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दिमाग पर जोर देकर सोचने लगा मैं –– कैसे उठकर अकेली चली गई वह? क्यों चली गई? उसे इसी प्रकार चले जाना था तो यहाँ आने की जरूरत ही क्या थी?

शाम को उसका फोन आया था तो मैं चौंक–सा गया था। आठ वर्ष बाद मेरे कानों ने फिर वही पुराना लटकाकर कहा गया 'हैलो' सुना था। एकदम पहचान गया था मैं कि यह आशा की आवाज़ है। लेकिन अविश्वास ने मुझसे फोन पर कहलवा ही दिया था,
"कौन?"
"अच्छा जी, अब हम कौन हो गए?"
अब कोई सन्देह नहीं था, कोई शक नहीं था, कोई अविश्वास नहीं था।
"अरे, आप कब अए?"
"ग्रामेटिकली रांग। आए नहीं, आईं कहिए हज़रत।" शरारत और शोखी का अन्दाज वैसा ही था, जैसा पच्चीस वर्ष पूर्व हुआ करता था।
"
ओह हाँ . . ." मैंने स्वयं को सँभालते हुए–से कहा।

मेरा टेलीफोन मेरे ड्राइंग रूम में पड़ा हुआ था, जिसके बगल वाले कमरे को यद्यपि डाइनिंग रूम कहा जाता था, लेकिन वास्तव में वह हमारा लिविंग रूम था। बगल के लिविंग–कम–डाइनिंग रूम में मेरी पत्नी, जवान बेटी और कालेज में पढ़ रहा बेटा मौजूद थे इसलिए फोन पर उसकी शोखी पर वाह वाह करना मेरे लिए मुमकिन न था। शायद उसने भी मेरी मजबूरी को भाँप लिया था और इस बात को यहीं समाप्त करके कहा था,
"फोन पर बात नहीं हो सकेगी शायद। मैं सिर्फ एक दिन के लिए आई हूँ। कल सवेरे पहली गाड़ी से मुझे लौटना है। तुमसे मिलना चाहती हूँ।"
उसके कहने से पहले ही मेरे दिमाग ने सोच लिया था कि मुलाकात तो होगी ही, होनी ही चाहिए। इसलिए द्रुत गति से
काम कर रहे मस्तिष्क ने तुरन्त समस्या का समाधान ढूँढ निकाला था।

"ऐसा करते हैं, मैं आठ बजे आबशार पहुँचता हूँ। आप भी यहाँ आ जाइए। डिस्कस कर लेंगे और कोई फाइनल शेप दे लेंगे।"
" . . ."
उसकी खामोशी बता रही थी कि उसने मेरे आसपास मेरे परिवार की उपस्थिति को भाँप लिया था।
"आबशार मालूम है ना आपको? गोपीनाथ मार्ग पर जो प्राइवेट गेस्ट हाउस है। हम एक साथ गए थे ना वहाँ लास्ट टाइम।"
"मैं पहुँच रही हूँ, ठीक आठ बजे।"
मेर फोन रखते ही मेरी पत्नी ने पूछा,
"किसका फोन था?"
"कलकत्ता से शिशिर बाबू आए हैं। कल सुबह पहली गाड़ी से वापिस जा रहे हैं। मैंने उन्हें कम्पनी की ब्रांच कलकत्ता में खोलने के लिए लिखा था। उसी का प्लान डिस्कस करना चाह रहे हैं।"
"घर पर आ रहे हैं क्या?"
"नहीं, गेस्ट हाउस में। मुझे जान होगा वहाँ।"
"अभी क्या?"
"हाँ।" जूतों के ढीले किए तस्मे फिर से बाँधते हुए मैंने कहा।
"कश्यप साहिब के डिनर का क्या होगा?"
"तुम बच्चों को लेकर चली जाओ। मेरी तरफ से माफी माँग लेना।"
"बुरा मानेंगे वे।"

