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दूर से भागते, हाँफते हाथ में काली टोपी पकड़े एक नाटे से आदमी ने लपककर रहमान अली को गले से लगाया और गोद में लेकर हवा में उठा लिया। उन दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। 'तो यही मामू बित्ते हैं।' ताहिरा ने मन ही मन सोचा और थे भी बित्ते ही भर के। बिटिया को देखकर मामू ने झट गले से लगा लिया, 'बिल्कुल इस्मत है, रहमान।' वे सलमा का माथा चूम-चूमकर कहे जा रहे थे, 'वही चेहरा मोहरा, वही नैन-नक्श। इस्मत नहीं रही तो खुदा ने दूसरी इस्मत भेज दी।'
ताहिरा पत्थर की-सी मूरत बनी चुप खड़ी थी। उसके दिल पर जो दहकते अंगारे दहक रहे थे उन्हें कौन देख सकता था? वही स्टेशन, वही कनेर का पेड़, पंद्रह साल में इस छोटे से स्टेशन को भी क्या कोई नहीं बदल सका!

'चलो बेटी।' मामू बोले, 'बाहर कार खड़ी है। जिला तो छोटा है, पर अल्ताफ की पहली पोस्टिंग यही हुई। इन्शाअल्ला अब कोई बड़ा शहर मिलेगा।'

मामू के इकलौते बेटे अल्ताफ की शादी में रहमान अली पाकिस्तान से आया था, अल्ताफ को पुलिस-कप्तान बनकर भी क्या इसी शहर में आना था। ताहिरा फिर मन-ही-मन कुढ़ी।

घर पहुँचे तो बूढ़ी नानी खुशी से पागल-सी हो गई। बार-बार रहमान अली को गले लगा कर चूमती थीं और सलमा को देखकर ताहिरा को देखना भूल गई, 'या अल्लाह, यह क्या तेरी कुदरत। इस्मत को ही फिर भेज दिया।' दोनों बहुएँ भी बोल उठीं, 'सच अम्मी जान, बिल्कुल इस्मत आपा हैं पर बहू का मुँह भी तो देखिए। लीजिए ये रही अशरफ़ी।' और झट अशरफ़ी थमा कर ननिया सास ने ताहिरा का बुर्का उतार दिया, 'अल्लाह, चाँद का टुकड़ा है, नन्हीं नजमा देखो सोने का दिया जला धरा है।'

ताहिरा ने लज्जा से सिर झुका लिया। पंद्रह साल में वह पहली बार ससुराल आई थी। बड़ी मुश्किल से वीसा मिला था, तीन दिन रहकर फिर पाकिस्तान चली जाएगी, पर कैसे कटेंगे ये तीन दिन?

'चलो बहू, उपर के कमरे में चलकर आराम करो। मैं चाय भिजवाती हूँ।' कहकर नन्हीं मामी उसे ऊपर पहुँचा आई। रहमान नीचे ही बैठकर मामू से बातों में लग गया और सलमा को तो बड़ी अम्मी ने गोद में ही खींच लिया। बार बार उसके माथे पर हाथ फेरतीं, और हिचकियाँ बँध जाती, 'मेरी इस्मत, मेरी बच्ची।'

ताहिरा ने एकांत कमरे में आकर बुर्का फेंक दिया। बन्द खिड़की को खोला तो कलेजा धक हो गया। सामने लाल हवेली खड़ी थी। चटपट खिड़की बंद कर तख्त पर गिरती-पड़ती बैठ गई, 'खुदाया - तू मुझे क्यों सता रहा हैं?' वह मुँह ढाँपकर सिसक उठी। पर क्यों दोष दे वह किसी को। वह तो जान गई थी कि हिन्दुस्तान के जिस शहर में उसे जाना है, वहाँ का एक-एक कंकड़ उस पर पहाड़-सा टूटकर बरसेगा। उसके नेक पति को क्या पता? भोला रहमान अली, जिसकी पवित्र आँखों में ताहिरा के प्रति प्रेम की गंगा छलकती, जिसने उसे पालतू हिरनी-सा बनाकर अपनी बेड़ियों से बाँध लिया था, उस रहमान अली से क्या कहती?

