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पंचकर्म और उसका औचित्य

-डॉ. रमेशकुमार भूत्या

आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र शाश्वत चिकित्सा शास्त्र है। इसका विकास हज़ारों वर्षो में हुआ है फिर भी: इसके मूल सिद्धांत अब भी अपरिवर्तनीय व अकाटय है। क्यों कि आयुर्वेद शस्त्र अनुभव पर आधारित है और सैंकड़ो-हज़ारों वर्षो एवं लाखों, करोड़ो मनुष्यों पर किए गए अनुभव से इसका निर्माण हुआ हैं अत: इसके मूल सिद्धांत व चिकित्सा कभी असत्य नहीं हो सकते। 

एलोपेथी इसकी अपेक्षा नया विज्ञान है और अभी प्रयोग अवस्था में है। इसलिए ऐलोपेथी चिकित्सक हर ५-१० वर्षों में सिद्धांतों व औषधियों के गुणों में परिवर्तन करते रहते हैं।

आयुर्वेद के शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित है एक अभूत पूर्व चिकित्सा पद्धति - 'पंचकर्म चिकित्सा'। इस पद्धति के द्वारा शरीर का परिमार्जन किया जाता है। इस तरह परिमार्जन का लाभ यह है कि इससे शरीर की आधी व्याधियों की मुक्ति बिना औषधि के ही हो जाती है। बाद में औषधि देनी भी पड़े तो उसकी मात्रा अत्यल्प होती हैं। इससे शरीर को कम से कम औषधियों का उपयोग करना पड़ता हैं जिससे उसे कम से कम हानि होती हैं। आयुर्वेद की औषधियाँ एक तो वैसे तो हानि ही नहीं करती दूसरे 'साईड इफ़ेक्ट' भी नहीं होता इस पर भी औषधियों की मात्रा कम देने से शरीर को हानि की बिलकुल भी संभावना नहीं रहती। ऐलोपेथी चिकित्सा के संदर्भ में भी देखें तो पंचकर्म के साथ ऐलोपेथी के प्रयोग से चिकित्सा में कम दवा के साथ बड़ी सफलता प्राप्त की जा सकती है। उदाहरण के लिए एंपीसिलीन की प्रतिदिन मुख द्वारा सेवन योग्य मात्रा २ से ४ ग्राम है इसे लगभग ५ से १० दिन देना पड़ता है किंतु यदि पंचकर्म के उपरांत इसे दिया जाय तो इससे आधी मात्रा में और आधी अवधि तक ही देना पर्याप्त होगा। इससे जिन रोगियों का शरीर एलोपैथिक दवाओं को पूरी तरह नहीं स्वीकारता उनको काफ़ी लाभ हो सकता है।

आयुर्वेद के पंचकर्म ये है-

  • वमन
  • विरेचन
  • अनुवासन
  • आस्थापन तथा
  • शिरोविरेचना

सरल भाषा में समझें तो वमन कर्म में विशेष विधि से उल्टी कराई जाती है। विरेचन में विशेष विधि से दस्त कराए जाते हैं, आस्थापन में औषधियों के क्वाथ से एनिमा तथा अनुवासन में औषधियुक्त घृत या तेल से एनिमा लगाया जाता है। शिरोविरेचन में औषधियों से सिद्ध तेल या घृत, चूर्ण (पावडर) या रस को नाक में छोड़ कर ज़ोर से सांस खींचाने को कहा जाता है।

यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि आयुर्वेद के शब्दों में व प्रचलित शब्दों के अर्थ में काफ़ी अंतर होता है। जैसे वमन का अर्थ लोकभाषा में उल्टी करना होता है जबकि आयुर्वेद की भाषा में उल्टी करवाना होता है। उल्टी करने के लिए आयुर्वेद में 'छदि' नाम का शब्द अलग से है। इसी तरह क्षय का अर्थ लोकभाषा मे टी. बी. और आयुर्वेद में किसी वस्तु की कमी होता है। आयुर्वेद में टी. बी. के लिए यक्ष्मा शब्द है।

