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उजबक की तरह मुँह देखते रह गए रेवत बाबू। इस बुढ़ापे में क्या-क्या सबक सीखनी होगी उन्हें? पहले तो यहाँ आते ही उन्हें बताया गया कि घर में लुंगी-गंजी पहनना छोड़कर पाजामा-कुरता पहना करें। ज़िंदगी भर वे घर में लुंगी-गंजी ही पहनते रहे। गर्मी के दिनों में तो वे उघारे बदन पड़ोस के किसी घर में भी जाना हो तो चले जाते थे। अब हरदम पाजामा-कुर्ता पहने रहने से उन्हें ऐसा लगता था जैसे वे अपने घर में नहीं, बल्कि किसी रिश्तेदार के यहाँ पाहुन बनकर बैठे हों। अब कहते हैं उनके घूमने से प्रेस्टिज ख़राब हो जाती है। आख़िर वे क्या करें पूरा दिन?

वहाँ बाड़ी में उन्होंने कई तरह के गाछ लगा रखे थे। केला, अमरूद, आम, कटहल, सहजन, बेर, पपीता, शरीफा, बेल, अनार आदि के। इन सबके फल सहज ही उपलब्ध हो जाया करते थे। कुछ सब्ज़ियाँ भी उगा लेते थे। उन्हें फूलते, फलते और बढ़ते देखना एक सुखद अनुभूति दे जाता था। यहाँ हरियाली को विलासिता का फुदना बनाकर दो-तीन दर्जन गमले रख लिए गए थे, जिनमें बौने और बाँझ पौधे तीन-तीन, चार-चार किलो मिट्टी में खुसे हुए दिखते थे। इन्हें देखकर रेवत बाबू को लगता था जैसे ये पौधे ज़मीन से उखड़कर अपने दुर्भाग्य का विलाप कर रहे हैं, उन मछलियों की तरह जो समुद्र से लाकर बोतल में डाल दी जाती हैं।

अपने घर में वे अक्सर ऐसी ही चीज़ें रखते आए थे जो किसी न किसी काम आए। यहाँ वे देख रहे थे कि सिर्फ़ शोभा, दिखावा और शान बढ़ाने के लिए अजीब-अजीब शक्ल-सूरत की महँगी-महँगी वस्तुएँ कहीं फ़र्श पर, कहीं दीवार पर, कहीं दराज़ पर टिका दी गईं हैं जिनका कोई मानी-मकसद उन्हें आजतक समझ में नहीं आया। कहते थे ये पेंटिंग्स हैं, ये स्कल्पचर हैं, ये एंटीक पीस हैं, ये झाड़-फानूस हैं, ये कालीन हैं। रतन का तीन साल का बेटा और जतन की ढ़ाई साल की बेटी किसी नर्सरी स्कूल में भेजी जाने लगी थीं।

सुबह बच्चे जाना नहीं चाहते, रोते, कलपते और कई तरह के नखरे करते। रेवत बाबू का मन दया से भर जाता, भला यह भी कोई उम्र है पढ़ने की! ये बच्चे ही घर में होते थे जिनके साथ उनका मन लगा रहता था, वरना दस बजते-बजते घर से बेटे-बहुएँ सभी निकल जातीं। उन्हें यह अजीब लगता कि इस तरह पैसा कमाने का क्या मतलब है कि कोई एक गृहस्थी सँभालनेवाला तक न रह जाए? इस काम के लिए एक मेड रख ली गई थी, जो बर्तन-वासन और झाडू-पोंछा करते हुए उनके लिए खाना भी बना दिया करती। एक-डेढ़ बजे बच्चे घर आ जाते तो रेवत बाबू उन्हें खिला-पिलाकर होम वर्क कराने में भिड़ जाते।

