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डरी सहमी गायत्री सिर झुकाकर आदेश पालन में प्राणप्रण से जुटी रहती, मगर चाचा भतीजे को प्रसन्न करना टेढ़ी खीर था। दोनों की दिनचर्या बड़ी नियमित थी, दोनों समय के बड़े पाबंद थे। सुबह उठकर नहाना और फिर हवन करने आसन पर बैठना। इसके पूर्व गायत्री को घर झाड़पोंछ कर हवन की तैयारी करनी होती। आसन लगाना, हवन कुंड धो-माँजकर औंधा कर रखना, आम की सूखी टहनियों को बराबर-बराबर तोड़कर समिधा बनाना, हवन सामग्री, घी, चीनी, जल आदि रखना। ज़रा-सी भी चूक होने पर पंडित देवीदत्त गरजने लगते, उनकी जिह्वा आग उगलती थी, जब तब खड़ाऊँ उठाकर दौड़ते, मारने की धमकी देते। हालाँकि उन्होंने कभी गायत्री को मारा नहीं पर वह थर-थर काँपती रहती। नारायणदत्त चाचा के सामने चूँ न करते, वैसे उनका पारा भी सदा चढ़ा रहता। मारते वे भी न थे पर बात-बात पर हंटर फटकारते, चमड़ी उधेड़ लेने की धमकी देते। तिस पर गायत्री को रोने की मनाही थी। टसुए बहाना, मुँह लटका कर रखना, इन सबसे घर में अशुभ फैलता है, ये सब चोंचले उन्हें पसंद न थे।

हवन के बाद नाश्ते में दोनों पाँच-पाँच बादाम, थोड़ी किशमिश और एक-एक गिलास गरम दूध पीते। दूध न ज़्यादा गरम हो न ज़्यादा ठंडा। दूध के साथ उन दोनों का तापमान सही रखने के लिए गायत्री को रसोई घर के कई चक्कर लगाने पड़ते। एक बार लाकर दिया गिलास का दूध पी लिया जाए ऐसा कभी नहीं हुआ। रात को सोने के पहले भी ऐसा ही चक्कर चलता। रसोईघर से बरतनों की आवाज़ नहीं आनी चाहिए, झनक-पटक का क्या मतलब। ये भले घर के लक्षण नहीं हैं। नाश्ते के बाद दोनों अध्ययन में जुट जाते, अक्सर समाजी आ जाते तो चर्चा होने लगती। ठीक एक बजे भोजन का नियम था। भोजन की थाली करीने से सजी होनी चाहिए। एक ओर कटा हुआ आधा नींबू का टुकड़ा, कायदे से सजी सूखी सब्ज़ी, घी पड़ी एक कटोरी दाल और दो फुलके चुपड़े हुए। सप्ताह में एक दिन चावल। जाड़े में धनिया टमाटर, गर्मी में पुदीने की चटनी। सादा जीवन उच्च विचार। नारायणदत्त शाम को आर्यसमाज मंदिर जाते। रात को खाना खाकर संध्या, गायत्री का जाप कर सो जाते। उन्हें अक्सर शास्त्रार्थ एवं प्रवचन तथा पुरोहिताई के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता, तब पंडित देवीदत्त की चौकसी और सख़्त हो जाती।

