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खिल्लन मियाँ बाहर वाले कमरे में छोटा-मोटा राशन का सामान, बच्चों की कॉपी-पेंसिल, सिगरेट-बीड़ी, गोली-मिठाई, खैनी-तंबाकू की लड़ियाँ आदि लेकर बैठते हैं सुबह को और साँझ के सात बजते-बजते दुकान को समेट कर घर में रख देते हैं। बाल-बच्चे खुदा ने दिए ज़रूर किंतु खुदा को ही प्यारे हो गए सारे। दो लड़कियाँ हैजे की भेंट चढ़ गई। एक लड़का था, चेचक की राह चला गया। रह गए बूढ़ा बूढ़ी दोनों। लेकिन सरहद पार खिल्लन मियाँ का पूरा कुनबा आबाद है। तीनों भाइयों के लड़के और नाती-पोते-पडपोते, सब खुदा के फज़ल से खा-कमा रहे हैं। इस्लामाबाद में सब्ज़ी मंडी के पास वाली गली में उनकी कपड़े की दुकान है।

दोनों मुल्कों के बीच बसें चलने की ख़बर सुनकर खिल्लन मियाँ के दिल में भाई-बंधुओं से मिलने के दबे हुए अरमान फिर से मुँह उठाने लगे थे। तीनों बड़े भाई अल्लाह को प्यारे हुए और वो आँसू बहा कर रह गए। बीच वाली भाभी टी।बी।से गुज़र गई तब भी वो मन मसोस कर रह गए। धीरे-धीरे दिल ने उम्मीद छोड़ दी और मरते दम तक मिलने की कोई सूरत ना होगी, सोचकर सब्र कर लिया। पर खुदा ख़ैर करे। दोनों ओर के बाशिंदों की पुकार आख़िरकार खुदा ने सुन ही ली। दोनों मुल्कों के हुक्मरानों ने इस बात पर एकराय कर ली है कि बहुत हो चुका, अब मिलने दो बिछुडों को। अल्लाह उन पर करम करे।

जब से माहौल में ये सुगबुगाहट होने लगी है तब से खिल्लन मियाँ की दिनचर्या में एक और काम शामिल हो गया था। वो यह कि रोज़ सुबह बिला नागा उठकर रफ़ीक की दुकान पर जाना और उससे अख़बार में छपी ख़बरें पूछना। ''क्या चल रहा है रफ़ीके? कब चलेंगी बसें? हमारे हुक्मरान क्या कह रहे हैं? उनका सदर क्या कहता है?'' आदि-आदि। रफ़ीक बड़ी मान-मन्नौवल के बाद खिल्लन मियाँ को हेडलाईनें पढ़कर सुनाता था और मियाँ बड़े चाव के साथ बेंत पर चेहरा टिका कर ध्यान से सुनते थे। ज़ब कभी रफ़ीक बताता ''चचा दहशतगर्दों ने बसें चलाने पर कहर बरपा देने की धमकियाँ दी हैं'' या ''बसों को बम से उड़ाने की पिलानिंग है'' तो सुनकर खिल्लन मियाँ का चेहरा एकदम बुझ जाता था। बूढ़ी आँखों की उदासी तब देखते ही बनती थी। चेहरा एकाएक ज़र्द पड़ जाता था। तब वो ज़्यादा देर रफ़ीक के पास नहीं बैठ पाते थे और निराश कदमों से घर की ओर चल देते थे। उस दिन वो बडे उदास-उदास और अनमने-से रहते। किसी भी काम में उनका दिल नहीं लगता और रह-रह कर अपने आप में ही बडबडाते रहते, '' ख़ुदा गा़रत करे इन नामुरादों को। क्यों भाई को भाई से नहीं मिलने देते? सत्तावन बरस के बाद अब जाकर यह दिन आया है। तो क्यों यह सब हो रहा है? न जाने खुदा को क्या मंज़ूर है? या खुदा ऱाह दिखा।''

ख़िल्लन मियाँ को आज भी याद है कि अड़तालिस के बँटवारे के वक्त वे तेईस बरस के थे, मेहरू अठ्ठारह की और बड़ी लड़की निगार तीन बरस की। चारों ओर हा-हाकार मची थी। खून की एक लकीर ने दिलों को दो मुल्कों में तकसीम कर दिया था। वतन का नाम आदमी की पहचान हो गया था और मज़हब का इल्म जान की अमान। बँटवारे की आग में दोनों मुल्क धू-धू कर जल रहे थे। आधी रात को एक दूसरे के काम आने वाले बरसों पुराने पड़ोसी, एक दूसरे के खून के प्यासे दिखाई पड़ते थे। लोग माल-असबाब छोड़कर जान बचाते फिर रहे थे। लूट-खसोट के मंज़र आम हो चले थे। बहू-बेटियों की इज़्ज़त सरेराह लूटी जा रही थी। अच्छे भले लोग मुज़ाहिर कहे जाने लगे थे। चारों भाइयों में खिल्लन सबसे छोटा था और उन दिनों लाहौर में अपने मामू के घर में रहता था। ठेके के काम में वो उनका हाथ बँटाता था। मामू का ज़्यादातर काम अमृतसर में था। सो लाहौर-अमृतसर के बीच उसके चक्कर लगे रहते थे। बलवे के वक्त मामू अपने और उसके परिवार को लेकर बामुश्किल अमृतसर पहुँच पाए थे। भाई-भाभी और बच्चे सब पीछे छूट गए थे।

