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नवाँ भाग

दिल्ली में मेरी वापसी - एक कठिन निर्णय

हिमालय की ओर - दूसरा प्रयास

अपने पिछले असफल प्रयास का मुझे गम भी था लेकिन मैं जानता था कि अगर हम उस सफ़र पर नहीं गए होते तो हमें रास्ते और जगह के बारे में इतनी जानकारी कभी नहीं मिलती। अब मैं मिली हुई जानकारी के आधार पर तैयारी कर सकता था।

मैं इस असफलता का रोना रो समय व्यर्थ नहीं करना चाहता था। मैंने अपने अगले प्रयास की तैयारी शुरू कर दी। मैं अधिक दिन तक इस असफलता के बाद हाथ पर हाथ धर बैठा नहीं रह सकता था। मैंने निर्णय लिया कि मैं एक महीने बाद पुनः प्रयास करूँगा। धर्मेन्द्र और उपेन्द्र, अपनी व्यस्तताओं के कारण, इतने कम समय में दोबारा जाने में असमर्थ थे। मेरे इस बार के साथी बने केशव और अंकुश। केशव मेरा सहायक लड़का था और अंकुश मेरा स्टुडेंट, जिसने अभी दसवीं की परीक्षा पास की थी।

मेरे दोनों साथी लगभग सोलह साल की उम्र के थे। हालाँकि हम में मित्रता का रिश्ता था लेकिन वे दोनों मुझसे उम्र में बहुत कम थे। दोनों मेरे साथ जाने के लिए उत्साहित थे और दोनों के माता-पिता की भी अनुमति थी। दोनों को मैं अपने सगे छोटे भाइयों की तरह मानता था। हमने मिलकर तैयारी करना शुरू कर दिया। अंकुश बहुत लगन से तैयारी कर रहा था। वो न सिर्फ गाड़ी को मैकेनिक के पास ले जा गाड़ी की तैयारी करवाता बल्कि खुद भी पूरा टाइम गाड़ी की मरम्मत के बारे में जानकारी हासिल करता रहता। उसकी यह मेहनत हमारे सफ़र में सबसे अधिक काम आने वाली थी।
मैंने २ जुलाई २००२ को निकलने का निर्णय किया। सब सामान बाँध हम दो जुलाई की रात को दस बजे के आस पास दिल्ली से रवाना हुए। हमें रवाना करने आए लोगों में मात्र अंकुश के माता पिता और मेरे माता पिता ही थे। दुनिया में किसीको यह खबर नहीं थी के हम ऐसा प्रयास कर रहे हैं। यह सिर्फ हमारी जंग थी। सुबह होते होते हम मनाली की पहाड़ियाँ चढ़ रहे थे। हम आपस में खूब हँसी मज़ाक करते और अंकुश और केशव में तो जम के लड़ाई भी होती, लेकिन अंत में वो मेरा हुकुम मान लड़ाई बंद कर देते। कार में बीच बीच में ऊँचा संगीत चलाने को लेकर भी लड़ाई होती।

इतने में ताबड़ तोड़ बारिश शुरू हो गई। मैंने एक जगह गाड़ी साइड में लगा आराम भी कर लिया क्योंकि बारिश में कुछ दिख नहीं रहा था। लगातार चढ़ाई चढ़ते शाम तक हम मनाली पहुँच गए और एक होटल में रुक हमने अगले दिन के सफ़र की तैयारी शुरू कर दी। फिर हमें ज्ञात हुआ कि हमने जो गरम कपड़ों का अलग बस्ता बनाया था, वो तो हम घर ही भूल आए थे। क्योंकि मैदानों तक तो गर्मी थी इसलिए हमें गरम कपड़ों के न होने का पता नहीं चला लेकिन अब इतनी ठण्ड में तो हमारा बुरा हाल हो रहा था। हमने ठण्ड से बचने के लिए दो-तीन जोड़ी कपडे एक के ऊपर एक पहन लिए।