यहाँ आयुर्वेद के त्रिदोष सिद्धांत को समझ लेना आवश्यक है। ये तीन दोष हैं-

  • वात,
  • पित,
  • कफ

यहाँ वात का अर्थ हवा नहीं है, पित का अर्थ यकृत का स्राव या बाईल नहीं होता है और कफ का अर्थ भी बलग़म नहीं होता है।

आयुर्वेद के वात दोष का अर्थ शरीर का पूरा तंत्र, मस्तिष्क सहित होता है। वात का अभिप्राय वस्तुत: नाडियाँ या उनमें में बहने वाले ज्ञान से है जैसे बिजली के तारों में विद्युत बहती है उसी तरह नाड़ियों मे बहने वाला 'सेन्स' ही आयुर्वेदीय वात हैं यह सब जानते हैं, कि, शरीर की सारी क्रियाएँ तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) पर आधारित हैं। नाड़ियों के कार्यक्षम न होने पर अर्थात लकवा होने की अवस्था में हाथ या पैर के मांस, अस्थि आदि सही होने पर भी हाथ या पैर गति नहीं कर सकते है। अत: आयुर्वेद में शरीर की समस्त क्रियाओं का चलाने वाला ही वात हैं।

पित व कफ पंगु माने गए है, जो वात या वायु के निर्देशानुसार शरीर में संचरण करते हैं। पित्त तथा कफ वस्तुत: शरीर की अंत: स्रावी या एन्डोक्राईनग्लेन्डस तथा बहि सावी ग्रंथियों के स्त्राव है। यह सर्व स्वीकार्य बात है कि शरीर की सारी क्रियाओं के नियामक व प्रेरणा स्रोत ये स्त्राव ही हैं जो मात्रा में अत्यल्प होते हुए भी शरीर की क्रियाओं को निर्णायक स्र्प से प्रभावित करते है।

इसको सरल रूप से समझने के लिए इस तरह से समझें। शरीर क्रिया विज्ञान का एक शब्द है मेटाबोलिज़्म या चयापचय या समवर्त, जिसका अर्थ शरीर की क्रियाओं के परिणाम हैं। इसके दो विभाग हैं, एक एनाबोलिज़्म या चय तथा दूसरा केटाबोलिज्म या अपचय। शरीर के ये स्राव तथा वे अन्य पदार्थ जो शरीर की वृद्धि करतें हैं, पुष्टता लाते हैं, सरस करते हैं या वर्धन करते हैं उन्हें कंस्ट्रक्टिव मेटाबोलिज़्म कहते है। आयुर्वेद में ये ही कफ के अंतर्गत माने जाते है। आयुर्वेद मे कफ दोष का यही कार्यक्षेत्र है। इसे ही एनाबोलिज़्म या चय कहते हैं।

जो स्राव एनाबोलिज़्म पर नियंत्रण रखते हैं उन्हें पित्त दोष तथा इनके कार्यों को केटाबोलिज़्म या उपचय या डेसट्रक्टिव मेटाबोलिज़्म कहते हैं। इन सब की समग्र क्रिया या मिलीजुली क्रिया को चयापचय कहते हैं- यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि ये स्राव या दोष एक दूसरे के विरोधी या नियंत्रण रखते हुए भी विरोधी नही होते अपितु सहचर होते हैं जैसे बैलगाडी के दो बैल। यदि एक बैल ही गाड़ी मे जोता जाए तो गाड़ी चलनी असंभव होती हैं। वैसे ये वात पित और कफ पाँच-पाँच होते हैं किंतु उनका विस्तृत वर्ण यहाँ अपेक्षित नही है। यह बड़ा विस्तृत विषय है।