"अब तुम समझा देना उनको। कम्पनी की ब्रांच खोलने के लिए कब से उनके पीछे लगे हुए हैं हम लोग। पत्रों से कुछ हल नहीं हो रहा है। अब आमने–सामने बात होगी तो किसी निर्णय पर पहुँच पाएँगे।"
चुप हो रही पत्नी।
"मैं गाड़ी घर पर ही छोड़ रहा हूँ। तुम लोग समय से चले जाना।"
"आप कैसे जाएँगे?"
"मैं बस से चला जाऊँगा।"
"कम्पनी की ब्रांच की बात करने के लिए बस से जाना ठीक रहेगा क्या? आप गाड़ी ले जाइए, हम लोग टैक्सी से चले जाएँगे।"
"तो ठीक है, मैं टैक्सी से निकल जाता हूँ, तुम लोग गाड़ी ले जाना। कश्यप के घर आसपास टैक्सी नहीं मिलेगी वापिसी के लिए तुम्हें।"
और मैं टैक्सी लेकर साढ़े सात बजे यहाँ पहुँच गया था। कमरा लेकर उसमें बैठ गया था। प्रतीक्षा करता रहा था आशा की। एक–एक पल बोझल हो रहा था। लेकिन भीतर का उत्साह पलों के बोझ को महसूस नहीं होने दे रहा था।

सवा आठ बजे वह आई। उसके कमरे में घुसते ही मैंने उसे बाहों में भर लिया। कैसा मादक था वह आलिंगन, वर्षों के बिछुड़े हुए दो शरीरों का स्पर्श।
"चाय?"
"चलेगी।"
इन्टर–कॉम पर दो चाय का आर्डर दे दिया मैंने।
चाय पीते हुए हम दोनों आमने–सामने की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मैंने देखा, उसके शरीर पर बढ़ती हुई आयु के निशान उभरने लगे थे। उसकी आँखों के नीचे हल्का–सा कालापन उभर आया था। भारी मेकअप के बावजूद उसकी झुर्राने को तैयार चमड़ी अपनी वास्तविकता छिपाने में असमर्थ थी। लेकिन वह अभी भी वैसी ही आकर्षक थी जैसी पच्चीस वर्ष पूर्व हुआ करती थी। आज भी मन चाह रहा था कि चाय का कप दीवार से दे मारूँ और उसके होठों का सारा रस एक ही बार
में पी जाऊँ। लेकिन शिष्टता का जो आवरण पूरी हस्ती पर चढ़ चुका था, उसे फाड़ फेंकना भी तो संभव नहीं था।

"कब आई हो?"
"कहाँ?"
"यहाँ।"
"अभी तो आई हूँ।"
"यहाँ, मानी नूरपुर में।"
"आज सुबह आई थी। वर्मा जी के एक मित्र का देहान्त हो गया था। तब हम लोग विदेश गए हुए थे। वर्मा जी तो अभी भी पैरिस में ही हैं, इसलिए अफसोस करने मुझे ही आना था।"
"तो कल सवेरे लौटने की क्या जल्दी है?"
"कल मेरी बेटी की एड्मिशन है मेडिकल कालेज में।"
"इतनी बड़ी हो गई है वह?"
"हाँ, दिन बीतते क्या देर लगती है। इक्कीसवाँ पूरा कर लिया है उसने इस अगस्त में।"
चाय पीकर मैं उठा और मैंने दरवाजे की सांकल चढ़ा दी। उसने हैरान नज़रों के साथ मुझे साँकल चढ़ाते देखा लेकिन चुप रही। दरवाज़े से चलकर मैं डबल बेड पर लेट गया। दोनों बाहें फैलाकर मैंने उसे पास आने का निमन्त्रण दिया। उसने
अपना पर्स चाय की मेज़ पर रखा और उठाकर मेरे करीब आ बैठी।