अगले दिन सुबह हम तीन बजे निकले और रोहतांग दर्रे को पार कर लाहौल स्पीती की घाटी में उतरने लगे। मेरा इरादा था के हम दारचा गाँव में न रुकें बल्कि शाम होने तक हम अगले पहाड़ी दर्रे को पार कर सर्चू पहुँच जाएँ। अगला पहाड़ी दर्रा रोहतांग दर्रे से डेढ़ हज़ार फुट और ऊँचा था और उसका रास्ता बुरी तरह टूटा हुआ था। बर्फ में से पिघल कर आता पानी सड़क पर से नालों के रूप में बहता था। ऐसा मुझे अपने पिछले सफ़र में पता चला था। दोपहर बाद का समय इस रास्ते को पार करने का सबसे अनुचित समय था क्योंकि इस समय गर्मी के कारण बर्फ पिघलने से सबसे अधिक पानी सड़क पर से बहता मिलेगा।

लेकिन हमारे पास अधिक विकल्प नहीं थे। मैं मनाली से लेह का रास्ता अधिकतम दो दिन में तय करना चाहता था और इसके लिए एक दिन में कम से कम सर्चू तक पहूँचना आवश्यक था। अतः मैंने यह निर्णय लिया था के हम सर्चू जाकर ही रुकेंगे। यह एक कठिन निर्णय था लेकिन कठिन राह में कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं।

'कठिन उद्देश्यों को पाने के लिए कठिन राह चुननी पड़ती है, कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं।'

दोपहर बाद हमने दारचा गाँव को पार किया। गाँव से निकलते समय मैंने एक बार मुड़ कर उस घर की ओर देखा जहाँ हम पिछली बार रुके थे और फिर मैं आगे बढ़ गया।

अगले पहाड़ी दर्रे का नाम बारालाच्ला था और यह पहले पार किये गए रोहतांग दर्रे से लगभग १५०० मीटर अधिक ऊँचा था। यह पहाड़ी दर्रा अपने खतरनाक टूटे फूटे रास्तों और उनपर पड़ी बर्फ और उनपर बहते नालों के लिए जाना जाता था। लेह के रास्ते में यह हमारी सबसे बड़ी चुनौती थी। अगर हमने इस रास्ते को पार कर लिया तो हम लेह की ओर आधे से अधिक रास्ता तय कर चुके होंगे।

टूटे फूटे पहाड़ी रास्ते पर चढ़ते हमें आगे किसी बड़े झरने की आवाज़ सुनाई दे रही थी और हमारे कुछ पीछे एक ट्रक भी इस रास्ते पर चढ़ रहे थे।

फिर जैसे ही हम इस टूटे फूटे पहाड़ी रास्ते के एक तीव्र मोड़ के ऊपर से मुड़े तो सामने का दृश्य देख हमारे तो होश ही उड़ गए। पहाड़ी के ऊपर पड़ी बर्फ से पिघलता पानी एक बड़े और तेज़ बहते झरने के रूप में सड़क पर गिर दूसरी ओर से नीचे खाई में बह रहा था। यह दृश्य देखकर भी मानो असंभव सा लग रहा था।

अंकुश नें तुरंत कहा "सर गाड़ी साइड में लगा लो नहीं तो फँस जाएगी।"

मैंनें पल में सोचा के अगर हमने गाड़ी साइड में लगा ली और यह पीछे आ रहा ट्रक बिना रुके निकल गया तो फिर जाने कब सहायता आए। मैंने फैसला किया के हम गाड़ी पानी में उतारेंगे। मैंने अंकुश को कहा "मैं गाड़ी पानी में उतार रहा हूँ। अगर गाड़ी फँसी तो कैसे न कैसे निकाल लेंगे।"

