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छोटी नौकरी की सीमा में रहकर वे बच्चों को उच्च से उच्चतर शिक्षा दिलाने के लिए बड़ी से बड़ी आवश्यकता को भी मुल्तवी करते रहे और अब उनकी खुशी में ही अपनी खुशी समाहित कर देना अपनी बची हुई अवकाश प्राप्त आयु का उन्होंने ख़ास अभिप्राय बना लिया।

पहले तो वे बड़े दुखी हुए जब उनके बेटों ने अपना बना बनाया घर बेचकर फ्लैट ख़रीदने का प्रस्ताव रखा, फिर वे धीरे-धीरे खुद को परिस्थितियों के हवाले करते चले गए। घर बनाने में उन्होंने मूर्त और पार्थिव पदार्थों, ईंट, गारा, सीमेंट, लोहे, पैसे आदि की तुलना में अमूर्त और हार्दिक क्रियाएँ, भावना, निष्ठा, समर्पण, एकाग्रता आदि ज़्यादा लगा रखी थीं। तब उनकी पत्नी आरती देवी जीवित थी और एक-एक ईंट की जोड़ाई में उसका समर्थन, उसका स्पर्श, उसका परामर्श और उसकी शुभकामना शामिल थीं। थोड़ा-थोड़ा करके घर ठीक-ठाक बन गया था और यह उनकी हसरतों, सपनों और उम्मीदों के प्रतिबिंब में ढलता चला गया था। उनकी स्वर्गीया पत्नी की स्मृतियाँ इस घर के चप्पे-चप्पे में बसी थीं जिनसे वे अक्सर एक अनिर्वचनीय संवाद कर लेते थे।

जब रतन इंजीनियर बन गया और जतन डॉक्टर तो आरती के भीतर अपेक्षाओं की एक से एक ऊँचे मीनारें और गुंबज खड़े होने लगे। वह खूब इतराती और सफलता का सारा श्रेय अपने मातृत्व और अपनी परवरिश को न देकर अपने इस घर को देती। अब सोचते हैं रेवत बाबू तो उन्हें लगता है कि अच्छा हुआ वह झटके से किसी बीमारी के बहाने चल बसी, वरना घर को बिकते हुए देखना उसके लिए मानो कयामत देखने के बराबर होता। अमेरिका में चार साल रहकर लौटते हुए रतन ने एक विदेशी लड़की को अपने साथ कर लिया और जतन ने नगर के ही मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते हुए एक सहकर्मी डॉक्टरनी को पसंद कर लिया। उनके खानदान में यह पहली बार हुआ कि घर में बहुओं के लाने में बाप एक मूक दर्शक बना दिया गया।

रतन ने कहा था, "बाउजी, अब हम लोग इस जनता नगर में नहीं रह सकते। यहाँ जीने की कोई क्वालिटी नहीं है। आसपास के लोग गंदे हैं, असभ्य हैं, ज़ाहिल हैं, अशिक्षित हैं, झगड़ते रहते हैं, सफ़ाई पर ध्यान नहीं देते। हमारा पड़ोसी नाई, धोबी, बढ़ई, लुहार, फलवाला, दूधवाला हो, यह अच्छा नहीं लगता।"

रेवत बाबू रतन का मुँह देखते रह गए थे, जैसे उसकी घृणा पड़ोसियों के प्रति नहीं अपने बाप के प्रति उभर आई हो। वे भी तो इन्हीं की श्रेणी के आदमी रहे। कारखाने में एक मामूली मज़दूर। मुख्य शहर से तीस किलोमीटर दूर इस नयी बस रही बस्ती में जब उन्होंने ज़मीन लेनी चाही थी तो इन्हीं फलवाला और दूधवाला ने उनके लिए दौड़-धूप की। दूधवाला जगरनाथ उनके गाँव का था जिसने उन्हें यहाँ बसाने में अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दी थी। यह ठीक था कि यहाँ बहुत सफ़ाई नहीं थी। योजनाबद्ध रूप से पानी का निकास नहीं था, लोग रास्ते पर पानी गिराने, चापाकल से पानी लेने, बिजली खंभे पर तार के इधर से उधर कर देने आदि छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़ जाया करते थे। लेकिन वे दिल से सच्चे और स्वच्छ थे और अगले ही दिन आपस में फिर बतियाते नज़र आ जाते थे। किसी भी दुख-बीमारी या आफ़त-मुसीबत में दौड़े चले आते थे।