गायत्री के इस घर में आने के बाद शीघ्र ही नारायणदत्त ने उसे आदेश दिया, ''गहने उतार कर रख दो, घर में इन्हें पहने रहने का क्या काम, बेकार घिसकर ख़राब हो जाएँगे।'' जिस दिन उन्होंने यह बात कही संयोग से उसी दिन उन्हें एक सप्ताह के लिए शहर से बाहर जाना था। नारायणदत्त जब एक सप्ताह बाद बहर से लौटे सजी-धजी गायत्री उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसने सिर धोया था, रेशमी साड़ी और गहने पहने थे। घर में घुसते ही उनकी दृष्टि गायत्री पर पड़ी। अभी तक उसने उनके आदेश का पालन नहीं किया, उसकी हिम्मत कैसे हुई उनकी बात टालने की? उनका क्रोध उबल पड़ा। आव देखा न ताव उसकी बाँह मरोड़कर खींचते हुए कमरे तक ले आए। "मैंने कहा था गहने उतार कर रख दो, घिस जाएँगे। पतुरिया की तरह बनाव-शृंगार क्यों कर रखा है।" नारायणदत्त विक्षिप्त की भाँति उसके गहने उतारकर डिब्बे में रखने लगे। स्तंभित बालिका वधू स्वयं उनकी सहायता करने लगी। डिब्बा अलमारी में रख उन्होंने अलमारी में ताला लगा दिया और चाभी अपने यज्ञोपवीत में गठिया ली। "ख़बरदार जो कभी गहनों का नाम लिया।" उन्होंने ताक़ीद की। ऐसे मोकों पर देवीदत्त आँखें मूँद लेते, पति-पत्नी के बीच बोलना उन्हें शोभा नहीं देता था, वैसे भी आज वे भतीजे से पूरी तरह सहमत थे, घर में ज़ेवर लादे रहने का क्या मतलब? बेकार ख़राब हो जाएँगे। गायत्री बहुत देर तक इस आकस्मिक आक्रमण को समझ न पाई, सुन्न रह गई। जब होश आया तो जाकर पति के लिए एक ग्लास पानी ले आई, उन्हें बाहर से आकर पानी पीने की आदत थी।

जिंद़गी अपने ढर्रेपर चल निकली। नारायणदत्त आयु में इतने बड़े थे कि गायत्री से पति-पत्नी के नाते बराबरी का व्यवहार करने की बात उनके मस्तिष्क में न आती। उम्र का इतना अंतर होने और पति होने के कारण गायत्री उन्हें अपना परमेश्वर मानती। उनकी आज्ञा का पालन अपना कर्तव्य। पंडित देवीदत्त श्वसुर थे, पुराने ज़माने के आदमी ठहरे, थोड़े सख़्त स्वभाव के थे तो क्या हुआ। बड़े बुजुर्गों का आदर करना उसे सिखाया गया था। चाचा-भतीजे को गायत्री का कहीं आना-जाना पसंद ना था। "बेकार गल्चौर करके समय क्यों बर्बाद करना। समय गँवाने के लिए नहीं है। उसका सदुपयोग होना चाहिए।" ऐसा उनका मानना था। उसके पिता के पास वे लोग राजी-खुशी का समाचार भेज देते हैं, उसे पत्र लिखने की क्या आवश्यकता है, ऐसा उनका विचार था।

पंडित देवीदत्त गायत्री की पहरेदारी बहुत दिन न कर पाए। दो बरस पहले वे एक सभा में सम्मिलित होने हरिद्वार गए थे वहीं उन्हें हैजा हो गया और वे चल बसे। नारायणदत्त वहीं जाकर उनकी अस्थि गंगा में प्रवाहित हर आए। जब तक पंडित देवीदत्त जिंद़ा थे नारायणदत्त निश्चिंत होकर बाहर जाते। अब जब वे न रहे उन्हें खटका लगा रहता। जब बाहर जाते, चाहें कुछ देर के लिए तो लौटकर खोद-खोद कर पूछते कौन आया था? कहीं गायत्री ने बात करने के लिए पूरा दरवाज़ा तो नहीं खोला? किसी को अंदर तो नहीं आने दिया? बाहर जाने के नाम से उनका जी धुक-धुक करने लगता मगर शहर से बाहर गए बिना चारा न था यही तो उनकी आय का साधन था। उन्होंने एक खेल खेलना शुरू किया। आठ दिन की कह कर जाते, चार दिन में लौट आते, चार दिन का ही काम होता। वे जब-तब औचक गायत्री की जाँच करना चाहते थे। गायत्री को उनके इस खेल की भनक न थी, उसके मन में पति के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास था।

