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उपन्यास अंश

दसवें अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान द्वारा पुरस्कृत
विभूति नारायण राय के उपन्यास तबदला का एक अंश— दफ्तर


इस सड़क के दोनों तरफ बाबुओं के कत्लगाह बिखरे हुए थे। सड़क को सड़क कहना काफी हद तक औपचारिकता निभाने जैसा था। इस पतली–दुबली मरियल सड़क पर चलने के अलावा सभी काम सुविधा के अनुसार किए जा सकते थे। सरकारी रिकॉर्ड में सड़क के नाम से जो चीज दर्ज थी उसे शौचालय या मूत्रालय जैसे किसी नाम से पुकारा जा सकता था। दोनों पटरियां और आधी सड़क देश की बेरोजगारी और आवास नामक समस्याओं को हल करने में इस्तेमाल हो रही थी। प्रणय–लीलाओं से लेकर फौजदारी तक कई राष्ट्रीय गतिविधियां थीं जो इस सड़क पर ही सम्पादित होती थीं। इन सबके अलावा यह सड़क चलने के भी काम आती थी। यही सबसे बड़ा आश्चर्य था जो सिर्फ हमारे देश में ही सम्भव हो सकता था।

इसी सड़क के दोनों तरफ दूर–दूर तक दफ्तरों की कतारें फैली हुई थीं। इन दफ्तरों में एक ऐसा जीव पाया जाता है जिसे बाबू कहते हैं और जिसके बारे में जानकारों का कहना है कि उसे मैकाले नामक एक अंग्रेज विद्वान ने खोजा था। दरअसल कोलम्बस और वास्कोडिगामा की खोजों के बाद यह सबसे महत्वपूर्ण खोज पाई जाती है, और जैसा कि इन दोनों विद्वानों की खोजों के साथ हुआ कि उनके मरने के बाद भी उनकी खोजें दुनिया में बरकरार हैं, उसी प्रकार मैकाले की खोज उसके बाद भी हमारे बीच फल–फूल रही है।

अफसरों को करने के लिए इस देश में बहुत सारे काम हैं। उन्हें दौरा करना पड़ता है, अपने से बड़े अफसरों को खुश रखना पड़ता है, लंच पर जाना पड़ता है और काफी समय बाथरूम में रहना पड़ता है। इतनी सारी व्यस्तताएं होती हैं कि वे दफ्तर में बैठ नहीं पाते। बाबुओं को दफ्तर में इतना बैठना पड़ता है कि वे किसी काम लायक नहीं रहते। कभी–कभी किसी फाइल की किस्मत अच्छी होती है। बाबू उसे नोटिंग–ड्राफ्टिंग करके सजा–संवार कर ले आता है और अफसर उसमें एक अमूर्त पच्चीकारी करता है। इसे कुछ लोग चिड़िया बैठाना कहते हैं, और कुछ लोग हस्ताक्षर।

बाबू की दुनिया की सबसे अहम चीज फाइल होती है। यह कहना बहुत मुश्किल है कि फाइल बाबू के लिए बनी है या बाबू फाइल के लिए। इतना ही कहा जा सकता है कि बिना फाइल बाबू की कल्पना नहीं की जा सकती। इन फाइलों के बारे में यह भी कहा गया है कि इन्हें बाबू लिखते हैं और बाबू ही पढ़ते हैं। हिन्दी देखने में तो कई बार बाबू के मरने के बाद उसकी आत्मा इन्हीं फाइलों में भटकती हुई पाई गई हैं। कई लेखकों ने रात के सन्नाटे में इन फाइलों के बीच से अजीब दर्दनाक कराहें सुनी हैं। इन्हें वे उन मृत बाबुओं की मानते हैं जिनकी जवानियां और समय से पहले आए बुढ़ापे इन फाइलों में दफन हैं। बाज वक्त तो ऐसा भी हुआ है कि जिन्दगी–भर पेंशन बनानेवाले बाबू की आत्मा अपनी पेंशन के चक्कर में उसी सेक्शन की फाइलों में भटकती हुई पाई गई।

सार्वजनिक निर्माण विभाग के प्रान्तीय खंड के इस दफ्तर में भी सब कुछ दूसरे दफ्तरों की ही तरह थे। वे रोज देर से आते थे, आते ही चाय की दुकानों पर चले जाते थे, चाय पीकर पान खाते थे, दोनों के पैसे किसी ठेकेदार से दिलवाते थे, वापस दफ्तर आकर गप्प लड़ाते थे और फिर चाय की दुकान पर चले जाते थे। उनके जिम्मे दूसरे दफ्तरों की ही तरह यहां भी इतनी व्यस्तताएं थीं कि वे हर समय व्यस्त रहते थे। दूसरे दफ्तरों की ही तरह यहां भी एक मूत्रालय था जिसके दरवाजे पर 'सिर्फ अधिकारियों के लिए' लिखा था। इसलिए यहां भी बाबू पेशाब जैसी क्रिया का सम्पादन करने के लिए इस सड़क पर स्थित बहुत सारे दफ्तरों की चारदीवारियों में से किसी एक का उपयोग कर लिया करते थे।