रतन की हामी भरते हुए जतन ने जोड़ा था, "यहाँ से बच्चों की बेहतर पढ़ाई नहीं हो सकती। सारे शीर्षस्थ स्कूल मुख्य शहर में स्थित हैं। यहाँ कोई अच्छा टयूटर भी उपलब्ध नहीं हो सकता। बच्चे कल डांस या म्यूज़िक क्लास या फिर स्पोर्ट कोचिंग ज्वाइन करना चाहेंगे, मगर यहाँ से उनका कुछ नहीं हो सकेगा।"
रेवत बाबू को लगा कि उनसे यह संवाद इसी घर में पला-बढ़ा उनका बेटा नहीं कोई ग़ैर आदमी कर रहा है जिसके मुँह में जन्म से ही सोने का चम्मच लगा हुआ है। उन्होंने ज़रा दबे स्वर में पूछा, "बेटे, तुम दोनों ने इसी घर में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की और इसी घर में रहकर खूब कबड्डी खेली और पतंग उड़ाए, क्या पढ़ने में या ताकत में किसी से पीछे रह गए?"

अपने पिता को यों निहारा जतन ने जैसे उनके अल्पज्ञान का हास्य कर रहा हो, "बाउजी, आप नहीं समझेंगे कि यहाँ रहकर हमने क्या-क्या चीज़ें मिस की। हमने क्रिकेट खेलना नहीं सीखा, नाटक करना नहीं सीखा, क्विज़ या एलोक्यूशन आदि में भाग नहीं लिया, म्यूज़िक क्लास या अच्छा टयूशन ज्वाइन नहीं कर सका, अच्छी मूवी नहीं देखी, अच्छी सोसाइटी के तौर-तरीके नहीं सीखे।" रेवत बाबू उसे टुकुर-टुकुर ताकते हुए निरुत्तर से हो गए। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई निर्वस्त्र करके उन्हें उनकी नग्नता का बोध करा रहा है।
"इस बस्ती में वाटर लाइन तक की व्यवस्था नहीं है। कुआँ का प्रदूषित पानी पीना पड़ता है। शुद्ध पानी के बिना जहाँ कई बीमारियों का डर बना रहता है वहीं बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास पर भी असर पड़ता है।" रतन ने जैसे दूर की कौड़ी खोज निकाली।

रेवत बाबू ने कहा, "गाँव में हमारे पूर्वज पीढ़ी दर पीढ़ी कुएँ का ही पानी पीते रहे और आज भी पी रहे हैं। इससे ऐसा नहीं कि वंश आगे नहीं बढ़ा। इस मकान में रहते हुए आज सत्ताईस वर्षों से हम भी कुएँ के पानी पर ही आश्रित रहे, क्या तुम लोगों के दिमाग़ और स्वास्थ्य पर कोई फ़र्क पड़ा? बेटे, कुआँ तो कुदरत का खज़ाना है। जाड़े में इसका पानी गरम होता है और गर्मी में ठंडा।"
"बाउजी, आपको मालूम नहीं है, पानी का सिर्फ़ साफ़ दिखना ही उसे पीने योग्य नहीं बना देता। उसमें घुला हुआ जीवाणु और विषाक्त पदार्थ दिखाई नहीं पड़ता। वह फिल्टर प्लांट में शुद्ध होता है। वहाँ पानी इस तरह ट्रीटमेंट करके फिल्टर किया जाता है कि उसमें पोषक खनिज तत्व नष्ट न हों। डॉक्टर हूँ मैं, अब तो आप मेरी बात मान लिया कीजिए।"
इस ब्रह्मास्त्र के बाद रेवत बाबू को तो नि:शस्त्र हो ही जाना था। रतन ने उनमें मोह के बचे-खुचे मलबे को पूरी तरह बहा देने के ख़याल से अपना एक और ताक़तवर प्रेशर पंप निकाल लिया, "बाउजी, इस घर को बेच देने से एक तो इस इलाके से हमें मुक्ति मिल जाएगी, दूसरा- बैंक से गृह निर्माण ऋण लेकर फ्लैट ख़रीद लेने से आयकर में भारी छूट लेने के भी हम हकदार हो जाएँगे।"