लोग धीरे-धीरे दूरियों के दर्द को अल्लाह की मर्ज़ी और अपना मुकद्दर समझकर सब्र करने लगे थे। तड़प जब हद से गुज़र जाती है तो भूलने लगती है। यही हुआ खिल्लन के साथ भी। वो भी बिछुड़न को विधाता की मर्ज़ी मानकर रह गया। हाँ, ख़बरें ज़रूर उसको बराबर मिलती रहीं कि अब बड़े भाई-भाभी एक्सीडेंट में मारे गए। बीच वाला भाई साँप काटने से चला गया और उसकी बेवा अकेली पाँच बच्चों की परवरिश कर रही है। तीसरे नंबर वाला एक कपड़े की दुकान पर मुंशीगिरी कर रहा है। धीरे-धीरे ख़बरों का ये सिलसिला भी कम होने लगा और होते-होते बंद-सा हो गया। इधर खिल्लन को कुछ समय तो मामू का सहारा रहा। पर एक दिन किसी ज़रा-सी बात पर कहासुनी हो गई और उनका सहारा भी जाता रहा। तब खिल्लन अमृतसर से निकल कर श्रीनगर चला आया और यहीं का होकर रह गया। पर आज भी कभी जब पुरानी बातें याद आती हैं तो दिल में अपने कुनबे से मिलने की हूक बडे ज़ोरों से उठती है और सीने में उस वक्त एक नश्तर-सा गड़ जाता है। उम्र के इस आख़िरी पड़ाव पर जबकि पाँव कब्र में झूल रहे हैं, खुदा के फज़ल से बिछडों से मिलने की सूरत बनती दिखाई पड़ रही है तो ये दहशतगर्द नामुराद अडंगा लगा रहे हैं। खुदा इनको अक्ल दे।

फिर एक दिन रफ़ीके ने बताया, ''चचा! सरहद पार का एक बड़ा वजीर अजमेर शरीफ़ में ख्वाजा साहब पर चादर चढ़ाने आ रहा है।'' सुनकर मानो खिल्लन मियाँ के तो पंख ही लग गए, ''काश! मैं उनसे जाकर मिल सकता तो ज़रूर ये इल्तिजा करता कि हुज़ूरेवाला बसें चलाने में ये देरी कैसी? क्या दहशतगर्दों की धमकियों से आप डरते हैं? अगर वो बस को बम से उड़ाते हैं तो उड़ाने दीजिए। कुछ जानें जाएँगी, चली जाएँ क़ोई बात नहीं क़म से कम अमन की राह तो खुलेगी।'' मियाँ उत्साह में थे, '' क़ोई नहीं जाता, न जाए। डरते हैं सब, तो घर में बैठें। मैं जाऊँगा पहली बस में।'' मियाँ रौ में थे। रफ़ीक मुँह ताकता रह गया।

जिस दिन पड़ोसी मुल्क का वजीर अजमेर शरीफ पहुँचने वाला था, उस दिन अल्लसुबह ही खिल्लन मियाँ तैयार हो गए। शेरवानी पहन कर बेंत टिकाते हुए चौक वाली मस्जिद में जा पहुँचे। खुदा की चौखट पर घुटने टिकाकर आँखें मूँद ली, हाथ उठा लिए, और मन ही मन बुदबुदाने लगे, ''या खुदा श्रीनगर से मुज़्ज़फराबाद इतनी दूर तो नहीं कि राह काटे ना कटे। हमारी दुआएँ वहाँ पहुँचे, उनकी दुआएँ यहाँ। दिलों के बीच की खाई भर जाए किसी तरह। भाई से भाई मिल जाएँ किसी तरह, बस'' दो कतरे आँखों के कोनों से निकल कर चेहरे की झुर्रियों में खो गए। ''या गऱीबनवाज़ आज तेरे दर पे पड़ौसी मुल्क का नुमाइंदा आएगा। उसके दिल की थाह ले मेरे मलिक, बिछड़ों को मिलाने की सूरत निकाल किसी तरह। तुझे गुज़रे सत्तावन सालों के दर्द का वास्ता'' खिल्लन मियाँ यों हुए जा रहे थे, मानो सीधे खुदा से बात कर रहे हों और जैसे उनकी दुआ श्रीनगर से चलकर सीधे अजमेर में ख्वाजा ग़रीबनवाज़ के पास पहुँच रही हो। कुछ देर यों ही सजदे में बैठे रहने के बाद खिल्लन मियाँ उठे और अपनी बेंत टिकाते हुए घर की ओर चल दिए। 

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