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हास्य व्यंग्य


हे देवतुल्य ! तुम्हें प्रणाम
प्रेम जनमेजय


बचपन में मेरी माँ ने मुझे बताया था- देवता पलक नहीं झपकाते हैं। वे अमर होते हैं। वे राग -द्वेष से परे होते हैं। उनकी आँखों से आँसू नहीं झरते हैं। वे वरदान भी देते हैं और शाप भी देते हैं।’’

मेरा यौवन भी मुझे कुछ ऐसा ही समझा रहा है।
वे मेरे मालिक हैं, मेरे अन्नदाता हैं। उनके चेहरे पर कुबेर का तेज है, अँगुलियों में लक्ष्मी की छाप है, वाणी में गिरगिट वास करता है और चरण सदा शरणागत की प्रतीक्षा में लिप्सित रहते हैं। मैं तो गरीबी के बदबूदार ढेर में पड़ा था, उन्होंने मुझे इस ढेर से थोड़ा-सा, अधिक नहीं, उठाया और अपनी शरण दी। इस कारण मेरी गर्दन सदा झुकी रहती है। मुझे उनकी ओर नज़रें उठा कर देखने का भी कभी साहस नहीं होता। वे पलक नहीं झपकते हैं। उनकी अश्रु-ग्रंथि नहीं है। अक्सर उनकी नीरस, शुष्क एवं अपलक आँखें ही मुझे छेदती रहती हैं।

पर जब भी मुझ सेवक से अपनी जान पर खेलने वाला कोई ‘सत्कर्म’ उन्हें करवाना होता है तो वे जेब से सोने का सिक्का निकालते हैं, उसपर अपनी दाएँ हाथ की अँगुलियों को रगड़ते हैं तथा अपनी दोनों आँखों पर फिराते हैं। उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते हैं। मैं उनकी आँखों में आँसू नहीं देख सकता हूँ। अपने करुणानिधन मालिक की आँखों में कौन नमकहलाल सेवक आँसू देख सकता है। हमें तो बचपन से सिखाया गया है कि कोई कुछ भी करे, तुम तो नमकहलाली ही करो। मैं भी नमकहलाली करता हूँ और जान पर खेलकर मालिक की सेवा करता हूँ। सेवा से प्रसन्न होकर मालिक मुझे अपने कूड़ेदान से निकालकर स्वच्छ किया हुआ तोहफा देते हैं। मालिक को बदबू पसंद नहीं है। उनका कूड़ेदान भी सुगंध की गंगा बहाता है।

मुझपर उपकार करने के बाद मालिक की आँखें पुनः अपलक, नीरस, शुष्क एवं अश्रुहीन हो जाती है। जब जान पर खेलने का सुअवसर न हो और इसके बावजूद मुझे अपने अन्नदाता से अतिरिक्त अन्न चाहिए हो तो वे आँखें अपलक संवेदनहीन और विषमय ही रहती हैं।

मेरे यह मालिक आपके मालिक नहीं हो सकते हैं। ऐसे मालिक चुनने का हम सबके पास ‘मौलिक अधिकार’ है। आपका मालिक कोई और हो सकते है पर यदि आप नमकहलाल हैं तो आपका मालिक भी मेरे जैसा देवतुल्य ही होगा।

उस दिन राधेलाल ने मुझे एक सफेद खद्दरधरी से सामना करवाते हुए कहा- मालिक को प्रणाम करो।’’ मालिक नाम सुनते ही बिना सोचे समझे प्रणाम की मुद्रा में झुक जाना तो मुझ- जैसों की नियति है। मैं भी प्रणाम की मुद्रा में झुक गया और बिना सर उठाए एक ओर होने के बाद मैंनें राधेलाल से कहा- ये मेरे मालिक थोड़े ही हैं।’’
-- ये तुम्हारे होने वाले मालिक हैं। ये तुम्हारे ही नहीं देश के होने वाले मालिक हैं।ज़रा इनके चेहरे के तेज को देख।’

