता के रूप में मान्यता मिली। वेदों में इसका रूद्र व शम्य दोनों रूप दिखाई देते हैं। 3 – आपो देवता – जिसे मातृभाव वाली देवता माना गया है।
4 – नदी देवता – नदियों में चेतन धर्म आरोप करके देवत्व की कल्पना की गई हैं। इनमें प्रमुख रूप से सरस्वती, सिंधु, विपाशा, शुतुदृ और उसकी भगिनियों का वर्णन है।

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