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इसी बीच लाउडस्पीकर से आवाज गूँजी-'गुवाहाटी की ओर जाने वाली ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस अपने नियत समय से एक घंटे बाद जाएगी।'

इस घोषणा के साथ सभी यात्रियों की नजरें हथेली में बँधी उनकी घडियों पर झुक गईं। आसपास एक बेचैनी ने आकार ले लिया। इस ट्रेन में सफर करने वाले ऐसे कई लोग थे जिन्हें अपने घर पहुँचने के लिए थका देने वाली ट्रेन यात्रा के बाद भी दो-तीन दिन बस का सफर तय करना था। ट्रेन सही समय पर चले इस पर किसी का बस नहीं था।

एसी थ्री टायर के बाहर खड़ा एक यात्री भी इस घोषणा से बेचैन हो उठा था। वह गुवाहाटी नहीं जाना चाहता था। लेकिन नौकरी का दबाव ऐसा था कि उसे जाना पड़ रहा था। ट्रेन देर से चलने की घोषणा ने उसे अन्य यात्रियों की तुलना में ज्यादा बेचैन कर दिया था। इस यात्री की शिनाख्त रिजर्वेशन चार्ट के अनुसार विनय थी। वैसे वह रहने वाला तो इलाहाबाद का था। उसने इलाहाबाद के मोती लाल नेहरू इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियरिंग की पढाई की थी। बीते कुछ समय से वह आईएएस की कोचिंग के चलते दिल्ली में रह रहा था। इस बार कंपटीशन में बैठने का उसका अंतिम मौका था। इसी बीच बिल्ली के भाग से छींका टूटा और उसे इंपोर्ट-एक्सापोर्ट और कंस्ट्रेक्श्न का काम करने वाली एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई थी।

पढाई का खर्चा वह उठाने की स्थिति में नहीं था। इसीलिए उसने इस नौकरी को कुबूल कर लिया था। नौकरी पक्की करने के लिए उसे दो साल की ट्रेनिंग अनिवार्य रूप से गुवाहाटी में करनी थी। गुवाहाटी से वह बिलकुल वाकिफ नहीं था। उसे डर था कि वह अपनी बात वहाँ लोगों को कैसे समझायेगा। उसके मन में असम की राजधानी गुवाहटी को लेकर तरह-तरह की छिछली जानकारियाँ थीं। उसकी इन जानकारियों का स्रोत दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले मेलों में उत्तर पूर्व के राज्यों के स्टाल थे। जिनमें पेडों में घर दर्शाए जाते हैं। अर्धनग्न लोगों के हाथ में धनुष बाण। घरों के बाहर लटके नरमुंड। गहनों से लदी किन्तु कुरूप बना दी गई स्त्रियाँ, आदि-आदि विचित्रताओं को माडल के जरिये दर्शाया जाता है।

इसके अलावा असम के बारे में अखबारों के जरिये वह यह भी जानता था कि मानसून पहले वहीं सक्रिय होता है। ब्रम्हपुत्र नदी की बाढ हजारों लोगों को अपने आगोश में ले लेती है। बाढ के बाद मलेरिया का तांडव। और इस सबके अलावा आए दिन उल्फा (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम) के भूमिगत विद्रोहियों द्वारा किये जाने वाले धमाके, फिरौती और न जाने क्या-क्या।

किसी तरह एक घंटा पूरा हुआ और ट्रेन रेंगने लगी थी। कितने दिन और कितनी रात ट्रेन रेंगेगी, उसके पहुँचने के घोषित समय के बाद भी, किसी को यकीन नहीं होता था। गुवाहाटी की ओर जाने वाली इस ट्रेन में लोग तभी सफर करते थे, जब राजधानी एक्सथप्रेस में उन्हें टिकट नहीं मिलता था। इस ट्रेन का नाम बेशक रेलवे ने ब्रम्हपुत्र एक्सप्रेस रखा था लेकिन उत्तर पूर्व के जनमानस में इसका नाम खचाड़ा एक्सप्रेस था। धीरे-धीरे ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन को छोड़ती हुई रफतार पकड़ रही थी.....