जतन ने एक दिन यह काम करने से भी उन्हें मना कर दिया, "बाउजी! आप क्यों बेकार इनके साथ मगज़मारी करते हैं? इन्हें हिंदी में नहीं पढ़ना है, ये अंग्रेज़ी माध्यम के बच्चे हैं। शाम में एक टयूटर आ जाया करेगा। हम चाहते हैं कि अंग्रेज़ी इनकी घुट्टी में शामिल हो जाए। ये बच्चे हँसे, गायें, रोएँ, सोचें, लिखें, पढ़ें, बोलें, खेलें सब अंग्रेज़ी में। कल जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनके आजू-बाजू का पूरा वायुमंडल इतना ग्लोबलाइज़ हो चुका होगा कि अंग्रेज़ी न जाननेवाले को झाडू मारने की नौकरी भी नहीं मिल सकेगी। अंग्रेज़ी हमारा बेस नहीं रही, जिसके चलते हम बहुत सफरर रहे। हमारे बच्चों के साथ ऐसा न हो, इसलिए हम चाहते हैं कि घर में सारी बातचीत अंग्रेज़ी में ही हो। इसमें हमें आपका सहयोग चाहिए।"
रिले रेस की तरह वक्तव्य का अगला हिस्सा रतन ने सँभाल लिया था, "होमवर्क करानेवाला जो टयूटर आएगा, वह कुछ समय रुककर आपको इंग्लिश स्पीकिंग का अभ्यास कर दिया करेगा। आप इसका अन्यथा न लें बाउजी। अंग्रेज़ी नहीं बोलनेवालों की इस संभ्रांत और शिक्षित समाज में क्या कद्र है, आप देख ही रहे हैं।"

उनके मन में आया - तो क्या आज तक उनका पूरा खानदान या फिर देश की 90 प्रतिशत आबादी अंग्रेज़ी के बिना ज़ाहिल ही बनकर रहती आई? उनकी कोई कद्र नहीं रही? क्या विडंबना है कि इस बूढ़े सुग्गे को अब अंग्रेज़ी सीखनी होगी! फ्लैट में आए एक माह होनेवाला था। रेवत बाबू को रामवती और सामली की याद अक्सर आ जाती। ख़ासकर जब सुबह ही सुबह डेयरीवाले दूध देने आ जाते। डेयरी का दूध उनसे एक दिन भी पिया न गया। जिंद़गी भर उन्होंने अपने सामने दुहे हुए ताज़ा दूध का सेवन किया। पिछले दिनों अख़बारों में उन्होंने पढ़ा था कि यूरिया और डिटरजेंट से दूध बनाकर लोग पैकेट में भर देते हैं। जतन ने उन्हें समझाने की कोशिश की थी, "बाउजी, डेयरी का दूध ज़्यादा फायदेमंद है। इसे पास्चराइज़ करके बैक्टीरिया फ्री कर दिया जाता है और इसमें सारे पोषक तत्वों की संतुलित मात्रा नियंत्रित रखी जाती है। आप यह दूध पिया कीजिए। बुरे और शातिर लोग गड़बड़ी फैलाते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ दूषित और ज़हरीला बन गया।"

सरेंडर कर जाने की अब उनकी आदत बनती जा रही थी। उनकी पसंद-नापसंद की अब यहाँ कोई कीमत नहीं थी। जिस चीज़ से उन्हें सख़्त चिढ़ थी, उसकी भी अब कोई रत्ती भर परवाह नहीं की जा रही थी। घर में एक अल्शेसियन कुत्ता ले आया गया। उन्होंने कई दिनों तक मौन रहकर अपनी नाराज़गी प्रकट की, मगर कोई फ़ायदा नहीं।
कुत्ता पूरे घर में घूमने और हर चीज़ सूँघने के लिए आज़ाद था। वह एक ऐसा केंद्र बन गया जो घर के सभी सदस्यों का ध्यान आकर्षित करने लगा। उसका नाम रखा गया फंडू। कोई उसे पुचकार रहा है, कोई उसे सहला रहा है, कोई उसे खिलाना चाह रहा है। उसके लिए रोज़ाना दूध और बकरे के गोश्त मँगाने का एक विशेष इंतज़ाम किया गया। उसे शैंपू से नहलाया जाता और सुबह-शाम मैदान ले जाकर घुमाया जाता। एक कुत्ते को इतना सर चढ़ाना, उस पर इतना खर्च करना, रेवत बाबू के लिए अत्यंत तकलीफ़देह था। उसका अकस्मात आकर पैर चाटने लगना, गोद में चढ़कर नाक-मुँह सूँघने लगना, बिस्तर पर चढ़कर आसन जमा देना, उन पर एकदम नागवार गुज़र जाता। वे उसे डाँटकर दुरदुरा देते, कुत्ता गुर्रा उठता। घरवाले, ख़ासकर उनकी बहुएँ और पोता-पोती दुरदुराने और गुर्राने के दृश्य का विशेष आनंद उठाने लगे, यों जैसे वे कोई विदूषक हों।

