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१४ जनवरी :

धूप की एक पतली-सी किरण। नहीं, छत के रोशनदान के एक कोने से घुसकर फर्श पर गिरा हुआ धूप का एक छोटा-सा चकता।
और हमारी जि़न्दगी में-हमारे कब्र के प्रवास के इतिहास में एक घटना!
मैंने बिना सोचे एकाएक सेल्मा के कमरे में जाकर देखा, ‘‘सेल्मा, धूप! बड़े कमरे में फर्श पर धूप की एक बड़ी-सी थिगली है, देखोगी?’’
बुढिया चुपचाप थोड़ी देर मेरी ओर देखती रही। फिर मानो मन-ही-मन तय करके कि इस सूचना पर उसे जरूर मुस्कुराना चाहिए, वह किसी तरह मुस्कुरा दी। फिर उसने धीरे-धीरे गुनगुनाकर कुछ कहा, जो मुझे सुनाई नहीं दिया। और थोड़ी देर मैं यह भी नहीं सोच सकी कि वह मेरे सुनने के लिए कहा भी गया था या नहीं। थोड़ा झिझककर मैंने पूछा, ‘‘सेल्मा, मुझसे कुछ कहा है?’’ और तनिक उसकी ओर झुक गयी।
वह बोली, ‘‘जाने दो, वह कुछ नहीं।’’
मैंने फिर पूछा, ‘‘नहीं जरूर-कोई चीज की जरूरत हो तो...धूप देखना चाहोगी?’’
वह कुछ ऐसे ढंग से मुस्कायी जैसे अपना अपराध पकड़े जाने पर बच्चा मुस्कुराता है। ‘‘हाँ, वह मैं चाह सकती थी पर मेरे बस का नहीं है।’’
मैंने कहा, ‘‘मैं उठाकर ले चलूँ?’’
‘वह-नहीं हो सकेगा।-तुमसे नहीं, मुझसे ही नहीं हो सकेगा।’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं यहाँ से दिखा देती हूँ।’’ और बढकर मैंने बैठक की ओर के उसके कमरे का किवाड़ खोलकर परदा एक ओर सरका दिया। उतना काफी नहीं था। मैंने पलंग को भी एक ओर खींच लिया। फिर उसके सिरहाने जाकर कहा, ‘‘मैं बाँह का सहारा देती हूँ, उठकर देख लो!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये अपना हाथ उसकी गरदन के नीचे डाल दिया।

वह इतनी हलकी थी, कि उसे सहारा देकर उठाना ही नहीं, बिलकुल उठा लेना भी कोई बड़ा काम नहीं था। लेकिन मेरी बाँह का सहारा जरूरत से ज्यादा न लेने की कोशिश में उसने उठने के लिये थोड़ा सा जोर भी लगाया। क्षण-भर के लिए मेरा हाथ बालों के लच्छे को छूता रहा, उसके भार का अनुभव उसे नहीं हुआ। फिर एकाएक उसकी गरदन शिथिल हो गयी और उसके सिर का भार मेरे हाथ पर आ रहा। उसने कहा, ‘‘नहीं, शुक्रिया योके!’’
मैंने हाथ खींच लिया और पल-भर उसके चहेरे को देखती रही। मुझे लगा कि उस पर पसीने की बूँदें हैं-ठंडी बूँदें।
उसने कहा, ‘‘शुक्रिया योके, धूप ने आज आना ही चुना है, पर मैं उसे देखना नहीं चुन सकती। उसे भी मेरा शुक्रिया दे दो।’’

मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन मुझे कुछ सूझा ही नहीं कि क्या कहा जाए। और वह फिर बोली नहीं-आँखें मूँदे पड़ी रही। मैं चुपचाप उसके चेहरे की ओर देखती रही, पर मुझे ध्यान आया कि मुझे वहाँ कुछ करने को नहीं है और मेरे वहाँ खड़े होने का कोई मतलब नहीं है। मैंने उसके कमरे का परदा फिर गिरा दिया और बैठक में आकर उस छोटी होती हुई धूप की थिगली को देखने लगी। इतनी देर में ही उसका आकार बाँका-टेढ़ा होकर सिकुड़ गया था। और एकाएक मुझे लगा कि जिस थिगली को मैं देख रही हूँ वह धूप की नहीं है, फर्श पर पड़े हुए सेल्मा के चेहरे की है।

फर्श पर पड़ा हुआ चेहरा। शरीर से अलग चेहरा-निरा चेहरा, सनातन चेहरा। मैंने मानो ध्रुव सत्य के रूप में जान लिया, वह चेहरा ही सेल्मा है और सेल्मा ही धूप की वह थिगली है जो कभी भी मिट जा सकती है लेकिन फिर भी ज्यों-की-त्यों बनी रहती है क्योंकि उसका होना उसके न होने से अलग नहीं है।

सेल्मा का, सेल्मा के पास कोई इतिहास नहीं है, केवल स्मृति है। सेल्मा भी इतिहास नहीं स्मृति है, शुद्ध स्मृति। वह एक साथ यहाँ भी और अन्यत्र भी जीती है, आज भी और कल भी और सभी दिनों में एक साथ ही जीती है। और इसलिये वह अलग नहीं है, अकेली नहीं है।
और मैं-मैं यहाँ अभी इस क्षण में जीती हूँ-मुझमें स्मृति नहीं है। मुक्त मुझे होना चाहिए, लेकिन मैं इतिहास से क्षयग्रस्त हूँ और अकेली हूँ। मरना सेल्मा को है, मरेगी वह, लेकिन मर रही हूँ मैं, अकेली मैं...

कोई आध घंटे बाद सेल्मा ने पुकारा।
मेरे पास जाने पर बोली, ‘मेरी एक विनती है।’
मैंने कहा, ‘‘कहो।’’
उसने फिर कहा, ‘‘इसके लिये मैं माफी चाहती हूँ। लेकिन तुम मुझे उठाकर धूप तक ले जा सकती हो। मैं चीखूँ भी तो न सुनना-एक बार-’’
मैंने कहा, ‘‘लेकिन सेल्मा, धूप तो चली गयी।’’
वह थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, ‘‘यही ठीक है। या कि दूसरा कुछ भी बेठीक होता! जाने दो।’’

मुझ पर एकाएक उदासी छा गयी। पहली बार-एक मात्र बार-मुझे लगा कि मेरे मन में बुढिया के प्रति करुणा उपजी है। लेकिन फिर एकाएक ही मन कड़ा हो आया। बुढिया कैसे कह सकती है यह ठीक ही है, या कि दूसरा कुछ बेठीक होता? यही बात तो बेठीक है-बुढिया ही बेठीक है!

एकाएक बुढिया ने कहा, ‘‘योके, मैं यह सब एक बार पहले देख चुकी हूँ। इसमें से गुजर चुकी हूँ।’’
बुढिया की बात मैं नहीं समझ सकी। लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। चुपचाप खड़ी रही। उसी ने फिर कहा, ‘‘वर्षों पहले, यहाँ आने से पहले, जब मैं शहर में थी-यहाँ आए मुझे कोई अट्ठाईस वर्ष हो गए हैं-यह तो तुम्हारे जन्म से पहले की बात होगी-’’
मेरे मुँह से निकल गया, ‘‘मेरे लिए तो यह दूसरी ही दुनिया की बात है।’’
वह बोली, ‘‘मेरे लिये भी-दूसरी ही दुनिया की बात है-सुनोगी-तुम्हें समय है?’’
मैंने कहा, ‘‘जरूर, मैं अभी आयी-कुछ काम ठीक-ठाक कर आऊँ।’’

लेकिन थोड़ी देर बाद दुबारा जब वहाँ गयी तो मानो उसे मेरे आने का पता ही नहीं लगा। मैं काफी देर तक उसके पास खड़ी रही, फिर एक चौकी खींचकर बैठ गयी और फिर थोड़ी देर बाद चली आयी।

दूसरी दुनिया की बात। दूसरी दुनिया भी कोई दुनिया है? या कि दूसरी ही दुनिया है, और यह जो हैं वह नहीं है?

सेल्मा

बोलचाल का मुहावरा जिस तेजी से बदलता है, बस्ती का रूप उससे कहीं अधिक तेजी से बदल रहा था। बातचीत में अभी तक कस्बा ही कहते थे, लेकिन उसमें शहर के सब लक्षण आ चुके थे। बल्कि जिस हिस्से को किसी भी औचित्य के साथ कस्बा कहा जा सकता है वह उसके एक छोर पर पड़ गया था। उतने हिस्से का स्थापत्य कुछ अलग और पिछड़ा हुआ था। सड़क़ें इतनी तंग थीं कि उन्हें गलियाँ कहना ही ठीक था और वहाँवाले वही कहते भी थे। वहाँ के लोगों के जीवन की गति भी धीमी ही थी और शायद उनके बोलने के ढंग की तरह उनकी जीवन-दृष्टि भी कुछ पुरानी और कुछ पिछड़ी हुई थी। कम-से-कम शहर में, यानी शहर के दूसरे हिस्से में, रहनेवाले लोग उसे पिछड़ा ही मानते थे और जब भी कस्बे के लोगों की चर्चा करते तो उसमें एक व्यंग्य निहित होता था-बड़ा शरारती, छिपा हुआ व्यंग्य, लेकिन शहराती या छिपा हुआ होने के कारण कुछ कम तीखा नहीं।

कस्बे के आगे सीधे-सपाट मैदान में बाग था। वह भी पुराना बाग था, पुरानी और सुस्त चाल से चलनेवाला बाग, जिसमें हलकी-फुलकी, चुस्त और हर मौसम में रूप बदलनेवाली फूलों की क्यारियाँ बिलकुल नहीं थीं, पुरानी और सदा-बहार हरियाली के बीच में जहाँ-तहाँ बहुत बड़े-बड़े, पुराने और धीमी गति से बढनेवाले पेड़ थे।

बाग के पार नदी थी-या नदी के किनारे की सड़क थी क्योंकि सड़क ही बाग की मर्यादा बाँधती थी, सड़क के आगे फिर हरियाली का फैलाव था और उसके आगे नदी थी।

हरियाली का ढलाव नदी की ओर था, और हर साल बारिश होने पर सारी हरियाली डूब जाती थी और बाग की मर्यादा-रेखा खींचनेवाली सड़क, नदी की मर्यादा-रेखा बन जाती थी। लेकिन जब नदी उतर जाती थी और हरियाली के नीचे की मिट्टी फिर बँध जाती थी, तब बाग की सैर करनेवाले सड़क पार करके हरियाली की सैर करने भी जरूर आते थे और हरियाली पर टहलते हुए ही नदी के पुल तक जाते थे। पुल था तो नदी का, पर नदी के साथ-साथ हरियाली को भी बाँधता था। धनुषाकार पुल दूर-दूर से दीखता था और हरियाली की सैर करने आनेवालों के क्षितिज का महत्त्वपूर्ण अंग था। सैर के अन्त में उन्हें प्यास जरूर लगती थी, और कभी-कभी भूख भी लग आती थी, जिसके शमन का प्रबन्ध पुल पर ही था। जहाँ से पुल की उठान शुरू होती थी वहाँ से, बल्कि उसके कुछ पहले सड़क की पटरी पर से ही, अस्थायी दुकानें शुरू हो जाती थीं। पहले झावे या रेहड़ीवाले, फिर उनके बाद बड़ी रेहड़ियाँ आती थीं जिन पर दुकानदार के रहने की भी जगह बनी हुई हो, उसके बाद, धनुष के सबसे ऊँचे खंड पर, कुछ पक्की दुकानें थीं।

नदी में बाढ़ हर साल ही आती थी, लेकिन हर साल की बाढ़ सड़क को छूकर धीरे-धीरे उतर जाती थी। ऐसा कभी-कभी ही होता था कि वह और बढकर सड़क पर आ जाए। लेकिन जब वैसा होता था तो सड़क के साथ समूचा बाग भी पानी में डूब जाता था और पुल के छोर भी डूब जाते थे। बाग के बड़े-बड़े पेड़ मानो सीधे पानी में उगकर पानी पर ही छाँव करते जान पड़ते थे, और पुल का भी मानो नदी से, या उसे पार रकने की जरूरत से, कोई सम्बन्ध नहीं रहता था। मानो पातालवासी जलदेवता ने अपनी शक्ति देखने के लिये भुजा बढ़ाकर एक महाकाय धनुष पानी से ऊपर ठेल दिया हो, ऐसा ही वह तब लगने लगता था। उसकी लोहे और पत्थर की कंकरीट की चुनौती की ओर पीठ फेरकर कस्बे के लोग ऊँचाई पर बसी हुई नई बस्ती की ओर चले जाते थे और पानी उतरने की प्रतीक्षा किया करते थे-जब मानव को जलदेवता द्वारा दी गयी चुनौती का प्रतीक, फिर पलटकर जलदेवता पर मनुष्य की विजय की प्रतीक बन जाएगा, और पुल पर से लोगों का आना-जाना फिर सम्भव हो जाएगा-पुल पर खाने-पीने की तरह-तरह की चीजें फिर बिकने लगेंगी और आने-जानेवाले न केवल अपनी भूख-शान्त कर सकेंगे, बल्कि तफरीह के लिये घूमते हुए कंघी-रूमाल, फूल-गुलदस्ते भी खरीद सकेंगे। या कि सड़क के किनारे के फोटोग्राफर से यादगार के लिये फोटो भी खिंचवा सकेंगे।

