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वह एक सामान्य परिवार से था, और लोगों के अनुसार उसके भाई तब भी केरल के किसी गाँव में किसान थे, जबकि राणावत एक ज़मींदार परिवार से था, जिसका भाई किसी देश का राजदूत और भाभी पंजाब में राज्यमंत्री थी। सुन्दरम तब भी, अर्थात छप्पन वर्ष की आयु तक भी कहीं अपना मकान नहीं बना पाया था जबकि कुमार की दिल्ली के गुलमोहर पार्क में आलीशान कोठी थी, जिसके विषय में कहा जाता था कि वह कोठी उसने दिल्ली आने के बाद खरीदी थी और अपने नाम से नहीं बल्कि पत्नी के नाम। चालीस हज़ार रुपये वेतन पाने वाला, बेटी को पढ़ने के लिए लंदन भेजने की तैयारी करने वाला अधिकारी, करोड़ों की कोठी कैसे खरीद पाया यह सबके लिए आश्चर्य की बात थी, लेकिन वास्तविकता यह थी कि कुमार की पत्नी कोठी की मालकिन थी और उसके बगीचे में काम करने के लिए दफ्तर के दो बदली मजदूर प्रतिदिन जाते थे। वे दिनभर उसकी कोठी में काम करते। दोनों सुबह हाजिरी लगाने दफ्तर जाते और प्रशासन-अनुभाग (पाँच) के सेक्शन अफ़सर को टोकन देकर (क्यों कि दफ्तर में प्रवेश के लिए उन्हें सुरक्षा कक्ष से टोकन लेना होता) कुमार की कोठी के लिए चले जाते और शाम विभागीय अफसर वे टोकन दूसरे बदली मजदूरों के टोकनों के साथ सुरक्षा कक्ष में जमा करवा देता।

लोगों का यह आश्चर्य करना वाजिब था कि सुन्दरम अपना वेतन खर्च कहाँ करता था। उसके नौकरी में रहने तक यह रहस्य किसी को भी ज्ञात नहीं हो पाया था, लेकिन अवकाश ग्रहण करने के बाद जब वह लुधियाना के एक आश्रम में जाकर रहने लगा तब लोगों ने अनुमान लगाया कि वह या तो प्रतिमाह उस आश्रम को धन देता था या किसी गुप्त बैंक खाते में जमा करता था, जिससे वह उस आश्रम में जाकर रह सके।

लुधियाना का वह एक ऐसा आश्रम था, जिसमें अधिकांश ऐसे लोग रहते थे जिनका या तो अपना कोई नहीं था या जो अपने बच्चों पर बोझ नहीं बनना चाहते थे। अधिकांश उच्च पदाधिकारी थे या बौद्धिक किस्म के दूसरे लोग। वहाँ उनकी अपनी दुनिया थी और वे एक-दूसरे को अपने संस्मरण सुनाते हुए दिन काटते थे। सुन्दरम जैसे लोगों का अधिकांश समय लोगों के नैतिक पतन, देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और राजनीति के क्षरण पर चर्चा करते हुए व्यतीत होता था या पुस्तकें पढ़ते हुए।

सुन्दरम ने ही छुट्टी वाले दिनों में दफ्तर खोलने की परम्परा की शुरुआत की थी। कुमार ने दो महीने उसके अधीन कभी काम किया था और कहते हैं कि लोगों के साथ दुर्व्यवहार की प्रवृत्ति उसके बाद उसमें अधिक बढ़ी थी। थी पहले भी, लेकिन उग्र न थी। लोगों को तब लगता कि अफसर में इतनी कठोरता होनी ही चाहिए, वर्ना कर्मचारी लापरवाह हो जाते हैं। लेकिन वास्तविकता शायद यह थी कि पदोन्नति के साथ उसका व्यवहार खराब से अधिक खराब होता गया था।

तो शादी के लिए अवकाश लेने के उसके अनुरोध को सुन्दरम ने खारिज करना चाहते हुए भी खारिज नहीं किया था और 'गधे' की उसकी प्रतिक्रिया पर चुप्पी साध ली थी। उसने एक माह का अवकाश माँगा था, जिसे सुन्दरम ने दस दिन कर दिया था। उसके स्वर की गिड़गिड़ाहट पर ध्यान न देते हुए उसने कहा था, "मिस्टर सुशांत, अधिक छुट्टी में रहने से पैसा अधिक खर्च करना होगा... तुम हनीमून के लिए शिमला, मनाली या... जाएगा, खर्च होगा न... उसके लिए कर्ज़ लेगा... नहीं यह गलत बात होगी। शादी करके सीधे दिल्ली आना, घर से अच्छी कौन-सी जगह होगी हनीमून के लिए।" मुस्कराया था सुन्दरम। उसकी मुस्कान पर वह सोचता रहा था कि उसने उसे कब मुस्कराता हुआ देखा था। याद नहीं आया था, लेकिन इतना याद था कि एक बार वह कर्मचारियों की उपस्थिति देखने निकला था, ऑडिट अनुभागों की, क्यों कि वे ही ग्रुप सीधे उसके अधीन थे। उस समय जो लोग हाजिरी रजिस्टर में उपस्थित थे और शारीरिक रूप से अनुपस्थित उन्हें वापस लौटने पर उनके अधिकारियों के साथ उसने अपने कक्ष में बुलाया था और मुस्कराते हुए पूछा था, "कहाँ गए थे?"