रेवत बाबू ने यहाँ आदत बना ली थी सुबह ही सुबह मार्निंग वॉक करने की। वे जानते थे कि आराम उम्र को घुन की तरह खोखला कर देता है। यहाँ मार्निंग वॉक के सिवा दूसरा कोई उपाय न था। घरवाले बेटे-बहुओं को देर तक सोने की आदत थी। फंडू के आ जाने से उनमें से किसी एक को उठना पड़ता था। शुरू-शुरू में तो जोश में उठे, फिर वे अलसाने लगे। फंडू धुँध छँटते ही बाहर जाने को मचलने लगता और दरवाज़े पर जाकर पंजे मारने लगता।
रतन ने एक दिन कह दिया, "बाउजी, आप तो रोज़ टहलने जाते ही हैं, कल से ज़रा फंडू को भी लेते जाइए।"
मिज़ाज़ बुरी तरह कु़ढ़ गया रेवत बाबू का, लेकिन वे कर भी क्या सकते थे? कुत्तों के प्रति लाख घृणा और गुस्से के बावजूद उन्हें रतन की बात माननी पड़ी। वे रोज़ देखते थे कि नीचे कई लोग कुत्तों को लेकर घिसटते हुए पार्क की तरफ़ बढ़े जा रहे हैं। ऐसे लोगों पर उन्हें कोफ्त होती थी। अब वे खुद भी उसी श्रेणी में शामिल होने जा रहे थे। एक कुत्तावाला तो उन्हें रोज़ पार्क में मिल जाया करता था जिसे देखते ही उनका पारा चढ़ जाता। उसका कुत्ता उनके बगल से गुज़रते ही पता नहीं क्यों ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लग जाता। सैकड़ों लोग होते पार्क में, मगर सिर्फ़ उन्हें ही देखकर उसके भौंकने का स्विच ऑन हो जाता। उसका मालिक कुत्ते को डाँटकर चुप कराने का स्वांग करने लगता, लेकिन उसके होठों पर एक दबी-दबी मुस्कान भी उभर आती।
रेवत बाबू देख रहे थे कि अब इस दृश्य का मज़ा लेनेवालों में कई और लोग शामिल हो गए हैं। वे उसे सुनाते हुए बड़बड़ा उठते, "पता नहीं लोग कुत्ते क्यों पालते हैं? और अगर पालते भी हैं तो ऐसे पागल कुत्ते रखकर दूसरों को तंग करने में क्या मज़ा मिलता है?"

जब रेवत बाबू पहला दिन फंडू को लेकर पार्क पहुँचे तो जैसे वे एक तमाशा बन गए। सभी लोग घूर-घूर कर देखने लगे कि कुत्तों से चिढ़नेवाला आदमी आज खुद भी कुत्ता लेकर आ गया। भौंकनेवाले कुत्ते के मालिक की आँखें तो ताज्जुब से फटी की फटी रह गईं। रोज़ की तरह उसका कुत्ता फिर भौंकने लगा, मगर आज उसे चुप कराने की उसने कोई चेष्टा नहीं की। रेवत चाह रहे थे कि जवाब में फंडू भी उससे ज़्यादा तेज़ भौंके, मगर वह अपनी पूँछ सटकाकर उनके पैरों के पास दुबक गया। सबका खूब मनोरंजन हुआ वह दृश्य देखकर। सबने यही समझा कि जवाब देने के लिए ख़ास तौर पर लाया गया कुत्ता नकारा साबित हो गया। उनका तो मन हो रहा था कि साले फंडू के बच्चे को वहीं कहीं चारदीवारी के बाहर हांक दें। मन मसोसकर घर लौटे। घर में किसी से इसका ज़िक्र भी नहीं कर सकते थे। नाहक एक और प्रहसन का सृजन हो जाता।