रेवत बाबू को व्यवस्था का यह प्रावधान बड़ा विचित्र लगा कि जिसे कर्ज़ लेने की कोई ज़रूरत नहीं है, उसके लिए भी कर्ज़ लेने का एक आकर्षण तय कर दिया गया है।
उनके भीतर जैसे एक भूचाल समा गया। तो क्या सचमुच इस घर को बेच देना पड़ेगा? उनका ध्यान उन गाय और बकरी की तरफ़ चला गया, जिन्हें उन्होंने एक अर्से से पाल रखी थीं और जिनकी देखरेख व सेवा-टहल उनकी दिनचर्या व व्यस्तता का एक प्रमुख अंग बन गई थी। इनके बिना कैसे गुज़रेगा उनका वक्त? गाय उन्होंने उस वक्त लाई थी जब रतन-जतन कॉलेज पहुँच गए थे और उन्हें पर्याप्त दूध की ज़रूरत थी। दोनों को ही दूध बहुत पसंद था, जितना भी दो उनका मन नहीं भरता था। तब आरती ने ही सुझाया था, "दूध ही तो है जो इन पढ़नेवाले बच्चों को भरपूर ताकत देता है। इन्हें ख़रीदकर कितना दूध पिलाइएगा, एक गाय ले लीजिए।"

रेवत बाबू गाँव चले गए दीदी के पास। दीदी ने उन्हें अपनी एक गाय दे दी। यह गाय इतनी सुलच्छिनी और सुपात्र निकली कि घर में दूध की तो मानो निर्झरणी फूट पड़ी। धन-धान्य, स्वास्थ्य और पढ़ाई-लिखाई में बरकत ही बरकत होती चली गई। आरती ने इसका नाम रामवती रख दिया और इसे घर की लक्ष्मी मानने लगी।

घर में एक बूढ़ी बकरी भी थी जिसके ख़रीदे जाने का प्रसंग भी जतन से ही जु़ड़ा था। मेडिकल प्रवेश परीक्षा की ज़ोरदार तैयारी के दरम्यान वह रात-रात भर जागरण कर लिया करता था। इस कड़े अभ्यास से उसे अपच और खट्टे डकार की शिकायत रहने लगी थी। एक वैद्य ने उन्हें सुझाया कि इसे शाम को एक बार बकरी का दूध दिया कीजिए, पाचन क्रिया अपने आप दुरुस्त हो जाएगी। उन्होंने एक बड़ी नस्ल की बकरी ख़रीद ली जिसका दूध जतन के लिए सचमुच अमृत साबित हुआ। जब जतन ने प्रवेश परीक्षा पास कर ली तो मानो वे बकरी के ऋणी हो गए। लगा कि उसे बेच देना एक अपराध होगा। बकरी घर में ही रह गई। आरती ने उसका नाम सामली रख दिया था।

