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निबंध

लोकगीतों में देवी-देवताओं की होली
प्रो. अश्विनी केशरवानी

राधा-कृष्ण की होली


होली हिंदुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भारतीय संस्कृति का अनूठा संगम उनकी त्योहारों और पर्वो में दिखाई देता है। इन पर्वो में न जात होती है न पात, राजा और रंक सभी एक होकर इन त्योहारों को मनाते हैं। सारी कटुता को भूलकर अनुराग भरे माधुर्य से इसे मनाते हें। इसीलिए होली को एकता, समन्वय और सद्भावना का राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। होली के आते ही धरती प्राणवान हो उठती है, प्रकृति खिल उठती है और कवियों का भावुक नाजुक मन न जाने कितने रंग बिखेर देता है अपनी गीतों में। गाँवों में बसा हमारा भारत ग्राम्य संस्कृति में घुले मिले रचे बसे लोग मांगलिक प्रसंगों पर लोकगीत गाकर वातावरण को लुभावना बना देते हैं। यहाँ के लोग धरती के गीत गाते हैं और उन्हीं में हमारे पर्व और त्योहारों की झाँकी होती है।

ऐसे रंगों से सराबोर होली को खेलने में भला देवतागण भला पीछे क्यों रहे? राधा-कृष्ण की होली के रंग ही कुछ और है। ब्रज की होली का रंग ही निराला है। अपने भयामा भयाम के संग रंग में रंगोली बनाकर ब्रजवासी भी होली खेलने के लिए हुरियार बन जाते हैं और ब्रज की नारियाँ हुरियारिनों के रूप में साथ होते हैं और चारों ओर एक ही स्वर सुनाई देता है :-

आज बिरज में होली रे रसिया, होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया।
उड़त गुलाल लाल भए बादर, केसर रंग में बोरी रे रसिया।
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप, और मजीरन की जोरी रे रसिया।
फेंक गुलाल हाथ पिचकारी, मारत भर भर पिचकारी रे रसिया।
इतने आये कुँवरे कन्हैया, उतसों कुँवरि किसोरी रे रसिया।
नंदग्राम के जुरे हैं सखा सब, बरसाने की गोरी रे रसिया।
दौड़ मिल फाग परस्पर खेलें, कहि कहि होरी होरी रे रसिया।

इतना ही नहीं वह भयाम सखाओं को चुनौती देती है कि होली में जीतकर दिखाओ। उनमें ऐसा अद्भूत उत्साह जागृत होता है कि सब ग्वाल-बालों को अपना चेला बनाकर बदला चुकाना चाहती हैं। जिन ब्रज बालों ने अटारी में चढ़ी हुई ब्रज गोपियों को संकोची समझा था, आज वे ही होली खेलने को तैयार हैं। पेश है इस दृश्य की एक बानगी :-

होरी खेलूँगी भयाम तोते नाय हारूँ
उड़त गुलाल लाल भए बादर, भर गडुआ रंग को डारूँ
होरी में तोय गोरी बनाऊँ लाला, पाग झगा तरी फारूँ
औचक छतियन हाथ चलाए, तोरे हाथ बाँधि गुलाल मारूँ।

फिर क्या था ब्रज में होली की ऐसी धूम मची कि सब रंग में सराबोर हो गए। जिसका जैसा वश चला उसने वैसी ही होली खेली। श्रीकृष्ण ने भी घाघर में केसर रंग घोला है और झोली में अबीर भरा है। उड़ते गुलाल से लाल बादल-सा छा गया है। रंग से भरी यमुना बह रही है। ब्रज की गलियों में राधिका होली खेल रही है, रंग से भरे ग्वाल-बाल लाल हो गए हैं :-

होरी खेलत राधे किसोरी बिरिजवा के खोरी।
केसर रंग कमोरी घोरी कान्हे अबीरन झोरी।
उड़त गुलाल भये बादर रंगवा कर जमुना बहोरी।
बिरिजवा के खोरी।
लाल लाल सब ग्वाल भये, लाल किसोर किसोरी।
भौजि गइल राधे कर सारी, कान्हर कर भींजि पिछौरी।
बिरिजवा के खोरी।

अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेल रहे हैं। एक ओर राम लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न हैं तो दूसरी ओर सहेलियों के संग सीता जी। केसर मिला रंग घोला गया है। दोनों ओर से रंग डाला जा रहा है। मुँह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है। झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है। देवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं। देखिए इस मनोरम दृश्य की एक झांकी :-

खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी
इत राम लखन भरत शत्रुघ्न, उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।
छिरकत जुगल समाज परस्पर, मलत मुखन में रोरी, बाजत तृन तोरी।
बाजत झांझ, मिरिदंग, ढोलि ढप, गृह गह भये चहुँ ओरी, नवसात संजोरी।
साधव देव भये, सुमन सुर बरसे, जय जय मचे चहुँ ओरी, मिथलापुर खोरी।

होली के दूसरे दृश्य में, रघुवर और जनक दुलारी सीता अवधपुरी में होली खेल रहे हैं। भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और हनुमान की अलग-अलग टोली बन गई है। पखावज का अपूर्व राग बज रहा है, प्रेम उमड़ रहा है और सभी गीत गा रहे हैं। थाली में अगर, चंदन और केसरिया रंग भर रहे हैं। सभी अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुम रख रहे हैं। माथे पर पगड़ी रंग गई है और गलियों में केसर से कीचड़ बन गया है। इस दृश्य की एक बानगी पेश है :-

खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली
भरत, शत्रुघ्न, लखन, पवनसुत, जूथ-जूथ लिए भाग।
बजत अनहद ताल पखावज, उमँगी उमगि अनुराग
गावत गीत भली।
भरि-भरि थार, अगरवा, केसर, चंदन, केसरिया भरि थार
अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुमा, सीस रंगा लिए पाग।
केसर कीच गली।

तीसरे दृश्य में जानकी, श्रुति, कीर्ति, उर्मिला और मांडवी के साथ होली खेल रही हैं :-
जानकी होरी खेलन आई
श्रुति, कीरति, उरमिला, मांडवी, संग सहेली सुलाई
केसर रंग भरे घर केचन चंदर गंध मिलाई
पीत मधु छिरकत आई है, संग लिए सब भाई
कर कंचन पिचुकारी हाथ लिए चलि आई।

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें?  हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला, चमकती हुई आँखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भुत दृश्य की झाँकी :-

आजु सदासिव खेलत होरी
जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
तीनि आँखि सुंदर चमकेला, सरप गले लिपटोरी
उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी
हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी
लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी
भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।

शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। ऐसा लग रहा है मानो कैलाश पर्वत के ऊपर वटवृक्ष की छाया है। दिशाओं की पीले पर्दे खिंचे हुए हैं जिसकी छवि इंद्रासन जैसी दिखाई देती है। आक, धतूरा, संखिया आदि खूब पिया जा रहा है और सबने एक दूसरे को रंग लगाने की बजाय स्वयं को ही रंग लगा कर अद्भुत रूप बना लिया है, जिसे देखकर स्वयं पार्वती जी भी हँस रही हैं :-
सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी
गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चहुँ ओरी
पीत बितान तने चहुँ दिसि के, अनुपम साज सजोरी
छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी
नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी
हँसे गिरिजा मुँह मोरी।

औघड़ बाबा शिव जी की होली को देखकर सभी स्तुति करने लगते हैं कि हे बाबा! हमारे नगर में निवास करो ओर हमारे दुख हरो :-

देवताओं की होली को देखकर मन उनकी भक्ति में रम जाता है। ईश्वर का गुणगान

बम भोला बाबा, कहवां रंगवत पागरिया
कहवां बाबा के जाहा रंगइले और कहवां रंगइलें पागरिया
कासी बाबा के जाहा रंगइले आरे बैजनाथ पागरिया
तोहरा बयल के भूसा देवो भंगिया देइबि भर गागरिया
बसे हमारी नगरिया हो बाबा, बसे हमारी नगरिया।

करो, ताली बजाओ और सभी के संग होली खेलो। चित चंचल है अपने रंगीले मन को ईश्वर की भक्ति में रंग लो-

रसिया रस लूटो होली में,
राम रंग पिचुकारि, भरो सुरति की झोली में।
हरि गुन गाओ, ताल बजाओ, खेलो संग हमजोली में
मन को रंग लो रंग रंगिले कोई चित चंचल चोली में
होरी के ई धूमि मची है, सिहरो भक्तन की टोली में।

१७ मार्च २००८

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