एक रोज़ रात को उनके लिए जगरनाथ का फ़ोन आ गया। वे खुश हो उठे, "हाँ बोलो, जगरनाथ।"
"भैया, आज शाम को मैं आपके यहाँ गया था लेकिन गेट के दरबान ने मुझे अंदर जाने नहीं दिया।"
वे समझ गए कि इंटरकॉम पर गेट के सिक्युरिटी ने घरवालों से पूछा होगा तो इधर से कह दिया गया होगा कि बाउजी घर में नहीं हैं, मत भेजो। कैसी दुनिया है यह? जनता नगर में अपने ओसारे पर गाँववाले दालान की तरह उन्होंने चौकी बिछा रखी थी, जिनका मन करे आएँ, बैठें, बतियाएँ, सो जाएँ। यहाँ आनेवाले से पहले फ़ायदा और नुकसान का हिसाब लगाया जाता है, फिर उसे 'भेज दो' या 'लौटा दो' का आदेश निर्गत किया जाता है।
जगरनाथ ने आगे कहा, "आपकी दीदी की चिट्ठी आई है, मैंने दरबान को दे दी है।"

रेवत बाबू ने उसे धन्यवाद देते हुए रामवती और सामली के बारे में पूछ लिया। जगरनाथ ने कहा कि दोनों ठीक हैं।
वे झट जाकर दरबान से चिट्ठी ले आए। दीदी ने लिखा था, 'मैं आ रही हूँ, एक महीना तुम्हारे पास रहूँगी।' रेवत खुश हो गए। उन्होंने अगले ही दिन फ्लैट का पता लिखकर जवाब भेज दिया और कहा कि वह जब मर्ज़ी आ जाए। वे और दीदी सहोदर भाई बहन थे। दीदी उनसे सात साल बड़ी थी और बचपन में ही माँ के निधन हो जाने पर घर उसने ही सँभाला था। अपने इकलौते भाई पर वह हमेशा जान छिड़कती रही थी। जनता नगर के घर में वह हर आड़े वक्त में आती रही। रतन और जतन के जन्म के समय आरती के प्रसव को दीदी ने ही आकर सँभाला था। गाँव में कुछ भी नयी फसल कटती, दीदी उसकी सौग़ात किसी के ज़रिए ज़रूर पठा देती या फिर खुद ही लेकर आ जाती। फ्लैट की इस अजनबी दुनिया में दीदी एक महीने साथ रहेगी, यह समाचार उनके एकाकी मन को बहुत सुकून दे गया।
वे दीदी के आने की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे।
एक शाम जब वे पार्क में यों ही एक-दो घंटे बिताकर घर लौटे तो जतन ने बताया, "गाँव से फुआ आई हुई है जिसे मैंने पास ही के एक अच्छे होटल कंचन में ठहरा दिया है।"
एक पल के लिए तो जैसे काठ हो गए रेवत बाबू। उन्होंने आँखे तरेरकर पूछा, "होटल में ठहरा दिया, मगर क्यों? वह मेरे साथ रहने आई है।"