मैंने उनकी ओर देखा। पिछली बार भी वो मुझे दिखे थे। तब उनके चेहरे से गरीबी झाँक रही थी। अँगुलियाँ शुष्क बाँस के पोरों की याद दिला रही थी। उनके शरीर के वस्त्र बता रहते थे कि उनकी आत्मा वस्त्र नहीं बदलती है, एक ही बदबूदार वस्त्र में रहती है। उनकी आँखों में अतृप्ति का हलाहल धीरे-धीरे आकार ले रहा था। वे बलात् अपनी आँखों को झपकने से रोक रहे थे।

इस बार राधेलाल ने मिलवाया तो उनके चेहरे पर देवत्व ने अपने लक्षण दिखाने आरंभ कर दिए थे। वे मुझसे इतनी आत्मीयता से मिले कि मैं घबरा गया। उन्होंनें अपनी खादी पर अँगुलियों को रगड़ा तथा उसे अपनी आँखों पर फिराया तो आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। इतना गले लिपट कर मेरी माँ भी मुझसे कभी नहीं रोई होगी जितना जार-जार उनकी आँखों के आँसू रो रहे थे। उन्होंने अपने आँसूओं से कटोरा भरा और बोले- मेरे भाई, इसे ले जाओ और समझो कि तुम्हारी गरीबी दूर हो गई।’ इसके एवज़ में उन्होंनें मेरी आत्मा पर अपना चुनाव-चिह्न जमा दिया। मुझे लगा जैसे एक साथ अनेक वरदान मिल गए और मेरे बुरे दिन लद गए।

मैंने ध्यान से देखा, वे मेरे मालिक जैसे ही लग रहे थे। वैसा ही उनके चेहरे पर कुबेर का तेज था, अँगुलियों में लक्ष्मी की छाप थी, वाणी में गिरगिट का वास था और चरण सदा शरणागत की प्रतीक्षा में लिप्सित थे। उनकी आँखें अपलक थीं और उनमें अश्रुग्रंथि नहीं थी।

आगे बढ़ा तो देखा एक चौराहे पर एक सपेरा तमाशा दिखना चाहता है पर मल्टीपलैक्स और मॉल के इस युग में हर कोई ऐसी ही उपेक्षा दृष्टि डाल रहा है जैसी मानवीय मूल्यों पर डाली जाती है। शहर के इस व्यस्त इलाके में किसी ब्रीफकेसधरी, कॉलसेंटरीय एवं मल्टीनेश्नलीय एग्ज्यूटिव के पास किसी से बात करने की ही फुरसत नहीं होती तो इस सपेरे के लिए फुरसत कहाँ से लाए। मैं इसमें से कुछ नहीं था, इसलिए मेरे पास फुरसत ही फुरसत थी।
मैंने सपेरे से कहा-ये क्या मरियल से साँप पकड़कर तमाशा दिखाने के लिए डोलते रहते हो, किसी ऐसे सांप को पकड़ो जिसके पास मणि हो।’
- जहरीले साँप से मणि लूँ कैसे?’’
- जब वो सो जाए तो उठा लो।
मेरी यह बात सुनकर वो जोर से हँसा और बोला- सो जाए! आप शायद जानते नहीं कि साँप कभी पलक नहीं झपकता है। मालिक हमें तो इन जहरीले लोगों के बीच ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करना होता है।’ ये कहते हुए उसकी आँखें भीग गईं।
मैंने पूछा- इन साँपों को तुम्हारी दुर्दशा पर रोना नहीं आता?’’
- मालिक, साँपों की अश्रुग्रंथि नहीं होती है।
मैं सोचने लगा -क्या सभी जहरीले लोग पलक नहीं झपकते हैं? क्या सभी देवतुल्य लोगों की अश्रुग्रंथि नहीं होती है।

२२ नवंबर २०१०

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