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रास्ते में ही जमाल्लुद्दीन हाजी का घर पड़ता था। वे बाहर ही दिख गए। उन्होंने खिल्लन को पुकार लिया, "कहो मियाँ किधर से आ रही है सवारी?"
"खुदा की चौखट पर माथा रगड़ के आ रहा हूँ मियाँ।" खिल्लन मियाँ के स्वर में अजीब-सी उदासी थी।
"ख़ैरियत तो है?" जमाल्लुद्दीन ने उसके चेहरे की परेशानी को देखते हुए पूछा।
"ख़ैरियत क्या पूछते हो मियाँ? खैऱियत का तो माहौल ही नहीं बन पा रहा है इस मुल्क में। अमन का एक छोटा-सा चराग रोशन होने को है और लोग हैं कि आँधियों को उसका पता देते फिर रहे हैं।"
"क्यों, क्या हुआ?" जमाल्लुद्दीन ने बैठने को मोढा खिल्लन मियाँ की ओर बढ़ाते हुए पूछा।
"क्या बताऊँ मियाँ? जब सियासतदाँ तैयार नहीं थे तब हम उनको कोसते थे कि वो बेवजह सरहद पार हमें हमारे कुनबे वालों से मिलने से रोकते हैं। आज जब वो राज़ी हुए हैं तो अपने ही लोग अमन की मुहिम में रोडे खड़े कर रहे हैं।'' मन की पीड़ा जुबान पर आ ही गई।
"बसों की बात कर रहे हो क्या?" जमाल ने दुखती रग पर हाथ धर दिया।
"और नहीं तो क्या? मैं तो ये मान ही चुका था कि बगैर अपनों की सूरत देखे ही दुनिया से रुख़सत हो जाऊँगा। अब, जबकि इन टिमटिमाती आँखों को उम्मीद की एक झलक नज़र आने लगी है तो ये हाल है। कहते हैं, बस को बम से उड़ा देंगे, कहर बरपा कर देंगे।"
"हाँ, मैंने भी पढ़ा है अख़बार में। कश्मीर की आड़ में कुछ चुनिंदा अहमक मतलबी लोगों के ये नापाक इरादे ही तो हैं जो भाई को भाई से मिलने नहीं देते। कश्मीर के मसले कश्मीर वालों को खुद क्यों नहीं सुलझाने देते ये लोग? क्यों हमारे मुकद्दरों का फ़ैसला करने पर आमादा हैं। पहले ही क्या कुछ कम गुज़र चुका है?" जमाल्लुद्दीन हाजी के मन का हाल भी खिल्लन मियाँ से जुदा ना था। आवाज़ में बँटवारे का दर्द साफ़ सुनाई पड़ रहा था। जमाल्लुद्दीन के भी कुछ रिश्तेदार ''उधर'' थे।
"वही तो। इसके इलावा जमाल भाई हम ये क्यों नहीं समझते कि दोनों मुल्कों का माज़ी साँझा है, आज़ादी की लड़ाई साँझी थी, बुजुर्ग पीढियाँ साँझी थी, भाषा-बोली, रीत-रिवाज, खानपान सबकुछ एक-से हैं। तो मुस्तकबिल कैसे जुदा हो सकते हैं? दोनों क्यों नहीं एक और एक मिलकर ग्यारह बनते? क्या रखा है इस अदावत में? नाहक ही दूसरों के बहकावे में आकर अपनी साँझी रवायत को भुलाए बैठे हैं। क्या मिला है आजतक इस अदावत से। सिवा तीन लडाइयों और आए दिन के धमाकों के।"
"वो तो तुम ठीक कहते हो। पर सियासत वालों की रोटियाँ तो उसी में सिकती हैं ना, जिसमें हम जुदा रहें।"
"ये कैसी सियासत है, जो अपने ही मुल्क की तरक्की को रोक रही है? तुम ही कहो, जितना रुपया दोनों मुल्क गोला-बारूद पर खर्च कर रहे हैं, उसका आधा भी अगर भूख, ग़रीबी, तालीम और रोज़गार पर खर्च करें। तो क्या नहीं हो सकता? नक्शा बदल सकता है दोनों मुल्कों का। लोगों के पास खाने को दाने नहीं हैं और ये हैं कि तोप-तमंचों का अंबार लगाने में लगे हैं। आधी सदी गुज़र गई पर इनको अक्ल नहीं आई।" खिल्लन मियाँ तकरीर-सी करने लगे थे। पर बात पते की कह रहे थे।
"तुम ठीक कहते हो खिल्लन मियाँ। पर मेरे भाई हमारे चाहने से क्या होता है। होगा तो वही जो दिल्ली और इस्लामाबाद वाले चाहेंगे।'' जमाल ने बडे सीधे लफ़्ज़ों में बड़ी गहरी बात कही थी। दोनों के चेहरे पर बेबसी को भाव साफ़ पढ़े जा सकते थे।
"सो तो है।" सुनकर खिल्लन मियाँ उसांस छोडते हुए बस इतना ही कह पाए और ''खुदा हाफ़िज़'' कर के उठ लिए। कदम घर की और थे