बाबुओं के बैठने के लिए हालनुमा दो कमरे थे। इनमें भांति–भांति की चीज़ें थीं। लकड़ी, लोहे और बेंत को मिलाकर बनी हुई एक वस्तु थी जिसे कुर्सी कहते हैं। अगर किसी स्कूली बच्चे को इसे दिखाकर इस पर निबन्ध लिखने को कहा जाए तो वह इसकी दो विशेषताएं जरूर लिखेगा। पहली तो यह कि इसमें दो से लेकर चार तक टांगे होती हैं। एक टांग इसलिए नहीं होती क्योंकि एक टांग पर यह अधिक देर खड़ी नहीं रह पाएगी। जिन कुर्सियों की सिर्फ एक टांग बचती हैं उनके नीचे ईंटें लगाकर दूसरी, तीसरी या चौथी टांग की कमी पूरी कर ली जाती है। दूसरी बात यह है कि कुर्सी नामक इस पदार्थ पर बाबू लोग बैठते हैं। वे इन पर इसलिए बैठते हैं कि जब तक उनकी और इन दफ्तरों की खोज हुई, तब तक जमीन पर बैठने का चलन समाप्त हो चुका था। जब कभी बाबू लोगों का मन इन कुर्सियों की बची–खुची टांगों को तोड़ने को करता है, वे मार–पीट में भी इनका इस्तेमाल कर लेते हैं। कई बार सरकार खुश होकर ज्यादा बजट दे देती है या अफसरों का मन कमीशन से विरक्त हो जाता है तो कुछ नई कुर्सियां आ जाती हैं। पर उन्हें देखकर बाबुओं को घबराहट होने लगती है। उन्हें लगता है कि उनका वर्क कल्चर समाप्त करने का भयानक षड्यंत्र किया जा रहा है, अतः वे नई कुर्सियों के बेंत ब्लेड से काट देते हैं। अगर किसी सहकर्मी का सर फोड़ने का मन नहीं करता तो कमरे की फर्श तोड़ने के लिए इन कुर्सियों का इस्तेमाल कर लेते हैं। एक बार जब कुर्सी चार से तीन या दो टांगवाली हो जाती है तो उस पर बैठने भी लगते हैं।

बाबुओं के कमरे में कुर्सी–परिवार की एक और चीज़ थी जिसे मेज कहते हैं। इसके बारे में भी कहा यही जाता है कि इसकी चार टांगें होती हैं। पर इन दोनों कमरों में काफी मुश्किल से ऐसी मेज तलाशी जा सकती है जिसकी चारों टांगें धरती को छू रही हों। टांगों में क्या रखा है, यह माननेवाले बाबुओं ने चपरासियों से मंगाकर ईंटों के सहारे इन मेजों को खड़ा कर रखा था। मेजों पर फाइल नामक वस्तुएं गंजी थी। वज़न कम न हो जाए इसलिए फाइलों के अलावा धूल भी इन पर प्रचुर मात्रा में थी। मेजों के अलावा फाइलें फर्श पर भी थीं। यह कहना सही होगा कि ज्यादातर फाइलें फर्श पर ही थीं। फाइलों में दबे महत्वपूर्ण कागजों के बारे में दफ्तर के चपरासी इतने चिन्तित रहे थे कि वे फर्श की कभी सफाई नहीं करते थे। इसलिए फर्श पर भी फाइलों के अलावा काफी मात्रा में धूल थी।

कमरों में जहां–जहां जगह हो सकती थी वहां लकड़ी या लोहे के बड़े ढांचे खड़े कर दिए गए थे। जब फर्श पर जगह नहीं बचती थी तो बाबू लोग इनमें भी फाइलें रख देते थे। वे इन्हें आलमारी कहते हैं। अगर कभी यह इमारत नष्ट हुई और पुरातत्व विदों को काल–निर्धारण का काम सौंपा गया तो निश्चित रूप से उन्हें यह तय करने में दिक्कत होगी कि इस जगह दफ्तर पहले बना था या वहां पहले आलमारी रखकर उसके चारों तरफ दफ्तर बना दिया गया था। इन आलमारियों को रखने के बाद हटाया नहीं गया था इसलिए अक्सर कोई पुरानी फाइल तलाशनी होती है तो बाबू लोग उनके नीचे तलाशते हैं।