इस बात को समझने के लिए एक और उदाहरण से समझें। कहा गया है 'यत पिण्डे तत ब्रहमांडे' अर्थात जैसा शरीर में है वैसा ही ब्रहमांड मे है अर्थात जो कार्य बाह्य जगत में हवा, सूर्य तथा पानी संपादित करते हैं वही शरीर मे वात, पित्त, कफ संपादित करते हैं। पानी संसार में शीतलता, सरसता, वर्धन, चय, निर्माण करता है यही कार्य शरीर में कफ दोष करता है। सूर्य की उष्णता इसको नियंत्रण में रखती है। इन दोनों की मिली जुली क्रिया से ही संसार के समस्त कार्य संपादित होते हैं। सूर्य की उष्णता का प्रतिनिधि ही शरीर में पित्त है। सूर्य व पित्त के कार्य समान हैं इन दोनों अर्थात सूर्य व पानी की मिली जुली क्रिया से वनस्पतियों व प्राणियों का जीवन इस पृथ्वी पर संभव होता है। ये सूर्य व पानी एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हुऐ भी एक निश्चित अनुपात में रह कर एक दूसरे के सहगामी या पूरक होते है। वायु या हवा इन दोनों के बीच माध्यम बनती है अर्थात उष्णता या शीतलता को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती हैं।

ये कारक ही शरीर में ब्रह्मांड की तरह कार्य करते हैं। वायु का प्रतिनिधि शरीर में वात, सूर्य का पित्त तथा जल का कफ दोष होता है तथा जैसे ब्रह्मांड में वायु, अग्नि, जल कार्य करते है वैसे ही शरीर में वात, पित्त, कफ कार्य करते हैं। स्वास्थ्य की अनुवृति के लिए यह अच्छी तरह समझना अत्यावश्यक है कि शरीर 'भौतिक' है। इसे मात्र रासायनिक तत्वों का संगठन नहीं समझना चाहिए। वात की वृद्वि का अर्थ है नर्वस सिस्टम (जिसमें मस्तिष्क भी शामिल है) की अतिरिक्त उत्तेजनशीलता या इरीटेबिलिटी, वात शमन का अर्थ है उसका सामान्य या प्राकृत स्तर तक लाना। इसी तरह पित्त वृद्वि का अर्थ है केटाबोलिज़्म के लिए ज़िम्मेदार स्रावों की वृद्वि तथा पित्त शमन का अर्थ है उसे प्राकृत स्तर तक लाना। कफ वृद्धि का अर्थ है एनाबोलिज्म के लिए जवाब देह स्रावों की वृद्धि और कफ शमन का अर्थ है उसको प्राकृत स्तर पर लाना।

अब प्रश्न यह है कि इन वात पित्त कफ दोषों या मेटाबोलिज़्म के बीच में इन पंचकर्मों की आवश्यकता क्यों पड़ी? वस्तुत: शरीर में गति करते-करते मिथ्या या गल़त आहार विहार से ये शरीर के स्रोतों में संश्लिष्ट हो जाते हैं, इकठ्ठे हो जाते हैं या चिपक जाते हैं। स्त्रोतों का अर्थ वाहिनी या नालियों, इसमें शिराओं, धमनियों, नाड़ियों, लसिका वाहिनियों तथा अन्य सभी मार्गों का ग्रहण होता है। ये उक्त तीनों दोष, मनुष्य के ग़लत खान-पान, गल़त आचरण, एक ही पदार्थ का अति सेवन, व्यायाम न करने इत्यादि कई विभिन्न कारणों से, शरीर के स्त्रोतों या मार्गों में इकठ्ठे हो जाते हैं। उदाहरण के लिए ऐथेरोस्कलरोसिस नामक बीमारी में शरीर की विभिन्न धमनियों या आर्टरीज या शिराओं में वसा या लिपिडस चिपक जाती है और उनके मार्ग को कम करके शरीर के रक्त संचार में अवरोध पैदा कर देती है। परिणाम स्वरूप शरीर के सब अंगों को रक्त या पोषण नहीं मिलता और वे रोगी होने लगते हैं तथा कई प्रकार की बीमारियों को पैदा करतें हैं। इसी से दी गई औषधियाँ भी मात्रा में निर्धारित अंग तक नहीं पहुँचती फलत: दुगनी या ज़्यादा मात्रा में देनी पड़ती है और ये अतिरिक्त दी गई मात्रा अन्य अंगो को नुकसान पहुँचाती है या साईड इफेक्ट पैदा करती हैं।