मैंनें जल्दी सोचते हुए अनुमान लगाया के जिस ओर पहाड़ी पर से सड़क पर पानी गिर रहा है वहाँ घर्षण के कारण पानी गहरा होगा और दूसरी ओर पानी तेजी से बह खाई में गिर रहा था। अधिक किनारे पे चलाने से गाड़ी के पानी के साथ बह कर खाई में गिर जाने का डर था। मैंने जल्द अनुमान लगा कुछ किनारे की ओर ही गाड़ी पानी में उतार दी। गाड़ी तुरंत गहरे पानी और पत्थरों के बीच फँस गई। गाड़ी के फँसते ही अंकुश और केशव धक्का लगाने के लिए पानी में उतर गए।

उनको यह पता नहीं था के पानी कितना ठंडा है। मुझे पता था कि बर्फ से निकलता पानी कितना ठंडा होता है। पहाड़ी की बर्फ से पिघलता पानी इतना ठंडा होता है के यह आपके पैर में चाकुओं के लगने के बराबर दर्द करता है। अंकुश और केशव इस पानी में उतर तो गए लेकिन फिर चीखते चिल्लाते और उछलते कूदते पानी से बाहर भाग गए। मैंने गाड़ी की स्पीड को दबाए रखा। अगर मैं स्पीड को छोड़ देता तो इंजन बंद हो जाता और उसमें पानी घुस जाता। उसके बाद गाड़ी स्टार्ट होने की सम्भावना भी जाती रहती। तेज़ बहता पानी एक ओर के दरवाजे से कार में घुस, बहकर दूसरी ओर से बाहर निकल रहा था।

शीघ्र ही वो ट्रक पहुँच गया और उसके चालक दल के तीन-चार व्यक्तियों नें केशव और अंकुश के साथ मिल, कार को धक्का लगा पानी से बाहर निकाला। कार को पानी से निकालते समय केशव तो ठन्डे पानी से हो रहे दर्द के कारण एक ट्रक वाले की पीठ पर ही चढ़ गया। कार को धक्का लगाते सब चीख चिल्ला भी रहे थे और हँस भी रहे थे। जैसे ही हमारी कार बाहर निकली हम ट्रक वालों को धन्यवाद कह आगे चल पड़े। केशव और अंकुश के पैर ठन्डे पानी के कारण नीले पड़ गए थे और वो दोनों अपने पैरों को मसल रहे थे।

उस पहाड़ी दर्रे को पार करके हमने कुछ और पहाड़ी नालों को पार किया। लेकिन बाकी नाले उतने खतरनाक नहीं थे जितना पहले वाला था। टूटी फूटी सड़कों पर चलते और नालों को पार करते हम सरचू पहुँच गए लेकिन हमारी कार का बम्पर और कई हिस्से तो रास्ते में टूट कर गिर चुके थे।

सरचू में बस कुछ टेन्ट/तम्बू लगे हुए थे जिसमें यात्री कुछ शुल्क अदा कर रुक सकते थे। तम्बू एकदम खुले समान ही थे और इनके बीच से चीरती बर्फीली हवा चल रही थी। सौभाग्य से रजाइयों की कमी न थी। मैंनें तीन मोटी रजाइयाँ ओढ़ लीं। यह इतनी भारी थीं कि दम घुट रहा था और बीच बीच में साँस लेने के लिए मुँह को उघाड़ना पड़ता। देर रात तक मैं ठिठुरता रहा। फिर पता नहीं कब नींद आई। दो-तीन घंटे की ही नींद रही होगी।

सुबह तीन बजे उठ हम फिर चल पड़े। हम दो पहाड़ी दर्रे पार कर चुके थे लेकिन अब भी लेह और हमारे बीच दुनिया के तीन सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रे खड़े थे, जिनको पार कर हमें लेह पहुँचना था।