सन १८०६ में जो बाढ़ आयी उसे लोग अब भी याद करते हैं। यह कह देने से कि उस शहर या कस्बे के लिये नदी की उस वर्ष की बाढ़ ने रेकॉर्ड स्थापित किया था, कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता कि वह बाढ़ क्या चीज थी। बाढ़ के साथ भूकम्प भी हुआ था, जिससे नई बस्ती की सड़क में भी बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी थीं और कस्बे के तो मकान ही गिर गए थे। लेकिन सबसे अधिक चौंकानेवाली जो बात हुई थी वह उस धनुषाकार पुल की दुर्घटना थी। पुल पर कुछ लोग इस वर्ष भी थे, जैसे कि हर वर्ष बाढ़ में रहते थे-बाढ़ दो-चार दिन में उतर ही जाती थी और पक्की दुकानवालों को उनका डर नहीं रहता था। इन दिनों के लिए सब सामान उनके पास रहता ही था। नावें भी बँधी रहती थीं जिनसे जरूरत पडने पर काम लिया जा सके। पर वास्तव में उनकी जरूरत कभी-कभी ही पड़ती, क्योंकि आमतौर पर बाढ़ में भी पैदल चलकर ही बाग को पार किया जा सकता था। बल्कि कभी-कभी नई बस्ती के कुछ मनचले लोग घुटने तक के रबड़ के बूट पहनकर इस तरह बाग पार करके आते भी थे। और भी शौकीन और सम्पन्न लोग नाव में बैठकर सीधे पुल तक पहुँचते थे जो कि उन दिनों अच्छी-खासी सैरगाह बन जाता था। बाढ़ के दिनों में पुल के ऊपरी हिस्से के चायघर में बैठकर चाय-पानी एक खास बात समझी जाती थी और इसका प्रमाण रखने के लिये लोग-या कभी-कभी प्रेमीयुगल अपने साहस-कर्म की स्मृति बनाए रखने के लिए-वहीं के फोटो भी खिंचवाते थे।

फोटोग्राफर की दुकान में अधिक संख्या ऐसे ही चित्रों की थी जिनमें गलबहियाँ डाले या चाय का प्याला अथवा सिगरेट हाथ में लिये हुए लोग पानी से घिरे हुए बैठे या खड़े हैं।

लेकिन उस साल एकाएक सब बदल गया। पहली बाढ़ में ही पानी इतना चढ़ आया कि नावें रस्सियाँ तुड़ाकर बह गयीं। पुल से आने-जाने का रास्ता भी बन्द हो गया और शहर की नावें बह जाने के कारण वहाँ से लोगों का आना भी असम्भव हो गया। सैलानी कोई नहीं आए। बल्कि बहते हुए जानवर या जानवरों की लाशें दुर्गन्ध की एक लकीर-सी खींचती हुई पुल के नीचे से निकल गयीं।

फिर भूचाल के साथ आनेवाली दूसरी बाढ़ में और भी दुर्घटना यह हुई कि सारे पुल की नींव हिल गयी। दोनों सिरे तो टूटकर बह ही गए, बीच का जो सबसे ऊँचा खंड बचा उसके खम्भे भी दरक गए और कुछ तो अपनी जगह से थोड़ा हट भी गए। कब तीव्र धारा का थप्पड़ उन्हें थोड़ा और सरकाकर, या अपनी रगड़ से सहारा देनेवाले निचले हिस्से को काटकर, अधर में टँगे हुए धनु-खंड को भी बहा ले जाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं रहा। चारों ओर घहराता हुआ दुर्धर्ष अथाह पानी, आक्षितिज केवल पानी। बाग के बड़े-बड़े पेड़ भी अब उस पानी पर छाया नहीं डाल रहे थे, बल्कि उनके ऊपरी हिस्से स्वयं पानी की सतह पर छाया-से दीख रहे थे। कुछ तो उखडकर बह भी गए थे। थोड़ी देर के लिये शायद एक-आध की जड़ें पुल के डूबे हुए छोर के साथ अटकी होंगी, लेकिन उसके बाद गँदले पानी और झाग का एक भँवर अपने पीछे खींचते हुए वे पेड़ आगे बह गए थे। और इस घरघराहट और टूटन और प्रलयंकर विनाश के बीच में बेतुका-सा खड़ा रह गया था तीन खम्भों पर टँगा हुआ पुल का बीच का हिस्सा और उसके ऊपर की तीन-चार दुकानें और उनमें बसे हुए तीन-चार लोग।

सेल्मा डॉलबर्ग ने एक बार दुकान में से निकलकर पुल की मुँडेर तक आकर पानी की ओर देखा, और फिर आकाश की ओर, और फिर दुकान के अलग हिस्से में बने हुए काँच मढ़े बरामदे में जाकर ऊँचे मूढ़े पर बैठकर अनदेखती आँखों में मेजों और कुरसियों के सूनेपन को ताकने लगी। चायघर में अकेली वह, पास की फोटो की दुकान में फोटोग्राफर, और दूसरे पास सूवेनिर रूमालों, खिलौना-आकार के चाय के प्यालों, और पुल की प्रतिकृतियों की दुकानों में यान एकेलोफ-प्रलय की मटमैली धारा के ऊपर टँगी हुई पुल-रूपी दुनिया में यही तीन प्राणी रह गए थे, हजरत नूह की नाव मानो मस्तूल टूट जाने के बाद भटकती हुई कहीं अटक गयी थी और अटककर अर्थहीन हो गयी थी, और अर्थहीनता से थर-थर काँपते हुए तीनों प्राणी उससे चिपके हुए साँस गिन रहे थे। नूह के बचाए हुए जानवरों से किसी बात में कम नहीं थे ये तीनों जानवर। क्योंकि जानवर ही थे वे-या कम-से-कम चायघर के बरामदे में बैठी हुई सेल्मा डॉलबर्ग की अनदेखती आँखों को ऐसा ही लग रहा था।

थोड़ी देर बाद उठकर उसने अपने खाने के लिये कुछ बनाना शुरू किया तो बाहर से यान एकेलोफ की आवाज आयी :
‘‘खाने को कुछ है?’’
सेल्मा ने एक बार सिर से पैर तक यान को देखकर कहा, ‘ईंधन की तो बहुत कमी है। कुछ बनाने में दुगुने दाम लगेंगे।’
यान थोड़ी देर एकटक उसकी ओर देखता रहा। फिर बोला, ‘स्टोव तो मेरे पास है। अगर दुकान से कुछ कच्ची चीज भी मिल जाए-थोड़ा आटा या सूखा गोश्त ही मिल जाए तो भी काम चला लूँगा।’
‘‘कितना क्या चाहिए?’’
सामान लेने के लिये मुड़ते हुए सेल्मा ने कहा, ‘दाम तो तुरन्त दे दोगे न?’
यान ने थोड़े अचम्भे से कहा, ‘आँ-हाँ’ फिर थोड़ा रुककर बोला, ‘मैं कभी हिसाब बेबाक किए बिना भागा न होऊँ ऐसा तो नहीं कह सकता, लेकिन इस वक्त तो तुम्हें इसका डर नहीं होना चाहिए!’

थोड़ी देर बार सेल्मा ने एक बड़ा लिफाफा यान की ओर बढ़ाते हुए दाम बताए तो यान चौंक पड़ा। उसे लगा कि शायद सुनने में भूल हुई है। लेकिन जब सेल्मा ने अपनी बात दोहरायी तब उसने चुपचाप पैसे निकालकर दे दिये और लिफाफा उठाकर चला गया। उसे याद नहीं था कि जीवन में पहले कभी वह बिना ‘थैंक्स’ कहे यों सौदा उठा ले गया है।

उस दिन फिर वह नहीं आया। सेल्मा ने इसकी सम्भावना की थी कि वह फिर आएगा, क्योंकि जो सौदा वह ले गया था वह अगले दिन तक के लिये काफी नहीं था। एक बार उसे फोटोग्राफर का भी ध्यान आया था। लेकिन वह उसकी ओर नहीं आया। वह यान की अपेक्षा अधिक सम्पन्न भी था। असम्भव नहीं कि उसके यहाँ खाने-पीने का कुछ सामान हो। सेल्मा ने धीरे-धीरे सब परदे खींच दिये और भीतर कहीं खो गयी।

लेकिन दूसरे दिन सवेरे ही फोटोग्राफर ने आकर जानना चाहा कि सेल्मा के यहाँ से पीने का पानी मिल सकता है या नहीं।

सेल्मा ने विस्मय दिखाते हुए कहा, ‘पानी? मैं तो समझती थी कि तुम्हारे यहाँ साफ पानी बराबर रहता होगा-फोटोग्राफर का काम उसके बिना कैसे चल सकता है?’

मालूम हुआ कि पुल के काँपने से दवा की कुछ शीशियाँ पानी के ड्रम में गिरकर टूट गयी थीं और सारा संचित पानी दूषित हो गया था।

सेल्मा ने मानो मन-ही-मन परिस्थिति का मूल्य आँकते हुए कहा, ‘पानी मेरे पास शायद चाय बनाने लायक भर होगा। मैंने अभी चाय भी नहीं बनायी है, कहो तो वही पानी तुम्हें दे दूँ। या कि यहीं एक प्याला चाय पी लो।’

फोटोग्राफर ने कहा, ‘‘नहीं, तब तुम्हें तकलीफ नहीं दूँगा। चाय तो नदी के पानी में भी बन सकती है-एक बार उबल जाए तो कोई डर तो नहीं रहेगा।’’ और लौट गया।

समय नापने के कई तरीके हैं। एक घड़ी का है, जो शायद सबसे घटिया तरीका है। क्योंकि उसका अनुभव से कम-से-कम सम्बन्ध है। दूसरा तरीका दिन और रात का, सूर्योदय और सूर्यास्त का, प्रकाश और अँधेरे का और इनसे बँधी हुई अपनी भूख-प्यास, निद्रा-स्फूर्ति का है। यह यन्त्र के समय को नहीं, अनुभव के समय को नापने का तरीका है, इसलिये कुछ अधिक सच्चा और यथार्थ है।

फिर एक तरीका है, घरघराते हुए पानी में बहते हुए भँवरों को गिनकर और उनके ताल पर बहती हुई साँसों को गिनकर समय को नापने का तरीका। यह और भी गहरे अनुभव का तरीका है, क्योंकि यह समय के अनुभव को जीवन के अनुभव के निकटतर लाता है। समय और समयमुक्त, काल और काल-निरपेक्ष, अनित्य और सनातन की सीमा-रेखा और क्या है-सिवा हमारी साँसों के और साँसों की चेतना में होनेवाले जीवन-बोध के। साँस में ही जीवन-बोध हो, ऐसा नहीं : क्योंकि साँस लेना तो अनवधान अवस्था की क्रिया है। साँस की बाधा ही जीवन बोध है क्योंकि उसी में हमारा चित्त पहचानता है कि कितनी व्यग्र ललक से हम जीवन को चिपट रहे हैं। इस प्रकार डर ही समय की चरम माप है-प्राणों का डर... क्या सेल्मा अकेले ही इस मापदंड से समय को नापती रही है? क्या यान और फोटोग्राफर भी उसी नदी-प्रवाह से घिरे हुए उन्हीं भँवरों की ओर नहीं देख रहे हैं? क्या उसके पास कोई दूसरा माप है? नदी का प्रवाह और काल का प्रवाह पर्याय है, क्योंकि दोनों की पहचान डर की पहचान है। प्राणों के डर की...

