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उसमें ख़ुद ऐसे ही प्रपात हहरा रहे हैं। वह अपने ही मन के प्रपात में पानी की बूँद की तरह गिर उतरा रहा है। उसे अपने पिता याद आ रहे हैं। वे उससे काली मिर्च के व्यवसाय का उत्तराधिकारी बनने की उम्मीद रखते थे। काली मिर्च की मुट्ठी प्रतीक थी उसके पिता के व्यवसाय की जिससे उसका घर चलता था। उससे मिलने वाला रुपया घर के लिए रोटी लाता था। रोटी जो जीवन के लिये साँस और पानी के बाद सबसे ज़रूरी है। पिता ने आख़िरकार बदल लिया था अपना कारोबार और लक्ष्य। त्याग दी थी वह सोने की काली मिरचों वाली मुट्ठी तिरुपति की हुण्डी में। प्रभु के चरणों में। क्या जीवन का यही मतलब है...?

क्या वैसे ही उसने भी रेवातट पर काँपते हाथों से आज अपने घुँघरुओं को बहा दिया है? उसमें क्रोध है या निराशा? या अपने अभीष्ट की अन्तिम सीमा आ गई जानकर ख़ुद अपने हाथों से मिटा देना चाहा है। क्या नर्तक जीवन से वाक़ई ऊब गया है नरसू...?

क्या अपने बच्चों के भविष्य के लिए... या परिवार को एक शान्त ममतामय साधारण मनुष्य का जीवन देने के लिए? क्या उसे वीतराग ओढ़ लेना चाहिए? जिस नृत्यकला ने उसे जीवन के नये अर्थ और उत्साह से सराबोर किया क्या वही कला उसके लिए पराजय और अवसाद का पुरस्कार लेकर आई है?

रेवातट पर डूबते घुँघरुओं को देखकर वह ख़ुद एक प्रश्नचिन्ह बनकर रह गया है। वह अपने जीवन का हिसाब-किताब कर रहा है। क्या खोया क्या पाया। सोच रहा है पुरुष-नर्तक बनकर उसने समाज को क्या दिया। महत्त्वाकांक्षा रहित वह आकांक्षाविहीन बनकर सोच रहा है... हाथों से झरती रेत की मुटि्ठयों के साथ मन की बँधी मुटि्ठयाँ भी खुल रही हैं... उसकी आँखें सुन रही हैं `ता धिन धिन्ना...' तबले के सुर में सुर मिलाती घुँघरुओं की आवाज़... तोड़े... बंदिशें...लय के साथ-साथ अपनी आकर्षक मुद्राओं में होते नृत्य...

`वन... बैन्ड...टू बैन्ड...' करते जीवन कला मण्डल के बच्चे अपने पैरों की थप तबले की थाप में मिलाने को आतुर... एक-एक हाथ की दूरी पर खड़े बच्चे शुरुआत में तबले की थाप मिलाने की कोशिश में एक दूसरे से टकरा जाते फिर आँखों से क्षमा याचना करते अपनी जगह पहुँचते। कभी-कभी टकराकर गिर भी पड़ते... गिरते बच्चे और उन्हें सम्हालते बच्चे... रुकती तबले की थाप... नरसू को हँसी आ गई। कैसे-कैसे दृश्य इतने वर्षो ने मेरी आँखों में भर दिए हैं...। मेरे बड़े होते ये बच्चे और उनकी बढ़ती समझ और हैसियत। क्या आज मेरे लिए सब कुछ ख़त्म हो रहा है? रह-रहकर नरसू अपने अतीत को अपने वर्तमान में जोड़ रहा है। वह बिल्कुल नहीं चाहता है अतीत याद करना। वह चाहता है कि वर्तमान ही उसकी आगे की ज़िन्दगी का प्रस्थान बिन्दु बने। पर मन और उम्र दोनों ख़ुद से मजबूर हैं। मन की तो आदत ही है बढ़ती उम्र के साथ अपने अच्छे-बुरे पलों के सहारे जीना क्योंकि वह वर्तमान से सामंजस्य बिठाने में संघर्ष की स्थिति से बचना चाहता है। मन अब भी हारता नहीं तो क्या हुआ, तन तो अशक्त हो चला है। शरीर में वह लोच चाहकर भी हो नहीं पाती। मन कुछ चाहता है और तन... वह वर्तमान में जीने की कोशिश करता है मन की इच्छा के विरुद्ध। परिस्थितियाँ ही ऐसी बन गई हैं कि मनचाहा करने पर परिवार टूटने का... बच्चों के छूटने का ख़तरा है। जवान बच्चों को हमारी नहीं हमें उनकी ज़रूरत है। यही तो प्रकृति का नियम है और मैं प्रकृति के इस सुनसान में बैठा एक मनुष्य...। अचानक नरसू को जयशंकर प्रसाद की `कामायनी' की एक पंक्ति याद आ गई
`हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह...'