इसी प्रकार के चिपके हुए व गल़त स्थान पर इकठ्ठे पदार्थों को उन स्थानों से हटाने के लिए पंचकर्म किए जाते हैं। ताकि शरीर के लिए अस्वास्थ्यकर पदार्थ अनचाहे स्थानों पर इकठ्ठे न होने पाएँ। जब ये पदार्थ अनैच्छिक स्थानों से हट जाते हैं तो शरीर के रस रक्तादि धातु सब अंगों में सरलता से पहुँचते है तथा औषधियाँ आधी मात्रा ही पूरा लाभ पहुंचाती है। औषधि चाहे ऐलोपेथी हो आयुर्वेदिक, कम मात्रा में देने से शरीर पर होने वाले नुकसान कम या नहीं होते हैं साथ ही दवाइयों पर होने वाले खर्च की भी बचत होती है।

पंचकर्मो से पूर्व तथा प्रत्येक पंचकर्म के पूर्व शरीर का स्नेहन व स्वेदन किया जाता है। स्नेहन में तेल या घृत या औषधियों से सिद्ध तेल या घृत ही अधिकतर काम में आते हैं। इनको या तो पिलाया जाता है या एनिमा दिया जा सकता है। इससे शरीर स्निग्ध, पुष्ट, वर्धित होता है और पंचकर्मों को सहन करने योग्य हो जाता है स्नेहन के बाद स्वेदन किया जाता है। स्वेदन में शरीर को उष्मा पहुँचाई जाती है। यह गर्म जल अथवा भाप द्वारा औषध युक्त जल या भाप द्वारा या अन्य तरीक़े से जैसे रेत, पत्थर या कपड़े को गर्म करके किया जाता है। इन दोनों क्रियाओं से शरीर के दोष अपने स्थान से छूटकर अपने गुरुत्व व ओस्मेटिक प्रेशर द्वारा कोष्ठ में अर्थात आमाशय तथा ऐलीमेंट्री केनाल में आ जाते है ताकि वहाँ से इन्हें शरीर से बाहर निकाला जा सके। ये स्नेहन प्रत्येक पंचकर्म से पूर्व किए जाते हैं ताकि शरीर के शोधन के साथ-साथ शरीर का बल भी बना रहे।

इस सारी बात को सरल भाषा में समझने के लिए एक सरल उदाहरण प्रस्तुत है। यदि कोई पतीली चाय चिपक जाने से ख़राब हो गई हो तो उसे साफ़ करने के लिए पहले पानी में भिगोते है ताकि चिपकी हुई चीज़ नरम हो जाए। इससे उसको साफ़ करना आसान हो जाता है। यही काम शरीर में स्नेहन करता है। यदि चिपका हुआ पदार्थ ज़िद्दी हो तो पानी में भिगोने के पश्चात उसे गर्म करने से आसानी से छुड़ाया जा सकता है। अब मानव शरीर को तो पतली की तरह खुरचा नहीं जा सकता। अत: इन पंच कर्मों से पूर्व स्नेहन स्वेदन किया जाता है कि शरीर में चिपके व्यर्थ पदार्थ अपने स्थान से छूट कर चलित हो जाएं तथा ऐलमेंटरी केनाल में आ जाए ताकि उनको आसानी से शरीर से बाहर निकाला जा सके।