यान, फोटोग्राफर और सेल्मा के बीच एक दीवार-सी खिंच गयी। कम से कम उन दोनों और सेल्मा के बीच तो खिंच ही गयी, क्योंकि सेल्मा कभी-कभी खिडक़ी के काँच में से झाँककर देखती कि वे दोनों कुछ बातें कर रहे हैं, या कभी-कभी इशारों से एक-दूसरे को कुछ कह रहे हैं। दोनों ने इस बीच शायद दो-चार बार एक साथ चाय बनाकर भी पी, ऐसा उनकी हरकतों से सेल्मा ने अनुमान लगा लिया।

चौथे दिन यान फिर उसके पास कुछ खरीदने आया। यान को सामने पाकर उसे एकाएक लगा कि वह दीवार और भी ठोस हो गयी है, और उसका मन यान के प्रति एकाएक कठोर हो आया। सहानुभूति उन सबकी परिस्थिति में अकल्पनीय हो, ऐसा उसे अब तक नहीं लगा था-इस बारे में कुछ सोचने की आवश्यकता ही उसे नहीं हुई थी। लेकिन जिस ढंग से यान से बात हुई-यानी यान ने जैसे बात शुरू की-उससे सेल्मा को एकाएक ऐसा लगा कि दुनिया का मतलब और कुछ नहीं है सिवा इसके कि एक वह है, और बाकी ऐसा सब है जो कि वह नहीं है, और जिसके साथ उसका केवल विरोध का सम्बन्ध है। यह विरोध ही एकमात्र ध्रुवता है जिसे उसे कसकर पकड़े रहना है, जिसे पकड़े रहने के अपने सामथ्र्य को उसे हर साधन से बढ़ाना है।

यान ने जेब में से पैसे निकाले और फिर कहा, ‘‘यह तो काफी नहीं है, मैं उधर से और ले आता हूँ-तब तक तुम सामान निकालकर रखो।’’

सामान यानी थोड़ा-सा सूखा गोश्त, और डिब्बे का दूध। जब तक सेल्मा भीतर से यह निकालकर लायी तब तक यान दुबारा लौट आया था। उसने पैसे चुकाए और सामान लेकर चला आया।

दीवार फिर पहले-सी खड़ी हो गयी। ठोस पर पारदर्शी दीवार, जिसमें से सेल्मा टूटे पुल की बाकी दुनिया की हरकतें देखती रही।

तीसरे पहर उधर वे दोनों फिर मिले। शायद उन्होंने चाय बनायी। और शायद चाय स्टोव पर नहीं बनायी गयी, लेकिन यान ने अपने कुछ खिलौने जलाकर आग तैयार की। और शायद अच्छी नहीं बनी, क्योंकि उसको पीनेवाले दोनों के चेहरे विकृत दीखे।

अगले दिन उसी काँच की दीवार के पार से फोटोग्राफर का चेहरा देखकर सेल्मा को एकाएक लगा कि दुबारा देखना जरूरी है। दुबारा देखने पर उसने जाना कि वह चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया है। फोटोग्राफर ने टीन का डिब्बा लटकाकर नदी का पानी पिया और अपनी दुकान के भीतर लौट गया। थोड़ी देर बाद वह फिर उसी तरह निकला और एक डिब्बा पानी भरकर लौट गया, और सेल्मा को लगा कि इस बीच वह थोड़ा और पीला हो गया है।

तीसरे पहर उसने देखा कि यान भी फोटोग्राफर की तरफ चला गया है और उसे रह-रहकर पानी पिला रहा है। फोटोग्राफर पानी पीकर दुकान के भीतर कहीं अदृश्य हो जाता है लेकिन थोड़ी देर बाद ही फिर घिसटता हुआ आ जाता है।

ये तो लक्षण अच्छे नहीं हैं। फोटोग्राफर शायद बीमार है। लेकिन बीमार है तो सेल्मा क्या कर सकती है? और जब वह देखती है कि यान ऐसी अनदेखती-अनपहचानती आँखों से उसके बरामदे की ओर देखता है और फिर मुँह फेर लेता है, तब उसे लगता कि न केवल वह कुछ कर नहीं सकती या करना चाहती भी नहीं, बल्कि अगर वह सकती या चाहती ही तो भी उस दूसरी दुनिया तक उसका पहुँचना न होता जिसमें वे दोनों हैं। वे दोनों हैं ही नहीं, एक भयानक दु:स्वप्न के अंग हैं, और दु:स्वप्न में देखे हुए लोगों तक जीते-जागते कोई कैसे पहुँच सकता है?

रात हो गयी। अँधेरे में नदी की ओर काल की घरघराहट कहीं बाहर हो गयी, और सेल्मा ने सब परदे खींचकर अपने को मानो अपनी ही ओट कर लिया। उसमें और इस बाहर में एक मौलिक विरोध है जिसे पकड़े रहना है, वही धु्रव है और उसे पकड़े रहने का सामथ्र्य ही जीवन...

कभी न कभी यह बाढ़ उतरेगी ही, और तब वह टुटहा पुल शायद एक अतिरिक्त आकर्षण पा लेगा। सैलानी पुल पर हमेशा आते रहे, टूटे हुए पुल पर और भी अधिक आएँगे, क्योंकि अब तो वह एक कौतुक की चीज हो जाएगा। और उसका चायघर का कारोबार और भी चमक उठेगा। यों भी मुनाफा होता ही रहा है। कहावत है कि कोई भी दुर्भाग्य ऐसा नहीं होता जिसमें किसी-न-किसी का लाभ भी न हो...

लेकिन घनी रात में कहीं वह एकाएक हड़बड़ाकर जागी और उठ बैठी। आँखों की और शिराओं की कसक कह रही थी कि अभी घोर रात है। लेकिन परदों की ओट से भी अंगारे-सा लाल उजाला मानो उसके अनुभव का खंडन कर रहा था। जल्दी से एक चादर कन्धों पर डालकर वह बरामदे तक आयी, परदा हटाकर उसने बाहर झाँका और झाँकती रह गयी।

फोटोग्राफर की दुकान धू-धू जल रही थी।

इससे पहले कि सेल्मा कुछ सोच भी सके कि उसे क्या करना चाहिए, उसने देखा कि फोटोग्राफर दुकान की ओट से निकलकर सामने की ओर आया और कमर पर हाथ टेककर आगे की ओर देखने लगा। फिर एकाएक वह ठोढ़ी उठाकर हँसा-सेल्मा हँसी सुन नहीं सकी, पर जो उन्मत्त अमानुषी भाव फोटोग्राफर के चेहरे पर झलक आया था और जिस ढंग से उसका जीर्ण देहपिंजर हिल उठा था, उससे यह अनुमान कठिन नहीं था कि वह हँस रहा है। यद्यपि उस अमानुषी विस्फोट को हँसी कहना भाषा के चयन के साथ अत्याचार करना ही है।

सेल्मा का जडि़त मोह एकाएक टूट गया। उसने झटके से दरवाजा खोला और बाहर बढने को ही थी कि फिर एक बार ठिठक गयी। उस पार यान भी बाहर निकल आया था और फोटोग्राफर की ओर लपक रहा था। एकाएक फोटोग्राफर जोर से चीखा और धारा में कूद पड़ा। वह चीख सेल्मा सुन सकी। वह एकाएक प्रवाह के कारण कट गयी, लेकिन जिस ढंग से कटी उससे यह सन्देह बना ही रह गया कि वह चीख एक पागल हँसी थी-एक पागल अट्टहास का आरम्भ जो कि चीख के साथ छोटे-छोटे विस्फोटों में बँट जाता है-या कि पानी ने ही एकाएक साँस तोडकर दो-तीन बुलबुलों में बाँट दिया था।

सेल्मा की टाँगें लडख़ड़ाने लगीं और वह बरामदे की सीढ़ी पर बैठ गयी। टाँगें न लडख़ड़ायी होतीं तो भी वह आगे बढ़ सकती थी यह नहीं कहा जा सकता था। यान धीरे-धीरे बढ़ रहा था, जहाँ से फोटोग्राफर कूदा था वहाँ पहुँचकर वह खड़ा होकर एकटक पानी को ताकता रहा। कुछ करने को नहीं था। फोटोग्राफर पुल के नीचे से होकर न जाने कितनी दूर चला गया होगा। हाँ, सचमुच न जाने कहाँ चला गया होगा! क्योंकि अब यह भी कहना शायद झूठ होगा कि वह बाढ़ में बह रहा होगा-बाढ़ भी उसके लिए उतनी सारहीन और सत्त्वहीन हो गयी होगी जितनी कि उसकी अपनी देह...

काफी देर बाद यान ने एक बार मुडकर सेल्मा के बरामदे की ओर देखा। देख लिया कि वह सीढ़ी पर बैठी है, और फिर मुँह फेर लिया। फिर धीरे-धीरे अपनी दुकान की ओर बढने लगा, लेकिन चार-छह कदम जाकर फिर मुडकर फोटोग्राफर की दुकान के पास ही बैठ गया। और चुपचाप उसके जलने को देखने लगा। उस दुकान के जलने से किसी को कोई खतरा नहीं था, और अगर सेल्मा का अनुभव ठीक है कि गँदला पानी पीकर, पेचिश से ही फोटोग्राफर मरा-नहीं, मरा तो पानी में कूदकर, लेकिन उन्माद शायद उसी कारण हुआ-तो फिर दुकान का जल जाना एक तरह से ठीक ही है।

एकाएक सेल्मा को लगा कि यह बात उसके मुँह से निकलने ही वाली है। उसने होंठ काट लिये।

शायद यान को भी ठीक उसी समय लगा कि सेल्मा कुछ कहनेवाली है। क्योंकि उसने मुडकर दृष्टि से क्षण-भर उसकी ओर देखा। फिर मानो निश्चयात्मक भाव से गरदन मोडकर पीठ सेल्मा की ओर कर ली। सेल्मा ने उठकर बड़े धड़ाके से दरवाजा बन्द किया और झटके से परदा खींचकर भीतर चली गयी। अपने चायघर के भीतर, अपने ही भीतर, जहाँ न डूबता हुआ फोटोग्राफर है, न घृणा करता हुआ यान। जहाँ आत्म-विश्वास है और सुरक्षा है और भविष्य की अनुकूलता है। यह नहीं कि डर बिलकुल नहीं है लेकिन उस डर की बात अभी सोचना जरूरी नहीं है। वह डर निरी देह का है, और देह का डर झुठलाया जा सकता है-तब तक जब तक कि वह भीतर नहीं पहुँचता। देह तो हमेशा ही अकेली है, और उसके लिये अकेलेपन का अलग से कोई मतलब नहीं है। और उसके भीतर जो है वह कभी भी अकेला नहीं है, क्योंकि वह तो समूचे का है। केवल जब वह भीतरवाला समूचे का नहीं रहता और अकेला अनुभव करता है-या जब देह अकेली नहीं रहती, समूह का खंड हो जाती है-तभी वह डर होता है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता, जो छाती पर चढ़ बैठता है और मानो फेफड़ों में पंजा डालकर खंखोड़-खंखोडकर साँस बाहर निकालता रहता है।

सेल्मा सोयी नहीं। वह अंगारे-सी लाल दहकती हुई रोशनी धीरे-धीरे काली पड़ी और फिर एक दूसरी तरह की पीली रोशनी में बदल गयी, फिर कमरे के भीतर भी सब आकार स्पष्ट हो आए और दिन हो गया।

सेल्मा ने मुँह-हाथ धोया, अँगड़ाई लेकर अपने को बोध कराया कि उसका अंग-अंग दुखता होने पर भी शरीर अभी उसी का है और उसके वश में है। फिर उसने बहुत गहरी चाय बनाकर बिना दूध-चीनी के ही पी डाली। उसकी कडुवाहट से भी जब तसल्ली नहीं मिली तो भीगी पत्तियाँ भी प्याले में उँड़ेलकर उन्हें मुँह में भर लिया और मुँह के अन्दर इधर-उधर घुमाती रही। थोड़ी देर बाद वह घूँट उसने थूक दिया और गालों के अन्दर जीभ फेरकर मानो अपने मुँह के कसैलेपन का स्वाद लेने लगी।

फिर आकर उसने बरामदे के परदे उठाकर एक खिडक़ी खोली। दूसरी खिड़कियाँ या दरवाजे भी खोले, इसकी जरूरत उसे नहीं जान पड़ी, बल्कि अवचेतन रूप से शायद उसे यही जरूरी जान पड़ा कि दरवाजा न खोले।

यान को वह देखे ऐसा कोई कौतूहल उसके मन में नहीं था। शायद यह कहना अधिक सच होगा कि यान उसे देखे यही वह नहीं चाहती थी और उसे अपनी ओर देखते हुए पासे यह तो कदापि नहीं।

लेकिन उनकी आशंका निर्मूल थी। यान उधर नहीं देख रहा था। वह बाहर ही था, उसी जगह पर था, जहाँ उसे बैठा हुआ देखकर सेल्मा रात में भीतर गयी थी, और उसकी पीठ उसी तरह सेल्मा की ओर थी।

लेकिन यह नहीं था कि यह रात भर वहीं वैसा ही बैठा रहा हो। वह शायद थोड़ी देर पहले ही वहाँ आकर बैठा था। सेल्मा ने बिना आहट किये एक चौकी खिडक़ी के पास रखी और उस पर बैठकर परदे की ओट से यान को देखने लगी।

थोड़ी देर बाद यान उठा और जल चुके घर के अंगारों की ओर बढकर झुका। सेल्मा ने देखा कि उन अंगारों पर एक टीन में कुछ पक रहा है। यान ने टीन के डिब्बे को हिलाया और फिर पहले-सा बैठ गया।

तो उस जले हुए घर की राख पर यान कुछ पका रहा है। एकाएक दुकान के जलने का रात में देखा हुआ दृश्य सेल्मा की आँखें के सामने साकार हो गया। मानो फोटोग्राफर की यह उन्मत्त मुद्रा उसने फिर देखी, यह पागल चीख फिर सुनी, और फिर पानी की बुड़बुड़ाहट और फिर वह एक स्वर घरघराहट, जिससे घिरे हुए उसे न जाने कितने दिन हो गए थे। एकाएक उसे उबकाई आने लगी। उसने परदा खींचकर दृश्य को अपनी आँखों के आगे से हटा दिया और वहाँ से उठ गयी। लेकिन दृश्य उसकी आँखों के आगे थोड़े ही था जो परदा खींचने से हट जाता! वह जिधर मुड़ी उधर भी वही दृश्य था-क्योंकि वह उसकी आँखों के सामने नहीं, आँखों के भीतर था। उसकी उबकाई ने एकाएक मतली का रूप ले लिया और वह बेचैन-सी भीतर दौड़ गयी।