मेरे सब्र का बाँध ही टूट गया जैसे। भींचकर अपने उपर गिरा लिया मैंने उसे और मेरे हाथ उसके शरीर पर दौड़ने लगे। मेरी मजबूत पकड़ से स्वयं का आज़ाद करने की कोशिश में उसका चेहरा जैसे तमतमा गया। विस्मय और घबराहट, किसी अनिष्ट का साक्षात् हो रहा भय और अकस्मात उस पर टूट पड़ा मैं – – सब कुछ अप्रत्याशित या शायद उसके लिए। शायद वह इसके लिए तैयार नहीं थी।
"गोपाल! प्लीज, प्लीज। मैं बहुत अन–इजी फील कर रही हूँ। एक मिनट के लिए हटो जरा प्लीज।"
शिष्टता के आवरण को तार–तार होने से बचाने के लिए कृतसंकल्प, मध्यमवर्ग का प्रतिनिधि मैं, उसकी आवाज़ में निहित याचना की अवहेलना नहीं कर पाया। एकदम तेज़ हुई मेरी सांस अचानक साधारण गति पर लौट आई और मेरी बाहों ने अनायास ही उसे मुक्त कर दिया। उठकर भागी नहीं वह। डबल बेड से उठकर कुर्सी पर भी नहीं गई वह। वहीं मेरे निकट बैठकर उसने अपने कपड़े दुरूस्त किए। माथे पर बिखर आए बालों को पीछे करके कानों पर टाँका और बोली,
"क्या वहशीपन है यह?"
मैं खामोश रहा।

"मैं जितनी बार भी नूरपुर आई हूँ, हम लोगों ने हर बार अपने लिए कुछ न कुछ समय चुराया है। इसी तरह किसी एकान्त में इकठ्ठे बैठकर चाय पी है, बातें की हैं। यह आज क्या हो गया है तुमको? ऐसा तो तुमने कभी नहीं किया। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की कि तुम मेरे साथ बलात्कार भी कर सकते हो।"
"बलात्कार तो अभी भी नहीं करूXगा आशा।"
"तो फिर ये तुम्हारी सासों का एकदम तेज होना, तुम्हारे हाथों पर से तुम्हारे दिमाग का नियन्त्रण उठ जाना – यह सब क्या है?"
"बताता हूँ।"
उठकर बैठ गया में भी।

"आशा! यह जो कुछ मैं कर रहा था या करना चाह रहा था, यह सब हम पच्चीस वर्ष पहले भी कर सकते थे। तब शायद अपने को रोकना कठिन था, यह सब करना कठिन नहीं था तब मैंने या हमने यह इसलिए नहीं किया कि तुम्हारा विवाहित जीवन किसी गिल्ट का शिकार न हो। हमारी शादी नहीं हो सकती थी, यह हम दोनों ने जान लिया था और अलग–अलग जिन्दगी बिताने को नियति मान लिया था। शादी के बाद भी तुमने दोस्ती कायम रख ली, यह तुम्हारा कमाल है अन्यथा मैं तो उसी दिन तुमसे हाथ धो बैठा था, जिस दिन तुमने वर्मा के साथ भाँवर ली थी।"
एकटक मेरी ओर देखती रही वह।

"
वर्मा का क्या अधिकार था तुम पर? सिर्फ इतना ही ना कि वह तुम्हारे पिताजी की तलाश था बस यही ना? उसने तुम्हें मेरी तरह टूटकर चाहा वहीं था, मेरी तरह दीवानावार मुहब्बत नहीं की थी, मेरी तरह तुम्हारे दुःख में, सुख में शरीक नहीं रहा था वह। फिर भी वह तुम्हें मुझसे छीनकर ले गया। मैंने तुम्हारे इस शरीर को, जो उन दिनों जवानी के वेग से परिपूर्ण था, उसके लिए अनछुआ नहीं छोड़ा था, सिर्फ इसलिए जूठा नहीं किया था कि पवित्रता का जो संस्कार तुम्हारे खून में घुलामिला था, वह आहत न हो और तुम्हारा विवाहित जीवन किसी ग्लानि की आग में झुलसकर न रह जाए।"