बाबू, कुर्सी, मेज, आलमारी और फाइल नामक पांच तत्वों से जो चीज़ बनती है उसी को दफ्तर कहते हैं। एक विद्वान ने कहा है कि एक बार स्थापित हो जाने के बाद दफ्तर अपने लिए काम खुद ही पैदा कर लेता है। काम करने के लिए कागज़ नामक माध्यम का इस्तेमाल होता है। जैसा कि पहले बताया गया है, इस पर बाबू कुछ लिखते हैं और बाबू ही, अगर हस्तलिपि पढ़ने लायक हो तो, पढ़ते हैं। इस कागज का थोड़ा हिस्सा सरकार देती है। सरकार के लिए कागज़ से दफ्तर का काम नहीं चल सकता इसलिए उसका बड़ा हिस्सा अफसरों और बाबुओं के घर चला जाता है और वहां उनके बच्चों के शैक्षणिक विकास में काम आता है। बिना कागज के दफ्तर का काम नहीं चल सकता और बिना काम किए सरकारी अमला रह नहीं सकता इसलिए वे जन सहयोग नामक उस कार्यक्रम का सहारा लेते हैं, जो भारतीय नौकरशाही के कलपुर्जों में तेल–पानी देने के लिए सबसे आवश्यक है। अलग–अलग महकमें अपने सम्पर्क में आनेवाली जनता से अलग–अलग तरीकों से सहयोग मांगते हैं। मसलन थाने पर रपट लिखाने जानेवाले को राष्ट्र के नाम पर एक ताव कागज़, थोड़ी स्याही या पेन भेंट करने के लिए कहा जाता है। कई बार यह भेंट चोरी गए सामान की कीमत से ज्यादा होती है, इसलिए बहुत सारे लोग रपट लिखाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते। अक्सर कागज़ की बरबादी बचाने के लिए थानेवाले ही रपट नहीं लिखते। इस दफ्तर ने भी कागज़ की इस राष्ट्रीय कमी को पूरा करने के लिए तय कर रखा था कि जिसका काम हो वह अपना कागज़ खुद लाए। इसके अलावा अतिरिक्त कागज़ भी लाए जिससे कार्मचारियों के बच्चों की शिक्षा पर प्रतिमूल असर न पड़े।

कागजों को फाइलों में रखते हैं। फाइलों में इसलिए रखते हैं क्योंकि अभी तक कागज़ों को गायब करने की इससे बेहतर विधि ईजाद नहीं हुई हैं। बाबुओं की नई पीढ़ी इस मामले में अधिक मौलिक है। इस पीढ़ी के बाबू कागज़ों को अपनी मेज, कुर्सी या अलमारी के नीचे भी रखते हैं। पहले इन फाइलों को लाल फीते से बांधते थे। लाल फीते से फाइल बंधते ही मान लिया जाता था कि उसमें बन्द कागज़ों के आराम मे अब अगली दो–तीन पीढ़ियों तक कोई खलल नहीं डालेगा। इसी से भाषा को एक नया शब्द मिला – लाल फीतशाही। हमारे देश के बाज मुख्यमंत्रियों को यह शब्द पसन्द नहीं आया इसलिए उन्होंने लाल की जगह हरे, पीले, गुलाबी जैसे दूसरे रंगों के फीते इस्तेमाल करने के हुक्म दे दीए। इस तरह लाल फीतशाही खत्म हो गई और कागज़ दूसरे रंगों के फीतों के नीचे दफन होने लगे।

दफ्तरों की कार्यकुशलता का आकलन कागज़ों के निस्तारण से लगाया जाता है। इस दफ्तर का बाबू भी दूसरे दफ्तरों के बाबू की तरह कागज़ों के निस्तारण में खासी दिलचस्पी रखता था। हर कागज़ को बाबू पहले सूंघता था, फिर तौलकर देखता था और फिर उसके भविष्य का निर्धारण करता था। बाबू के हाथ में आते ही कागज़ के रोम–रोम से कुछ ऐसी ध्वनियां निकलने लगती थीं जिन्हें सिर्फ वही पकड़ पाता था। कुछ–कुछ कविता की उस पंक्ति जैसा मामला था जिसमें खग को ही खग की भाषा जाननेवाला बताया गया है। ऊपर की एक–दो पंक्तियां पढ़ते ही बाबू समझ जाता था कि उसे क्या करना है? इसके बाद कागज़ों का निस्तारण शुरू होता है। 'अति आवश्यक', 'तुरन्त' या 'गोपनीय' जैसे भारी–भरकम विशेषणों से दबे कागज बाबू की कुर्सी, मेज या आलमारियों के नीचे पहुंच जाते हैं। कुछ अधिक भाग्यशाली होते तो किसी फाइल के अन्दर समा जाते हैं। कुछ नई उम्र के बाबू अभी तक कागज़ से नाव या हवाई जहाज़ बनाने के खेलों के शौक से मुक्त नहीं हुए थे, इसलिए कुछ कागज़ बीच–बीच में हवा में उड़ते नज़र आते हैं। दिन–भर बाबुओं को चाय–पकौड़ों से जूझना पड़ता है, इसमें भी कागज़ों के निस्तारण में सुविधा होती है। चायवाले का छोकरा बाबुओं को समोसा या पकौड़ी देने के लिए उनके सामने का कागज़ खींचकर उस पर तेल टपकता खाद्य पदार्थ रख देता है। इस तरह दिन में जितनी बार वह आता उतने कागज़ों का निस्तारण होता चलता है।