दिन छिपनेवाला था कि बरामदे की सीढ़ी पर सेल्मा ने आहट सुनी। तो यान आया है। दरवाजा उसने नहीं खोला, खिडक़ी तक आकर प्रश्न की मुद्रा में खड़ी हो गयी।
यान ने बिना उसकी ओर देखते हुए और बिना भूमिका के पूछा, ‘‘गोश्त है?’’
सेल्मा एकाएक तिलमिला गयी, और अपने को वश में करते हुए बोली, ‘‘हाँ, है। दाम ले आओ।’’
यान ने और भी संक्षिप्त भाव से कहा, ‘‘हैं।’’
सेल्मा ने भीतर से लाकर एक हत्थेवाले तश्त में रखा हुआ गोश्त यान की ओर बढ़ा।
यान ने पूछा, ‘‘कितने?’’
सेल्मा ने दाम बताते हुए कहा, ‘‘इसी में रख दो।’’
सेल्मा ने एक हाथ से गोश्त उठा लिया था और दूसरा जेब में डाला था। सेल्मा की बात सुनकर एकाएक उसने आँखें उठाकर सेल्मा के चेहरे की ओर देखा और फिर पूछा, ‘‘कितने?’’
सेल्मा ने रुखाई से कहा, ‘‘सुना नहीं?’’
यान ने हाथ जेब में से निकाला। उसकी मुट्ठी बँधी हुई थी। मुट्ठी भर सिक्के थे। एकाएक उसने मुट्ठी उठाकर सिक्के बड़ी जोर से सेल्मा के मुँह पर दे मारे। बोला, ‘‘शायद कुछ कम हैं। लेकिन तुम चाहो तो गोश्त में से उतना कम करके दे सकती हो। पैसे मेरे पास और नहीं हैं।’’और कहते-कहते उसने दूसरे हाथ का सामान वापस सेल्मा की ओर बढ़ा दिया।
सेल्मा की आँखें एकाएक अवश भाव से बन्द हो गयी थीं। सारा इच्छा-बल लगाकर उसने आँखें खोली और दर्द को दबाते हुए हाथ बढ़ाकर सामान ले लिया एक बार उसका मन हुआ था कि बाकी के पैसे छोड़ दे। लेकिन इस तरह वह नहीं छोड़ेगी, कभी नहीं छोड़ेगी! विरोध-एकमात्र ध्रुव-जीवन का सहारा...

उसने सिक्के बीनकर इकट्ठे किये, भीतर गयी और गोश्त लगभग आधा करके ले आयी। बिना कुछ कहे उसने तश्त फिर यान की ओर बढ़ाया। यान ने गोश्त उठाया और मुड़ गया। क्षण-भर बाद सेल्मा ने खिडक़ी जोर से बन्द कर दी और तब हाथ से टटोलकर अपना चेहरा देखने लगी कि कहाँ-कहाँ सूजा है। एक चौड़ी लाल लकीर उसकी हथेली पर छप आयी।

हार वह नहीं मानेगी, कभी नहीं मानेगी। अपमान से तो और भी नहीं! और यान कौन होता है उसका अपमान करनेवाला, या उस पर क्रोध करनेवाला? मुनाफा वह करती है, मुनाफा सब करते हैं। यान क्या सूवेनिर के नाम पर तरह-तरह का निरर्थक कूड़ा बेचकर मुनाफा नहीं करता? दाम कम या ज्यादा हों यह माँग पर निर्भर है। तबीयत पर निर्भर है। सैलानी लोग सिर्फ शौक के कारण मुँह-माँगे दाम देकर तरह-तरह की फिजूल चीज़ें खरीद लेते हैं। सभी जानते हैं कि दाम चीज का नहीं शौक का है, तो इससे क्या वह व्यापार अनैतिक हो जाता है? दाम माँग का है, माँग विरोध की स्थिति उत्पन्न होती है, विरोध ध्रुव है और उसे पकड़े ही रहना है...

जरूरत भी शौक का दूसरा नाम है। दोनों ही माँगें हैं। अलग-अलग तरह की सही। शौक पर मुनाफा-जरूरत पर मुनाफा हाँ, फ़र्क़ तो है शौक के साथ लाचारी नहीं है जबकि जरूरत के साथ विकल्प नहीं है।

लेकिन विकल्प क्या सचमुच नहीं है? और जोखिम क्या मैं नहीं उठा रही हूँ यहाँ रहकर? क्या मेरी जरूरत का सवाल नहीं है-और क्या मैं कम लाचार हूँ।

फोटोग्राफर पागल होकर मर गया तो मैं क्या कर सकती हूँ? मैं भी पागल नहीं हो गयी, इसीलिए क्या मैं अपराधी हूँ...

सेल्मा के पास तर्क की कमी नहीं थी। लेकिन कुछ था जो कि उसे कोस रहा था। वह भीतर जाकर बैठी थी, फिर बरामदे में आ गयी और चौंकियाँ इधर-उधर ठेल-ठालकर, सीधा रास्ता बनाकर तेजी से लौट-लौटकर बरामदे की लम्बाई नापने लगी। कब रात कितनी घनी हो गयी उसे कुछ पता नहीं लगा, और काल का प्रवाह ही नहीं, मानो नदी का प्रवाह भी कहीं पीछे रह गया। केवल बरामदे में उसके अपने पैरों की आहट ही उसकी एकमात्र साथिन रह गयी।
कि सहसा वह बड़े जोर से चौंकी। दरवाजा खटखटाया जा रहा था।

क्या करने आया है यान रात में? सेल्मा का दिल एकाएक जोर से धडकने लगा और वह एक कुर्सी का हत्था पकडकर खड़ी हो गयी।

दरवाजा फिर खटखटाया गया। अबकी बार जोर से।

सेल्मा भीतर गयी। एक नजर चारों ओर दौड़ाकर उसने अँगीठी के पास रखी हुई लोहे की सलाख उठायी और फिर बरामदे में आ गयी।

दरवाजा तीसरी बार खटखटाया गया। सेल्मा की पकड़ सलाख पर और कड़ी हो आयी। उसे पीठ की ओट करते हुए उसने बाएँ हाथ से खिडक़ी की सिटकनी खोली और पूछा, ‘‘क्या है?’’
यान ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो।’’

‘‘क्या काम है-इतनी देर रात को?’’
यान ने मानो कुछ चौंकते हुए फिर कहा, ‘‘दरवाजा खोलो सेल्मा।’’ फिर थोड़ी देर रुककर कहा, ‘‘सेल्मा, मैं माफी चाहता हूँ। गुस्से से मैं अवश हो गया था उसके लिये मैं शर्मिन्दा हूँ। मैंने सोचकर देखा है कि तुम्हारा दोष नहीं है।’’

सेल्मा थोड़ी देर असमंजस में रही। क्या यह दरवाजा खुलवाने का ही ढोंग है? लेकिन फिर मुट्ठी में पकड़ी हुई लोहे की छड़ से उसके लडख़ड़ाते हुए आत्मविश्वास को टेक मिल गयी और उसने दरवाजा खोल दिया।

यान ने भीतर आकर कहा, ‘‘तुमने मेरी जान लेनी चाही है लेकिन सकी नहीं-सकती नहीं। मैं चाहूँ तो तुम्हारी जान ले सकता हूँ, लेकिन मैं चाहता नहीं हूँ।’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। सेल्मा का दिल फिर धडकने लगा था। लेकिन स्थिति उसकी समझ में नहीं आ रही थी, इसीलिये वह पूरी तरह डर भी नहीं पा रही थी। असमंजस में ही उसने अपने को सँभाल लिया औ वह सतर्क भाव से यान की ओर देखती रही।

यान ने कहा, ‘‘मरेगा तो शायद हम दोनों में से कोई नहीं-तुम्हारी हरकत के बावजूद अभी तो नहीं लगता कि मैं मरनेवाला हूँ। लेकिन अगर सचमुच यह बाढ़ ऐसी ही इतने दिनों तक रही कि मैं भूखा मर जाऊँ, तो तुम बचकर कहाँ जाओगी और अगर पीछे ही मरोगी, तो तुम समझती हो कि वैसे अकेले मरने में कोई बड़ा सुख है? बल्कि अकेली तो तुम अब भी हो, जबकि मैं नहीं हूँ। और शायद मर ही चुकी हो-जबकि मैं अभी जिन्दा हूँ।’’

यह कहकर यान ने आँखें उठाकर भरपूर सेल्मा की ओर देखा। सेल्मा ने चाहा कि उसकी बात का खंडन करे, लेकिन कुछ बोल न सकी-एकाएक हाथ ढीले होने से ही उसे ध्यान आया कि उसकी मुट्ठी में लोहे की सलाख है। उसने धीरे-धीरे एक ओर झुककर उसे दीवार के साथ टेक दिया और फिर सीधी हो गयी। फिर उसने पूरा जोर लगाकर किसी तरह कहा, ‘‘तुम तो माफी माँगने आए थे-यह क्या नए सिरे से अपमान नहीं कर रहे हो?’’

यान ने कहा, ‘‘तुम माफी दे कैसे सकोगी? कोई भी जो अपनी बेचारगी नहीं देखता दूसरे को क्षमा नहीं कर सकता। मैं तो तुम्हारी मदद ही कर रहा हूँ।’’

थोड़ी देर फिर सन्नाटा रहा-तरह-तरह के विचारों और भावनाओं के बोझ से टीसें मारता हुआ सन्नाटा।
फिर सेल्मा ने तनाव को शिथिल करने के लिए कहा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है?’’
यान बोला, ‘‘यह-ओह!’’
थोड़ी देर ठहरकर फिर उसने साभिप्राय कहा, ‘‘यह लोहे की छड़ तो नहीं है। लेकिन यही देने तो मैं यहाँ आया था, गोश्त मैंने पकाया है।’’
सेल्मा ने अचकचाकर कहा, ‘‘तो मुझे क्या? जाओ खाओ।’’ फिर मानो थोड़ा पसीजकर उसने जोड़ा, ‘‘तुमने काफी दाम देकर खरीदा है।’’
‘‘इसीलिये साझा करने आया हूँ। अपनी अन्तिम पूँजी देकर यह अन्तिम भोजन मैंने खरीदा है। इसे अकेला नहीं खा सकूँगा।’’

यान थोड़ी देर चुप रहा। ‘‘और इसे पकाना भी कुछ आसान नहीं था-फोटोग्राफर की जली हुई दुकान की आँच पर ही यह पका है। इसे जरूर ही बहुत स्वादु होना चाहिए-मेरे जीवन के मोल यह खरीदा गया और फोटोग्राफर के जीवन के मोल पक सका। लो...’’

कहते-कहते उसने हाथ का दस्तेदार टीन सेल्मा के सामने चौकी पर रख दिया। तब सेल्मा को न जाने क्या हुआ कि वह यान को दुतकार कर बाहर निकाल देने के लिये आगे बढ़ी तो उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसने जब कहा, ‘‘यान तुम मेरे सामने से चले जाओ!’’ तब उसके स्वर में दुतकार जरा भी नहीं थी! न जाने क्यों वह खुद स्तम्भित हो गयी! ऐसी स्तम्भित कि उसका हाथ यान के कन्धे पर धरा ही रहा गया।

और यान ने कहा, ‘‘नहीं, यह अकेले तुम्हीं को नहीं दिये दे रहा हूँ, आधा ही तुम्हें दूँगा-क्योंकि अपमान करने नहीं आया, साझा करने ही आया हूँ। अपने हिस्सा निकाल लो और बाकी मुझे दे दो। मैं उधर जाकर खाऊँगा।’’

सेल्मा का हाथ धीरे-धीरे यान के कन्धे से फिसलता हुआ गिर गया। यान की ओर देखते-देखते ही उसने दूसरे हाथ से कुर्सी टटोली और एक कदम पीछे हटकर उस पर बैठ गयी। ‘‘नहीं यान, तुम अकेले ही खाओगे। नहीं तो पहले मुझे इसके दाम लौटा देने होंगे।’’
धीरे-धीरे एक बहुत सूक्ष्म व्यंग्यपूर्ण मुस्कान यान के चेहरे में झलक गयी। थोड़ा रुककर उसने कहा, ‘‘ओह!’’

सेल्मा आविष्ट-सी उठ खड़ी हुई। उस ‘ओह’ के व्यंग्य के तीखेपन ने एकाएक उसे फिर गहरे विद्रोह-भाव से भर दिया और उसी के बल से उसकी क्षण भर पहले की दुर्बलता दूर हो गयी।
लेकिन एकाएक उसने कहा, ‘‘यान, तुम मुझसे विवाह करोगे?’’

