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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से प्रवीण पंडित की कहानी— 'कबीरन बी'


कबीरन बी का असली नाम मैं भूल गया।
सच तो यह है कि अपना असली नाम खुद कबीरन को भी याद नहीं रहा होगा।
जाँच-परख करनी हो तो कोई अल्लादी के नाम से आवाज़ लगा कर देख ले। कबीरन न देखेगी, न सुनेगी और ना ही पलटेगी। अगल-बगल झाँके बिना सतर निकलती चली जाएगी, जैसे अल्लादी से उसका कोई वास्ता ही ना हो।
शक नहीं कि कबीरन बी का असली नाम- यानि अब्बू का दिया हुआ नाम अल्लादी ही था। अब पैदायशी नाम-ग्राम पर तो किसी का ज़ोर ही क्या? लेकिन जिस घड़ी अल्लादी ने बातों को समझना शुरू किया, उसे लगने लगा था कि वो सिर्फ़ अल्लादी नहीं है।

ये बात दीगर है कि यह समझ उसे ज़रा जल्दी पैदा हो गई। वैसे वो जो पूरी-पूरी दोपहरी महामाई के थान पर जाकर बैठती थी, कोई सोची समझी बात नहीं थी। बस बैठती थी, लेकिन करती क्या थी? लोग कहते हैं कि कभी गाती- कभी गुनगुनाती।
कभी-कभी थान की दीवार से टेक लेकर घंटों गुमसुम खुले आसमान को निहारती। बे-खबर, बे-सबब।
तौबा- कभी-कभी तो साँझ ढले जोत-बत्ती भी कर देती।

अब्बू कहाँ तर बर्दाश्त करते? सो, एक दिन थान पर ही जा घेरा अल्लादी को।

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