"मैं जानती हूँ गोपाल। इसकी कद्र भी करती हूँ। यही कारण है कि शादी के बाद भी मैं तुमसे मिलने को बेचैन रही हूँ। शादी के बाद तुमने मुझे जहाँ कहीं भी बुलाया है मैं निस्संकोच चली आई हूँ। मुझे तुमसे कभी खतरा नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन आज जो कामुकता तुम्हारे चेहरे पर उभर आई है, उससे भी इतनी आतंकित नहीं हूँ, जितनी विस्मित हूँ।"

"कामुकता बड़ा घटिया शब्द है आशा। लेकिन शायद इसका दूसरा पर्याय भी नहीं है। मैं कभी भी सेक्स–स्टार्वड नहीं था। दो जवान बच्चों का पिता, अपनी पत्नी से पूर्णतया संतुष्ट कोई भी व्यक्ति सेक्स–स्टार्वड नहीं होता। मैं भी नहीं हूँ। लेकिन हमें अपने सम्बंधों में कहीं न कहीं कोई रेखा तो खींचनी होगी। वर्मा को मैंने पच्चीस वर्ष तुम्हारे शरीर का भोग करने दिया है। तुम उसे जितना सुख दे सकती थीं, दे चुकीं। उसे सन्तान दे चुकी हो, उसकी घर–गृहस्थी संभाल चुकी हो। मैंने पच्चीस वर्ष पूर्व अपनी जिस चाहत को बरबस दबा डाला था, पच्चीस वर्ष भी उसे मार डालने में असमर्थ रहे हैं। इतनी लम्बी कालावधि भी उसका गला नहीं घोंट पाई है। तुम जब–जब मेरे पास हुई हो, मुझे अपनी पराजय का अहसास कचोटकर रख गया है। इसलिए हर बार तुम्हारे शरीर को छूकर महसूस करने की कोशिश में मैं तुम्हारे लिए एकान्त ढूँढता रहा हूँ, मैनेज करता रहा हूँ।"
"मगर यह ग्लानि तो अब शायद और अधिक असह्य होगी।"

"
किस बात की ग्लानि? पति वर्मा को पच्चीस वर्ष तक अपना सब कुछ दे चुकी हो। मित्र गोपाल को उसके अधिकार से वंचित रहने की सज़ा पच्चीस वर्ष मिलती रही है। कहीं तो अन्त होना चाहिए इस सज़ा का।"

"नहीं गोपाल, नहीं। तुम्हारे जिस रूप की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती, उस रूप को देखकर मैं कितनी टूट जाऊँगी, कितनी बिखर जाऊँगी, इसका अनुमान तो करो।"
फिर से उचककर दबोच लिया मैंने आशा को। मेरी साँसों की गर्मी तेज़ी से लौटने लगी। मेरे हाथ फिर उसी प्रकार अकुला उठे। लेकिन तभी उसने प्रार्थना–सी करते हुए कहा,
"एक मिनट प्लीज़, बस एक मिनट, मैं बाथरूम हो आऊँ।"
उसने उठकर दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गई। शरीर में बढ़े हुए आवेग के बावजूद मेरा मस्तिष्क दीवानगी की हदें नहीं छू पाया। तत्काल उसके पीछे न दौड़ने का निर्णय लिया मैंने और उठकर इस कुर्सी पर आ गिरा।

बाहर से उसके टैक्सी को बुलाने की, टैक्सी के आने की, जाने की आवाज़ें सुनता रहा और अब पता नहीं किस आवाज़ की प्रतीक्षा में अभी तक यहीं बैठा हुआ हूँ।

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२४ फरवरी २०१२

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