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 नारायणदत्त 
उठ कर भागना चाहते थे, भाग न सके, उनका शरीर लोहे की तरह भारी हो गया था। वे उठना 
चाहते थे, उठ न सके। उनका दम घुट रहा था, छाती पत्थर से दबी लग रही थी, गले में 
गोला फँसा हुआ था। वे अपने सिर के बाल नोचना चाहते थे मगर उनका हाथ सीसे की तरह 
लद्दड़ हो गए थे, उठे नहीं। गर्दन सर का बोझ न सम्हाल सकी, घुटने से जा लगी, रीढ़ 
टूटी कमान की तरह झुक गई। उनके मुँह से लार और आँखों से आँसू बहने लगे। 
"बड़ी भागवान थी", "भगवान सबको ऐसी मौत दे", "कहाँ होते हैं किसी के ऐसे भाग्य", 
"पति के कंधों पर जाएगी", "पति मुखाग्नि देगा", "सीधे स्वर्ग जाएगी, सुहागन मरी 
है।" इससे ज़्यादा एक औरत को क्या चाहिए, भरी मांग जा रही है।" नारायणदत्त की 
घरवाली गुज़र गई सुन कर लोगों ने ऐसा कहा। लोग नारायणदत्त के घर की ओर चल पड़े। 
पुस्र्ष बाहर इकठ्ठे होने लगे जहाँ नारायणदत्त सिर झुकाए बैठे थे। स्त्रियाँ अंदर 
चली जाने लगीं जहाँ गायत्री का शरीर पड़ा था। सुहागनों के मन में उसके प्रति 
ईर्ष्या थी।  
उसके शरीर को नहला कर आँगन में रख 
दिया गया। शरीर पर लाल साड़ी लपेटी गई, होंठ रंगे गए, हाथ-हाथ भर चूड़ियाँ कलाई में 
चढ़ा दी गईं, पैरों में महावर रचा दी गई। मांग भरने के लिए सुहागनें आगे आने लगीं, 
वे झुककर चुटकी भर सिंदूर उसकी मांग में डालतीं, उसके पैर छूतीं और हाथ जोड़कर 
ईश्वर से प्रार्थना करतीं, "हे भगवान! मुझे भी पति से पहले उठा लेना, सुहागन मरूँ।" 
वे पल्लू से अपनी आँखें पोंछतीं जातीं, कोई-कोई ज़ोर से रो रही थी, कोई मुँह पर 
आँचल रक्खे सूनी आँखों से एकटक देख रही थी। इसी समय किसी सयानी ने देखा, "अरे! इसकी 
नाक छूछी है।" उस स्त्री ने नारायणदत्त के पास जाकर कहा, सुहागन की नाक सूनी नहीं 
रहनी चाहिए, उसे कील पहना दें। नारायणदत्त यंत्रचालित से अलमारी के पास गए, 
यज्ञोपवीत से बँधी चाभी से उन्होंने अलमारी का ताला खोला, उसमें रक्खे गहनों का 
डिब्बा निकाला, ढेरों गहने थे, एक छोटी-सी लौंग निकाली और लाकर गायत्री की नाक में 
डाल दी। उनके हाथ काँप रहे थे। "इसे उतार दो" उन्हें सुनाई पड़ा। कहाँ से आई यह 
आवाज़? क्या गायत्री बोली? क्या उसकी आत्मा ने कहा यह? कहते हैं शरीर छोड़ने के बाद 
भी आत्मा काफ़ी समय तक वहीं आसपास मंडराती रहती है, अरे! यह तो उन्हीं की आवाज़ है, 
पर वे तो बोले नहीं। कहाँ से आई यह आवाज़? उनके माथे पर पसीना चुहचुहा आया। 
"देखो! नाक में कील पड़ते ही 
चेहरा कैसा चमक उठा। लगता है सो रही है, अभी उठ कर बैठ जाएगी।" किसी स्त्री ने कहा। 
नारायण दत्त को लगा वह ज़िंदी है और मुस्कुरा रही है। वे वहाँ से हट कर फिर सिर पर 
हाथ रखकर बाहर जा बैठे। 
बाहर अर्थी सजाई जा रही थी। आसपड़ोस के लोग मिलकर तैयारी कर रहे थे। लोगों को लगा 
नारायणदत्त पत्नी की मृत्यु से सकते में आ गए हैं अत: उनसे किसी ने कुछ करने को न 
कहा। वैसे भी कुछ लोग इस तरह के कामों में कुशल होते हैं, उन्हें अवसर की तलाश रहती 
है, मौका मिलते ही कुछ लोग आज्ञा देने की भूमिका हथिया लेते हैं, आदेश देना प्रारंभ 
कर देते हैं, कुछ और लोग तत्काल उनकी आज्ञा का तत्परता से पालन करने लगते हैं। सोच 
विचार की ज़िम्मेदारी औरों पर छोड़ कर आदेश मानने का अपना सुख है। आनन फानन में हरा 
बांस आ गया, टिटकी बन गई, उस पर विमान सजाया जाने लगा। फूल-पत्ती, झंडी-पताका माला 
सजने लगी। आख़िरकार सुहागन की अर्थी थी। पुरुषों के हाथ तेज़ी से चल रहे थे। मरने 