यान ने मानो चौंककर उसकी ओर ऐसे देखा जैसा कि उसने ठीक सुना नहीं। फिर जान लिया कि ठीक ही सुना है।

सेल्मा स्वयं भी ऐसे चौंकी मानो वह समझ नहीं सकी हो कि उसके मुँह से क्या निकल गया है। लेकिन फिर उसने भी पहचान लिया कि उसके मुख से वही निकला है जो कि उसने कहा है।

सन्नाटे में वह अनुत्तरित प्रश्न ही गूँजता रहा और पत्थर-सा जम गया। स्वयं ही नहीं जम गया बल्कि उन दोनों को भी उसने ऐसे कीलित कर दिया कि जब तक उत्तर देकर उसके जादू को काटा नहीं जाएगा तब तक कोई हिल नहीं सकेगा।

देर बाद यान ने कहा, ‘‘तुमसे विवाह? यानी तुम्हारी इस सब सड़ती हुई पाप की कमाई से विवाह? नहीं, मुझे नहीं चाहिए। तुम मेरे अन्तिम भोजन का अपना हिस्सा लो और मुझे छुट्टी दो।’’ क्षण-भर रुककर फिर उसने कहा, ‘‘या कि हिस्सा भी न लो, सारा तुम्हीं रख लो’’ और वह मुड़ा और फिर चला गया।

सेल्मा देर तक बैठी उस टीन को देखती रही। उस देखने-देखने में उसने दो-तीन जीवन जिये और मरे। मानो कोई दूसरा होकर दो-तीन बार वह जियी और मरी, और फिर मानो अपने आपमें लौट आयी, परायी और अनपहचानी होकर। और एक बार उसने कुछ ऐसे ही भाव से अपने हाथ-पैरों और अपने घुटनों की ओर देखा भी-मानो पूछ रही हो कि क्या ये उसी के हैं-कि क्या वह है?

हवा के झोंके से किवाड़ झूला और बन्द होकर फिर खुल गया। सेल्मा खिडक़ी बन्द करने के लिए उठी। खिडक़ी बन्द करके दरवाजा भी बन्द करने लगी, पर फिर दोनों दरवाजे उसने पूरे खोल दिये। बरामदे से लौटकर भीतर गयी। एक कागज़ पर उसने धीरे-धीरे यत्नपूर्वक सँवारकर कुछ लिखा और उसे तह करके जेब में डाला, फिर अलमारी में से खाने को कुछ और सामान निकालकर बरामदे में आयी और चौकी पर रखा हुआ टीन भी उठाकर बाहर निकलकर यान की दुकान की ओर बढ़ गयी।

यान दुकान के बाहर ही बैठा था और पानी की ओर देख रहा था। सेल्मा ने सब चीजें उसके सामने रखते हुए कहा, ‘‘तुम मुझे न्यौता देने आये थे, वह मुझे स्वीकार है। मैं दो तश्तरियाँ भी लायी हूँ-एक में मेरे लिए परोस दो।’’

यान थोड़ी देर उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखता रहा। क्षण-भर सेल्मा को लगा कि वह इनकार कर देनेवाला है। फिर उसने चुपचाप तश्तरी उठायी और टीन में से गोश्त परोसने लगी। फिर उसने कहा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘यह मेरी ओर से भी है-इसका भी साझा होना चाहिए।’’
थोड़ी झिझक के बाद यान ने कहा, ‘‘तो तुम्हीं परोस दो।’’
सेल्मा अभी कुछ डाल ही रही थी उसने टोक दिया। ‘‘बस-बस।’’
सेल्मा ने पूछा, ‘‘यहीं बैठकर खा सकती हूँ?’’
यान ने कुछ अस्पष्ट वक्रभाव से कहा, ‘‘पुल कोई मेरा थोड़े ही है?’’

लेकिन थोड़ी देर बाद सेल्मा को भी लगा कि वह कुछ खा नहीं सकेगी- यान के पास बैठकर किसी तरह नहीं। अपनी तश्तरी उठाकर वह खड़ी हो गयी और बोली, ‘‘मैं उधर ही ले जा रही हूँ, अभी नहीं खा सकूँगी।’’ और यान कुछ कह सके इससे पहले ही जल्दी से जेब से कागज निकालकर उसे यान के पास रखते हुए बोली, ‘‘और यह लो- यह तुम्हारे लिए लायी थी।’’
‘‘यह क्या है?’’
‘‘तुम मुझे न्यौता देने आये थे पर अपमान करके चले आये। मैं अपमान करने नहीं आयी, न करूँगी, पर अभी खा नहीं सकूँगी-किसी तरह नहीं।’’

सेल्मा तेजी से बरामदे की ओर लौटी और तश्तरी चौकी पर रखकर उसने धड़ाके से दरवाजा बन्द कर दिया। तश्तरी उठाकर वह अन्दर गयी और वहाँ जाकर उसने चौकी पर तश्तरी रख दी। एक बार कुर्सी की ओर देखा कि बैठ जाए, लेकिन फिर बैठी नहीं, वहीं अनिश्चित खड़ी रही। क्योंकि एकाएक उसके आगे एक डगमगाता अँधेरा छा गया-भीतर कहीं बहुत गहरे से एक बुलबुला-सा उठकर उसके गले तक आकर फूट गया और वह फफककर रो उठी।

वही अन्त था। और कुछ पूछने को नहीं था। और कुछ बताने को भी नहीं था। जीवन के मोड़ होते हैं जिनके आगे जरूरी नहीं है कि रास्ता हो ही, कभी अन्धी गली भी होती है। सवेरा हुआ, शाम हुई, दूसरा दिन हुआ और फिर तीसरा दिन। सेल्मा न बाहर निकली, न उसने बरामदे में से बाहर झाँका, उसने मन-ही-मन यह जिज्ञासा की कि यान क्या कर रहा होगा। या कि आगे क्या होगा। सब कुछ समाप्त हो चुका था, और उसने जान लिया था कि सब कुछ समाप्त हो गया है-स्वीकार कर लिया था कि यही समाप्ति है। यान ने उसका प्रत्याख्यान कर दिया था, और उसने अपनी सारी कमाई का-क्योंकि उस सबकी वसीयत वह यान के नाम लिखकर दे आयी थी। और कहीं कुछ नहीं था! और कही कुछ नहीं था...। कोई जिज्ञासा नहीं थी...। कोई उत्तर नहीं था... कोई ध्रुवता नहीं बची थी क्योंकि कोई विरोध नहीं बचा था। बाहर बाढ़ नहीं थी, और काल का प्रवाह भी नहीं था। केवल एक टूटा हुआ अर्थहीन पुल-कहाँ से कहाँ तक और कब तक! एक टूटा हुआ अर्थहीन पुल जो कि वह स्वयं है-वह, सेल्मा, जो न कहीं से है, न कहीं तक है-जो है तो यह भी नहीं जानती कि कब तक है।

चौथे दिन जब दरवाजा खटखटाया गया तो मानो उसने पहचाना कि वह इसी की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन यान ने पुकारकर जो कहा उसकी प्रतीक्षा उसे नहीं थी।

‘‘लोग आ रहे हैं दूर एक नाव दीख रही है। बाढ़ उतर गयी है-सेल्मा! बाहर आओ!’’
लेकिन यह मानो समाचार नहीं था। पहले थी। कौन-सी बाढ़ कौन लोग? कहाँ से आ रहे हैं? फिर भी यन्त्रचालित-सी सेल्मा ने बाहर जाकर दरवाजे खोल दिये। और यान के संकेत पर दूर क्षितिज की ओर देखने लगी।

हाँ नाव, बड़ी नाव, काली-सी नाव और उसमें झलकते हुए कई एक काले-काले सिर।
सेल्मा यान के पास ही काफी देर तक खड़ी रही। नाव इतनी पास आ गयी थी कि उसके लोगों ने शायद उन दोनों को देख लिया था। नाव में से दो-तीन आदमी हाथ हिलाकर इशारा कर रहे थे। लेकिन इशारे का उत्तर देने का मानो सेल्मा को ध्यान ही नहीं हुआ, उसका बोध यहीं तक था कि अभी थोड़ी देर में सहायता की टोली उन तक पहुँच जाएगी और उनका उद्धार हो जाएगा-यानी उसका और यान का एक-दूसरे से उद्धार हो जाएगा।

उसने एकाएक यान की ओर मुडकर कहा, ‘‘यान, अब तो मेरा कुछ नहीं है। अब मैं फिर पूछती हूँ, मुझे स्वीकार करोगे?’’

यान ने एक बार उसकी ओर देखा। फिर जेब में हाथ डाला और सेल्मा का दिया हुआ कागज निकाला, यत्नपूर्वक उसे फाडकर उसकी चिन्दियाँ कीं और उन्हें हवा में उड़ा दिया। इसके अतिरिक्त और कोई उत्तर उसने सेल्मा को नहीं दिया। फिर वह मानो पूरे एकाग्र मन से हाथ हिलाकर नाववालों के इशारों का जवाब देने लगा।

इससे आगे जो कुछ हुआ वह मानो स्वप्न में हुआ। स्वप्न में ही सेल्मा ने पहचाना कि उसे सहारा देकर नाव में उतारा गया है, कि उसके बाद यान भी उतरा है, कि वे दोनों ही नाव में बैठे हैं, और नाव पुल से हट रही है। स्वप्न में ही उसने देखा कि वह टूटा पुल उनसे दूर हटता हुआ आकाश का अंग बनता जा रहा है-उनके जीवन का अंग नहीं, केवल सूने आकाश का अंग।

पुल को देर तक देखने के बाद उसने सहसा मुडकर यान की ओर देखा कि यान से आँखें मिलते ही अरराकर उसका स्वप्न टूट गया। सहसा एक अप्रत्याशित स्निग्ध मुस्कान यान के चेहरे पर खिल गयी थी। धूप से भी अधिक खिली हुई, आकाश से भी अधिक गहरी, नदी से भी अधिक द्रव एक मुस्कान, जो केवल उन दोनों के बीच थी... जिसमें कहीं अस्वीकार नहीं था, प्रत्याख्यान नहीं था, विरोध नहीं था-पर ध्रुवता थी, एक अटल स्वीकारी ध्रुवता जैसे अन्तहीन आकाश में बसा हुआ आलोक...

नहीं, अन्त वहाँ पुल पर नहीं था, अन्त यह था जो कि नया आरम्भ था-अन्धी गली वह नहीं थी, मोड़ का कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि रास्ता ही नहीं था क्योंकि यह आरम्भ तो खुला आकाश था, जिनमें से एक नया जीवन उपजा-एक नया अनुभव एक नई गृहस्थी, तीन सन्तान, सुख-दुख के साझे का एक जाल जिसमें जीवन की अर्थवत्ता के न जाने कितने पंछी उन्होंने पकड़े...फिर वह दिन आया कि यान नहीं रहा, पर वह अर्थवत्ता नहीं मिटी, पास हुए सारे अर्थ चाहे छिन जाएँ। जीवन सर्वदा ही वह अन्तिम कलेवा है जो जीवन देकर खरीदा गया है और जीवन जलाकर पकाया गया है और जिसका साझा करना ही होगा क्योंकि वह अकेले गले से उतारा ही नहीं जा सकता-अकेले वह भोगे भुगता ही नहीं। जीवन छोड़ ही देना होता है कि वह बना रहे और मर-मरकर मिलता रहे, सब आश्वासन छोड़ देने होते हैं कि ध्रुवता और निश्चय मिले। और इतर सब जिया और मरा जा चुका है, सबकी जड़ में अँधेरा और डर है, यही एक प्रत्यय है जो नए सिरे से जिता जाता है और जब जिया जाता है तब फिर मर नहीं जाता, जो प्रकाश पर टिका है और जिसमें अकेलापन नहीं है...

खिडक़ी के बाहर बर्फ का विस्तार। वैसी ही सफेद अछूती बर्फ, जिसे क्वाँरी बर्फ कहते हैं। क्वाँरा, सफेद सूना, बेजान विस्तार। उस अछूती सफेदी में कुछ ऐसा था जो कि झूठ था, या कि रह-रहकर योके को ही ऐसा भान हो आता था कि वह झूठ है। शायद वह बर्फ के विस्तार का झूठ नहीं था, क्योंकि, उसका सूनापन तो उतना ही नीरन्ध्र सच था जितना कि मृत्यु। शायद वह झूठेपन का बोध सेल्मा को कहानी के प्रति उसके विद्रोह का ही स्थानान्तरित रूप था।

लेकिन सेल्मा की कहानी के प्रति विरोध क्यों? क्या वह मानती है कि वह कहानी झूठ है? नहीं, ऐसा तो वह नहीं कह सकती। शायद कहानी जिस ढंग से कही गयी-टुकड़ों-टुकड़ों में, और बीच-बीच के अन्तरालों में मानो मृत्यु की ठोस काली छाया के विराम-चिह्नों से युक्त-उसी से उसकी सच्चाई का बोध कुछ खंडित हो गया। कहानी में कुछ ऐसा सम्पूर्ण और अखंड और अबाध्य रूप से एक दिशा में बढनेवाला है कि उसका रुकना या हिस्सों में बँटना असम्भव है। या तो कहानी के विराम झूठ हैं, या फिर कहानी ही कैसे सच हो सकती है?

योके ने कहा कि सेल्मा दूसरी दुनिया की बात कह रही है। दूसरी दुनिया क्या सच है? क्या उसका दूसरा होना ही झूठा होना नहीं है-उस परिस्थिति में जिसमें कि यह दुनिया, देश-काल का यह विशेष बिन्दु, जीवन का यह एक निस्संग जडि़त क्षण ही एकमात्र अनुभूत सच्चाई है? लेकिन यही तो सबसे बड़ा झूठ है, यही तो सबसे अधिक अग्राह्य है। यह दुनिया झूठ है, क्या इसलिये यह मान लें कि दूसरी दुनिया सच है? सपना झूठ है तो सपने में जो लोक देखा उसको सच मान लेना होगा? मोह की अवस्था में झूठ में जो कल्पना की गयी वह क्या और भी अधिक झूठ नहीं है-झूठ का भी झूठ नहीं है?