श्याम होते–होते बाबू सन्तुष्ट हो जाता है कि भारतीय नौकरशाही के आदर्श पुर्जे के रूप में उसने दिन–भर कठिन परिश्रम किया है और उसे मिले कागज़ों में से अधिकांश का निस्तारण हो गया है। अब वह बचे–खुचे उन कागज़ों पर ध्यान केन्द्रित करता है जिन पर कुछ वज़न रखा हुआ दिखाई देता है। वज़न शब्द का इस्तेमाल भी बाबुओं के साहित्य प्रेम का ही परिचयक अधिक था। अक्सर वह सामने खड़े फरियादी से कागज़ लेकर उसका कुछ इस तरह मुआयना करता जैसे उसमें लिखी हुई भाषा ग्रीक या लैटिन हो। फिर वह कागज़ को एक तरफ रख देता और दूसरी किसी फाइल में सर गड़ाकर पूरे दृश्य से अनुपस्थित हो जाता। फरियादी अगर उसकी एकाग्रता में खलल डालने की कोशिश करता तो वह अपार कष्ट का भाव चेहरे पर लाकर उसे बताता कि देश के सामने बहुत से संकट हैं और अभी जिस फाइल के गहन अध्ययन में वह डूबा हुआ था, अगर उसका निस्तारण उसने फौरन नहीं किया तो संकट के बादल और घने हो जाएंगे। फरियादी थोड़ी देर में वह प्रश्न पूछता जिसका उत्तर देना नौकरशाही के किसी भी पुर्जे के लिए सबसे टिन होता। फरियादी अपने कागज़ के भविष्य के बारे में जिज्ञासा प्रकट करते हुए जानना चाहता कि उसका निस्तारण कब तक सम्भव होगा। इस पर बाबू रहस्यलोक में डूबे किसी दर्शनिक की तरह जवाब देता कि निस्तारण आज भी हो सकता है, अगले साल भी हो सकता है या फिर मामला आनेवाली पीढ़ियों पर भी टाला जा सकता है। फरियादी अगर दफ्तरों में नियमित आता–जाता है तो उसे निहितार्थ समझने में देर नहीं लगती पर अगर कोई नया आदमी हो तो उसे जरूर दिक्कत होती है। उसके ज्ञान–चक्षु तभी खुलते हैं अब कोई चपरासी या दूसरा बाबू उसे इशारे से अलग बुलाकर किसी अदृश्य आंधी का हवाला देता है जो उसके कागज़ को उड़ाए लिए जा रही है। अगर कागज़ मजबूती से अपने स्थान पर स्थिर नहीं रहेगा तो उसका निस्तारण कैसे होगा? फिर फरियादी को सलाह दी जाती है कि वह अपने कागज़ पर कुछ वज़न रखें। फरियादी को सलाह दी जाती है कि वह अपने कागज़ पर कुछ वज़न रखे। फरियादी फौरन समझ जाता है और रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर के हस्ताक्षरयुक्त कागज़ के कुछ वज़नी टुकड़े पहलेवाले कागज़ के ऊपर या नीचे रखे जाते हैं।

लाला बाबू को नई पीढ़ी के बाबुओं से जो असंख्य शिकायतें हैं उनमें एक यह भी है कि पहले के बाबू बड़ी शाइस्तगी से वज़न रखवाते थे। अक्सर यह क्रिया बाहर किसी चाय की दुकान या बाबू के घर पर सम्पादित होती थी। अगर दफ्तर में करना भी पड़े तो मेज़ के नीचे हाथ डालकर कर लेते थे। सम्बन्धित बाबू झेंपकर चारों तरफा देखता था कि कोई देख तो नहीं रहा। बाकी बाबू ऐसे मौके पर फाइलों में अपना सर गड़ा लेते जिससे उनके सहयोगी को असुविधा न हो। पर नए जमाने के बाबुओं ने तो सारी लाज–हया घोलकर पी ली थी। खुले आम लेन–देन करते हैं। अपने मुंह से खुद ही बता देते कि कागज़ बड़ा हल्का है और इस पर वज़न रखना पड़ेगा। कितना वज़न रखना पड़ेगा, यह भी बता देते हैं और अक्सर ऊंची आवाज़ में वज़न का मोल–तोल भी करते हैं।

शाम तक सारे वज़नी कागज़ों को इकठ्ठा करके बाबू उन्हें सुन्दर–सुन्दर फाइलों में सज़ा लेता है। फिर अपना पूरा भाषा–ज्ञान उडे़लते हुए उस पर नोटिंग–ड्राफ्टिंग करता है। यह नोटिंग–ड्राफ्टिंग नौकरशाही का सबसे ललित पक्ष है। इसके बारे में यह प्रचलन है कि इसे सबसे निचले ओहदेवाला बाबू तैयार करता है और ऊपरी सीढ़ियों पर बैठे तमाम ओहदेदार अपने–अपने तरीके से इसके लालित्य में वृद्धि करते चलते हैं। जिन फाइलों में अफसर की दिलचस्पी होती है, उनके बारे में बाबू को बता दिया जाता है और वह उसी प्रकार नोटिंग करके ले आता है। जिनके बारे में उसे ऊपर से कोई इशारा नहीं मिलता उनमें वह वज़न के अनुसार नोटिंग करता है। नौकरशाही में भ्रातृत्व भावना कुछ इतनी प्रबल है कि नीचे से भेजा गया प्रस्ताव ऊपर तक चलता चला जाता है और स्वीकृत होकर लौट आता है। 'बाबू लिखते हैं और बाबू पढ़ते हैं', वाली कहावत के अनुसार अफसर सिर्फ चिड़िया बैठाते हें।