तीन वर्ष बाद।

गुवाहाटी रेलवे स्टेशन। प्लैटफार्म नम्बर एक पर खड़ी राजधानी एक्सप्रेस। सिगनल का इंतजार। यात्रियों से ज्यादा बीएसएफ और सीआरपीएफ के जवान। जगह-जगह चेकिंग। हर सामान को खोल खोल कर देखते सुरक्षाकर्मी। और दिनों की अपेक्षा इन दिनों स्टेशन पर चेकिंग कुछ ज्यादा थी। देश के अन्य रेलवे स्टेशनों वाली रौनक यहाँ नहीं थी। वेंडर्स गायब थे। कोई चिल्लो-पो नहीं थी। लड़कियों के दुपट्टे न गिर रहे थे और न ही संभल रहे थे। धक्का-मुक्की से शायद
यात्रियों ने तौबा कर रखी थी। सबके सब कतारबद्ध। भद्रजन की तरह। व्हीलर का बुक स्टाल भी बंद था।

यात्रा करने वाले यात्रियों में इस सन्नाटे को लेकर कोई फुसफसाहट नहीं थी। सबको पता था कि दो दिन पहले ही गुवाहाटी स्टेंशन पर राजधानी एक्सप्रेस को उल्फा के भूमिगत विद्रोहियों ने उड़ाने की नाकाम कोशिश की थी। ट्रेन में सीआरपी की पूरी कंपनी के मूवमेंट की खबर थी भूमिगत विद्रोहियों के पास। धमाका करने में तो वे कामयाब हो गए थे। लेकिन बम सही जगह और सही समय पर न फटने की वजह से पटरी के अलावा ट्रेन को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था। धमाका होने से पहले ट्रेन स्टेशन से निकल चुकी थी और पान बाजार क्रासिंग को पार कर रही थी। पान बाजार और स्टेशन के बीच की दूरी मात्र एक फर्लांग होगी। धमाके की आवाज सुनते ही सीआरपीएफ कंपनी ने ट्रेन से उतर कर स्टेशन पर मोर्चा संभाल लिया था। कुछ देर की अफरा-तफरी के बाद सीआरपीएफ कंपनी के बिना ट्रेन दिल्ली के लिए
रवाना हो गई थी।

वैसे इन धमाकों से असमवासियों को अब ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। थोड़ी देर के बाद ही जिंदगी पटरी पर आ जाती है। बाजारों में रौनक लौट आती है। इस मामले में कश्मीर और असम में बहुत समानता है। वहाँ भी गोलीबारी और धमाकों के बाद जिंदगी इतनी जल्दी ही पटरी पर दौड़ने लगती है। दोनों ही राज्यों के लोगों ने इन घटनाओं को नियति मान लिया है या फिर उसे अपनी जिंदगी की जरूरी कार्रवाई के साथ जोड़ लिया है। लेकिन कश्मीर और असम में और कई अंतर है। कश्मीर में जेहादी सक्रिय हैं। वे सीमा पार से आकर कश्मीमर पर कब्जा करना चाहते हैं। लेकिन यहाँ स्थानीय लोग ही अपने संसाधनों की लूट के खिलाफ दिल्ली से मोर्चा ले रहे हैं। उल्फा में अधिकांश युवा और युवतियाँ हैं। 'सादिन असम'
इनकी माँग है। सादिन असम बोले तो आजाद असम। स्वातंत्र असम। इससे कम कुछ नहीं।

सिगनल हरा हो गया था। गार्ड साहब हरी झंडी दिखा रहे थे। ट्रेन के आगे एक पायलेट इंजन भी चल रहा था। पटरी में बम लगे होने की जाँच करता हुआ। ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी। ब्रम्हपुत्र नदी के पुल पर थी। लोहे के पुल की गड़गड़ाहट से ट्रेन थर्रा रही थी। ट्रेन में बैठा विनय अजीब असमंजस में था। उसे दिल्ली वापसी की खुशी थी, लेकिन वह अवसाद से भरा हुआ था। वह दो दुनिया के बीच में पिस रहा था। एक देश में दो दुनिया। एक देश में दो देश। देश भीतर देश। पूरी तरह से अलग-अलग। वैसे तो इस देश में कई दुनियाएँ थीं। वो सबसे वाकिफ था। गरीब की दुनिया। अमीर की दुनिया। कारपोरेट की दुनिया। मीडिया की दुनिया। फिल्मी दुनिया। और भी ऐसी न जाने कितनी दुनियाएँ। लेकिन चिकेन नेक के पार की दुनिया ने उसे हिला दिया था। देश भीतर देश। एक दूसरा देश...

