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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से डॉ. नरेश की कहानी—"पराजित क्षण"।


वह उठ खड़ी हुई। उसने अपने कपड़े ज़रा–से दुरूस्त किए, दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गई। मैं उसी तरह अधलेटा–सा पड़ा रहा। कमरे के बाहर वाले बरामदे में से मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी,
"टैक्सी।"

किसी टैक्सी के पोर्टिको में रुकने की, टैक्सी का दरवाज़ा खुलने की, बन्द होने की, फिर से स्टार्ट होने की, चल देने की आवाज़ भी मैंने सुनी। लेकिन मैं अपनी जगह से हिला नहीं, उठा नहीं।

उस समय शायद मेरा दिमाग माउफ हो गया था। या शायद मेरे भीतर की समस्त चेतना कुछ देर के लिए पंगु हो गई थी। कमरे के भीतर या बाहर जो कुछ हो रहा था, मेरी आँखें उसे देखते हुए भी नहीं देख रही थीं। मेरे कान सुनते हुए भी नहीं सुन रहे थे। एक अजीब–सी बेहोशी में था मैं।

काफी देर के बाद मेरी यह बेहोशी टूटी तो मैंने देखा, वह जा चुकी थी। कमरे में उसके श्वासों गंध अभी भी महक रही थी, उसके बदन की खुशबू मेरे अपने कपड़ों से उभर रही थी, उसकी लिप–स्टिक का निशान मेरी सफेद कमीज़ पर चमक रहा था, लेकिन वह स्वयं वहाँ उपस्थित नहीं थी।

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