कामायनी नृत्य-नाटिका मंचित करने के लिए पहली बार प्रसाद को पढ़ा था। राव साहब से इसके अर्थ समझे थे। तब कहाँ पता था कि मेकलसुता के किनारे एक दिन वह पुरुष उसे ही बनना पड़ेगा। वही तो इसका निर्देशक था। आख़िरी बार मंचित कामायनी में मुख्य भूमिका भी उसने ही की थी- कैसे हिमालय पर्वत पर एक धोती पहने मैंने धूनी रमाई थी और मेरी आँखें शायद इसी तरह का कोई दृश्य देख रही थीं। तब मुझे कहाँ पता था कि नृत्यनाटक का वह रिहर्सल ही उसका फाइनल बन जाएगा।

नरसू के जीवन का सूरज तो मंगलोर में उगा था। वर्षो की यायावरी के बाद भारत के हृदय मध्यप्रदेश में आकर वह बस गया था। बच्चे फिर ले जाना चाहते हैं सूरज के उस गाँव... जहाँ उसे अपने डूबने की प्रतीक्षा करनी होगी...। जहाँ एक दिन पिताजी ने तिरुपति की हुंडी में छोड़ दिया था अपना व्यापार, अपना काम- धंधा, जीवन की गति। गतिहीन होकर ही तो बैठे रहे अन्त तक गद्दी पर । गद्दी पर आने वाला हर व्यापारी पिता को छोड़ उनके भाई और बेटों की तरफ़ मुखातिब होकर व्यापार की कोड भाषा में बात करता सौदे करता। पिता टुकुर-टुकुर उन्हें देखते कुछ न समझने की मुद्रा जबरिया ओढ़े रहते। उनकी आँखें केवल देखतीं, वही सुनतीं भी। सौदे कम-ज्यादा होते... वे कहीं अपने परिवार की गिनती लगाते... बड़ा सामने बैठा है। मँझला ससुराल में बस गया... बड़ी बेटी को घर देकर इसी शहर में बसा लिया। सँझला... नहीं, अभी उसके बारे में नहीं उसे बहुत समय चाहिए। यहाँ गद्दी में नहीं। चेहरे के भाव से लोगों को पता चल जायेगा और इतने वर्षो की तपस्या धूल में मिल जायेगी। उसका नाम कभी लेने या पूछने पर तटस्थ मुद्रा ही रहती है उनकी। हाँ, अभी छोटा बच गया है अपने बाल-बच्चों के साथ। वही बाहर आता-जाता रहता है। सुबह दिखता है तो शाम ग़ायब। शाम दिखता है तो सुबह ग़ायब। न आने का ठिकाना न जाने का। लेकिन थैली तो वही लाता है मेरे लिए। अब मुझे इन रुपयों की ज़रूरत नहीं। नाती, पोते बहुत हैं मेरे। बच्चों ने स्नेह का भरपूर खजाना दिया है। बच्चे, निश्छल... प्यारे... लेकिन कितना पहचानते हैं, जानते हैं दुनिया को...