चिकेन नेक इंडिया के नक्शे के उस भाग को कहते हैं जिससे दिल्ली और उत्तर पूर्व के राज्य जुड़ते हैं। इस पतले से हिस्से को पार करके ही ये नई दुनिया मिलती है। भूमि का बहुत छोटा टुकड़ा है जो देश को सेवेन सिस्टर्स स्टेटस से जोड़ता है। कुछ किलोमीटर का। जिसे कुछ घंटो में ही आर-पार किया जा सकता है। और देश समाप्त। एक तरफ भूटान और नेपाल तो दूसरी तरफ बांग्लादेश। वैसे पूर्वोत्तवर राज्यों की सीमाएँ चीन और म्यामार से भी जुड़ती हैं। सीमा को लेकर, खासकर चीन से तनातनी आम बात है यहाँ। बांगलादेशियों के लिए ये देश स्वर्ग से कोई कम नहीं है। कोई भी बांग्लादेशी यहाँ आ कर बस सकता है। बिना पासपोर्ट और वीजा के। बांग्लादेशी घुसपैठियों ने इन राज्यों के सबसे बड़े राज्य असम में तो खासी पैठ बना ली है। मामला इतना बिगड़ गया है कि अब असम में ये सरकार बनवाने और बिगड़वाने में अहम भूमिका रखते हैं। इस पर फिर कभी चर्चा ।

विनय को एक देश में दो देश दिखते थे। देश भीतर देश। उसकी आँखें नहीं खराब थीं। उसे पूरा दिखता था। किसी भी तरह का दृष्टिदोष उसे नहीं था। पर, उसे एक देश में दो देश दिखते थे। असम आने से पहले उसे ऐसा दृष्टिभ्रम कभी नहीं हुआ था। अब उसे अपने एक शरीर की दो आँखों की तरह एक ही देश में दो देश दिखने लगे थे। हर आँख का अपना एक देश...

लगभग डेढ दशक बाद।

लोकल, पैसेंजर, ईएमयू, डीएमयू, मेल, सुपर फास्टे बुलेट ट्रेनों की तरह हिचकोले मारती चलती रही जिंदगी। दुर्घटनाएँ भी हुई और कई बार समय पर ब्रेक भी लगा। लेकिन ट्रेनें तो ट्रेनें होती हैं। वो बिना मोह के सब कुछ पीछे छोड़ती चलती हैं। वे सिर्फ चलती है बस। चलना ही उनका धर्म और कर्म है...

...
विनय नौकरी की अपनी लंबी यात्रा में अधेड़ हो चुका था। असम से लौटे हुए भी उसे पन्द्रह साल तो हो ही चुके होंगे। चालीस से पैंतालिस साल के बीच को अधेड़ कहना शायद गुनाह नहीं होगा। वैसे इस उम्र के लोग अपने को युवा ही कहते हैं। आमतौर पर ऐसे लोग अपनी मर्दानगी को इस जुमले के जरिये भी सुनाते हैं-नाटी ऐट फॉटी। विनय फॉटी प्लस था।

देखने में वह ठीक ठाक ही था। टिच-विच हो कर निकले तो उस पर किसी की निगाहें रुक सकती थीं। वह दिल्ली की एक इंपोर्ट-एक्सपोर्ट ओर कंस्ट्रंक्शकन के काम से जुड़ी एक कंपनी में सीनियर मैनेजर हो चुका था। कंप्यूटर सेवी था वो। फेसबुक, रेडिफबाल और याहू मैंसेन्जर, पर मौका लगते ही वह अपने दोस्तों से चैटिंग शुरू कर देता था। खाली समय में उसका यह प्रिय शगल था। फेसबुक में उसके हजारों दोस्त थे। पूरे पाँच हजार। उसके बाद फेसबुक में दोस्त बनाने पर प्रतिबंध था, वरना यह संख्या और बढ सकती थी। उसके फेसबुकिया दोस्तों में लड़कियों और अधेड़ औरतों की संख्‍या कुछ ज्यादा ही थी। विनय कविताएँ भी लिखता था। इसी के चलते औरतें बहुत जल्दी ही उसकी दोस्त बन जाती थीं। कवि होने के कारण वह बेहद संजीदा और प्यार भरी बातें करता था उनसे। फेसबुकिया दोस्ती कई बार फोनबाजी में बदल
जाती थी। मामला बढा तो मुलाकातें भी होती थीं। लेकिन उसकी तलाश फिर भी पूरी नहीं होती थी...