हम आगे बढे और अगले पहाड़ी दर्रे को चढ़ने लगे। यहाँ सड़क की हालत तो पहले से बहुत बेहतर थी लेकिन चढ़ाई बहुत ज्यादा थी। कार कई जगह जवाब दे देती और अधिक चढ़ाई वाली जगह तो अंकुश और केशव को नीचे उतर कार के साथ साथ पैदल चढ़ना पड़ता। कार बहुत जगह रुकी भी लेकिन अंकुश ने कैसे न कैसे उसे चला दिया। अंकुश और केशव की सेहत धीरे धीरे खराब हो रही थी। अधिक ऊँचाई वाले इस क्षेत्र में आक्सीजन की कमी, हवा में वाष्प की कमी और शून्य से नीचे तापमान की वजह से बहुत से सैलानियों की जान हर साल जाती है। अंकुश और केशव दोनों को चक्कर, उलटी और सर दर्द हो रहा था। मैं उनकी सेहत के लिए चिंतित था।

जब एक पहाड़ी दर्रे के बाद ढलान का इलाका आता तो मैं लम्बे समय दोनों को सोने देता और खुद गाड़ी चलाता रहता। हमारी सुरक्षा के लिए उस दिन शाम ढलने से पहले लेह पहुँच जाना आवश्यक था। लेह में मेरा एक मित्र फ़ौज में अधिकारी था और लेह में सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।

अगले दो पहाड़ी दर्रों पर हमारी गाड़ी चढ़ाई में कई बार रुकी, लेकिन उनको पार कर हम पाँग नामक जगह पहुँचे। ऊँचाई पर ऊँची चोटियों के बीच पाँग एक बंजारे तिब्बतियों का समूह था जिसमें कुछ तम्बुनुमा घर और दुकानें थी। इसमें कुछ खाने की चीज़ें उपलब्ध थी। हमने गरम मैगी नूडल खाई और कुछ सूप पिया।

इस ऊँचे स्थान पर रात गुजारते समय बहुत सैलानियों की जान हर साल जाती थी। इसीलिए मैने दोपहर में बर्फीले नालों से भरे बरलाच्ला दर्रे को पार करने का निर्णय लिया था। ताकि इस दर्रे पर रुकना न पड़े। हमारे पास लेह पहुँचने के लिए पर्याप्त समय था। कुछ देर रुक हम फिर चल पड़े। आगे एक चालीस किलोमीटर लम्बा खुला मैदान था। इतनी ऊँचाई पर यह इतना बड़ा और दूर पहाड़ियों से घिरा मैदान बहुत ही सुन्दर लग रहा था। हमने बहुत से फोटो भी खींचे।

गाड़ी को तेज़ भगाते हमनें शीघ्र ही यह मैदान पार कर लिया और दुनिया के दूसरे सबसे बड़े पहाड़ी दर्रे तान्ग्लान्गला को चढ़ने लगे। यह लगभग १७५०० फुट की ऊँचाई पर था। अब लेह और हमारे बीच मात्र यह पहाड़ी दर्रा था। एक जगह चढ़ाई में हमारी गाड़ी रुक गई और फिर, अंकुश की लगातार कोशिशों के बाद भी गाड़ी ने चलने का नाम ही न लिया। शाम होने को थी।

हमारे सुरक्षित रहने के लिए हमारा लेह पहुँचना आवश्यक था।
अंकुश ने मायूस हो कहा "सर, मुझे नहीं लगता के हम में से कोई भी जिंदा बच कर पहुँचेगा।"

उस समय तो हमने कुछ न कहा, लेकिन बाद में उसकी इसी बात को याद कर हम बहुत बार खूब हँसे। कुछ और प्रयास के बाद हम गाड़ी को चला सके और अंकुश और केशव दौड़ कर चलती गाड़ी में कूद गए। हमने इस दर्रे को भी पार किया और लेह घाटी में उतरने लगे।