पंचकर्म चिकित्सा का प्रथम कर्म है वमन - इसमें विशेष विधि व औषधियों से उल्टी कराई जाती है। इस विधि से थोरेक्स व आमाशय का शोधन होता है। चूंकि सीने व आमाशय से दोष के निष्कासन के लिए निकटमत मार्ग मुख है अत: यहाँ के शोधन के लिए वमन कराया जाता है। इसके द्वारा ऐसे पदार्थो, आर्गेनिक फेक्टर्स का निष्कासन होता है जो स्र्कावट का कार्य करते हैं या जो कोशिकाओं के पोषण में बाधा उत्पन्न करते हैं। वमन के द्वारा जिन तत्वों का निष्कासन होता है यदि वे शरीर में रहें तो एथेरोस्कलेरोसिस, आरटीयोस्लरोसिस रूमेटिज़्म, निमोनिया, ब्रोन्कीयल अस्थमा, अलर्जी आदि अनेक व्याधियों के जनक हो सकते हैं। वमन कर्म से इन रोगों की संभावना निर्मूल होती है, यदि हो तो भी वमन कर्म से इनसे मुक्ति पाई जा सकती है।

दूसरा कर्म है विरेचन - इसमें विशेष विधि व औषधियों से दस्त लगाए जाते हैं। इससे उदर का शोधन होता है। गुदा इसका निकटतम मार्ग होने से उसी से इसका शोधन किया जाता है। वे सभी फेक्टर जो एन्जाईमस के कार्य में अवरोध है। या इनमें ही कोई विकृति हो जाती है जैसे पेंक्रियेटिक ज्यूस, बाईल आयल या छोटी आंतों के स्रावों में कोई अवरोध होता है तो वह इससे दूर होता है। इसी तरह विभिन्न बेसीलाई, आरगेनिक विष, एलरजन आदि का निष्कासन भी इससे होता है। इसका महत्व इसलिए भी अधिक है कि यहीं से संपूर्ण शरीर के लिए पोषणार्थ अवशोषण होता है यदि आंतों में ही कोई क्रियात्मक विकृति हो तो उसका प्रभाव संपूर्ण शरीर पर पड़ता है। अत: इस स्थान की स्वस्थता के लिए विरेचन से श्रेष्ठ कोई कार्य नहीं है। वैसे भी मलाशय में मल के इकठ्ठे होने को अर्थात कब्ज़ को सब रोगों का मूल कारण माना जाता है। विरेचन से लीवर के रोग, पित्ताशय के रोग जैसे गालस्टोर इत्यादि डायबीटिज़ मेलाइटस, पेट के कीड़े, पाईल्स, टयूमर्स इत्यादि नहीं होते यदि हो तो शांत हो जाते है। मल का शोधन होने से मस्तिष्क तथा मन भी स्फूर्ति को प्राप्त होते हैं।

तीसरा कर्म है अनुवासन - उपर्युक्त दोनों कर्मो से शरीर के सेल्स से पूर्व में संचित लिक्विडस, वसा या कोलेस्ट्रोल आदि का निष्कासन होता है। शरीर के सेल्स की स्नेह तत्व की प्राप्ति के लिए या उन्हें नवीन शुद्ध रूप से प्राप्त करने के लिए अनुवासन या मेडिकेटेड घी या तेल से एनिमा लगाया जाता है। इससे शरीर में उचित वात या वृद्धिगत वात का शमन हो जाता है। विभिन्न परीक्षणों से यह पाया गया है कि अनुवासन वस्ति देने पर अवशोषण होकर शरीर की कोषिकाओं में नवीनता का संचार होता है तथा हीमोग्लोबिन की वृद्धि होती है। यह एक तरह का पोषण एनिमा है, जैसे किसी वृक्ष की जड़ों में पानी देने से वह हरा भरा होता है वैसे ही अनुवासन वस्ति देने पर शरीर में पुष्टता या सरसता का संचार होता है।