विनय की कंपनी में शुरूआती ट्रेनिंग गुवाहाटी में हुई। उन दिनों वह युवा ही था। जब पहली बार वह दिल्ली से गुवाहाटी के लिए निकला था, तो दोस्तों ने उसे बधाईयाँ दी थीं-' जा बेटा अब ऐश कर। असम में तो पग-पग पर बेहतरीन माल मुफत में मिलता है। चिकना-चिकना।'
एक दोस्तत ने ये कथा भी सुनाई थी-'गुवाहाटी का असली नाम कामरूप है। वहाँ कामरूपाएँ रहती हैं। पुरानी कहावत है कि पूर्वोत्तभर में जो एक बार गया तो कामरूपाएँ उन्हें अपने जादू से वहीं बाँध लेती थीं। हमेशा-हमेशा के लिए।'
इसी के साथ उसकी नसीहत भी थी-' बेटा, संभल के रहना इन कामरूपाओं से। एक बार फँसा तो फिर दिल्ली दूर लगने लगेगी।'
उनमें से एक और वाचाल दोस्त ने तो यहाँ तक कह दिया था-' बच्चा, चिंकी माल एकदम चिकना होता है। ऊपर से नीचे तक। वहाँ रिश्तों की स्वछंदता के चलते एडस भी खूब है। देश में सबसे ज्यादा एडस से मरने वाली की तादाद वहीं हैं।
सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।'

ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस में जब वह यात्रा कर रहा था तो उसे एक ही देश दिखता था। उसकी दोनों आँखें एक ही देश देखती थीं-इंडिया। राजधानी एक्सप्रेस से वापसी के समय में उसे दो देश दिख रहे थे। देश भीतर देश। तीन साल में उसकी सोच में फर्क आ गया था। अधेड़ होने तक भी दो देश देखने की उसकी बीमारी में कोई बदलावा नहीं आया था। देश भीतर देश की बीमारी जस की तस बनी हुई थी। कह सकते हैं कि वह बढ़ी ही थी। इस बीमारी से वह जूझता। फेसबुक पर जा कर अपनी वाल पर दो देशों के सवाल को वह अपने अंदाज में अपने दोस्तों से बार-बार पूछता। उसे माकूल जवाब नहीं मिलता। वह अपनी फेसबुकिया जवान और अधेड़ ग्रर्ल फ्रेंडस से भी यही सवाल करता। जवाब कहीं से नहीं आता। वे उसे साइबर प्रेम-मोहब्बत में फँसा लेतीं। लच्छेादार बातें करतीं। चैट बाक्स में विभिन्न मुखौटों की आकृतियाँ बना कर अपने मनोभावों को व्यतक्त करतीं। लेकिन उसके देश भीतर देश के सवाल का जवाब कोई नहीं देता। सब उसके इस सवाल पर
बस हँस देती थीं।

उस दिन उसने अपनी एक खास फेसबुकिया गर्ल फ्रेंड से एक देश में दो देश के सवाल को पूछा था। वह काफी परेशान था उस दिन। असम में छूट गया अपना सब कुछ उसे बहुत याद आ रहा था। वह उन पलों को याद कर बार-बार दुखी हो रहा था। लेकिन उसकी फेसबुकिया फ्रेंड ने उसके सवाल में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई थी। उसकी वह अधेड़ फेसबुकिया प्रेमिका अपने में बहुत व्यास्त और अशांत रहने वाली एक महिला थी। पता नहीं उसे प्रेमिका कहना चाहिए या नहीं, लेकिन उनकी बातों से लगता था कि वे आपस में एक दूसरे के साथ प्रेम जैसा कुछ कर रहे हैं।