बड़े शांत और संयत होकर कहा जतन ने, "बाउजी, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। आप देख ही रहे हैं कि फ्लैट में जगह बहुत सीमित है। अमेरिका से कल भैया का साला आनेवाला है, वह एक अप्रवासी भारतीय है और इंडिया में पहली बार आ रहा है निवेश की संभावना तलाश करने। भैया जिस कारखाने में इंजीनियर हैं, उसमें अगर निवेश का समझौता हो गया तो भैया के स्र्तबे में चार चाँद लग जाएगा। इसलिए हमें पहले उसका ख़याल रखना ज़रूरी है।"
रेवत बाबू का दुख किसी गुब्बारे की तरह फट पड़ा, "इस घर में कुत्ता रह सकता है लेकिन मेरी बहन नहीं रह सकती। अरे जगह की कमी थी तो कहा होता मुझे, मैं बालकनी में या कहीं भी फ़र्श पर सो जाता।"
"फुआ का जो हुलिया है, उसे अगर हम घर में एडजस्ट कर भी देते तो उसका प्रभाव अच्छा नहीं होता, बाउजी।"
"ठीक कहा तुमने, अमेरिका से खुदा बनकर जो डॉलर का निवेश करने आ रहा है उसका इम्प्रेशन, गाँव की एक अनपढ़-गऱीब औरत को तुम्हारे फुआ के रूप में देखकर, अच्छा कैसे रह पाता! देख लो, कहीं बाप के रूप में मुझे देखकर भी उनके निवेश का मुड तो ख़राब नहीं हो जाएगा?"
शुरू-शुरू में जब रेवत फ्लैट में आए थे तो अक्सर उनका ध्यान ऊपर से नीचे गिरने पर चला जाता था। आज उन्हें लगा कि वे सचमुच अठतल्ले से ढकेल दिए गए।

वे भागते हुए होटल पहुँचे, मगर वहाँ दीदी नदारद थी। पता चला आधे घंटे में ही वह होटल छोड़कर चली गई। काटो तो खून नहीं, कहाँ गई होगी दीदी? उनके सिवा और कोई भी तो नहीं है परिचित। जाड़े की रात में फुटपाथ पर भी नहीं सोया जा सकता। आज वापसी के लिए भी कोई साधन नहीं। अचानक उनके माथे में जगरनाथ का नाम कौंध गया। एक ऑटो लिया और वे पहुँच गए जगरनाथ के घर। वहाँ उन्होंने देखा कि एक छोटे से अलाव के सामने दीदी को बिठाकर जगरनाथ और उसकी घरवाली मनुहारपूर्वक खाना खिला रहे हैं। हृदय भर आया रेवत बाबू का। एक गाँव के होने के अलावा उनका कोई नहीं लगता जगरनाथ, फिर भी उनकी दीदी को कितना मान दे रहा है। दीदी ने उन्हें देखते ही खाना छोड़कर अपनी बाहें फैला दी और उन्हें गले से लगा लिया, "मुझे तो लगा था कि अब अपने भाई रेवत से मेरी मुलाक़ात नहीं हो सकेगी। नये धान का चूड़ा, फरही और गन्ने का नया गुड़ लेकर आई हूँ। सोचा था इन्हें जगरनाथ के पास छोड़कर कल वापस चली जाऊँगी।"

रेवत फूट-फूटकर रो पड़े, "मुझे माफ़ कर देना दीदी, तुम्हारे साथ जो सलूक हुआ, उसका गुनहगार हूँ मैं।"
दोनों भाई-बहन बैठकर सुख-दुख बतियाने लगे। कुछ ही देर बाद उन्हें रामवती और सामली का ख़याल आ गया। उन्होंने एक थाली में दीदी का लाया चूड़ा और गुड़ निकाला, दो-तीन फांक चूड़ा खुद खाया और बाकी लेकर बाजू में ही स्थित गोहाल चले गए। रामवती एक खूँटे में बँधी थी और पास ही में सामली भी। उन्हें लगा कि एक डेढ़-महीने में दोनों कुछ ज़्यादा ही बूढ़ी हो गईं। उन्होंने पुकारा, "रामवती, सामली।" सामली 'में-में' करके कान हिलाने लगी और रामवती टुकुर-टुकुर उनका मुँह देखने लगी। उन्हें महसूस हुआ जैसे इन आँखों में ढेरो गिले-शिकवे भर गए हैं। उन्होंने तीन-चार मुट्ठी चूड़ा सामली के आगे और थाली रामवती के मुँह के पास रख दी। दोनों खाने से बेपरवाह उनके मुँह ही देखती रहीं। रेवत ने रामवती की लंबी मुखाकृति को अपनी गर्दन से लगा लिया और एक बार फिर बिलख पड़े, "रामवती, मैंने तुम दोनों को बेघर कर देने का गुनाह किया, देखो, आज मैं भी अठतल्ले से नीचे गिर गया।"

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१६ सितंबर २००५

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