घुँघरु विसर्जित करते ही नरसू का तन मुक्त हो गया। लेकिन मन! वह कभी मुक्त होता है भला?
मन पर बोझ था पिछले पन्द्रह दिनों से... जब बेटे ने ही घोषणा कर दी `पापा, बस बहुत हो चुका नाचना, गाना। अपनी उम्र देखिए और अब हमारा भी ख़्याल रखना चाहिए आपको।' ये बातें उस समय तो कील की तरह चुभी थीं। जैसे उससे उसका जीवन माँग लिया गया हो।
जिस बेटे को इतना पढ़ाया लिखाया , अब जो मल्टीनेशनल में एक अच्छे ओहदे पर है , क्या उसके विश्वास को बना रहने देने के लिए इतना सा त्याग एक पिता को नहीं करना चाहिए? दिन-रात इस प्रश्न से जूझते नरसू को चैन नहीं। अपनी पत्नी से भी एक बार आँखों ही आँखों में उत्तर पूछा था। आँखों की भाषा में संवाद करने की महारत हासिल है दोनों को । सारी ज़िन्दगी भावनाओं को प्रकट करने का यही अनोखा तरीक़ा तो था उनके पास। पत्नी निष्पक्ष होकर भी अपने पति को दु:खी नहीं देखना चाहती। इसलिए वह उत्तर भी नहीं देना चाहती। उसे लगा यही बेटा ख़ुद कितने एवार्ड्स ले चुका है डांस में। वे कभी `नाचना' शब्द का इस्तेमाल नहीं करतीं।

भावनाओं को प्रगट करने के लिए अंग्रेजी की ज़रूरत उन्हें होती जो भाषा उन्हें अभिजात्य दे जाती। वे मानती हैं कि पुरुष का नर्तक होना कोई कम बात नहीं है फिर बकौल उनके `सर' कोई ऐसे-वैसे डांसर तो हैं नहीं, क्लासिकल डांसर हैं। `गर्व से कहती हैं कि दक्षिण भारतीय होकर भी हिन्दी के एक से एक बड़े कवि की किताबों के चरित्रों को कैसे उन्होंने जीवन्त बनाया है।' पति की उपलब्धि और बेटे के आज के यथार्थ में द्वन्द्व है। पत्नी पति पर गर्व तभी तक कर सकती है जब तक बच्चों को भी उस पर गर्व हो। बेटा पिता की बहुत इज़्ज़त करता है। ख़ुद भी गर्व करता रहा है बल्कि स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होते तक तो ख़ुद भी उनके ग्रुप में सहभागी बना रहा। लेकिन बाहर पढ़ने क्या गया, वह बड़ा हो गया। पिता की छत्र-छाया में उसका नजरिया पिता के जैसा था। बाहर की दुनिया का रहन और चलन उसे बिल्कुल बदल गया।

`मेरे पिता डांसर हैं' और सहपाठियों की दबी मुस्कराहट। उन सबका उसे छोड़ इधर-उधर हो जाना उसे इतना तो सिखा ही गया। बेटे ने नौकरी मिलते ही आदेश पारित कर दिया। उसके पहले उसकी मजबूरी थी। नरसू को शाम के धुँधलके में झिलमिलाती यादें दिखा रही हैं... तालियों से गूँजता हॉल, लाइट्स, सर्चलाइट, ख़ुद के ऊपर बार बार आता फोकस...

पीछे की तरफ़ किए दोनों हाथों में धागे से बँधे खुले हुए मोरपंख... एक पैर अन्दर की ओर मुड़ा और दूसरा धरती पर... चौंक उठे... जैसे मोर ने अपने पैर देख लिए हों और उनका अवसाद... उनमें इस नदी की तरह बहने लगा। एक-एक पत्थर पर पैर रखने में उसकी नोक से बचने की कोशिश करते, जल की असंख्य धाराओं से बचते, कूदते नरसू का शरीर जैसे नृत्य की वापसी का नृत्य कर रहा है। वह नदी पार कर रहा है। उद्दाम नर्मदा के किनारे-किनारे विपरीत दिशा में समानान्तर चलता नरसू का अवसाद...। कौन सा रस है यह? क्या करुण है? इस एक रस को तो वह अद्भुत ढंग से मंचित करता रहा है। दु:ख भी तो कई प्रकार का होता है। कलेजा मुँह को आ जाए-- ऐसा दु:ख भी तो उन्होंने दर्शाया है। अब तो उस नृत्य-नाटिका का नाम याद नहीं; शायद `पितृभक्त कुणाल।' बेटे का मुँह देखे बग़ैर उसका नाम कुणाल ही तो रख दिया था।