प्रे
मिका के प्रोफाइल में तमाम सूचनाओं के साथ उसकी बनरासी साड़ी पहने एक खूबसूरत तस्वीर थी। दैदीप्यामान चेहरा। बड़ी-बड़ी कटीली आँखें। माथे पर बड़ी टिकली। होठों पर सुर्ख लाल लिपस्टिक। फोटो में हाथ नहीं दिख रहे थे। कल्पना की जा सकती है कि हाथों में साड़ी के रंग की मैचिंग की ढेर सारी चूडियाँ जरूर होंगी। उसकी बातचीत से विनय को लगता था कि वह निजत्व की तलाश में है। शायद उसके जीवन में प्यार की कमी थी। भोपाल की रहने वाली बबिता मालवीय एक बेटे और एक बेटी की माँ थी। बेटी की शादी हो चुकी थी। बेटा पुणे में किसी कंपनी में काम करता था। पति को दिखता और सुनता कम था। वह चुपचाप रहना ही पसंद करता था। बबिता की शादी भी जल्दीा ही हो गई थी। जिम्मेमदारियों के बीच ही उसकी जिंदगी अब तक चली थी। वैसे उसकी शादी एक प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार में हुई थी। उसके जेठ मध्य-प्रदेश में भाजपा सरकार में मंत्री थे। मालवीय परिवार एक ही छत के नीचे रहता था। लेकिन चूल्हा -चौका सबका अलग-अलग था। जायदाद को लेकर भाइयों में घमासान था। इसी के चलते बबिता को घर चलाने के लिए अपना ब्यूमटी पार्लर चलाना पड़ता था।

जब उसने भोपाल में पार्लर खोला था, तो भी परिवार में खूब घमासान हुआ था। मालवीय परिवार की इज्जउत-आबरू का सवाल मंत्री जी ने उठाया था। लेकिन जायदाद से कुछ भी देने को लेकर वे राजी नहीं हुए थे। उनके कई बेटे थे। सारे दबंग। मंत्री के बेटे हों और दबंग न हों, ये तो हो नहीं सकता न। लेकिन बबिता ने किसी की परवाह न करते हुए अपना पार्लर चलाया। अब भी शानदार चल रहा है। शहर का पहला पार्लर होने के चलते उसकी साख भी है। तिस पर मालकिन मालवीय परिवार की बहू हो तो कहने ही क्या। तमाम व्यास्तताओं और पचड़ों के चलते उसे कभी अपने लिए समय नहीं मिला था। फेसबुक ने उसे नया जीवन दिया था। चुगली चर्चा करने वाली महिलाओं के ग्रुप की भी वह सक्रिय सदस्य थी। वह फेसबुक में हमेशा अपने प्रेम को तलाशती थी। उसकी इसी खोज का परिणाम था उसकी विनय से दोस्ती। दोनों के बीच लंबी बातचीत का सिलसिला इस पंक्ति के बाद शुरू हुआ था-'आज आप मुझे देखते ही आफ लाइन हो गए...'

इस पर मैसेज बाक्स में विनय ने जवाब लिखा था-' ऐसा नहीं है कविता जी। आपको देख कर ऐसा करने की किसकी हिम्मत होगी। जब मैं आनलाइन था तो मैंने आपको याद किया था। किस्मत साथ नहीं देती है मेरी कि मुझे छोटी सी खुशी भी मिल सके। आपकी तबियत कैसी है अब। रियाज कैसा चल रहा है। आपको गाना तो गाना ही पड़ेगा।'

इस तरह दोनों के बीच संवाद का सिलसिला शुरू हुआ था। बातचीत में रियाज का दबाव विनय की तरफ से कुछ ज्यादा ही था। शायद उसने बबिता की ये कमजोरी पकड़ ली थी कि वह गाना चाहती है और समय न होने के कारण वह गा नहीं पा रही है। बबिता ने ही उसे बताया था कि बचपन से वह गाती आ रही है और उसे गाना बहुत अच्छा लगता है। बस इसी के बाद से वह बबिता से गाने की जिद करने लगा था।

मै
सेज पर मैसेज... सिलसिला फिर थमा ही नहीं...और दोनों के बीच 'जी और वी' जैसी सभी औपचारिकताएँ खत्म हो चुकी थीं...