रामवती और सामली अब बच्चे देने की उम्र में नहीं थीं। अत: उनका ख़रीददार सिर्फ़ कसाई ही हो सकता था। रेवत बाबू इस क्रूरता को अंजाम कैसे दे सकते थे। बेटों से जब अपनी यह दुविधा व्यक्त की तो उनके चेहरे पर एक उपहास उड़ाने का भाव उभर आया। रतन ने कहा, "बाउजी, इस तरह की कोरी भावुकता से दुनियादारी नहीं चलती। आदमी के लिए जानवर एक कोमोडिटी है, उसका काम ख़त्म, उससे लगाव ख़त्म। करोड़ों ऐसे हैं जो माँस खाते हैं और माँस व चमड़े का धंधा करते हैं। पशु-पालन वैसा ही है जैसे मुर्गी-पालन, मधुमक्खी-पालन, रेशमकीट-पालन और मत्स्य-पालन होता है। जानवरों से ऐसा मोह कि वह पैर की बेड़ी बन जाए, सरासर एक बचकानापन है।"

रेवत बाबू व्यापारियों और मुनाफ़ाखोरों वाली इस भाषा से ज़रा-सा भी सहमत नहीं हुए। उन्हें लगा कि भला करने के एवज में भाला भोंकने की कहावत ये लड़के चरितार्थ कर रहे हैं। वे यह तो समझ गए थे कि घर का बिकना अब तय है, लेकिन वे इस फ़ैसले पर भी आरूढ़ थे कि रामवती और सामली को किसी हाल में नहीं बेचना है। वे अपनी चिंता लिए हुए जगरनाथ के पास चले गए। पास ही में था जगरनाथ का खटाल। आठ भैंसे थीं उसके पास, जिनसे उसकी दाल-रोटी चलती थी। वह उनका सजातीय नहीं था तब भी वे एक-दूसरे के शुभचिंतक थे और किसी की कोई गुत्थी उलझ जाती थी, तो वे मिलकर सुलझाने की कोशिश करते थे। जगरनाथ कम पढ़ा-लिखा होकर भी दुनियादारी का अच्छा तैराक था।
उसने समझाया रेवत बाबू को, "भैया, बच्चों को नाराज़ करना ठीक नहीं है। इनकी खुशी में ही अब आपकी खुशी है। जब उन्हें पसंद नहीं तो आज न कल वे घर बेच ही देंगे। आप भाग्यशाली हैं कि आपके दोनों बेटों ने ऊँचे मुकाम हासिल कर लिए। आप रामवती और सामली की फ़िक्र मत कीजिए। उन्हें मेरे पास छोड़ दीजिए। जहाँ आठ ढोरों की देखभाल करता हूँ, वहाँ दो और सही।"

रेवत बाबू ने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों के घेरे में भर लिया और विह्वल हो उठे, "तुमने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी जगरनाथ। मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूँगा भाई।"
"रेवत भैया, आपमें हमदर्दी की इतनी गहरी झील बसती है, मैं तो रीझ गया हूँ आप पर।"
"रामवती और सामली पर जो भी खर्च आएगा मैं तुम्हें दे दिया करूँगा।"
"आपकी जैसी मर्ज़ी भैया।"

फ्लैट में आ गए रेवत बाबू। कैंपस के गेट पर मोटे-मोटे हरूफ़ में लिखा था, 'वसुंधरा गार्डेन', ए ड्रीम प्लेस ऑफ दी सिटी। लगभग डेढ़ हज़ार वर्गफुट का काफ़ी महँगा, आलीशान और अत्याधुनिक फ्लैट था वह। बिल्डर ने कैंपस का शानदार श्रृंगार और सजावट कर रखी थी। वहाँ दस-दस तल्ले के बीस-बीस फ्लैट वाले कुल बीस ब्लॉक थे। रेवत बाबू को लगता ही नहीं था कि यहाँ कोई उनके रूप, रंग और रचाव से मेल खाता आदमी है। वे भौंचक थे कि इस एक दुनिया में कितनी अलग-अलग दुनिया समाई है। बाथरूम, टायलेट, फ़र्श, दीवारें, रसोई, खिड़कियाँ, पर्दे, बालकनी सबमें अभिजात्य का अदभुत परचम लहरा रहा था। उन्हें बिल्कुल नये सिरे से इनमें रहने का तरीका सीखना पड़ रहा था। अपने जनता नगर में वे मनमर्ज़ी टहल आते थे, घूम आते थे, किसी के भी घर चले जाया करते थे। अब यहाँ ऐसा संभव नहीं था। यहाँ लगता ही नहीं था कि किसी से वे घुल-मिल सकेंगे। हर आदमी उन्हें समृद्धि व बड़प्पन का एक अजीबोगरीब चोंगा ओढ़े हुए ऐसा दिख रहा था जैसे किसी से वह बोल-बतिया लेगा तो उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।