आयुर्वेद का चतुर्थ कर्म है आस्थायन वस्ति - संपूर्ण कर्मो में सबसे व्यापक कार्य इसका है। ऐसी कोई व्याधि नहीं है जिसका शमन इस वस्ति द्वारा नहीं किया जा सके। विभिन्न औषधियों से युक्त होने के कारण यह विभिन्न प्रकार की व्याधियों पर एक साथ कार्य करती है, जैसे मोटापे में लेखनीय बस्ती, शोध में व्रहण बस्ती, दुर्बलता में यापना बस्ती, पित्तज रोगों के लिए पित्त-शामक बस्ती, मल शोधनार्थ मल शोधन बस्ती आदि। योगियों के अनुसार मूलाधार चक्र गुदा के समकक्ष होता है और यह संपूर्ण शरीर का आधार माना गया है। बस्तियों से इन नाड़ी चक्रों का पोषण होता है व उत्तेजनशीलता शांत होती है। मस्तिष्क व स्पाइनल कोर्ड के निर्माण व कार्यरत रहने से स्नेह धातु व जल तत्व की महती भूमिका है और वस्ति से यही स्नेहांश शरीर में पहुँचता है। अत: पूरा नर्वस सिस्टम तथ मस्तिष्क इससे पोषण प्राप्त करता है। इसीलिए सारी वातिक व्याधियों का इससे शमन हो जाता है।

पाँचवाँ कर्म है शिराविरेचन: - नासिका मार्ग से औषध या औषध सिद्ध स्नेह द्रव्य सिर में पहुँचाया जाता है उसे शिरो विरेचन या नस्य के नाम से जाना जाता है। यह मुख्यत: दो कार्य करता है। शिरोगत मल द्रव्यों का निष्कासन तथा मस्तिष्क का पोषण इसके द्वारा नासिका, आँख कंठ रोग, सिरदर्द आदि की चिकित्सा की जाती है। यदि स्वस्थावस्था में इसका सेवन किया जाए तो इन स्थानों की कोई व्याधि नहीं होती।

अंत में सारांश यह है कि जैसे रंगरेज कपड़े रंगने से पूर्व उन्हें धोकर कलफ़ वगैरह को साफ़ करता है और तब ही उसका रंग कपडे पर भली प्रकार चढ़ता है उसी तरह पंचकर्मो से शरीर का शोधन होकर औषध प्रयोग के लिए उपयुक्त हो जाता है। ये पंचकर्म प्रिवेंटिव के रूप में रोगों का शरीर में प्रवेश रोकते हैं तथा क्यूरेटिव के रूप में रोग की चिकित्सा करते हैं।

ज्ञातव्य है कि आयुर्वेद मूल रूप से जीवन विज्ञान है और चिकित्सा उसका एक अंग मात्र है। मूल रूप से आयुर्वेद स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य किस प्रकार अक्षुण्ण रखा जाए इस पर सर्वाधिक ध्यान देता है इसलिए आयुर्वेद में अत्यंत विस्तार से वर्णन होता है। लेकिन फिर भी कुछ अनपेक्षित हो जाए जिसके कारण अस्वस्थता की अनुभूति हो तब चिकित्सा करने का भी आयुर्वेद उपदेश देता है किंतु यह उद्देश्य गौण है।

यह दुर्भाग्य का विषय है कि आजकल आधुनिक चिकित्सक स्वास्थ्य की दृष्टि से रोगों के मूल कारण अजीर्ण (भोजन का न पचना) अग्निमांध, मलावरोध या कोन्सटीपेशन पर ध्यान नहीं देते, यही कारण है कि रोग निर्मूल नहीं होते। आयुर्वेद में किसी भी रोग की चिकित्सा से पूर्व उपर्युक्त तीनों पर सर्वप्रथम विचार किया जाता है। यही कारण है कि आयुर्वेद से रोगी स्थाई लाभ प्राप्त करते हैं। २४ सितंबर २००५

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