बबिता का मैसेज-'अरे आप कब से निराशावादी बातें करने लगे??? आप तो दूसरों को हौसला देते हैं...मैं बहुत व्यकस्ता हूँ...बेटा आया हुआ है और पार्लर में भी एक लड़की छुट्टी पर चली गई है...और फिर सीजन भी शुरू हो गया है...'
'तो इसका मतलब ये हुआ कि आप रियाज नहीं करेंगी और गायेंगी भी नहीं। शायद मुझे ऐसा ही सोचना चाहिए न।'

'फिर वही निराशावादी एटीट्यूड...करुंगी...लेकिन इस महीने के बाद...और हाँ मेरा फोन नम्बईर ०९८१०८२२९९८...आप गायब हैं इन दिनों फेसबुक से??? सब ठीक है न...स्वास्थ्य?'
'मैं
निराशावादी नहीं हूँ। आप मेरे अंदर निराशा भर रही हैं। वैसे आपको गाना तो पड़ेगा ही। और मैं आपसे गवा कर ही मानूँगा।'

दोनों के बीच में कुछ दिनों मैसेजेस का सिलसिला थम गया था। आनलाइन भी वे नहीं मिले। तब विनय ने व्यंग्य करते हुए फेसबुक पर एक मैसेज बबिता को भेजा-' आप तो अब संदेशों का जवाब भी नहीं दे रही हैं। लड़की जब औरत बन जाती है तो अठखेलियाँ धरी रह जाती हैं। और औरत जब माँ बन जाती है तो पुत्र और पुत्रों को समर्पित हो जाती है। और छूट जाते हैं पीछे-आगे के सारे रिश्ते-नाते। आपके नेट पर न आने पर एक काव्य मयी टिप्पपणी है यह मेरी। वैसे मेरा नम्बर ०९८१०८३४६६८ है। आप कब खाली होती है? रियाज तो थोड़ा बहुत शुरू कर दीजिये न अब तो। इतना आपसे को
ई आग्रह नहीं करेगा।'

फोन नम्बर के आदान प्रदान के बाद दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला भी शुरू हो गया था। एक दिन लंबी बातचीत में विनय ने बबिता के अंतस को छू लिया। वह अंदर से बाहर तक हिल गई थी। वह बीच चौराहे पर अपने को खड़ा महसूस कर रही थी। कोई फैसला करने में लाचार। उसके दिल के सारे जंग खाए तार झनझना रहे थे। उस रात दोनों के बीच देर रात तक बात हुई थी। वह इतनी बेचैन थी कि कुछ सोच नहीं पा रही थी। पार्लर जाने से पहले उसने विनय को एक लंबा मैसेज दिया-' विनय जी, कल की बात करके मुझे ऐसा लगा कि आप प्रेम की तलाश में हैं...आपने जो भी कहा उसमें कोई असहमति वाली बात नहीं है...प्रेम की तलाश सभी को होती है...लेकिन मैंने तो आपकी तरफ मित्रता का हाथ इस नजरिये से नहीं बढ़ाया था...मुझे आप सहज रूप से अच्छे लगे और बावजूद सारी असहमतियों के मुझे लगा कि हम अच्छे मित्र बन सकते हैं...मुझे आपसे बात करना अच्छा लगता है...और जहाँ तक प्रेम का संबंध है तो लव ऐट फर्स्टस साइट वाला मामला मेरे साथ कभी नहीं रहा...ये तो एक यात्रा है। और हो सकता है कि उसकी परिणति प्रेम
हो...हो सकता है कि न भी हो...ये समय ही तय करेगा...अभी हम अच्छे मित्र नहीं बन सकते क्या?'