लेकिन आज का दु:ख वैसा नहीं... इसके पीछे कुणाल की पितृभक्ति नहीं उसके प्रति मेरा स्नेह मंचित होना चाहता है। और तिरोहित हो जाने वाले घुँघरु हैं जो पत्नी और बच्चों के पहले तो साथी हैं। लेकिन अब उनकी अतिरिक्तताएँ हैं। अच्छा वक्त भी आया ही था। जीवन कला मंडल का उत्कर्ष भी हो चला था। कला की साधना करते-करते उनकी ख्याति भी हो चली थी। लेकिन यह अच्छा वक्त भी क्या... मेरा सब कुछ ख़त्म होने के आसार के साथ ही आया है? मन में द्वन्द्व है अब भी... वरना ऐसा क्यों? मन अभी कुछ और कुछ और... चाहता है। उस पर विवेक भारी है।

चलो, बच्चों की शादियाँ करें और पोते-पोतियाँ खिलाएँ। मन को विवेक ने तसल्ली दी। कुछ और कर लेना। बेटा ठीक कहता है, अब इस शहर में भी नहीं रहना है। लौट चलना है अपने घर। क्या छोड़ दूँगा मैं सब कुछ? आख़िर तो... होना ही है कभी। यही सत्य है जीवन का। अब शेष जीवन परिवार के नाम ही सही। घुँघरु के साथ अपना अतीत माँ-बाप की छत्रछाया में रहा है, लेकिन अब माँ नहीं, पिता नहीं। फिर उस शहर लौटना भी नहीं। उसके पास ही बैंगलोर चले जाएँगे जहाँ बेटे, बेटी की नौकरी है। रह लिए बहुत वर्ष अपनी तरह। वैसे भी उम्र के पक जाने पर हम कहाँ अपना जीवन बिता पाते हैं। शारीरिक और मानसिक ज़रूरतों के लिए हमें किसी के सहारे की ज़रूरत होती ही है। और अब जब बच्चे ख़ुद होकर हमारी ज़िम्मेवारी उठाना चाहते हैं तो हमें उनका कहा मान लेना चाहिए। बुद्धिमान तो वही होता है, जो वक्त की नब्ज को पहचाने।
अपने को ढाढ़स बँधाने के लिए एक से बढ़कर एक तर्क नरसू ढ़ूँढ़ रहा है।

***

उस दिन यक्षगान सुनते-सुनते दरी पर बैठा नरसू खड़ा हो गया था। अभी उसका हाथ उठकर कोई हरकत करता, उसके पहले ही रामकृष्ण ने उसकी हाफ पैन्ट पकड़कर खींच ली।

`बैठ, नरसू, क्या कर रहा है ? कोई देख लेगा तो अम्मेर को बता देगा। फिर तू कभी नहीं देख सकेगा यक्षगान।' रामचन्द्र उसके कान में फुसफुसाया। नरसू ने समझकर सिर हिलाया। और अपने उन्माद को शान्त करने की कोशिश में एक हाथ से वह अपनी पैंट ऊपर खींचने लगा। वह क्या करे ? यक्षगान देखकर वह अपने को शान्त नहीं रख पाता। दिन-रात यक्षगान के बोल, उसका संगीत, उसके नृत्य करते चलते-फिरते हाथ-पाँव उसकी आँखों के सामने घूमते रहते हैं। उसे अँगुलियों से इशारे कर-कर बुलाते हैं। जगजीवन, रमनाथ उसका मज़ाक़ उड़ाते--कहते...