हर अफसर नौकरी शुरू करते ही जान जाता है कि उसे और कुछ करना हो, न हो, पर दस्तखत बहुत करने होंगे। इसलिए वह अपने हस्ताक्षरों का एक लघु संस्करण ईजाद करता है, जिसे चिड़िया कहते हैं। फाइलों में बैठनेवाली चिड़िया पर अभी तक पक्षीविदों का ध्यान नहीं गया है इसलिए उनके आकार–प्रकार अथवा प्रजाति के बारे में कोई गम्भीर काम नहीं हुआ है। भविष्य में अगर कभी किसी शोधकर्ता ने काम किया तो वह पाएगा कि इन परिन्दों की भी बहुत सारी किस्में हैं। सुबह दफ्तर खुलने पर बैठाई गई चिड़िया शाम को दफ्तर बन्द होते समय बैठाई गई चिड़िया से भिन्न होती है। अच्छे मूड की चिड़िया का आकार बुरे मूड की चिड़िया से छोटी होती है। कमीशन की खुशबू बिखेरनेवाली फाइल पर बैठी चिड़िया चहकती नज़र आती है और सूखे कागज़ों पर बैठी हुई मरियल। हमारे देश में, जिस तरह के विषयों पर शोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस बात की पूरी सम्भावना है कि विश्वविद्यालयों में किसी दिन इस महत्वपूर्ण विषय पर भी काम होगा।

हॉलनुमा एक कमरे में बड़े बाबू उर्फ लाला बाबू का साम्राज्य था। वे हॉल के बीच में एक बड़ी मेज के पीछे बैठते थे। बरसों से, जब वे बड़े बाबू नहीं भी बने थे, यह मेज यहीं रखी है। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि मेज का कोण इस तरह कर दिया कि उसके पीछे बैठकर उन्हें बाहर खड़ी अपनी साइकिल दिखाई देती रहे। चूंकि यह बड़े बाबू की मेज थी इसलिए इसकी चारों टांगें सलामत थीं और इस पर एक कपड़ा बिछा हुआ था जिसके लिए बड़े बाबू और फर्राश आपस में बात करते समय मेजपोश शब्द का इस्तेमाल करते थे। इस कपड़े के रंग के बारे में बाबुओं में एकमत नहीं था। बताया जाता है कि लाला बाबू जब नए–नए बाबू बनकर इस कमरे में बैठने आए थे तब के हेड क्लर्क लक्ष्मी बाबू ने उनसे एक नोटशीट तैयार कराकर टेबलक्लाथ खरीदने की स्वीकृति ली थी। उस समय जो कपड़ा खरीदकर आया था, उसका रंग हरा था। पिछले बीस सालों में उस पर इतनी स्याही और धूल जमा हुई थी कि हरा रंग पूरे कपड़े में कहीं–कहीं कुछ धब्बों के रूप में ही मौजूद था। कपड़ा इतनी जगह से नुचा–चुथा था कि उसकी लम्बाई–चौड़ाई के बारे में भी बाबुओं में मतभेद रहता था।

इस मेज के पीछे बैठकर लाला बाबू अपना चश्मा नाक पर नीचे करके अपना साम्राज्य निहारते थे।

आज भी वे बीच–बीच में चश्मे को नीचा करके सामने बैठे बारह बाबुओं, उनकी मेज़ों को घेरकर खड़े ठेकेदारों और दलालों को देख रहे थे। आज कुछ स्थिति भिन्न थी। आज यह देखना सिर्फ आदतवश नहीं था। आज का देखना कुछ–कुछ उस घबराए आदमी की प्रतिक्रिया जैसा था जो पूरी तरह तटस्थ होने का नाटक करता हुआ सामनेवालों के चेहरों से यह भांपने की कोशिश करता है कि कहीं इसका मज़ाक तो नहीं उड़ाया जा रहा है।

कल दफ्तर साहब कमलाकान्त वर्मा से कैसे सम्बन्ध थे। यह भी सबको मालूम था कि नए बड़े साहब बटुकचन्द से उनकी नहीं पटती। बटुकचन्द ने आने के बाद बड़े बाबू को तलब करके क्या–क्या कहा, इसकी भी जानकारी मिर्च–मसाला लगाकर चारों तरफ पहुंचाई जा चुकी थी।