इस लंबे मैसेज के बाद विनय को थोड़ा असहज लगा था। उसे विश्वास था कि बबिता मेच्योर है और इतनी आसानी से अपने प्रेम को प्रकट नहीं करेगी। जाँचेगी। परखेगी। फिर भी उसने उसे एक व्यंग्यात्मक मैसेज भेजा-'जी की औपचारिकता क्यों? प्रेम की तलाश करना कोई गुनाह तो नहीं न। हमारे बीच शायद रुचियों की असमानताएँ हैं। असहमती वाला कोई बिंदु नहीं दिखता है मुझे। वैसे भी लव एट फर्स्ट साइट जैसी चीज फिल्मों में होती है, जिंदगी में नहीं। जान-पहचान के बाद मित्रता होती है। मित्रता जब प्रगाढ़ होती है तो वह प्रेम में तबदील हो जाती है। मुझे भी आपसे बातें करना अच्छा लगा। वैसे हमें प्रेम की यात्रा में निकले काफी दिन हो गए हैं। लंबे संवादों के बाद मैंने आपमें उसे तलाश किया। दिल के दरवाजे इतने तंग मत कीजिये। जीवन के इस उत्तरार्ध को अपनी मर्जी से जी लीजिये। समय पर हम कितनी चीजें छोडें। सब कुछ तो समय ही हमारी चीजें तय करता है। थोड़ा निजी वक्त अपने लिए और मेरे लिए निकाल लीजिये। ये आग्रह है। मैं हारी हुई यात्रा में चलने के लिए तैयार नहीं हूँ। वैसे आप ताउम्र मित्र रहेंगी। लेकिन मैं मित्रता की सीमा के पार आपको देखता हूँ। और अगर मेरा प्रेम निवेदन आपको खराब लगा तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। उम्मीद है कि इस भूल के लिए मु
झे माफ कर देंगी आप। रियाज जरूर शुरू कीजिये। आमीन।'

इस लंबे मैसेज ने बबिता की बेचैनी बढा दी थी। उसे कहीं न कहीं ये अहसास जरूर हुआ था कि वह विनय के नजदीक रहना चाहती है, तो उसे उसके प्रेम को स्वीकरना ही पड़ेगा। उसे अपनी न में भी हाँ का प्रदर्शन करना ही होगा। वरना इस रिश्ते का जल्दी ही अंत हो जाएगा। और ऐसा वह नहीं चाहती थी। वह अपने अकेलेपन को साइबर स्पेस में विनय के साथ बाँटना चाहती थी। पर, कदम फूँक-फूँक कर रखना चाहती थी। इसीलिए उसने अपने अगले मैसेज में प्रेम को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया-'प्रेम गुनाह है ऐसा तो मैंने कहा नहीं...ये तो बहुत ही स्‍वाभाविक और मूलभूत माँग है...और आपको भी प्रेम करने का अधिकार है और जीवन जी लेना चाहिए...'मैं हारी हुई यात्रा में चलने को तैयार नहीं' मतलब यदि मैं आपसे कहूँ कि मैं अभी वक्त चाहती हूँ तो ये आपकी हारी हुई बाजी होगी? चलिये, फिर तो आपको मेरी मित्रता ही स्वीकारनी पड़ेगी...और आपका प्रेम निवेदन मुझे बुरा क्योंय लगेगा भला? आप कोई गलत काम तो कर नहीं रहे हैं...आप मेरे साथ यात्रा पर नहीं चलना चाहते हैं, न सही...लेकिन आपकी मैं हितैषी हूँ और रहूँगी...खुश रहिये...स्वस्थ र
हिये...मनमाफिक साथी पाइये...सुखी होइये...मैं आपको एसएमएस या खत लिखूँ?'