के बाद मिट्टी जतनी जल्दी ठिकाने लगा दी जाए अच्छा है। बाकी की सामग्री भी आ गई और 
देखते-देखते अर्थी उठाने का समय आ गया। लोगों ने नारायणदत्त को बुलाया क्यों कि यह 
विधान तो उन्हें ही निबाहना था। वे मूर्तिवत उठ आए। उन्होंने अर्थी को कंधा लगाया। 
तीन और लोगों ने आगे बढ़ कर बाकी के हिस्से कंधों पर थाम लिए, तभी किसी ने ज़ोर से 
कहा 'ओम नाम' समूह ने पूरा किया 'सत्य है' खील बताशे और पैसे लुटाते अर्थी चल पड़ी। 
पाँच कदम चलने के बाद एक और आदमी ने नारायणदत्त से अर्थी अपने कंधे पर ले ली। 
नारायण दत्त अर्थी के साथ-साथ चलते रहे। 
दूर नहीं जाना था, पास में था 
श्मशान। वे अर्थी के साथ वहाँ पहुँचे। साथ आए आर्य समाज के पंडित ने जो-जो बताया 
नारायण दत्त ने वैसा ही कर दिया। कंधे पर घट लेकर अर्थी की परिक्रमा की, घट फोड़ा 
और मुखाग्नि दी। चिता धूं-धूं कर जल उठी। पंडित ने कपाल-क्रिया करने को कहा 
नारायणदत्त ने वह भी कर दी। चिता ठंड़ी होने तक बहुत से लोग जा चुके थे। बचेखुचे 
लोगों के साथ वे घर लौट आए। 
जाने के पहले लोगों ने उन्हें 
दुनिया की रीत समझाई, साथ में जोड़ा, "आप स्वयं विद्वान हैं, जाने वाली चली गई, 
सबको एक दिन जाना है।" नारायणदत्त कुछ न बोले, बुत बने बैठे रहे। कुछ लोगों को उनकी 
चिंता हुई, आपस में कहने लगे, "पत्नी जाने का बड़ा गहरा सदमा लगा है, कहीं दिमाग़ 
पर असर न हो जाए। एक बूँद आँसू नहीं गिरा। रो लेते तो दिल का बोझ हल्का हो जाता, 
अंदर की घुटन निकल जाती, गुमसुम रहना नुकसान कर सकता है। औरतें अपना दु:ख रोकर 
हल्का कर लेतीं हैं, पुरुष भीतर-भीतर घुलता रहता है दु:ख पीकर।" किसी और ने कहा, 
"विद्वान पुरुष ठहरे, दुनिया जहाँ को उपदेश देते हैं, वेद-पुराण-गीता सिखाते हैं, 
समझदार हैं एकाध दिन में स्वयं सँभल जाएँगे।" अंतिम आदमी भी उन्हें ढाड़स बँधा, 
अपना कर्तव्य निभाने की रीत पूरी कर चला गया। उनकी आँखें सूनी रहीं, सूखी रहीं।  
वे घर में निपट अकेले रह गए तभी 
वह कमरे से लगे जीने से नीचे उतर कर उनकी ओर आने लगी, मुस्कुराती हुई। 
करीब पाँच साल पूर्व नारायणदत्त गायत्री को ब्याह कर लाए थे इस घर में, उसके बाद 
उसकी अर्थी निकली इस घर से। विवाह के समय वह चौदह वर्ष की सुकुमार बलिका थी और 
नारायणदत्त पैंतीस वर्ष के सुदृढ एवं सुदर्शन पुरुष। कसरती शरीर था, गुरुकुल से पढ़ 
कर निकले थे। ज्ञान से तपे हुए उद्भट विद्वान। अपनी विद्वत्ता के समक्ष किसी को न 
मानने वाले। माता-पिता बचपन में गुज़र गए थे। बाल ब्रह्मचारी चाचा पंडित देवीदत्त 
ने पाल-पोस कर बड़ा किया था। चाचा की कही बातें भतीजे के लिए ब्रह्मवाक्य थीं। बड़ा 
कठोर स्वभाव था चाचा का, जिसे भतीजे ने घोंट कर पी लिया था। क्रोधी के साथ-साथ चाचा 
एक नंबर के कंजूस भी थे, नारायणदत्त पाई-पाई दाँत से पकड़ते। खाना बनाते समय आलू 
दाल के संग उबालते, इंधन बचता, आलू का छिलका उतारने पर गूदा संग में जाने का नुकसान 
नहीं होता। दोनों खूब सफ़ाई पसंद थे, सप्ताह में एक दिन पूरा घर फिनाइल से धोते। 
पंडित देवीदत्त की सारी आशाएँ 
भतीजे पर केंद्रित थीं। वे स्वयं विद्वान थे, उन्हें पूरा विश्वास था कि नारायणदत्त 
कुल का नाम रौशन करेंगे। नारायणदत्त बाहर से लौट कर अपनी समस्त दान-दक्षिणा चाचा के 
चरणों में समर्पित कर देते तो पंडित देवीदत्त गद्गद हो आशीषों की झड़ी लगा देते। 
उन्हें संतोष था उनकी तपस्या अकारथ नहीं गई थी। नारायणदत्त की ख्याति दूर-दूर तक 
थी, जब वे प्रवचन देते श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते। शास्त्रार्थ में उन्हें कोई 