जिस तरह परीकथाओं के दैत्य की जान तोते में बसती थी, उसी तरह दफ्तरों की जान बड़े साहब नामक प्राणी में बसती है। यद्यपि दफ्तरों में सब कुछ काफी हद तक रूटीन हो चुका है और बड़े साहबों के आने–जाने से कुछ बुनियादी फर्क नहीं पड़ता फिर भी किसी पुराने बड़े साहब के तबादले या नए–नए बड़े साहब के आने पर छोटा–मोटा जलजला तो आ ही जाता है। अधिशासी अभियंता कमलाकान्त वर्मा के जाने और बटुकचन्द उपाध्याय के आने पर यही हुआ। लंच के पहले का पूरा वक्त दफ्तर की दीवारों, चपरासियों, बाबुओं और मातहतों ने मुहावरे की भाषा में नहीं बल्कि सचमुच दम साधे किसी अनहोनी की आशंका में बिताया।

बड़े साहब की बदली को सिर्फ एक दिन हुआ था। बटुकचन्द को दफ्तर के लोग पहले से जानते थे लेकिन उन्होंने कोई जोखिम लेना मुनासिब नहीं समझा। आज दस बजे तक सारे बाबू दफ्तर में आ गए थे। आने पर उन्हें कमरे खुले भी मिले। आकर वे फौरन चाय की दुकानों पर नहीं गए बल्कि उन्होंने अपने सामने रखी फाइलों में कुछ लिखा भी। बटुकचन्द भी सवा दस बजे आ गए। उन्होंने भी कुछ फाइलों पर दस्तखत किए। घंटे–डेढ़ घंटे दफ्तर में जो कुछ हुआ उसे देखकर कुछ पुराने दलाल यह सोचकर कि वे किसी दूसरे दफ्तर में चले आएं हैं, बाहर भाग गए। बाहर से बोर्ड पर एक बार फिर दफ्तर का नाम पढ़कर वे आपस अन्दर आए। पर यहां यह सब बहुत देर तक नहीं चल सकता था। लंच तक दफ्तर में जीवन वापस अपनी लीक पर लौट आया। तब तक सत्ता–हस्तान्तरण का एक दौर समाप्त हो गया था। घटनाएं कुछ इस तरह घटी कि उन्हें देखकर किसी को भी उन छोटे–मोटे राष्ट्रों का स्मरण हो सकता था जहां अभी भी मध्ययुग ठहरा हुआ था और जहां सत्ता–हस्तान्तरण के लिए इसी तरह के तरीके लोकप्रिय थे। एक राष्ट्राध्यक्ष राज्य छोड़कर भाग गया था। सिंहासन पर दूसरा व्यक्ति आसीन होकर सत्ता के दलालों से उनकी निष्ठा के प्रमाण–पत्र बटोर रहा था।

रोज की तरह आज भी आधे घंटे का लंच ब्रेक आधे घंटे की जगह तीन घंटे तक चला। एक बजे से लेकर चार बजे तक आज भी अफसर और बाबू लंच लेते रहे। फर्क इतना आया कि रोज़ इस दौरान सारे कमरे खाली हो जाते थे। आज अफसर किसी न किसी बहाने बड़े साहब के कमरे में इकठ्ठे हो गए और बाबू भी आते–जाते रहे। बटुकचन्द पहले भी इस दफ्तर में रह चुके थे इसलिए लोगों को पता था कि उन्हें कचौड़ियां और मगही पान एक सौ बत्तीस नम्बर के तम्बाखू के साथ पसन्द थे। इसलिए पूरे तीन घंटे उनके कमरे में यही सब पहुंचते रहे। स्थिति कुछ–कुछ ऐसी थी कि अगर पूरे सन्दर्भ को काटकर उनका कोई फोटो खींचा जाता तो यही लगता कि कोई कचौड़ी का दुकानदार किसी दफ्तर की मेज़ उड़ा लाया है और उस पर कचौड़ी के साथ–साथ पान भी रखकर बेच रहा है।

दरअसल पान और कचौड़ी के साथ–साथ अपनी निष्ठा भी पेश की जा रही थी। जैसे ही कोई नया मुसाहिब अन्दर पहुंचता, उसकी सुविधा के लिए बटुकचन्द अपना कोई एक पैर आगे–पीछे करने लगते। उसके करीब आते–आते पैर ऐसी स्थिति में पहुंच जाता कि आगन्तुक को हवा में एक खास कोन पर अपना हाथ लहराना पड़ता और पान ठूंसे मुंह से विशेष प्रकार की गों ...गों ...की ध्वनि यह स्पष्ट कर देती कि खिलवत कबूल कर ली गई है। इस प्रक्रिया में बाधा सिर्फ दो दशाओं में पड़ती। पहली तो तब जब कोई धृष्ट मसबदार पैरों को हिलाने–डुलाने जैसे सहज सुबोध इशारे को समझने से इन्कार कर देता और दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार जैसी औपचारिकता से मामला निबटाने की कोशिश करता। ऐसी स्थिति में नौकरशाही में आने के बाद भी पाठ्यपुस्तकों में पढ़े साहित्य से सम्बन्ध विच्छेद न करनेवाले सुधीजन कवि भूषण की उन पंक्तियों का स्मरण करने लगते जिनमें औरंगजेब द्वारा पर्याप्त सम्मान न दिए जाने पर शिवजी की प्रतिक्रिया का बखान था। वक्त बदल गया था और बटुकचन्द तुरंत–फुरंत हिसाब करने से अधिक भविष्य में निबट लेने में अधिक विश्वास करते थे इसलिए धृष्टता करनेवाले के अभिवादन का पूरी स्निग्ध मुस्कान से उत्तर देते। सिर्फ उन्हें करीब से जाननेवाले ही उस कौंध को महसूस कर पाते जो सेकेंड के पता नहीं कितने हजारवें क्षण के लिए उनकी आंखों में चमकतीं और गायब हो जाती। मुंह से निकलनेवाली ध्वनियों में भी इतना बारीक अन्तर होता कि सिर्फ समझनेवाले ही समझ पाते कि वे ऊपर फैली हुई लापरवाही के नीचे यह पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि नमस्कार नामक औपचारिकता सयास की गई है या आगन्तुक अपनी मूर्खता से सही सिग्नल नहीं पकड़ पा रहा।