असल मे बबिता समय माँग रही थी और विनय हड़बड़ी में था। वैसे वह अपनी फेसबुकिया महिला दोस्तों से इसी तरह की हड़बड़ी में रहता है। चट मँगनी पट ब्याह जैसा। लेकिन उसे लगा कि बबिता के बारे में उसे धैर्य से काम लेना पड़ेगा। इसी बात का ध्यान रखते हुए उसने जवाब दिया-
'इतने आशीषों का हमला। मैं इन्हें बर्दाश्त नहीं कर पऊँगा। दूसरों के लिये भी इन्हें रख लीजिये। मैंने आपसे कोई बाजी नहीं लगाई है। और प्रेम में तो कोई शर्त होती ही नहीं है। मैंने अपने मन में आई बात आप से शेयर की थी। आप कह रही हैं कि मैं जीवन जी लूँ, लेकिन आप समय माँग रही हैं। मेरे जीते जी आप अपना विचार जरूर बता दीजियेगा। रही यात्रा की बात। अब जब जिस रास्ते में निकल गया हूँ, उससे वापस नहीं लौटूँगा। यात्रा तो आपके साथ ही करनी है। देखता हूँ कि कितने दिन इस यात्रा में आप चुप्पी साधे रहेंगी। मैं कयामत तक इंतजार करुँगा। आपको भी यात्रा के किसी पड़ाव में दया आ ही जाएगी मेरे ऊपर। ये अच्छी बात हैं कि प्रेम को आप गुनाह का दर्जा नहीं देती हैं। इसे खूबसूरत
एहसास मानती हैं। और बाटने के बारे में भी सोचती है मेरे साथ। यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। इस अहसास को भी मैं प्रेम मानता हूँ। और हाँ, आप मेरी हितैषी नहीं सह यात्री हैं, इसे जरूर ध्यान रखियेगा। रही एसएमएस, खतो-किताबत और फोन की बात तो वो आपका अधिकार है। मैं तंग दिल नहीं हूँ। मैंने अपने दिल के सारे दरवाजे खोल रखे हैं आपके लिये। ये दीगर बात है कि आपने अभी नहीं खोले। अब सब कुछ आप पर है। मेरे पास यदि कुछ है तो इंतजार। सिर्फ इंतजार और इंतजार।'

इस दौरान बबिता की बेटी अपनी ससुराल से भोपाल आ गई थी। वह गर्भवती थी। मुबंई में वह अपने पति के साथ अकेले रहती थी। ऐसे में उसके पति ने जिद कर उसे बच्चा। पैदा करने के लिए मायके भेज दिया था। बेटी के आने के बाद से बबिता और व्यजस्त् हो गई थी। दोनों के बीच खतो-किताबत का सिलसिला थम सा गया था। गाहे-बगाहे बबिता छोटा सा मैसेज भेज दिया करती थी और चुप हो जाती थी। बबिता विनय को छोड़ना नहीं चाहती थी। लेकिन समय उसके सामने बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा था। इंतजार करने की बात कहने के कई दिनों तक बबिता का कोई मैसेज नहीं आया तो विनीत उसे लेकर कुछ निराश हुआ। उसने सोचा कि चलो इस कहानी का एकाउन्ट बंद कर देते हैं। बबिता को अनफ्रेंड की सूची में डाल देते हैं। इसी बीच उसका दो पंक्तियों का मैसेज उसके फेसबुक मेल बाक्स में चमका-'नमस्कार...आज भी बहुत थकी हूँ...बस यूँ ही बेमन से फेसबुक पर आ गई...कुछ देखदाख कर सो जाऊँगी...बस इसी त
रह आ रही हूँ फेसबुक पर इन दिनों...'

'बेमन कोई काम मत करिये...जब दिल करे तब फेसबुक पर आइये... आखिर ये यात्रा बहुत कठिन और थका देने वाली तो है ही। फिर भी देखते हैं। वैसे आपने मेरे किसी सवाल का जवाब देने में रूचि नहीं दिखाई। उसके लिए भी आपका आभार।'

'अब ये कटाक्षपूर्ण भाषा किसलिए?...आभार क्यों? ...दरसल इतनी जल्दी में मैसेज लिखा था...आजकल इत्मीनान में नहीं हूँ...बहुत मेहमान, काम और बस क्या कहूँ...इसलिये पिछला आपका संदेशा सोचे बिना ही ये पंक्तियाँ लिख दी थीं...तो अब बुरा मत मानिये...ओके... '

'मैं आपसे बुरा कभी मान ही नहीं सकता। मैं तो आत्मसमर्पण कर चुका हूँ आपके सामने। यात्रा में आपके साथ चल रहा हूँ। आपने मौन साध रखा है और मैं उस मौन को गुनगुना रहा हूँ। कटाक्ष तो मैं कभी कर ही नहीं सकता। मेरी विनम्रता आपको कटाक्ष लगी उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। आप व्यस्त हैं तो कोई बात नहीं...जिंदगी में कभी तो आपको फुर्सत मिलेगी। मैं इंतजार करता रहूँगा...'

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२१ नवंबर २०११

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