उखड़ती साँसों के अनेक अन्तरालों में सेल्मा थोड़ी-थोड़ी करके अपनी बात कह गयी थी। यह उसका आत्मानुशासन ही था कि साँसों का उखड़ापन उखड़ा नहीं जान पड़ता था, केवल एक मौन जान पड़ता था। लेकिन इसी अनुशासन के कारण शायद उसकी बात में वह व्यथा-स्पन्दित सहजता नहीं रहती थी जो योके के लिये उसे सच बना सकती...।

एक बार तो कहानी सुनते-सुनते उसका यह विरोध-भाव एकाएक इतना प्रबल हो आया था कि उसने सेल्मा को टोक भी दिया था। ‘‘दु:ख और कष्ट की बात-लेकिन दु:ख और कष्ट सच कैसे हैं अगर उनका बोध ही नहीं है?’’

सेल्मा थोड़ी देर चुप रही थी। फिर उसने कहा था, ‘‘यही तो मैं भी कहती हूँ-लेकिन दूसरी तरह से। बोध में से ही दर्द की सचाई है।’’ और थोड़ी देर रुककर, ‘‘और मृत्यु की भी।’’
योके ने इससे आगे सुनना नहीं चाहा था, इतना भी सुनना नहीं चाहा था। वह झपटती हुई उठकर दूसरे कमरे में चली गयी थी। लेकिन काम में अपने को उलझा नहीं सकी थी-काम कोई विशेष था ही नहीं। फिर आकर दो-एक बार सेल्मा को देख गयी थी और चली गयी थी, और अन्त में फिर आकर उसके पास बैठ गयी थी। योके अपने से कहती, ‘‘वह वहाँ सेल्मा है यह यहाँ मैं हूँ। वह सेल्मा है, सेल्मा ही है, यह मैं नहीं जानती-क्योंकि यह भी नहीं जानती कि वह जीती है या मर चुकी है-वह ऐसी निश्चेष्ट निस्पन्द पड़ी है-लेकिन उसके चेहरे में कोई परिवर्तन नहीं आया है और उसकी आँखें बन्द हैं। सुना है-आँखें खुल जाती हैं-लेकिन मैं क्यों उसे देख रही हूँ? क्या अपने को यही बोध कराने के लिये कि मैं मरी नहीं हूँ? जीवन के अनुभव करने के लिये, अपने मैं-पन को पहचानने के लिए? मैं-पन का बोध और जीवितपन का बोध, दोनों का एक साथ अनुभव करने के लिए-दोनों को एक अनुभूति में ढालकर इकाई को भोगने के लिये?

और प्रश्न को इस रूप में अपने सामने रखकर वह बेचैन होकर उठ खड़ी होती और इधर-उधर चक्कर काटने लगती। क्योंकि यहीं कहीं कुछ झूठ था-एक धोखा था-क्योंकि इन दो अलग-अलग अनुभवों का मेल किसी तरह भी इस एक अनुभूति के बराबर नहीं होता कि ‘मैं जीवित हूँ।’ मैं जीवित हूँ-की अखंड अनुभूति तभी हो सकती है जब व्यक्ति उसके प्रति चेतन न हो। क्योंकि कोई भी, किसी प्रकार की भी आत्मचेतना अपने को अपनी अनुभूति से अलग कर देती है, तटस्थ कर देती है, साक्षी बना देती है, और जो साक्षी है वह भोक्ता कैसे है? जीवन की अनुभूति तभी हो सकती है जब अनुभव कर रहे होने का बोध न हो। और वहाँ बैठी हुई योके-उसे न केवल बराबर यह बोध था कि वह अनुभव कर रही है, वह चाहती थी कि वह अनुभव करे! और यह बोध, यह चाहना ही जीवन को झूठा किये देता था। ...झूठ, झूठ, झूठ!
बर्फ-उजली बर्फ, धुँधली बर्फ, काली बर्फ-मानो काल का प्रवाह बर्फ की अलग-अलग रंग की झाईं है-उससे अलग समय की कोई सत्ता सा सत्त्वमयता नहीं है। या फिर जैसे बाहर बर्फ की झाइयाँ हैं वैसे ही भीतर सेल्मा के चहरे की झाइयाँ हैं-उजली, धुँधली, काली... यही दिनों का बीतना है, दिनों का और रातों का बीतना, जिस बीतने को योके अपने अर्थहीन साँसों से नाप रही है।...

योके ने नहीं जाना कि सेल्मा कब मर गयी। जानने का कोई उपाय नहीं था। शायद स्वयं सेल्मा ने भी नहीं जाना-क्योंकि उसका मरना किसी एक बिन्दु पर नहीं था। योके दूसरे कमरे में थी जब एकाएक उसने जाना। तर्कातीत गहरे और ध्रुव निश्चय से जाना कि सेल्मा मर चुकी है, उसे सहसा लगा कि कमरे की गन्ध बदल गयी है। आसन्न मृत्यु की गन्ध उसने कई दिन से पहचान रखी थी, इतनी घनिष्ठता के साथ कि अब उसकी अनुभूति की धार भी कुंठित हो गयी थी-पर अब उसे लगा कि वह गन्ध कुछ दूसरी है-मानो मृत्यु की सान पर चढकर उसका बोध तीखा हो आया था।

एकाएक इस बोध के थपेड़े से योके क्षण-भर के लिये लडख़ड़ा गयी। फिर उसके भीतर तीव्र प्रतिक्रिया जागी कि उसे तुरन्त कुछ करना चाहिए, कि वह कुछ करेगी नहीं तो पागल हो जाएगी। उसने लपककर सेल्मा के कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया और उसे पीठ से दबाती हुई खड़ी हो गयी। वह मृत्यु को बन्द कर देगी उस कमरे में, मृत्यु-गन्ध को वहीं दफना देगी-वह नहीं सह सकती उसे!

लेकिन वह काफी नहीं था। वह मृत्यु-गन्ध मानो सर्वत्र भर रही थी।

योके ने एक कम्बल और चादर से दरवाजे के जोड़ और दरारें बन्द कर देने का यत्न किया, लेकिन उसे लगा कि ये कपड़े भी गन्ध से भर गये हैं। उसकी मुट्ठियाँ बँध गयीं। उसने जोर से एक घूँसा कम्बल पर मारा, लेकिन मानो चोट न लगने से उसे सन्तोष नहीं हुआ। और वह दोनों मुट्ठियों से दरवाजे को पीटने लगी। एक कड़वा आक्रोश उसके भीतर उमड़ आया, न जाने कब पुरुषों के झगड़ों में सुनी हुई गालियाँ उसे याद हो आयीं और वह उन्माद की-सी अवस्था में ईश्वर का नाम ले-लेकर गालियों को दुहरने लगी और साथ-साथ दरवाजे पर घूँसे मारने लगी।

व्यर्थ। सब व्यर्थ। वह मृत्यु-गन्ध नहीं दबती, न दबेगी, सब जगह फैली हुई है सब-कुछ में बसी हुई है सब-कुछ मरा हुआ है, सड़ रहा है, घिनौना है-बेपना है...

एकाएक योके को लगा कि वह गन्ध और कहीं से नहीं आ रही है, उसी में है-उसी की देह में से आ रही है। वह दरवाजे से उठ गयी और खिडक़ी के पास गयी। फिर उसने एक गिलास उठाकर खिडक़ी के बाहर से उसमें बर्फ भरी और बर्फ की मुट्ठियाँ बाँधकर उससे अपने हाथ, अपनी बाँहें, अपना चेहरा रगड़ने लगी... व्यर्थ, वह गन्ध छूटती नहीं, वह योके में भीतर तब बस गयी है। वह योके की अपनी गन्ध है-योके ही वह गन्ध है... उसने एक बार विमूढ़ भाव से अपने हाथ की ओर देखा, फिर गिलास को उठाकर सूँधा-उफ, बर्फ भी मृत्यु-गन्ध से भरी हुई थी। या कि उसके स्पर्श से ही वह गन्ध बर्फ में भी बस गयी है!

केवल मृत्यु की प्रतीक्षा-मरने की प्रतीक्षा, सड़ने और गँधाने की प्रतीक्षा... वह गन्ध पहले ही सब जगह और सब-कुछ में है और हम सर्वदा मृत्यु-गन्ध से गँधाते रहते हैं...

वह और मृत्यु-गन्ध-अकेली वह और सर्वत्र व्यापी हुई मृत्यु-गन्ध-गन्ध के साथ अकेली वह।

एक उन्मत्त अतिमानवी निश्चय से भरकर योके ने कम्बल और चादर उठाकर दरवाजा खोल दिया। वह सेल्मा को उठाकर ईश्वर के मुँह पर दे मारेगी-कहेगी कि लो अपनी सड़ी हुई, गँधाती हुई मृत्यु, और छोड़ दो मुझे मेरे अकेलेपन के साथ! लेकिन दो कदम आगे बढकर ही वह ठिठक गयी, मानो लकवे से जड़ी हो गयी। उसे लगा कि सेल्मा की खुली आँखें एकटक उसे देख रही हैं, जैसे उस दिन देख रही थीं जब सेल्मा ने पूछा था, ‘‘लेकिन तुम रुक क्यों गयीं?’’

योके सेल्मा के पलंग की ओर और नहीं बढ़ सकी, ईश्वर के विरुद्ध ही उसका आक्रोश फिर प्रबल हो आया। थुड़ी है ईश्वर पर जो उसे इतना अकेला करके भी अकेला नहीं छोड़ रहा है, जो एक लाश की आँखों में छेद करके उनके भीतर से मुझे झाँक रहा है,

मुझ पर जासूसी करने आया है-थुड़ी है!

मुझे इतना अकेला करके...अकेला होना-मृत्यु के साथ अकेला होना-मृत्यु के सम्मुख अकेला होना-मृत्यु में अकेला होना-इस चरम अकेलेपन और स्वयं मृत्यु में क्या अन्तर है? क्या हुआ अगर ईश्वर चोरी से देख रहा है उस अकेली मृत्यु को-क्या ईश्वर भी मरा हुआ नहीं है?

योके ने सहारा लेने को हाथ बढ़ाया। लेकिन किसी तरफ कोई सहारा नहीं था और पलंग की ओर बढना सम्भव नहीं था। वह असहाय-सी वहीं फर्श पर बैठ गयी।

वह थोड़ी देर की बात भी हो सकती है और दो घंटों की भी कि योके यों फर्श पर बैठी रही। अंगों की चुनचुनाहट ने उसे सचेत किया। वह किसी तरह उठकर खड़ी हुई और लडख़ड़ाती हुई दरवाजे की चौखट तक आयी, वहाँ चौखटे के सहारे खड़ी होकर उसने सुन्न पड़ी टाँगों को सीधा किया और कुछ सँभलकर अपने पीछे दरवाजा धीरे से बन्द कर दिया। न जाने क्यों उसका ध्यान कमरे में टँगे हुए बड़े शीशे की ओर गया-खिडक़ी इतनी देर तक खुली रहने से उस पर नमी जम गयी थी और वह धुँधला होकर कोहरे की चादर-सा जान पड़ा था। योके ने हथेली से मलकर उसमें झाँकने लायक जगह बनायी, पहले अपनी परछाईं के पैरों की ओर देखा और फिर धीरे-धीरे नजर उठाती हुई परछाईं आँखों से आँखें मिलायीं और एकाएक मुड़ गयी।

एक नए निश्चय से भरकर उसने सेल्मा के कमरे का दरवाजा खोला, कम्बल सेल्मा की देह पर उढ़ाया और उसी में लपेटकर देह को बाँहों में उठा लिया। क्षण-भर उसे भ्रम हुआ कि उसने कम्बल सूना ही उठा लिया है। लेकिन पलंग पर कुछ नहीं था, सेल्मा का भार ही इतना रह गया होगा। दरवाजे की ओर बढकर उसने कोहनी से ठेलकर उसे खोला और बाहर निकल आयी।

नहीं, खोदने की कोई जरूरत नहीं थी-अभी वह प्रयत्न भी व्यर्थ था। अभी केवल बर्फ, अनन्तर जब बर्फ पिघलेगी तब कब्र खोदकर दफनाना होगा, लेकिन अभी कुछ नहीं।
योके ने लाश को वहीं बर्फ पर लिटा दिया, फिर अन्दर जाकर एक डोल ले आयी और उसी से खोदकर बर्फ में खाई बनाने लगी। थोड़ी देर बाद उसने लाश को उसमें लिटा दिया और डोल भरकर बर्फ उठायी कि ठिठक गयी।

क्या कोई प्रार्थना उसे याद है? क्या प्रार्थना का भाव भी उसके मन में है? क्या वह ईश्वर को जानती या मानती भी है, इससे अधिक कि उसका नाम लेकर थूके! ईश्वर केवल एक अभ्यास है, और उसके नाम पर थूकना भी अभ्यास है...