एक दिन नारायणदत्त घर से बाहर गए, उनके बाहर जाने के कुछ देर बाद एक सज्जन दूसरे शहर से उनसे मिलने आए। बुजुर्ग व्यक्ति थे, थके थे, गायत्री के यह कहने पर कि नारायणदत्त थोड़ी देर में लौटेंगे, वे बरामदे पड़ी कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। प्यास लगने पर गायत्री ने उन्हें पानी दिया और जब काफ़ी देर हो गई तो अपनी गाड़ी का समय होने पर उठकर चले गए। जाते समय कहते गए, "आज कदाचित दर्शनों का संयोग नहीं था, फिर कभी आऊँगा।' नारायणदत्त को किसी कारण देर हो गई। जब लौटे कुर्सी के पास खाली गिलास देखकर उनका माथा ठनका। उन्होंने गायत्री से पूछताछ की, गायत्री ने उन्हें पूरी बात बता दी।

क्रोध में नारायणदत्त ने गायत्री को काफ़ी उल्टा-सीधा कहा, ''क्या ज़रूरत थी, पराए मर्द को घर में बिठाने की, क्या मुँह में जीह्वा नहीं थी यदि कह देती कि घर में कोई नहीं है तो किसी का साहस कैसे होता रुके रहने का। कुलीन स्त्रियाँ पति की अनुपस्थिति में पराए पुरुषों को घर में नहीं बिठाती।'' पहली बार गायत्री के मर्म को चोट लगी थी। उसके मन में विरोध ने सिर उठाया था। उसने उनकी ओर जिस दृष्टि से देखा उसमें दृढ़ता थी, मगर वह मुँह से कुछ न बोली। अगर नारायणदत्त उसकी वह दृष्टि देख पाते तो उन्हें ज्ञात होता कि यह वह गायत्री नहीं है जिसे वे अब तक अस्तित्वहीन मान कर व्यवहार करते आए हैं उन्होंने गायत्री की दृष्टि लक्षित न की, वे कपड़े बदलने के लिए मुड़कर कमरे में जा चुके थे। देख भी लेते तो पता नहीं कितना और क्या समझते। हाय रे विद्वान पुरुष का अहंकार! उसे अपने अहं के समक्ष दूसरे का आत्मसम्मान दीखता ही नहीं है। आज गायत्री के स्त्रीत्व को चोट लगी थी, स्त्री के दर्प को पुरुष की शंका की चिंगारी ने सुलगा दिया था। उसकी संयत मर्यादा की कुंडली जाग उठी थी। मगर नारायणदत्त ने अवसर खो दिया था अन्यथा नारी शक्ति का भान उन्हें अवश्य होता।

कुछ दिनों बाद वे शहर से बाहर गए हुए थे। तीसरे दिन जब गायत्री कमरा साफ़ कर रही थी, वह गुनगुना रही थी। सुबह उसकी सहज संज्ञा ने उसे बताया था कि वह माँ बनने वाली है। वह पति को यह समाचार देने को उत्सुक थी। वह मगन मन सफ़ाई कर रही थी, उसका हाथ लगने से अलमारी का पल्ला खुल गया। नारायणदत्त अलमारी में ताला लगाना भूल गए थे। अलमारी खुली देखकर गायत्री पल्ला बंद करने जा रही थी कि उसकी दृष्टि गहनों के डिब्बे पर पड़ी। उसके मन में गहने देखने की उत्सुकता जाग उठी, आख़िरकार ये उसके गहने थे। उसमें उसकी माँ के गहने थे जिन्हें वह मायके से अपने साथ लाई थी, जिन पर उसका अधिकार था। उसमें उसकी सास के गहने थे, पता नहीं वह बेचारी कभी उन्हें पहन पाई होगी या नहीं। सास के गहने भी उसीके हैं। ये उसका स्त्रीधन हैं, वह उनकी स्वामिनी है। ये उसे विरासत में मिले हैं। उसके हृदय में अधिकार की, स्वामित्व की भावना सिर उठा रही थी। उसने डिब्बा अलमारी से निकालकर पलंग पर रख लिया। उसके हाथ काँप रहे थे मानों चोरी कर रही हो। उसने काँपते हाथों से डिब्बा खोला। ढेर सारे गहने उसकी आँखों में झिलमिला उठे।