सडकों पर चहल-पहल होने लगी थी। रिक्शा, टैंपो, गाडियाँ आने-जाने लगी थी। एक दो फौजी गाडियाँ भी सामने से गुज़र गई थी। खिल्लन ने एक पल रुककर उनको जाते हुए देखा और फिर आगे बढ़ गया। वो ज़्यादा दूर नहीं गया होगा कि उसने देखा, रंगरेजों की गली में से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और मोटरसाईकिल पर सवार दूसरे आदमी के साथ बैठ कर तेज़ी से एक ओर को भाग गया। खिल्लन ने देख कर अनदेखा कर दिया और मुसाफ़िरखाने की और मुड़ गया। अभी शायद वो बीसेक कदम ही चला होगा कि एक ज़ोरों की दिल दहला देने वाली आवाज़ हुई ''भडाम''। सुनकर कानों के पर्दे हिल गए। बरबस ही मुँह से निकल पड़ा, ''या खुदा मदद कर। ज़रूर कहीं पर धमाका हुआ है। फिर कहीं कोई बम फटा है। ज़लील लोग अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आएँगे।'' तभी कुछ बदहवास लोग पास से भागते हुए गुज़रे। एक को रोक कर खिल्लन मियाँ ने पूछा, "क्या हुआ बरखुरदार?"
"चचा, बड़ा तेज़ धमाका हुआ है रंगरेजों वाली गली के नुक्कड पर। कई लोगों की जान गई है। बहुत से जख़्मी हैं।" कह कर वो दौड़ गया। खिल्लन मियाँ सुनकर सन्न रह गए। थोड़ी ही देर में दमकल, एंबुलेंस, फौजी गाड़ियों आदि की आवाज़ें सुनाई देने लगी।

उस रात खिल्लन मियाँ बडे बेचैन रहे। मेहरू ने खाने को पूछा तो ''भूख नहीं है, तू खा ले।'' कहकर चुपचाप खाट पर पड़ गए और टकटकी लगाकर छत को ताकने लगे। बोझिल आँखों में टूटे सपनों की कतरनें तैर रही थी और पुतलियाँ स्थिर होकर खुदा से ख़ैरियत की भीख़ माँगती जान पडती थी। आज उनका जी बड़ा उचाट था। ठीक वैसा ही जैसा आज से सत्तावन बरस पहले हुआ था। पहली बार उनको लग रहा था कि अल्लाह ने उनकी दुआ कबूल नहीं की। वरना ये धमाके क्यों होते? मेहरू ने भी थोड़ा बहुत खाया और वहीं ज़मीन पर दरी बिछाकर सो गई। दोनों के बीच उस रात किसी किस्म की कोई बातचीत नहीं हुई। मेहरू खूब जानती थी अपने शौहर को। जब कभी वो किसी परेशानी में होते थे, तो किसी से कोई बात नहीं करते थे।

स़ुबह का समय। रफ़ीक दौड़ा जा रहा था। आज वो बडे उत्साह में जान पडता था। उसके हाथ में आज का अख़बार था और उसका रुख खिल्लन मियाँ के घर की तरफ़ ही था। रास्ते में अहमद मिला। उसने पूछा, "कहाँ जा रहा है बे फुदकता हुआ सुबह-सुबह? कोई लाटरी लग गई क्या?" तो वो ज़ोर से पुकार पड़ा, "अहमद भाई! इसी महीने की सात तारीख़ को पहली बस जाएगी सरहद पार। दोनों मुल्कों के हुक्मरानों ने फ़ैसला कर लिया है।" सुनकर अहमद का चेहरा भी खिल उठा था। ''अल्लाह, तेरा लाख-लाख शुक्र है'' अहमद के हाथ और नज़रें एक साथ आसमान की ओर उठ गए। दोनों एक दूसरे से गले मिले और आगे बढ़ गए।

रफ़ीक खुद ये ख़बर आज खिल्लन चचा को जा कर सुनाना चाहता था और इसीलिए अपनी दुकान छोड़ कर भागा चला जा रहा था, अचानक रोने की आवाज़ों ने उसके कदमों को जकड़ लिया। भारी कदमों से वो आगे बढ़ने लगा। आवाज़ें खिल्लन चचा के मकान की तरफ़ से ही आ रही थी। मेहरू चाची की दहाड़ें दूर तक सुनाई दे रही थी। रफ़ीक सन्न रह गया। हाथ का अख़बार छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ा प़न्ने दर्द के मारे फड़फड़ा गए।

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१ जून २००५

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