"सर... सर...।" सभी केवल इतना ही कह सके थे।
"मैं फांसी लटकाने नहीं जा रहा।" उसने पुनः मुस्कराते हुए कहा था, "कहाँ गए थे?"
लोग जानते थे कि उसका इतना मुस्कराना अधिक घातक होने वाला था।
"सर, चाय पीने।" सभी लगभग एक साथ बोले थे।
"एक साथ।" इस बार सुन्दरम के चेहरे पर कठोरता थी।
सभी चुप। वे दस थे और बुत की भांति खड़े थे।
"ओ.के... जाओ..."उनके जाने के बाद उसने उनके अफ़सरों को आदेश दिया कि वे उनके बाहर जाने के बारे में आध घंटे में कारण बताएँ। उन कारणों को अपनी टिप्पणी के साथ उसने प्रशासन अनुभाग को भेज दिया था। शाम जब दसों घर जाने की तैयारी कर रहे थे उन्हें बंद लिफ़ाफ़े दिए गए थे जिनमें उनके मेरठ स्थानांतरण के आदेश थे।
उसने सुन्दरम की बात सुनी थी और अधिक अवकाश की ज़िद न की थी।

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वह यह सोचकर निकला था कि प्लाजा में तीन से छः का शो देखेगा। बच्चे बड़े हो गए। उसने उनके साथ टॉकीज में कभी फिल्म नहीं देखी थी। लेकिन तिब्बती मार्केट, डॉल म्यूजियम होते हुए जब वह क्नॉटप्लेस पहुँचा, तीन से ऊपर हो चुके थे। बच्चों-पत्नी को छोले-भटूरे खिलाने का वायदा भी निभाना था। लंच कर वे लोग कनॉट सर्कस में दूकानें देखते घूमते रहे। अमिता हनुमान मंदिर जाना चाहती थी। वहाँ से लौटकर वे कुछ देर कॉफी होम में बैठे। उसने और अमिता ने कॉफी और बच्चों ने कोल्ड ड्रिंक ली।
"पापा, पिक्चर नहीं देखेगें?" अनुभव कोल्ड ड्रिंक पीते हुए बोला।
"हाँ, पापा आपने वायदा किया था।" मीनू चुप क्यों रहती।
"अब देर हो चुकी है।"
''फिर कल दिखा देना।" उसे बच्चों का संतोष अच्छा लगा।
"हाँ, कल किसी अच्छी टॉकीज में देखेगें... किसी पी.वी.आर. में...।" वह अमिता की ओर मुड़ा, "अमिता, कल हम सुबह दस बजे निकल लेगें... पटेलनगर, सत्यम में देखेंगे।"
"ठीक है।" अमिता मंद स्वर में बोली। बच्चे प्रसन्न हो गए। वह भी प्रसन्न था। लंबे समय के बाद मिलने वाले रविवार के अवकाश को भरपूर जी लेना चाहता था।
कनॉट प्लेस से जब वे घर पहुँचे शाम सात बज चुके थे। वे ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने ही वाले थे कि दरवाज़े पर बैठे मकान मालिक ने उसे रोकते हुए कहा, "सुशांत जी, आपके लिए कोई एक चिट दे गया है।"
उसका दिल धक से रह गया। मन ने कहा, 'अवश्य कुछ गड़बड़ है।'

मकान मालिक को धन्यवाद देते हुए उसने चिट ले ली और पढ़ने लगा। लिखा था, "रिपोर्ट कुमार साहेब ऐट नाइन थर्टी।" नीचे अधिकारी चमन लाल हांडा के हस्ताक्षर थे।
उसके चेहरे पर उदासी फैल गई। उसे लगा सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसके पैर भारी हो रहे थे। उसके चेहरे के भावों से अमिता ने अनुमान लगा लिया कि 'कोई खास बात है।' लेकिन वह बोली नहीं और उसके पीछे सीढ़ियाँ चढ़ती रही।
बच्चे आपस में कल देखी जाने वाली फ़िल्म की चर्चा में मशगूल थे।

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२४ नवंबर २००८

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