दूसरी स्थिति आसपास बैठे लोगों के लिए असुविधाजनक होती पर बटुकचन्द आनन्दित होते थे, इसलिए नौकरशाही के सुनहरे नियम के अनुसार सभी आनन्दित होते।

इस स्थिति के अनुसार मुंह में बटुकचन्द से भी अधिक पान ठुंसे हुए कोई मुसाहिब दरवाज़े से प्रवेश करते ही बटुकचन्द के चरणों की तरफ लपकता। विघ्न–बाधाओं से न घबरानेवाले वीर की तरह वह मार्ग में पड़नेवाली कुर्सियों और उन पर बैठे नरपंगुवों को हिलाता–झकझोरता उस बड़ी बाधा के समक्ष पहुंच जाता जिसे मेज कहते हैं और जिसके पीछे छिपे दो चरण कमल अपनी स्थितियां बदल–बदलकर उसे उसी तरह अपनी तरफ आकर्षित कर रहे होते हैं जिस तरह अपने शरीर–सौष्ठव का प्रदर्शन कर हिन्दी फिल्मों की नायिका अपने नायक को आकर्षित करती है। नायक की तरह वह भी नायिका को प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकता है।

मेज के सामने खड़े होकर वह कई सम्भावनाओं पर विचार करता है। एक विकल्प के अनुसार उसे मेज़ पर चढ़कर दूसरी ओर कूद जाना चाहिए और चरणरज लेते हुए वापस इसी क्रिया को सम्पादित करते हुए अपने स्थान पर आ जाना चाहिए। दूसरी स्थिति यूं हो सकती है कि वह जिम्नास्टिक नाम से जानी जानेवाली उस विधा का सहारा ले जिसके दर्शन अधिकांश भारतीयों को टेलीविजन पर होते रहते हैं और जिसमें दूसरे तमाम खेलों की तरह हर ओलम्पिक के पहले पदक जीतने के मंसूबे बांधे जाते हैं और हर ओलम्पिक के बाद इन मन्सुबों को बस्ता–खामोशी में बांधकर रख दिया जाता है ताकि अगले ओलम्पिक में फिर खोलने पर ये उसी तरह चमचमाते हुए निकलें। यहां पर इस रास्ते को आजमानेवाले को भारतीय और पाश्चात्य शैली के कई व्यायाम एक साथ करने पड़ते हैं। वह पहले मेज के सामने खड़े होकर सामने की ओर झुकता है और हाथ इधर–उधर फेंककर पांव छूने का प्रयास करता है। पांव चूंकि मेज के नीचे हैं और वह बटूकचन्द का पान ठुंसे मुंह से गों ...गों ...जैसी ध्वनियों को, बस हो गया ...बस हो गया जैसा कुछ मानने से इन्कार कर देता है, इसलिए अब वह मेज पर साष्टांग दण्डवत करने लगता है। हवाई जहाज की शक्ल में लेटा उसका शरीर धीरे–धीरे गोताखोरी की मुद्रा में आ जाता है। इसमें पिछले दोनों पैर ऊपर उठ जाते हैं और दोनों हाथ और सर नीचे को झुक जाते हैं। इस पूरी उठा–पठक का नतीजा यह होता है कि उसे वे चरन मिल ही जाते हैं जो कई दिनों तक न बदले जानेवाले गन्दे नायलॉन के मोजों से आवृत्त, जूतों के बाहर आकर दुर्गन्ध के भभूके छोड़ रहे होते हैं और जिन्हें छूकर किसी भी चमचे को अपने आनेवाले वर्षों के उपलब्धिमय होने का विश्वास हो सकता है।