‘‘मुझे क्षमा कर दो!’’ उसे याद आया कि सेल्मा ने उससे कहा था। सेल्मा ने... जबकि कभी भी कोई परिस्थिति ऐसी आयी थी जिसमें किसी को किसी से क्षमा माँगनी हो, तो वह सेल्मा से योके के क्षमा माँगने की ही थी।

योके ने किसी तरह कहा, ‘‘क्षमा करो, सेल्मा-’’ और बर्फ का डोल उस पर उलट दिया। फिर वह तेजी से डोल भर-भरकर उस पर डालने लगी।

...क्या कहीं भी ईश्वर है, सिवा मानवों के बीच के इस परस्पर क्षमा-याचना के सम्बन्ध को छोडकर? यह क्षमा तो अभ्यास नहीं है। याचना भी अभ्यास नहीं है, तब यह सच है और ईश्वर है तो कहीं गहरे में इसी में होगा... पर क्या क्षमा, कैसी क्षमा, किससे क्षमा? मैं जो हूँ वही हूँ, और सेल्मा-सेल्मा मर चुकी है-है ही नहीं। फिर भी क्षमा सेल्मा से, ईश्वर से नहीं जो कि बीमार है और गँधाता है-मृत्यु-गन्धी ईश्वर...

लाश जब बिलकुल ओझल हो गयी तो योके ने डोल रखकर पीठ सीधी की और एक बार मुडकर घर की ओर देखा। घर अब भी बर्फ के भीतर की एक गुफा मात्र था जिसके द्वार से निकलकर बाहर आयी थी और जिसमें फिर लौट जाएगी-अबकी बार अकेली। एकाएक सेल्मा के प्रति एक व्यापक करुणा का भाव उसके मन में उदित हो आया। सेल्मा थी, और अब नहीं है! बेचारी सेल्मा!

लेकिन एकाएक योके ने अपने को झटककर इस पिघलने के भाव को रोक दिया। करुणा गलत है, बचाव उसमें नहीं है। घृणा भी नरक का द्वार है तो दया भी नरक का द्वार है। मैं दया करके वहाँ गिरूँगी जहाँ घृणा करके गिरती!...

एकाएक योके को उस मठवासी भिक्षु की बात याद आयी जिसने साधना के लिये अपने को एकान्त कोठरी में बन्द कर लिया था, लेकिन एक दिन एकाएक मानो जागकर, अपने अकेलेपन को पहचानकर और अपने आपसे डरकर अपनी कोठरी से सुरंग खोदना आरम्भ कर दिया था। सारा जीवन सुरंग खोदते-खोदते जब अन्त में एक दिन उसे खुली-सी जगह मिलती जान पड़ी और वह उसमें सिर डालकर ऊपर उठा-तो पहुँचा केवल उसी मठ की एक दूसरी एकान्त गुफा में जो कि उसी प्रकार बन्द थी जिस प्रकार उसकी अपनी कोठरी! अन्तर इतना ही था कि इस कोठरी में एक पुराना लोटा और एक ठठरी भी पड़ी हुई थी-किसी दूसरे साधक की जो उस एकान्त में मर गया था...

क्या इतनी ही है पुरुषार्थ की उपलब्धि-एक अकेली गुफा से बढकर एक दूसरी गुफा तक पहुँचाना जिसके अकेलेपन को एक ठठरी दोहरा रही है?

सेल्मा ने कहा था, ‘‘वरण की स्वतन्त्रता कहीं नहीं है, हम कुछ भी स्वेच्छा से नहीं चुनते हैं।’’ ईश्वर भी शायद स्वेच्छाचारी नहीं है-उसे भी सृष्टि करनी ही है लेकिन उन्माद से बचने के लिए सृजन अनिवार्य है, वह सृष्टि नहीं करेगा तो पागल हो जाएगा।

लेकिन यहाँ तो रचना की बात नहीं है। मृत्यु की बात है-मृत्यु, मृत्यु, मृत्यु... क्या उसमें ही कहीं रचना के लिए, सृष्टि के लिये गुंजाइश है? क्या यही रहस्य था जिसका कुछ आभास सेल्मा को मिला था-कि वरण की स्वतन्त्रता नहीं है लेकिन रचना फिर भी सम्भव है और उसमें ही मुक्ति है?

योके ने फिर एक डोल भरकर बर्फ उठायी और धीरे-धीरे सेल्मा की ओझल देह पर डाल दी। यह मानो अनावश्यक था, अतिरिक्त था, लेकिन इस अनावश्यक अतिरिक्तता ने ही इस मदफन को सम्पूर्णता दी-अन्तिम रूप दिया।

भीतर लौटने से पहले योके ने एक बार चारों ओर नजर फिराकर देखा-कि बर्फ की क्षिति-रेखा पर, एक काले बिन्दु पर उसी की दीठ अटक गयी।

वह बिन्दु हिल रहा है। पहाड़ की रीढ़ के पार से कोई आ रहा है। मानो किसी दूसरी दुनिया से एक नाम गूँजा-पॉल सोरेन। हाँ, पॉल ही है।

तो यह अन्त है। अजब बात है कि एक का मदफन और दूसरे का निस्तार एक साथ एक ही क्षण में होता है।

लेकिन किसका मदफन और किसका निस्तार? कौन मर रहा है और कौन मुक्त हो गया है?
एकाएक उसे दूर से एक पुकार सुनाई पड़ी। कैसी अकल्पनीय और अविश्वास्य है यह पुकार उस सन्नाटे में। पॉल चिल्ला रहा है-हाथ हिलाकर उसे अपनी पहचान और अपनी खुशी की पहचान करना चाहता है-और पीछे प्रकट होते हुए तीन-चार और काले बिन्दुओं को प्रोत्साहन देकर तेजी से आगे बढ़ाना चाहता है...

पॉल सोरेन, योके का साथी और सह-साहसिक पॉल। लेकिन कौन है पॉल? कौन है यह अजनबी जो इस तरह चिल्लाता हुआ, इशारे करता हुआ उसकी ओर बढ़ रहा है?

कहीं वरण की स्वतन्त्रता नहीं है। हम अपने बन्धु का वरण नहीं कर सकते-और अपने अजनबी का भी नहीं...हम इतने भी स्वतन्त्र नहीं है कि अपना अजनबी भी चुन सकें...
अजनबी, अनपहचाना डर... क्या हम इतने भी स्वतन्त्र हैं कि अजनबी से पहचान कर लें?

योके

दुकान में काफी भीड़ थी। कई दिन वह बन्द रही थी, आज भी खुली थी तो कोई भरोसा नहीं था कि कितनी देर तक खुली रहेगी। और इसका कौन ठिकाना था कि बन्द न भी हो तो थोड़ी देर में सब माल चुक न जाएगा? सब लोग सहमे-सहमे-से थे, आतंक के वातावरण में प्रकट रूप में कोई ठेलम-ठेल नहीं हो रही थी लेकिन यह भाँपना कठिन नहीं था कि सभी ग्राहकों के लिये उस दुकान में आना या सौदा खरीदने की कोशिश प्राणरक्षा की दौड़ की ही एक मंजिल थी। सभी जानते थे कि जो पिछड़ जाएगा वह मर जाएगा, आगे बढकर किसी तरह से खरीदा जा सके खरीद लेने में ही खैरियत है।

दुकान गली में थी। उस गली में जर्मनों का आना-जाना नहीं था, लेकिन शहर पर उनका अधिकार होने के बाद से जो आतंक था उसकी लपट से वह गली भी बची नहीं थी। उसी आतंक के कारण दुकान जब बन्द होती थी तब बन्द होती थी और जब खुलती थी तब खुलती थी। उसी के कारण ची$जों के दाम भी बहुत अधिक नहीं बढ़ते थे-माल जब चुक जाता था तब चुक जाता था। पिछवाड़े कहीं कभी लुक-छिपकर चोर-बाजारी होती भी हो तो सामने उसका कोई लक्षण नहीं था। यों चोर-बाजारी जितनी चौड़े में होती है उतनी लुक-छिपकर नहीं होती यह सभी जानते हैं। गली में जोखिम ज्यादा ही होता है।

भीड़ बहुत थी, लेकिन प्रतियोगी भाव के अलावा भी भीड़ में सब अकेले थे। बुझे हुए बन्द चेहरे, मानो घर की खिड़कियाँ ही बन्द न कर ली गयी हों बल्कि परदे भी खींच दिए गए हों, दबी हुई भावनाहीन पर निर्मम आवाजें, मानो जो माँगती हों, उसे जंजीर से बाँध लेना चाहती हों। अजनबी चेहरे, अजनबी आवाजें, अजनबी मुद्राएँ, और वह अजनबीपन केवल एक-दूसरे को दूर रखकर उससे बचने का ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित करने की असमर्थता का भी है-जातियों और संस्कारों का अजनबीपन, जीवन के मूल्य का अजनबीपन।

काले, गोरे और भूरे चेहरे, काले, लाल, पीले, भूरे गेहुएँ, सुनहले ओर धौले बाल, रँगे-पुते और रूखे-खुड्ढे चेहरे। चुन्नटदार, इस्तरी किये हुए और सलबट पड़े कपड़े, चमकीले और कीच-सने, चरमराते या फटफटाते या घिसटते हुए जूते। और चेहरों में, आँखों में, कपड़ों में, सिर से पैर तक अंग की हर क्रिया में निर्मम जीवैषणा का भाव-मानो वह दुकान सौदे-सुलुफ या रसद की दुकान नहीं है बल्कि जीवन की दुकान है जगन्नाथन ने जैसे-तैसे कुछ सामान खरीद लिया था। एक बड़ा टुकड़ा पनीर का, कुछ मीठी टिकियाँ, थोड़ी सूखी रोटी। इन्हें अपने सामने रखे वह दीवार के साथ सजी हुई चीज़ों की ओर देख रहा था कि और क्या वह ले सकता है, कि एकाएक दुकान के पहले ही तने हुए वातावरण में एक नया तनाव आ गया। जगन्नाथन ने भी मुडकर उसी ओर देखा जिधर और कई लोग देखने लगे थे।

आगन्तुका के कपड़े कुछ अस्त-व्यस्त थे लेकिन ध्यान उनकी ओर नहीं जाता था, ध्यान जाता था उसके चेहरे और उसकी आँखों की ओर जो कि और भी अस्त-व्यस्त थीं-उसकी आँखों में मानो पतझर के मौसम की एक समूची वनखंडी बसी हुई थी। वह खुली-खुली आँखों से बिखरी हुई दृष्टि से चारों ओर देख रही थी। सभी को देखते हुए उसकी आँखें जगन्नाथन तक पहुँची और उसे भी उसने सिर से पैर तक देख लिया। उस दृष्टि में कुछ था जिससे एक अशान्त, अस्वस्ति भाव जगन्नाथन के भीतर उमड़ आया, लेकिन वह न उस दृष्टि को समझ सका न उसके प्रति होनेवाली अपनी प्रतिक्रिया को। यह अपने आप भी दुविधा का कारण होता, लेकिन इसके पीछे जगन्नाथन ने अद्र्धचेतन मानस से यह भी पहचाना कि लोग आपस में कुछ कह रहे हैं और जो कह रहे हैं उसका विषय यह आगन्तुका ही है। जगन्नाथन सुन भी रहा है, पर मानो सुने हुए की कोई छाप भी उसके नाम पर नहीं पड़ रही है, केवल वह आस्वस्ति भाव फैलकर उसकी सारी चेतना पर छाया जा रहा है।

एकाएक आगन्तुका ने अपने निचले होंठ से चिपका हुआ सिगरेट अलग किया और जगन्नाथन के खरीदे हुए पनीर में उसे रगड़कर बुझा दिया, फिर अनमने भाव से सिगरेट को पनीर में ही खोंसकर उसने जगन्नाथन की ओर देखा।

जगन्नाथन दंग रह गया। फिर धीरे-से पनीर का टुकड़ा उठाते हुए उसने हारे स्वर से कहा, ‘‘वह देखो तुमने क्या कर दिया है!’’

आगन्तुका ने पनीर का टुकड़ा उसके हाथ से ले लिया और फिर उसे फर्श पर गिर जाने दिया। फिर वह एकाएक मुडकर बाहर की ओर दौड़ी।

कुछ लोग हँस पड़े। पल-भर विमूढ़-सा रहकर जगन्नाथन भी अपना सामान उठाकर उसके पीछे लपका। पीछे से किसी ने आवाज कसी, ‘फाँस लिया!’