पराजित नहीं कर सकता था। वे दहाड़ते हुए मूर्ति पूजा का ऐसा तर्कपूर्ण खंडन करते कि 
कट्टर से कट्टर सनातनी भी उनका कायल हो जाता। उनके प्रवचन सनातन धर्म पर करारी चोट 
और चुटकियों के लिए प्रसिद्ध थे। वे कर्मकांड की जम कर धज्जियाँ उड़ाते इसके लिए वे 
साम-दाम-दंड-भेद किसी भी नीति का सहारा लेने से न हिचकते। 
                    ऐसी ही एक 
                    शास्त्रार्थ सभा में विजयी होने पर एक सज्जन ने मुग्ध होकर 
                    उन्हें विजयमाल पहनाई और उनके माता-पिता के संबंध में जिज्ञासा 
                    प्रकट की। जब ज्ञात हुआ कि नारायणदत्त के समस्त कर्ता-धर्ता 
                    उनके चाचा हैं तो वे सज्जन चाचा को घेरने जा पहुँचे। उन्होंने 
                    अपनी गुणी सुशील कन्या की बाबत बताया। कहा बच्ची बिन माँ की 
                    है, उन्होंने उसे पान-फूल की तरह सहेज कर रक्खा है, बड़े 
                    लाड़-प्यार से पली है वे अब उसे किसी सुपात्र को सौंप कर 
                    निश्चिंत हो जाना चाहते हैं, नारायणदत्त से अच्छा पात्र उन्हें 
                    कहाँ मिलेगा अत: वे शीघ्रातिशीघ्र उसके हाथ पीले करना चाहते 
                    हैं। अंधा क्या चाहे दो आँखें पंडित देवीदत्त को बात जँच गई। 
                    वे सज्जन आर्य समाजी थे साथ ही ब्राह्मण भी। पंडित देवीदत्त 
                    कट्टर आर्य समाजी थे। आर्य समाज में जातिप्रथा तथा छूआछूत नहीं 
                    है, फिर भी शादी-विवाह के मामलों इन बातों का ध्यान रखना पड़ता 
                    है। बहू घर आएगी तो भोजन बनाने का खटराग नहीं करना पड़ेगा, समय 
                    पर बना बनाया भोजन मिल जाएगा, बहू आकर घर-बार सँभाल लेगी। 
                    सुघड़ गृहणी से घर घर जैसा लगने लगेगा। वे भी अपने दायित्व से 
                    मुक्त हो जाएँगे, यही सोच कर उन्होंने तत्काल हामी भर दी। इस 
                    तरह गायत्री के पिता अपनी पुत्री का हाथ नारायणदत्त के हाथ में 
                    सौंप कर अपने कर्तव्य से निच्चु हो गए। रिश्ते-नाते की 
                    स्त्रियों ने कहा, ''सास ननद नहीं है, गायत्री राज करेगी 
                    सुसराल में।'' 
और इस तरह गायत्री ब्याह कर 
नारायणदत्त के घर आ गई। नए घर के कठोर नियम-कायदों से नारायणदत्त ने उसे जल्दी 
परिचित करा दिया। खिड़की का परदा उठाकर या सरका कर नहीं रखना, कुंडी खड़कने पर 
दौड़कर दरवाज़ा खोलने जाने की ज़रूरत नहीं, दरवाज़े पर खड़ी होना अच्छा नहीं। आर्य 
समाजी होने के कारण वे परदे के सख़्त खिलाफ़ थे पर पत्नी किसी पर पुरुष से बात करे 
यह वे सहन नहीं कर सकते थे। वे हिदायत देते, ''आँख नीची करके बात किया करो, भले घर 
की स्त्रियाँ आँख में आँख डाल कर बात नहीं करती, भले घर की स्त्रियाँ ज़ोर से नहीं 
हँसती, भले घर की स्त्रियाँ खिड़की-छज्जे पर खड़ी नहीं होतीं।'' उन्हें कहानी, 
उपन्यास की पुस्तकों से सख्त चिढ़ थी घर में पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, स्वामी 
दयानंद सरस्वती की जीवनी थी। पंडित देवीदत्त भी समझाते, ''गायत्री मंत्र का जाप 
किया करो, इससे चित्त शांत रहता है। गीता, वेद, उपनिषद पढा करो, जहाँ न समझ आए 
मुझसे पूछ लिया करो।'' वे उसे सामने बिठाकर संध्या करवाते, हारमोनियम पर भजन गाना 
सिखाते। इस तरह असूर्यंपश्या गायत्री के लिए विधि कम निषेध ज़्यादा की एक लंबी सूची 
थी।  |