एक दिन उन्होंने अख़बार में पढ़ा कि उनके बाजू के फ्लैट की एक लड़की सामनेवाले ब्लॉक के एक लड़के के साथ भाग गई। उन दोनों के बेडरूम की खिड़की और बालकनी आमने-सामने थीं। ऐसे फ्लैटों में भी प्यार करने की गुंजाइशें बालकनी और खिड़की के रास्ते निकाली जा सकती हैं, यह पढ़कर जहाँ उन्हें अच्छा लगा, वहीं बुरा भी लगा कि पड़ोस की ख़बर उन्हें अख़बार से मिल रही है। सीढ़ी में उन्नीस और लोग रहते थे, इनकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। एक बार रतन से उन्होंने पूछा तो बहुत याद करके वह दो-तीन नाम ही बता सका।

थोड़े ही दिन बाद इसी वसुंधरा गार्डेन की एक और ख़बर पढ़ने को मिली। कहीं बाहर गए हुए परिवार के ताला लगे फ्लैट को कुछ चोरों ने दिन में ही खोल लिया और उसका पूरा सामान सामने ट्रक लगाकर लोड कर लिया। देखनेवालों ने यही समझा कि फ्लैटवाला यहाँ से कहीं शिफ्ट कर रहा है। रेवत बाबू ने सोचा कि जब लोग एक-दूसरे से इस तरह बेख़बर, आत्मलिप्त और असामाजिक होकर रहेंगे तो ऐसी वारदात तो होगी ही। जनता नगर में तो किसी का भी नाम पूछकर उसका घर ढूँढ़ा जा सकता था और घर पूछकर उसमें रहनेवाले का नाम जाना जा सकता था।

एक दिन एक और ख़बर उन्होंने पढ़ी कि एक फ्लैट में छापा मारकर पुलिस ने देह-व्यापार के एक पूरे रैकेट को पकड़ लिया। रेवत बाबू को लगा कि किसी दिन किसी फ्लैट में बम-बारूद बाँधा जा रहा होगा और पता तब चलेगा जब किसी चूक के कारण पूरा फ्लैट विस्फोट में उड़ जाएगा।
शुरू-शुरू में तो उन्हें ऐसा जान पड़ा जैसे वे किसी डिब्बे में बंद कर दिए गए हैं। उकता जाते तो वे बार-बार नीचे उतरकर कैंपस के पार्क, जिम या मार्केट की तरफ़ चक्कर लगा आते। एक दिन उन्हें महसूस हुआ कि उनके बार-बार आने-जाने पर लिफ्ट में कुछ लोग उन्हें गुस्से से घूरने लगे हैं। उन्होंने एक आदमी से पूछ लिया, "क्यों भाई, मेरे आने-जाने से आपको कोई तकलीफ़ है?"
उसने कहा, "काम से जाने-आने वाले उन आदमियों को तकलीफ़ तो होगी ही, जिन्हें आपके चलते लिफ्ट के लिए वेट करना पड़ता है।"
एक दिन रतन ने भी टोक दिया, "बाउजी, आपके इस तरह बेमतलब आते-जाते रहने और नीचे लावारिस चक्कर लगाने से हमारी प्रेस्टिज पर आँच आती है।"

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