अगर वह गहने पहन ले तो क्या होगा? उसे सजी सँवरी देखकर पति की क्या प्रतिक्रिया होगी? और जब वह उन्हें शुभ समाचार देगी तो वे कैसा व्यवहार करेंगे? अभी उनके लौटने में काफ़ी दिन बाकी थे, वह चाहती थी वे अभी आ जाएँ और वह उन्हें यह मंगल सूचना दे दे। उसने पाजेब निकाली और पाँव में पहन ली, पाँव खिल उठे। हाथों में चूड़ियाँ और कंगन डाल लिए, कलाई विहंस उठी। गले में सतलड़ा हार डालते दमक मुँह तक पहुँच गई। वह गहनों का डिब्बा लिए शृंगार मेज के सामने पहुँच गई। शीशे में देखकर झुमके पहन लिए, माँगटीका बालों में अटका लिया। नथ पहनने में दिक्कत आई, काफ़ी दिनों से कुछ न पहनने से छेद मुँद चला था पर जल्द ही नथ की कील उसमें चली गई, उसकी नाक लाल हो गई, आँखों में पानी आ गया, लेकिन नथ की लटकन ने होंठों पर सिहरन पैदा कर दी। वह स्वयं को दर्पण में निहारने लगी। मातृत्व की सुगबुगाहट ने उसके चेहरे पर गज़ब की लुनाई ला दी थी। दर्पण में देखती, ऊपर से नीचे तक गहनों से सजी गायत्री को देखकर वह मुग्ध हो गई, कितनी सुंदर लग रही थी वह।

तभी दरवाज़े की कुंडी खड़की। गायत्री कुंडी की इस आवाज़ से भली-भाँति परिचित थी उसका दिल धक्क से रह गया। उसे मालूम है कि यदि पहली आवाज़ में द्वार न खुले तो नारायणदत्त को क्रोध आ जाता है। वह पीपल के पत्ते की भाँति काँप रही थी मगर उसने पक्का कर लिया कि वह गहने पहने रहेगी। गहने पहने हुए वह द्वार खोलेगी और जो भी होगा उसका सामना करेगी। वह धड़कते दिल से कुंडी खोलने गई और कुंडी खोलकर सामने से ज़रा हटकर खड़ी हो गई। आज उसने पति की आँखों में आँख डालकर देखा, कितना कुछ था उसकी आँखों में। नारायणदत्त अपनी आँखों पर पतिया न सके। उनका पारा चढ़ गया। गायत्री की इतनी हिम्मत कि वह उनकी आज्ञा का उल्लंघन करे। फिर जब वे थे नहीं तो उनकी अनुपस्थिति में ये सजावट किसके लिए? क्यों यह शृंगार-पटार? वे स्वयं को काबू में न रख सके हाथ छोड़ बैठे।

नारायणदत्त बराबर हंटर फटकारते थे पर यह पहला अवसर था जब उन्होंने गायत्री पर हाथ उठाया था। गायत्री को इससे पहले किसी ने कानी अँगुली से भी नहीं छूआ था। आज भी उसे शरीर से ज़्यादा उसकी उसकी आत्मा पर चोट लगी थी। शाम तक उसे ज्वर हो आया, जो रात के साथ बढ़ता गया। वह बाई में बड़बड़ाने लगी, "दरवाज़ा खोल दो, खिड़की खोल दो।" कभी कहती, "गहने रख दो।" और भी काफ़ी कुछ असंबद्ध बोलती रही। दूसरे दिन भी जब ज्वर नहीं उतरा तो नारायणदत्त वैद्य जी को ज्वर की बात बता कर दवा ले आए। दवा का कोई असर नहीं हुआ। गायत्री ज्वर में तपती रही, तड़पती रही, बड़बड़ाती रही। तीसरे दिन उसकी देह अकड़ने लगी और रात भर तड़प कर चौथे दिन भोर में वह मोहमाया से छूट गई। सुहागन मरी थी गायत्री।

और अब नारयणदत्त विक्षिप्तावस्था में गहने बिखेरे बैठे थे और चारों ओर से गायत्री चली आ रही थी, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई, मुस्कुराती हुई।

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१ अगस्त २००५

 
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