`क्या नाचने, गाने की बात करता है यार ! लड़का है कि लड़की ! दिखा तो... चल तेरी पैन्ट उतारकर देखते हैं।' `हट... भाग दूर... ' फिर विवशता से रामकृष्ण की ओर देखता। `चल बे, इतने छोटे से हम नंगे होकर नहाते आ रहे हैं। नदी किनारे-किनारे रेत पर दौड़ते रहे हैं। फिर भी गन्दी बात करते हो तुम दोनों। कल से मत आना हमारे साथ यक्षगान देखने।' डाँट देता रामकृष्ण अपनी मित्र-मंडली को।

रामकृष्ण नरसू से एक साल ऊँची कक्षा में पढ़ता है। वह नरसू का दूर का रिश्तेदार है। इस कारण परिवार में आना जाना है। वह जानता है कि नरसू की भौंहें सिनेमा हॉल के अन्धेरे में भी ऊपर-नीचे होने की कोशिश में मटकती रही हैं। दो-तीन दिन पहले ही इतवार की दोपहर वह जब अपने चाचा और नरसू के अम्मेर अत्तावार वीडू कोरगा के घर गया था तो वहाँ बाक़ायदा संगीत सभा जमी हुई थी। चचेरे बड़े भाई रामचन्द्र तबला बजा रहे थे। मँझले भाई मंजण्णा हारमोनियम पर पता नहीं क्या बजा रहे थे।

सुर और लय का कुछ पता नहीं था। नरसू अपनी बड़ी बहन गुलाबी अक्का और छोटे भाई बेबी को लेकर यक्षगान के अभिनय की नकल कर रहा था। नरसू की अप्पै अपने बच्चों को नकल उतारते देखकर हँसी से लोटपोट हो रही थीं। रामकृष्ण को आता देखकर एक मिनट के लिये तबले के ऊपर रामचन्द्र के हाथ रुक गए। हारमोनियम की धौंकनी मंजण्णा ने इतनी तेज़ कर दी थी कि बहुत तेज़ आवाज़ सुनकर अप्पै के साथ बेबी, गुलाबी और नरसू ने अपने कान बंद कर लिये। रामकृष्ण सिर घुमाकर सबको बारी बारी से देखने लगा। चुप्पी नरसू ने ही तोड़ी।

`अब बजाओ ना! ये अम्मेर से नहीं कहेगा और अब तो यह भी एक पात्र बन गया है हमारे यक्षगान का।'
डरे हुए बच्चे बड़ी आशा से अपनी माँ की ओर देखने लगे। खाना खाकर पिताजी अपनी गद्दी पर जा चुके थे। अभी अपने सौदों को निपटाकर उनके घर लौट आने की भी कोई सम्भावना नहीं थी। रात आठ बजे तक का समय निठल्ला ही था। यह समय माँ और बच्चों का अपना समय होता। इस समय उनके घर का मुख्य दरवाज़ा बन्द होता। वे अपना जीवन जीते जो अम्मेर के डर से दरवाज़ा खुलते ही अन्दर कहीं बन्द हो जाता। समुद्री हवा की खुनकी उनके खुले दरवाज़े से अन्दर आकर बैठ जाती।

रात जब दरवाज़ा खुलता तभी बाहर निकल पाती। वह इस तमाशे की चश्मदीद गवाह होती, लेकिन अत्तावार वीडू कोरगा की अदालत में कभी चुगली करने नहीं आती। फिर भी रोज़ का यह काम तमाशा देखने का, वह आना कभी नहीं भूलती।

वरान्डानुमा बड़े से हॉल में वह सभा चल रही होती। दीवारों पर लगे देवी-देवताओं के चित्र आशीर्वाद की मुद्रा में नीचे खड़े नरसू को देखते रहते। सेन्टर टेबल को हटाकर संगीतकार भाइयों के लिये चटाई और माँ के लिए मोढ़ा लिये पिता के जाते ही नरसू बिछा देता। कभीकभी गुलाबी भी अपने भाई का साथ देती। उसे थोड़ा बहुत गाना आता। और गानों पर थोड़ा बहुत हाथ-पैर मटकाना भी। शादी ब्याह या भजन कीर्तन का कोई घरेलू उत्सव होता और अम्मेर भी कहीं बाहर गये हुए होते तो तीनों भाई मिलकर गुलाबी को उकसाते।

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