पैर छूने का एक तरीका और भी है। बटुकचन्द के मेज के दाहिने–बाएं कुर्सियों पर बैठे चमचों ने मेज और दीवाल के बीच दोनों तरफ का चप्पा–चप्पा घेर रखा है। पर ध्येय का पक्का और चरणस्पर्श का आकांक्षी इन सबको ढकेलता हुआ, पैरों को कुचलता हुआ और कमीशन ही जिनके जीवन का एकमात्र ध्येय है, ऐसे अफसरों की खरीदी कुर्सियों की मज़बूती की परीक्षा लेता हुआ कहीं न कहीं से रास्ता निकाल लेता है और बटुकचन्द के स्पर्शातुर चरणों तक पहुंच ही जाता है।

आज भी आनेवाले अपनी–अपनी श्रद्धा के अनुसार इन विकल्पों में से किसी एक का सहारा लेते जा रहे थे। वे आते और मेज पर लगे हुए कचौड़ियों और पान के ढेर के बीच एक–दो लिफाफे और रख देते, फिर चरणस्पर्श की क्रिया सम्पादित करते और तत्पश्चात अपनी मनसबदारी हैसियत के अनुसार कोई ग्रहण कर लेते। कुर्सियां भरी हुई थीं इसलिए कई बार उन्हें एक तरफ खड़ा होना पड़ता। ऐसे में वे बात करते–करते कनखियों से पूरे कमरे का मुआयना करते रहते और जैसे ही कोई कुर्सी खाली होती उस पर झपट पड़ते। किसी बड़े मनसबदार के आने पर छोटे मनसबदार अपनी कुर्सी खाली कर देते। बड़ा मनसबदार हाथ और मुंह के इशारों से 'रहने दो रहने दो' कहता हुआ उस पर बैठ जाता।

हम भी दरबार के हैं‚ यह साबित करने के लिए कुछ लोगों ने अपने सामर्थ्य से अधिक पान मुंह में ठूँस लिए थे। कमरे में घुसने के बाद स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने के लिए वे मेज़ पर पड़े पान में से दो–एक बीड़ा पान और मुँह में डाल लेते। पान के छींटों की छटा से अगल–बगलवालों को सराबोर करते हुए भाषा और सम्प्रेशणीयता का ऐसा अद्भुत रिश्ता पेश करते जिसे देख–सुनकर बड़े से बड़ा ताकतवर लेखक भी वाह वाह करने लगेगा। उनकी भाषा मूर्त और अमूर्त के बीच झूलती हुई तबना वाक्य पूरा किए ध्वनियों के आधार पर बहुत कुछ कह डालती। मसलन कोई एक मुसाहिब अपनी ठुड्डी पर बह रही पीक को पोंछता हुआ मुंह पैंतालीस डिग्री के कोण में थोड़ा ऊपर उठाता हुआ कहता ...

"सा ...गों ...गों ...अब आप ...गों ...गों ...गों ...अब ...गों ...ठीक हो ...गों ...।"

बटुकचन्द या कमरे में बैठे लोगों को समझने में दिक्कत नहीं होती कि इस गों ...गों ...वाक्य के पीछे बोलनेवाले की इस दफ्तर की वर्तमान दुर्दशा के लिए चिन्ता झलक रही है और साथ ही वह आश्वस्त है कि अब इस दफ्तर का स्वर्णयुग आनेवाला है। इसलिए पूरा वाक्य वे समझ जाते कि "साहब अब आप आ गए हैं‚ अब सब ठीक हो जाएगा।"

इसके जबाब में बटुकचन्द भी अपना मुंह थोड़ा ऊपर उठाते जिससे पीक की फुहार सीधे सामनेवाले के मुंह पर न पड़े बल्कि थोड़ा वायुमण्डल का चक्कर लगाते हुए ज्यादा बड़े श्रोता समुदाय को भिगो सके‚ फिर गों ...गों ...मिश्रित भाषा उनके मुंह से फूटती ..."हां गों ...गों ...आ गया ...गों ...अब ...गों ...गों ...हो ...गों ...।"

हसका भाष्य करने में भी सुधीजनों को कोई दिक्कत नहीं होती। वे वाक्य पूरा कर लेते‚ "हां‚ अब मैं आ गया हूं। अब सब ठीक हो जाएगा।"

लंच तक जो सन्नाटा बाबुओं के कमरे में छाया था वह लंच शुरू होते–होते टूट गया। एक बार फिर बाबुओं ने काम करना शुरू कर दिया। आज फर्क सिर्फ इतना हुआ कि कोई बाबू इस तीन घंटे के लंच के दौरान दफ्तर से दूर नहीं गया। चाय की दुकानों पर भी वे अधिक देर नहीं ठहरे। उनके लिए चाय–समोसा यहीं आता रहा। दलाल आते रहे‚ फर्श पर पान की पीक थूकी जाती रही‚ तुरन्त या अत्यन्त आवश्यक की कोहर लगे कागज बत्ती बनकर नाक या कान खुजलाते रहे और बाबू लोग एक दूसरे की मां–बहन करते रहे–गरज यह कि शुरूआती सदमे से उबरकर दफ्तर में फिर से सारे जरूरी काम होने लगे।

कोई जोर से हंसता तो बड़े बाबू कनखी से देखते। कोई खांसता–खखारता तो बड़े बाबू का चश्मा नाक पर सरक जाता।

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