पाकिस्तान के बटवारे में कितने पिसे, उसी में से एक थी ताहिरा! तब थी वह सोलह वर्ष की कनक छड़ी-सी सुन्दरी सुधा! सुधा अपने मामा के साथ ममेरी बहन के ब्याह में मुल्तान आई। दंगे की ज्वाला ने उसे फूँक दिया। मुस्लिम गुंडों की भीड़ जब भूखे कुत्तों की भाँति उसे बोटी-सी चिचोड़ने को थी तब ही आ गया फरिश्ता बनकर रहमान अली। नहीं, वे नहीं छोडेंगे, हिंदुओं ने उनकी बहू-बेटियों को छोड़ दिया था क्या? पर रहमान अली की आवाज़ की मीठी डोर ने उन्हें बाँध लिया। सांवला दुबला-पतला रहमान सहसा कठोर मेघ बनकर उस पर छा गया। सुधा बच गई पर ताहिरा बनकर। रहमान की जवान बीवी को भी देहली में ऐसे ही पीस दिया था, वह जान बचाकर भाग आया था, बुझा और घायल दिल लेकर। सुधा ने बहुत सोचा समझा और रहमान ने भी दलीलें कीं पर पशेमान हो गया। हारकर किसी ने एक-दूसरे पर बीती बिना सुने ही मजबूरियों से समझौता कर लिया। ताहिरा उदास होती तो रहमान अली आसमान से तारे तोड़ लाता, वह हँसती तो वह कुर्बान हो जाता।

एक साल बाद बेटी पैदा हुई तो रहा-सहा मैल भी धुलकर रह गया। अब ताहिरा उसकी बेटी की माँ थी, उसकी किस्मत का बुलन्द सितारा। पहले कराची में छोटी-सी बजाजी की दुकान थी, अब वह सबसे बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर का मालिक था। दस-दस सुन्दरी एंग्लो इंडियन छोकरियाँ उसके इशारों पर नाचती, धड़ाधड़ अमरीकी नायलॉन और डेकरॉन बेचतीं। दुबला-पतला रहमान हवा-भरे रबर के खिलौने-सा फूलने लगा। तोंद बढ़ गई। गर्दन ऐंठकर शानदार अकड़ से ऊँची उठ गई, सीना तन गया, आवाज़ में खुद-ब-खुद एक अमरीकी डौल आ गया।

पर नीलम-पुखराज से जड़ी, हीरे से चमकती-दमकती ताहिरा, शीशम के हाथी दाँत जड़े छपर-खट पर अब भी बेचैन करवटें ही बदलती। मार्च की जाड़े से दामन छुड़वाती हल्की गर्मी की उमस लिए पाकिस्तानी दोपहरिया में पानी से निकली मछली-सी तड़फड़ा उठती। मस्ती-भरे होली के दिन जो अब उसकी पाकिस्तानी ज़िन्दगी में कभी नहीं आएँगे गुलाबी मलमल की वह चुनरी उसे अभी भी याद है, अम्मा ने हल्का-सा गोटा टाँक दिया था। हाथ में मोटी-सी पुस्तक लिए उसका तरुण पति कुछ पढ़ रहा था। घुँघराली लटों का गुच्छा चौड़े माथे पर झुक गया था, हाथ की अधजली सिगरेट हाथ में ही बुझ गई थी। गुलाबी चुनरी के गोटे की चमक देखते ही उसने और भी सिर झुका दिया था, चुलबुली सुन्दरी बालिका नववधू से झेंपझेंपकर रह जाता था, बेचारा। पीछे से चुपचाप आ कर सुधा ने दोनों गालों पर अबीर मल दिया था और झट चौके में घुसकर अम्मा के साथ गुझिया बनाने में जुट गई थी। वहीं से सास की नज़र बचाकर भोली चितवन से पति की ओर देख चट से छोटी-सी गुलाबी जीभ निकालकर चिढ़ा भी दिया था, उसने। जब वह मुल्तान जाने को हुई तो कितना कहा था उन्होंने, 'सुधा मुल्तान मत जाओ।' पर वह क्या जानती थी कि दुर्भाग्य का मेघ उस पर मंडरा रहा है? स्टेशन पर छोड़ने आए थे, इसी स्टेशन पर। यही कनेर का पेड़ था, यही जंगला। मामाजी के साथ गठरी-सी बनी सुधा को घूँघट उठाने का अवकाश नहीं मिला। गाड़ी चली तो साहस कर उसने घूंघट जरा-सा खिसकाकर अंतिम बार उन्हें देखा था। वही अमृत की अंतिम घूँट थी।

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