एक दूसरी आवाज आयी, उपहास से भरी हुई, ‘वह भी तो बड़ा उतावला जान पड़ रहा है। दिन-दहाड़े पीछा कर रहा है।’

बाहर निकलते हुए जगन्नाथन की चेतना ने इन आवाजों को भी ग्रहण किया। कुछ देर पहले सुनी हुई बातें भी उभरकर उसकी चेतना में आ गयी। उसने जान लिया कि आगन्तुका वेश्या है।

क्या वह लौट जाए? पनीर तो नष्ट हो चुका है। उस स्त्री ने जो किया उसका कारण जानकर भी अब क्या होगा? और वह उसका पीछा कर उसे पकड़ भी पाएगा तो क्या करेगा?
लेकिन वह अपने आप रुक गयी थी। वह बड़े जोर से हाँफ रही थी और उसके चेहरे पर यह ज्ञान स्पष्ट लिखा हुआ था कि जिस गली में वह घुस आयी है व अन्धी गली है और अब वह बचकर नहीं भाग सकती-उसे अपना पीछा करनेवाले की ओर ही लौटना होगा। पास ही की सीढ़ी पर बैठ गयी औरसिकुड़ गयी, जैसे मार खाने के लिये। जैसे कभी कुत्ता दुबककर बैठ जाता है, जब वह निश्चयपूर्वक जानता है कि बच नहीं सकेगा और उसे मार पड़ेगी ही।
जगन्नाथन ने उसके पास पहुँचकर सधे हुए, मृदु स्वर में पूछा, ‘‘वह तुमने क्या किया-क्या लाचारी थी?’’

‘‘मुझे क्या मालूम था कि पनीर है?’’ स्वर उद्धत था। ‘‘मैं समझी कि यों ही रद्दी कुछ पड़ा होगा।’’

इस बात का विश्वास करना कठिन था। फिर भी जगन्नाथन ने कहा, ‘‘लेकिन जब मैंने तुम्हें दिखाया तब तुम इतना तो कह सकती थीं कि-तुम्हें खेद है? वह मेरा अगले तीन दिन का खाना था। मैं-मैं कोई अमीर आदमी नहीं हूँ।’’

स्त्री ने तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा। कुछ बदले हुए स्वर में बोली, ‘‘जरूरी था।’’
‘‘क्या जरूरी था?’’ जगन्नाथन को सन्देह हुआ कि कहीं यह स्त्री पागल तो नहीं है?
‘‘जरूरी था। मुझे जाना है, मेरी पुकार हो गयी है।’’

जगन्नाथन और भी उलझन में पड़ गया। स्त्री कहती गयी, ‘‘लेकिन तुम तो मेरा पीछा कर रहे थे। तुम तो मुझे मारना चाहते थे-मारते क्यों नहीं? लो, यह मैं हूँ-मारो!’’
जगन्नाथन ने लज्जित स्वर में कहा, ‘‘नहीं, मैं नहीं चाहता था, मैं तो-मैं तो सिर्फ...’’
‘‘या कि-या कि तुम भी इसीलिये-वे लोग जो कह रहे थे क्या ठीक कह रहे थे?’’
थोड़ी देर जगन्नाथन प्रश्न नहीं समझा। फिर बाढ़ की तरह उसका अर्थ स्पष्ट हो गया। वह बोला, ‘‘तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो? मैं जीवन में कभी नहीं गया किसी...’’
वह कहना चाहता था कि वह कभी वेश्या के पास नहीं गया। लेकिन ‘वेश्या’ शब्द पर उसकी वाणी अटक गयी। उस स्त्री के सामने वह उस शब्द को जबान पर नहीं ला सका।
स्त्री ने स्थिर आँखों से उसकी ओर देखकर पूछा, ‘तब तुम तो सिर्फ क्या?’’

‘‘मैं, मैं-मैं तो-नहीं जानता कि क्या!’’

स्त्री थोड़ी देर एकटक उसकी ओर देखती रही और फिर खिलखिलाकर हँसी पड़ी। फिर उतने ही अप्रत्यशित ढंग से वह हँसी गायब हो गयी और स्त्री का चेहरा पहले-सा हो आया। व्यथा की एक गहरी रेखा उस पर खिंच गयी। स्त्री ने जेब में हाथ डालकर कुछ निकाला और जल्दी से मुँह में रख लिया। दवा? या कोई नशा?...

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’
‘‘अभी ठीक हो जाएगी-अभी हो जाएगी।’’ स्त्री की बात सुनकर जगन्नाथन ने तय किया कि वह दवा नहीं थी, नशा ही था।
स्त्री का शरीर कुछ शिथिल हो आया। उसने उपरली सीढ़ी पर कोहनी टेककर पीठ दीवार के साथ लगा दी, फिर बायीं कलाई मोडकर घड़ी की ओर देखा और शिथिल बाँहें अपनी गोद में गिर जाने दीं।

‘‘क्या बाजा है? मैं कुछ देख नहीं पा रही।’’ उसका स्वर भी बड़ा दुर्बल जान पड़ रहा था।
जगन्नाथन ने घड़ी देखकर समय बता दिया।

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
जगन्नाथन ने थोड़ा अचकचाते हुए कहा, ‘जगन्नाथन!’
‘‘ज-जगन-ज-मैं सिर्फ नाथन कहूँगी-छोटा भी है, अच्छा भी है। नाथन, मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हें तकलीफ पहुँचायी है, लेकिन मेरे खिलाफ इस बात को याद मत रखना पीछे याद मत करना। मैं मर रही हूँ।’’

‘‘क्यों-तुमने क्या किया है-क्या कर डाला है! अभी तुमने क्या खा लिया?’’
‘‘मैंने चुन लिया। मैंने स्वतन्त्रता को चुन लिया।’’ वह धीरे-धीरे बोली, ‘‘मैं बहुत खुश हूँ। मैंने कभी कुछ नहीं चुना। जब से मुझे याद है कभी कुछ चुनने का मौका मुझे नहीं मिला। लेकिन अब मैंने चुन लिया। जो चाहा वही चुन लिया। मैं खुश हूँ।’’ थोड़ा हाँफकर वह फिर बोली, ‘‘मैं चाहती थी कि मैं किसी अच्छे आदमी के पास मरूँ। क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती थी-कभी नहीं चाहती थी!’’ फिर थोड़ा रुककर उसने कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, नाथन! तुम जरूर मुझे माफ कर दोगे। तुम अच्छे आदमी हो। बताओ-अच्छे आदमी हो न?’’

जगन्नाथन ने सीधे होते हुए कहा, ‘‘मैं डॉक्टर बुला लाऊँ?’’

‘‘नहीं-नहीं! अब कोई फायदा नहीं है।’’ उसने कहा, ‘‘अब मुझे छोडकर मत जाओ यही तो मैंने चुना है।’’ फिर मानो कुछ सोचकर उसने जोड़ दिया, ‘‘लेकिन, हाँ दूसरे लोग भी तो होंगे लेकिन उनसे मैं अपने आप कह दूँगी। पर तुम जाओ नहीं’’

क्षीणतर होती हुई उस आवाज में भी अनुरोध की एक तीव्रता आ गयी।

जगन्नाथन वहाँ से जा नहीं सका। लेकिन वहीं मुडकर उसने जोर से आवाज़ लगायी, ‘‘कोई है-मदद चाहिए-कोई है?’’ फिर स्त्री की ओर उन्मुख होकर उसने पूछा, ‘‘क्या कह दोगी?’’
‘‘कह दूँगी कि मैंने चुना, स्वेच्छा से चुना। सब कुछ कह दूँगी। सारी हरामी दुनिया को बता दूँगी कि एक बार मैंने अपने मन से जो चुना वही किया! हरामी-हरामी दुनिया! नाथन-अच्छे आदमी-मुझे माफ कर दो!’’

जगन्नाथन बड़े असमंजस में था। एक बार मुड़ता कि सहायता के लिये दौड़े, फिर उस स्त्री की ओर देखता जिसका अनुरोध-शायद अन्तिम अनुरोध- था कि वह उसे छोडकर न जाए। फिर उसे ध्यान आता कि औरत शायद पूरे होश में भी नहीं है, जानती भी नहीं कि क्या कह रही है, और शायद इतना बोध भी नहीं रखती कि वह उसके पास खड़ा है। लेकिन अगर उसे बोध नहीं है तो जगन्नाथन को तो है कि उसने क्या माँगा था! और शायद जगन्नाथन का कर्तव्य यही है कि वह जो कुछ कह रही है उसका साक्षी हो अगर वह प्रलय भी है तो भी उसका साक्षी हो-क्योंकि शायद वही उस स्त्री के पास और कहने को रह गया है। और शायद वही कहना ही वह सारवस्तु है जिसके लिये वह जैसा भी जीवन जिया है...

स्त्री फिर रुक-रुककर कुछ कहने लगी। ‘‘कह दो-सारी हरामी दुनिया से कह दो, अन्त में मैं हारी नहीं-अन्त में मैंने जो चाहा सो किया-मरजी से किया। चुनकर किया। मैं-मरियम-ईसा की माँ-ईश्वर की माँ मरियम-जिसको जर्मनों ने वेश्या बनाया-’’

जगन्नाथन ने धीरे से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम मरियम है?’’

‘‘हाँ, मेरा नाम मरियम। ईसा की माँ का नाम मरियम। चुनी हुई माँ। जो कभी मर नहीं सकती-जर्मनों की वेश्या। उससे पहले मेरा नाम योके था। वह मैंने नहीं चुना, पर अच्छा नाम है। लेकिन योके मर गयी। मरियम कभी नहीं मरती।’’

जगन्नाथन ने मुडकर देखा, गली की नुक्कड़ पर कुछ लोग आ गए थे। उसने समझा था मरियम को-योके को-इतना होश नहीं होगा कि उनका आना जाने, लेकिन उसने उन्हें देख लिया और किसी तरह हाथ उठाकर इशारे से बुलाया। दो-तीन आदमी दौड़े हुए पास आए और एक बार कौतूहल से जगन्नाथन की ओर देखकर स्त्री की ओर झुक गए।

योके ने कहा, ‘‘मैंने अपने मन से चुना है। मैं मर रही हूँ-अपनी इच्छा से चुनकर मर रही हूँ, हरामी मौत।’’

उसका स्वर कुछ और दुर्बल हो आया था। जगन्नाथन को लगा कि उसका शरीर भी शिथिल पड़ रहा है और चेहरे की फीकी होती हुई रंगत में एक हल्की-सी कलौंस आ गयी है। उसे लगा कि योके की पीठ दीवार पर से एक ओर सरक रही है। जल्दी से घुटने टेकर कर बैठते हुए उसने एक बाँह से उसे सहारा देकर सँभाल लिया मानो उसके स्पर्श को पहचानती हुई योके ने उसकी ओर तनिक-सा मुडकर कहा, ‘‘मैंने कह दिया-सब हरामियों से कह दिया।’’ फिर थोड़ा रुककर उसने आयासपूर्वक कहा, ‘‘उससे भी कह दिया-उससे भी।’’
इस ‘उस’ में कुछ ऐसा प्रबल आग्रह था कि जगन्नाथन ने अवश प्रेरणा से पूछा, ‘‘उससे किससे?’’

‘‘पॉल से, उस अजनबी से।’’

एकाएक सभी लोग चुप हो गए थे। सभी में कुछ होता है जो पहचान लेता है कि कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटनेवाली है और उसके आसन्न प्रभावसामने क्षण-भर चुप हो जाता है। उस मौन में योके और जगन्नाथन मानो बाकी सारी भीड़ से कुछ अलग हो गए थे। योके ने फिर कहा, ‘‘मैंने चुना। हम अजनबी नहीं चुनते, अच्छे आदमी चुनते हैं। मैंने आदमी चुना-अच्छा आदमी। उसमें मैं जियूँगी। नाथन, मुझे माफ कर दो।’’

जगन्नाथन की बाँह कुछ और घिर आयी और योके का सिर उसने अपने कन्धे पर टेक लिया।

योके ने कहा, ‘‘किया?’’

जगन्नाथन ने उसके कान के पास मुँह से लाकर स्निग्ध भाव से पूछा, ‘‘क्या?’’ फिर एकाएक उसका प्रश्न समझकर जल्दी से कहा, ‘‘हाँ, योके! किया। माफ किया-पर माफ करने को कुछ है तो नहीं।’’

योके ने बहुत ही धीमे, लगभग न सुने जा सकने वाले स्वर में कहा, ‘‘मैंने भी किया। अच्छा आदमी। उसको भी-’’

जगन्नाथन ने पूछा, ‘‘पॉल को?’’

एक क्षणिक दुविधा का-सा भाव योके के चेहरे पर आ गया। या कि बेहोशी से पहले के क्षण में उसका मन बहक रहा था? फिर उसने कुछ कहा जिसे जगन्नाथन ठीक-ठीक सुन नहीं पाया। इतना तो स्पष्ट ही था कि योके ने पॉल का नाम नहीं लिया था, कुछ और कहा था। क्या कहा था, यह जानने का अब कोई उपाय नहीं था, लेकिन साक्षी जगन्नाथन को एकाएक ध्रुव निश्चय हो आया कि योके ने कहा था : ‘‘ईश्वर को।’’

फिर वह एकान्त सहसा विलीन हो गया। जगन्नाथन ने पहचाना कि वह भीड़ से घिरा हुआ है और उसकी बाँह योके की जड़ देह को सँभाले हुए है।

उसने अनदेखती हुई-सी आँखें लोगों पर टिकाकर कहा, ‘‘वह गयी।’’

स्तब्ध भीड़ में केवल एक ही बूढ़े व्यक्ति को सूझा कि हाथ उठाकर रस्मी ढंग से क्रूस का चिह्न बना दे, वह चिह्न सूने आकाश में अजनबी-सा टँका रह गया।

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 २६ दिसंबर २०११

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