जैसे ही हम लेह शहर के पास पहुँचे तो मैंने एक बोर्ड देखा जो दाहिने इशारा कर रहा था और जिसपर लिखा था 'खार्दुंग ला चालीस किलोमीटर'। अठारह हज़ार तीन सौ चालीस फुट की ऊँचाई पर यही वो दुनिया का सबसे ऊँचा पहाड़ी दर्रा था जहाँ पहुँचने के उद्देश्य से हम निकले थे और अब यह हमसे मात्र चालीस किलोमीटर दूर था। मैंने दाहिने देखा तो यह एक ऊँची विशालकाय पहाड़ी थी जो मानो मुझे चुनौती दे बुला रही हो।

हमने मेरे मित्र के घर पहुँच विश्राम किया। एक दिन वहाँ रुक हमने अपनी गाड़ी की मरम्मत की और उसे आगे के सफ़र के लिए तैयार किया।

अगले दिन हम सुबह सुबह उस पहाड़ी दर्रे को चढ़ने निकल पड़े। शुरू से ही चढ़ाई बहुत तीव्र थी। गाड़ी की गति धीमी होती गई और एक हद के बाद गाड़ी ने चढ़ने से इनकार कर दिया। अंकुश और केशव नीचे उतरे और गाड़ी के साथ चलने लगे। सड़क पर बर्फ से पिघल थोडा थोडा पानी बह रहा था। यह थोडा पानी बहुत खतरनाक था क्यूँकि कई जगह यह पानी छाँव पड़ने से जम जाता है और इस बर्फ की पतली परत पर गाड़ी फिसल जाती है और खाई में जा गिरती है। अतः मैं बहुत ध्यान से गाड़ी चला रहा था।

फिर गाड़ी ने बिलकुल आगे जाने से इनकार कर दिया। इसपर मैंने और अंकुश नें एक तरीका निकाला। मैं पूरी स्पीड देता और अंकुश गाड़ी को तुरंत गेयर में डाल देता, इस से गाड़ी कुछ और फुट चढ़ जाती। हम चोटी से कुल तीन-चार किलोमीटर ही रह गए थे और पूरी कोशिश कर रहे थे। इतनी ऊँचाई पर अधिक शारीरिक ताकत लगाना मौत को आमंत्रित करने के समान होता है। मुझे अपनी समझ को ठीक इस्तेमाल करना था वर्ना हम तीनों की जान को खतरा हो सकता था। केशव के सर में बहुत बुरा दर्द हो रहा था और वो रास्ते से एक बर्फ का ढेला उठा उसे अपने सर पर लगा चल रहा था। एक समय के बाद मेरी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा।

हम चोटी से शायद एक या दो किलोमीटर ही रह गए थे। लेकिन हालात सीमा को पार कर चुके थे। हमने अपने असंभव लक्ष्य को लगभग पा ही लिया था। इतनी दूर इतनी पुरानी टूटी फूटी गाड़ी को ले शायद ही कोई आया हो कभी। यहाँ कोई हमें बचाने आने वाला नहीं था। तीनों की खराब हालत को देख मैंने वहाँ से वापस मुडने का फैसला किया। मैं नहीं चाहता था के हम में से कोई जान गँवाए।

यह सफ़र मेरे जीवन के सबसे यादगार सफ़र के रूप में हमेशा रहेगा। यह सफ़र ख़ास इसलिए था के हम इतने कम साधनों के रहते भी इस सफ़र को पूरा कर सके। हमने इतनी जानलेवा परिस्थितियों का सामना भी किया, दुनिया के इतने सुन्दरतम प्राकृतिक दृश्य देखे और इतने सीखने के अनुभव प्राप्त किये।

'जीवन में आप सबसे अधिक तब सीखते हो जब आप कठिनतम परिस्थितियों का सामना कर रहे हो।'

हाँ इसमें कहीं संकोच नहीं के चोंटी के ऊपर तक न पहूँचने का दुःख भी कहीं था। लेकिन प्रसन्नता और संतुष्टि अधिक थी।

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६ अक्तूबर २०१४                               आगे-

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